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नैव-संज्ञा-न-असंज्ञा आयतन का सर्वथा अतिक्रमण कर संज्ञा-वेदयित-निरोध को प्राप्त हो कर विहार करने लगे।
इसके बाद भगवान ने महावन की उपस्थानशाला में भिक्षुओं को संबोधित करते हुए कहा कि मैंने स्वयं जान कर जो धर्म उपदिष्ट किया है उसे अच्छी तरह सीख कर उसका सेवन, भावन, संवर्धन करना जिससे यह ब्रह्मचर्य चिरस्थायी हो, बहुत लोगों का हितकारक, बहुत लोगों का सुखकारक, लोकों का अनुकंपक और देवों तथा मनुष्यों के अर्थ, हित और सुख के लिए हो । ये धर्म हैं - चार स्मृति-प्रस्थान, चार सम्यक-प्रधान, चार ऋद्धि-पाद, पांच इन्द्रिय, पांच बल, सात बोध्यंग और आर्य अष्टांगिक मार्ग।
भगवान ने उन्हें यह भी कहा कि सारे संस्कार व्ययधर्मा हैं, प्रमादरहित हो इस सच्चाई का संपादन करो। उन्होंने उनको तीन माह बाद अपना परिनिर्वाण होने की सूचना भी दी।
फिर वेसाली को छोड़ भोगनगर पहुँच कर भगवान ने भिक्षुओं को चार महाप्रदेशों का उपदेश दिया । इसमें उन्होंने यह समझाया कि यदि कोई व्यक्ति किसी का भी हवाला देकर यह कहे कि 'यह धर्म है, यह विनय है, यह शास्ता का उपदेश है,' तो बिना इस उक्ति का अभिनंदन किये. बिना इसकी निंदा किये इसकी तुलना सूत्र से कर लेनी चाहिए और विनय को देख जाना चाहिए । यदि यह इनसे मेल खाये, तो इसे सु-गृहीत जानें, अन्यथा दुर्गृहीत ।
__ वहां से भगवान पावा पहुँचे जहां पर उन्होंने कर्मार-पुत्र चुन्द के आमंत्रण पर उसके यहां भोजन किया । इस भोजन को खाकर उन्हें खून गिरने की कड़ी बीमारी उत्पन्न हुई और मरणान्तक पीड़ा होने लगी। उसे उन्होंने स्मृति और संप्रज्ञान से युक्त हो, बिना दुःखित हुए, सहन कर लिया। वहां से उन्होंने कुसिनारा की ओर प्रस्थान किया । मार्ग में ककुधा नदी में स्नान कर जहां आम्रवन था वहां गये और यह घोषणा की कि आज रात के पिछले पहर कुसिनारा के उपवत्तन नामक मल्लों के शालवन में जुड़वां शाल-वृक्षों के बीच वे परिनिर्वाण-लाभ करेंगे।
वहां से आगे प्रस्थान करने से पूर्व भगवान ने आनन्द से कहा कि शायद कोई करि-पुत्र चुन्द को चिंतित करे कि तूने अ-लाभ कमाया है जैसा कि तेरा पिंडपात खा कर तथागत परिनिर्वाण को प्राप्त हुए हैं । तुम उसकी चिंता को यह कह कर दूर करना कि मैंने स्वयं भगवान के मुख से सुना था कि 'दो पिंडपात समान फल वाले हैं, दूसरे पिंडपातों से बहुत ही महाफलप्रद हैं। कौन से दो? १.जिस पिंडपात का भोजन कर तथागत अनुत्तर सम्यक संबोधि को प्राप्त हुए, और २.जिस पिंडपात का भोजन कर तथागत अनुपाधिशेष निर्वाणधातु को प्राप्त हुए।'
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