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तब आनन्द ने कुसिनारा में जाकर वहां के निवासियों को उनके क्षेत्र में तथागत के होने वाले महापरिनिर्वाण की जानकारी दी। इस पर बहुत से लोग उनके दर्शनार्थ चले आये और उनकी वंदना की। इसी बीच सुभद्द नाम का परिव्राजक भी वहां पर चला आया। वह धर्म के बारे में अपना कुछ संशय दूर करना चाहता था । पर आनन्द ने यह कह कर उसे भगवान के समीप जाने से रोक दिया कि वे इस समय थके हुए हैं, उन्हें कष्ट मत दो । इन दोनों का कथा-संलाप सुन भगवान ने परिव्राजक को अपने पास बुला उसे धर्मोपदेश दिया और उसके संशय का निवारण किया । भगवान ने उसे बतलाया कि जिस धर्म-विनय में आर्य अष्टांगिक मार्ग उपलब्ध नहीं होता, वहां न सोतापन्न है, न सकदागामी, न अनागामी, न अरहंत । जिस धर्म-विनय में आर्य अष्टांगिक मार्ग उपलब्ध होता है वहां सोतापन्न भी होता है, सकदागामी भी, अनागामी भी और अरहंत भी । यदि भिक्षु ठीक से विहार करें तो लोक अरहंतों से शून्य न हो। कालांतर में प्रव्रज्या, उपसंपदा पा यह परिव्राजक अरहंत हुआ । यही सुभद्द भगवान का अंतिम शिष्य हुआ।
महापरिनिर्वाण प्राप्त करने से पूर्व भगवान ने आनन्द से कहा कि शायद तुम्हें ऐसा लगे कि हमारे शास्ता चले गये, अब हमारे शास्ता नहीं हैं - ऐसा मत सोचना | मैंने जो धर्म और विनय प्रज्ञप्त किये हैं, वे ही मेरे बाद तुम्हारे शास्ता होंगे । फिर उन्होंने भिक्षुओं को भी अंतिम बार संबोधित करते हुए कहा कि सभी संस्कार अनित्य हैं, अ-प्रमाद के साथ इस सच्चाई का संपादन करो अर्थात, इसे अनुभूति पर उतारो । यही भगवान का अंतिम वचन था ।
तत्पश्चात भगवान ध्यानावस्थित हो महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए। इसके साथ ही भीषण, लोमहर्षक महाभूचाल हुआ । देवेंद्र सक्क (शक्र) ने गाथा कही - 'संस्कार (कृत वस्तुएं) अ-नित्य हैं, उत्पाद-व्यय स्वभाव वाले हैं, उत्पन्न हो-होकर नष्ट होते रहते हैं, इनका नितांत उप-शमन ही (वास्तविक) सुख है।'
स्तूप-निनाथागत के शरीर की दाह-क्रिया
तथागत के शरीर की दाह-क्रिया के पश्चात प्रदेशों के शासक उनकी अस्थियों को बटोर उन्हें स्तूप-निर्माण के लिए ले गये ।
. ४. महासुदस्सनसुत्त भगवान अपने परिनिर्वाण के समय कुसिनारा के पास उपवत्तन नाम के मल्लों के शाल-वन में दो शाल-वृक्षों के बीच विहार कर रहे थे। उस समय आनन्द ने उनसे कहा यदि आप इस छोटे से नगले के स्थान पर चम्पा, राजगह, सावत्थी, साकेत, कोसम्बी, बाराणसी जैसे किसी महानगर में
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