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महागोविन्द ने एक-एक करके मैत्री, करुणा, मुदिता तथा उपेक्षा-युक्त चित्त से सभी दिशाओं को आप्लावित किया और अपने श्रावकों को ब्रह्म-लोक का मार्ग बतलाया । उनमें से जिन्होंने धर्म को जान लिया, वे मर कर ब्रह्म-लोक में उत्पन्न हुए | जो धर्म को पूरी तरह नहीं समझ पाये, वे मर कर परनिम्मितवसवत्ती, निम्मानरति, तुसित, यामा, तावतिंस अथवा चातुमहाराजिक देवलोक में उत्पन्न हुए। जिन्होंने सब से हीन शरीर पाया, वे गन्धब्ब-लोक में उत्पन्न हुए । इस प्रकार उन सभी कुलपुत्रों की प्रव्रज्या सार्थक हुई।
भगवान ने पञ्चसिख से कहा, "मैं ही उस समय का महागोविन्द ब्राह्मण था। मैंने ही उन श्रावकों को ब्रह्मलोक का मार्ग बतलाया था । मेरा वह ब्रह्मचर्य न निर्वेद के लिए, न विराग के लिए, न निरोध के लिए, न परम शांति के लिए, न ज्ञान-प्राप्ति के लिए, न संबोधि के लिए और न निर्वाण के लिए था। वह केवल ब्रह्म-लोक की प्राप्ति के लिए था । परंतु मेरा यह ब्रह्मचर्य निर्वेद, विराग, निरोध, परम शांति, ज्ञान-प्राप्ति, संबोधि और निर्वाण के लिए है। और इस ब्रह्मचर्य का आधार है यही 'आर्य अष्टांगिक मार्ग' – सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कर्मांत, सम्यक
, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि ।"
भगवान ने आगे कहा कि जो मेरे श्रावक पूरा पूरा धर्म जानते हैं वे आम्नवों के क्षय होने से, आस्रव-रहित चित्त की विमुक्ति, प्रज्ञाविमुक्ति को इसी जन्म में स्वयं जान कर, साक्षात्कार कर, विहार करते हैं, और जो पूरा पूरा धर्म नहीं जानते वे औपपातिक, सकदागामी अथवा सोतापन्न हो जाते हैं। ऐसे सभी कुलपुत्रों की प्रव्रज्या सार्थक हो जाती है।
तत्पश्चात पञ्चसिख भगवान के कथन का अभिनंदन कर और उनकी प्रदक्षिणा कर वहां से अंतर्धान हो गया। **
७. महासमयसुत्त
एक समय भगवान अरहंत-अवस्था प्राप्त पांच सौ भिक्षुओं के एक बड़े संघ के साथ शाक्यदेश में कपिलवत्थु के महावन में विहार कर रहे थे। उस समय उनका दर्शन करने के लिए दसों लोकधातुओं के बहुत से देवता एकत्र हुए । यह देख चारों सुद्धावास लोक के देवता भी वहां पर चले आये और उन्होंने भगवान के सन्मुख अपनी-अपनी गाथाएं कहीं।
तत्पश्चात भगवान ने भिक्षुओं को कहा कि इन सब देवशरीरधारियों को विवेकपूर्वक जान
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