________________
[२२]
सक्क के इस प्रकार कहते-कहते उसे विरज, विमल धर्म-चक्षु उत्पन्न हुआ- 'जो कुछ समुदयधर्मा है, वह सब निरोधधर्मा है ।' और अन्य अस्सी हजार देवताओं को भी।
९. महासतिपट्टानसुत्त
एक समय भगवान कुरु-प्रदेश में कुरुओं के निगम कम्मासधम्म में विहार करते थे। उस समय भिक्षुओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि ये जो चार स्मृति-प्रस्थान हैं वे सत्वों की विशुद्धि, शोक और क्रंदन का विनाश, दुःख और दौर्मनस्य का अवसान, सत्य की प्राप्ति, निर्वाण का साक्षात्कार - इन सब के लिए अकेला मार्ग है।
चार स्मृति-प्रस्थान हैं - लोलुपता और दौर्मनस्य को दूर कर, स्मृति और संप्रज्ञान के साथ, उद्योगशील हो, काया में कायानुपश्यी हो कर विहरना, और ऐसे ही वेदनाओं में वेदनानुपश्यी हो कर, चित्त में चित्तानुपश्यी हो कर और धर्मों में धर्मानुपश्यी हो कर विहरना ।
'कायानुपश्यना' के लिए भिक्षु किसी निर्जन स्थान पर जा कर पालथी मार, शरीर को सीधा रख, मुख के इर्द-गिर्द जागरूकता बनाये रख, नैसर्गिक तौर पर आने जाने वाले श्वास को जानने का काम शुरू करता है। फिर सारी काया को अनुभव करते हुए, और तदुपरांत काया पर होने वाले उपद्रवों के शांत होने पर, श्वास लेना वा छोड़ना सीखता है। इस प्रकार काया के भीतरी अथवा बाहरी; अथवा भीतरी और बाहरी दोनों प्रकार के भागों में कायानुपश्यना करता हुआ विहार करता है, काया में उदय अथवा व्यय; अथवा उदय के साथ-साथ व्यय होने वाले धर्मों का अनुपश्यी हो कर विहार करता है । तब ‘यह काया है !' – इस पर जागरूकता स्थिर हो जाती है। जितनी देर तक इस प्रकार का केवल ज्ञान, केवल दर्शन बना रहता है उतनी देर तक अनासक्त हो कर विहार करता है और संसार में कुछ भी ग्रहण करने योग्य नहीं रहता । इस प्रकार काया में कायानुपश्यी हो कर विहार करना होता है।
फिर केवल बैठे-बैठे ही नहीं, चलते-फिरते, खड़े रहते, लेटे-लेटे अथवा शरीर की अन्य अवस्थाओं में भी, इन अवस्थाओं को यथाभूत जानते हुए, कायानुपश्यना की जाती है। और फिर इससे भी आगे बढ़ कर हर प्रकार की शारीरिक क्रिया में संप्रज्ञान बनाये रख कर कायानुपश्यना करनी होती है। शरीर के भीतर अशुचि याने प्रतिकूल विषयों को आलंबन बना कर उक्त प्रकार से कायानुपश्यना करनी होती है।
'वेदनानुपश्यना' करते समय जैसी भी वेदना अनुभव हो - सुखद, दुःखद, अदुःखद-असुखद,
_32
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org