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आम्नव-रहित चित्त की मुक्ति, प्रज्ञा-विमुक्ति को स्वयं जान कर, साक्षात्कार कर, प्राप्त हो विहरता है, तब वह 'उभयतोभाग-विमुक्त' कहलाता है।
३. महापरिनिब्बानसुत्त
एक समय भगवान राजगह में गिज्झकूट पर्वत पर विहार करते थे। उस समय मगध का राजा अजातसत्तु वज्जी पर आक्रमण कर उसे तहस-नहस करना चाहता था। इस बारे में भगवान का मत जानने के लिए उसने अपने ब्राह्मण मंत्री को उनके पास भेजा । भगवान ने उसे बतलाया कि एक समय मैंने वज्जियों को सात अपरिहाणीय धर्म कहे थे। जब तक वे इन धर्मों का पालन करते रहेंगे तब तक उनका उत्कर्ष ही होगा, अपकर्ष नहीं । ब्राह्मण के चले जाने पर भगवान ने भिक्षुओं को भी प्रकार प्रकार से अपरिहाणीय धर्मों की जानकारी दी जिससे उनका भी उत्कर्ष हो, अपकर्ष नहीं।
विहार के समय भगवान प्रायः यही धर्म-कथा कहा करते थे- 'यह शील है, यह समाधि है, यह प्रज्ञा है। शील से परिभावित समाधि महाफलदायी होती है। समाधि से परिभावित प्रज्ञा महाफलदायी होती है। प्रज्ञा से परिभावित चित्त आसवों- कामानव, भवानव, अविद्यानव-से भली प्रकार मुक्त हो जाता है।'
कुछ समय पश्चात भगवान के जीवन की अंतिम यात्रा प्रारंभ हुई। वे अम्बलट्ठिका होते हुए नाळन्दा पहुंचे जहां सारिपुत्त ने उनके प्रति बड़ी उदार वाणी कही कि संबोधि में उनसे बढ़कर न कोई हुआ है, न होगा, न है। (इस बारे में देखिए 'सम्पसादनीय-सुत्त' - दीघ०३-५)। वहां से पाटलिगाम पहुँच कर भगवान ने गृहस्थों को दुराचार के पांच दुष्परिणाम और सदाचार के पांच सपरिणाम गिनाये। उन्हीं दिनों वज्जिओं की रोक-थाम के लिए इस ग्राम में एक बड़ा नगर बसाने का काम भी चल रहा था । इसे देख भगवान ने कहा कि जितने भी आर्यों के निवास हैं और जितने भी व्यापारिक मार्ग हैं, उनमें यह पाटलिपुत्त प्रधान नगर होगा, पर इसके तीन शत्रु होंगे- आग, पानी और आपस की फूट ।
वहां से कोटिगाम पहुँच भगवान ने भिक्षुओं से कहा कि चार आर्य-सत्यों का यथाभूत दर्शन न करने से ही इस संसार में आवागमन का क्रम चलता आ रहा है। जब इन्हें (विपश्यना द्वारा) देख लेते हैं तब भव-रज्जु (तृष्णा) नष्ट हो जाती है और दुःख की जड़ कट जाने से पुनर्जन्म नहीं होता | फिर नातिका पहुँच उन्होंने 'धर्म-आदर्श' नाम का उपदेश दिया जिससे युक्त हुआ आर्यश्रावक अपनी आगे की गति स्वयं जान सकता है।
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