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होती है, अन्य दो प्रकार की नहीं; और ये सब अनित्यधर्मा भी हैं; तो जो कोई जिस किसी वेदना को आत्मा मान लेता है वह थोड़ी ही देर में निरुद्ध हो जाती है और तब ऐसे लगने लगता है कि मेरी आत्मा तो चली गई। दूसरे प्रकार के चिंतन में यह दोष है कि जहां अ-प्रतिसंवेदन है अर्थात, कुछ भी अनुभव नहीं होता, वहां 'मैं हूं'- ऐसा नहीं कह सकते । तीसरे प्रकार के चिंतन में यह दोष है कि यदि सारी-की-सारी वेदनाएं सर्व प्रकार से सर्वथा नष्ट हो जाएं तो वेदनाओं के सर्वथा निरुद्ध हो जाने से 'मैं हूं' - ऐसा कह पाना संभव नहीं रहता ।
परंतु जो व्यक्ति न वेदना को आत्मा समझता है, न अ-प्रतिसंवेदन को, और न ही इसे वेदना-धर्म वाला मानता है. वह लोक में किसी को 'मैं और मेरा' करके ग्रहण नहीं करता. ग्रहण न करने वाला होने से त्रास नहीं पाता, त्रास न पाने से स्वयं परिनिर्वाण को प्राप्त होता है । तब वह अपनी प्रज्ञा से जान लेता है -- 'जन्म क्षीण हुआ, ब्रह्मचर्य पूरा हुआ, जो करना था सो कर लिया, अब इससे परे करने को कुछ रहा नहीं ।' ऐसा व्यक्ति संसार में जितने भी अधिवचन, वचन-व्यवहार, निरुक्ति, भाषा-व्यवहार, प्रज्ञप्ति, प्रज्ञप्ति-व्यवहार, ज्ञान, ज्ञान के जो विषय होते हैं उन्हें जान कर मुक्त होता है। ऐसे व्यक्ति के लिए यह कहना अ-युक्त होता है- 'नहीं जानता है, नहीं देखता है, यह इसका दर्शन है।'
तदनंतर भगवान ने यह समझाया कि 'प्रज्ञा-विमुक्त' कौन कहलाता है। प्रज्ञा-विमुक्त वह होता है जो सात प्रकार की विज्ञान की स्थितियों और दो प्रकार के आयतनों के समुदय, अवसान, आस्वाद, परिणाम तथा निस्सरण को यथाभूत जान कर उपादानों को ग्रहण न करते हुए मुक्त होता है। विज्ञान की सात स्थितियां हैं- १.नाना काया- नाना संज्ञा, २.नाना काया- एक संज्ञा, ३.एक काया- नाना संज्ञा, ४.एक काया- एक संज्ञा, ५.आकाश- आयतन, ६.विज्ञान- आयतन, ७.आकिंचन्य - आयतन । दो आयतन हैं- १. असंज्ञि-सत्व-आयतन अर्थात, संज्ञारहित सत्वों का आवास, और २.नैव-संज्ञा-न-असंज्ञा-आयतन अर्थात, न तो संज्ञा वाला और न ही अ-संज्ञा वाला आयतन ।
भगवान ने आठ विमोक्ष भी गिनवाये हैं। इनमें से आठवें विमोक्ष के अंतर्गत कोई व्यक्ति नैव-संज्ञा-न-असंज्ञा-आयतन का अतिक्रमण कर संज्ञा-वेदयित-निरोध की अवस्था, जिसमें संज्ञा और वेदना का पूर्णतया निरोध हो जाने से सर्व प्रकार का लोकीय अनुभव भी निरुद्ध हो जाता है, प्राप्त कर विहरने लगता है। जब आठों विमोक्षों को अनुलोम अर्थात, १ से ८, प्रतिलोम अर्थात, ८ से १, तथा अनुलोम - प्रतिलोम अर्थात, १ से ८, फिर ८ से १, जहां चाहता है, जब चाहता है, जितना चाहता है उतनी समाधि प्राप्त कर उठ खड़ा होता है, और आम्रवों के क्षय से इसी जन्म में
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