Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
Catalog link: https://jainqq.org/explore/538045/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिरका त्रैमासिक अनकान्त (पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वर्ष ४५ कि.१ जनवरी-मार्च १९६२ इस अंक में विषय १. परम दिगम्बर गुरु २. कर्नाटक मे जनधर्म-श्री राजमल जैन, दिल्ली ३. अपभ्रंश भाषा के प्रमुख जैन साहित्यकार. -श्री जिनमती जैन एम.ए., वैशाली ४. जनधर्म एवं संस्कृति के संरक्षण तथा विकास मे तत्कालीन राजघरानो का योगदान -श्री डा. कमलेश जैन, वाराणसी ५. साहु जीवराज पापडीवाल ~श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली ६. कवि बुलाकी दास : एक परिचय -श्री उषा जैन एम. ए., कस राबद ७. भट्टारक हषकीति के पद -डा० गगाराम गर्ग 5. पुष्पदन्तकृत-जसहरचरिउ में दार्शनिक समीक्षा -थी जिनेन्द्र जैन, लाडन ६.या० श्री विद्यासागर का रस-विषयक मन्तव्य -डा. रमेशचन्द जैन १०. पूज्य बड़े वर्णीजी का एक प्रवचन कवर पृ०२ । ११. ग्राह्य मान-कण प्रकाशक : वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य बड़े वर्णी जी का एक प्रवचन संसार भर की दशा बड़ी विचित्र है। कल का करोड़पति आज भीख मांगता फिरता है। संसारी जीव मोह के कारण अन्धा होकर निरन्तर ऐसे काम करता है जिससे उसका दुःख हो बढ़ता है। यह जोव अपने हाथों अपने कन्धे पर कुल्हाड़ी मार रहा है। यह जितने भी काम करता है प्रतिकूल ही करता है। संसार की जो दशा है, यदि चतुर्थकाल होता तो उसे देखकर हजारों आदमो दीक्षा ले लेते। पर यहाँ कुछ परवाह नहीं है। चिकना घड़ा है जिस पर पानी को बूंद ठहरती हो नहीं। भय्या! मोह को छोड़ो, रागादि भावों को छोड़ो, यही तुम्हारे शत्र है, इनसे बचो। वस्तुतत्त्व की यथाथता को समझो। श्रद्धा को दढ़ राखो। धनंजय सेठ के लड़के को सांप ने काट लिया, बेसुध हो गया। लोगों ने कहा--वैद्य आदि को बुलाओ, उन्होंने कहा वैद्यो से क्या होगा? दवाओं से होगा? मंत्र-तंत्रों से क्या होगा? एक जिनेन्द्र का शरण ही ग्रहण करना चाहिए। मन्दिर में लड़के को ले जाकर सेठ स्तुति करता है : - "विषापहारं मणिमौषधानि मन्त्रं समाद्दिश्य रसायनं च । भ्राम्यन्यहो न त्वमिति स्मरन्ति पर्यायनामानि तवैव तानि ।।" इस श्लोक के पढ़ते ही लडका अच्छा हो गया। लोग यह न समझने लगे कि:----धनंजय ने किसी वस्तु को आकांक्षा से स्तोत्र बनाया था, इसलिए वह स्तव के अन्त में कहते हैं :--- "इति स्तुति देव ! विधाय दैन्याद्वरं न याचे त्वमपेक्षकोऽसि । छाया तरुं संश्रयतः स्वतः स्यात्कश्छायया याचितयात्मलामः ।।" हे देव ! आपका स्तवन कर बदले में मैं कुछ चाहता नहीं हूँ और चाहूँ भी तो आप दे क्या सकते है ? क्योंकि आप उपेक्षक है-आपके मन में यह विकल्प ही नहीं कि यह मेरा भक्त है इसलिए इसे कुछ देना चाहिए। फिर भी यदि मेरा भाग्य होगा तो मेरी प्रार्थना और आपको इच्छा के बिना ही मझे प्राप्त हो जायगा। छायादार वृक्ष के नीचे पहुंचकर छाया स्वयं प्राप्त हो जाती है। आपके आश्रय में जो आयेगा उसका कल्याण अवश्य होगा। आपके आय से अभिप्राय शद्ध होता है अभिप्राय को शुद्धता से पापात्रव रुककर शमास्रव होने लगत है। वह शुमास्त्रव ही कल्याण क.. कारण है। देखो! छाया किसको है ? आप कहोगे वदा की, पर वक्ष तो अपने ठिकाने पर है। वक्ष के निमित्त से सूर्य की किरणें रुक गयीं, अतः पथिवी में वैसा परिणमन हो गया. इगो प्रकार कार गकूट मिलने पर आत्मा में रागादि भावरूप परिणमन हो जाता है। जिस प्रकार छायारूप हाना आत्मा का निजस्वभाव नहीं है। यही श्रद्धान होना तो शद्धात्मश्रद्धान है-- सम्यग्दर्शन है । आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० १० वाषिक मूल्य : ६) २०, इस अफ का मूल्य : १ रूपया ५० पैसे Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ans Khilway परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष ४५ किरण १ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण सवत २५१६, वि० सं० २०४६ । जनवरी-मार्च १९६२ परम दिगम्बर-गुरु बसत उर गुरु निरग्रंथ हमारे। प्रजली ध्यान अगिनि जिनके घट विकट मदन वन जारे। तजि चौबीस प्रकार परिग्रह पंच महावत धारे। पंच समिति गुपति तीन नयायुत व्रस थावर रखवारे । शुद्धोपयोग योग परिपूरन अधरम चूरन हारे। रत्नत्रय मण्डित तप संजम सहित दिगम्बर धारे। भूख तृषादिक सहत परीषह तीन भवन उजियारे। . मन वच काय निरोध सोधि तिन भवम्रम सब तजि डारे। स्व पर दया सुख सिंधु गुनाकर सील धुरंधर धारे। 'देवियदास' गह्यो तिनको पथ तिन्हि तिन्हि तें सब तारे ॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतांक से आगे: कर्नाटक में जैन धर्म 0 श्री राजमल जैन, जनकपुरी, दिल्ली प्राजकल की हम्पा में लगभग २६ कि. मी. के घेरे उपयुक्त वंश का सबसे प्रसिद्ध नरेश कृष्ण देवराय में विखरे पड़े जैन-अजैन स्मारकों, महलों और साथ ही (१५०१-३६ ई. हआ है जो कि रणबीर होने के साथ बहने वाली तुंगभद्रा का परिचय इसी पुस्तक में दिया गया ही साथ धर्मवीर भी था। उसने बल्लारी जिले के एक है । वहीं इस स्थान का रामायण काल से इतिहास प्रारंभ जिनालय को दान दिया था और मूडबिद्री की गुरु बसदि कर विजयनगर साम्राज्य का इतिहास और जैनधर्म के के लिए भी स्थायी वृत्ति भी दी थी। एक शिलालेख में प्रति बिजयनगर शासकों का दृष्टिकोण, उनके सेनापतियो उसने स्याद्वादमत और जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करने आदि द्वारा विजयनगर मे ही कुन्थुनाथ चैत्यालय । . के साथ ही वराह को भी नमस्कार किया है। निक नाम गण गित्ति बसदि) आदि मन्दिरो के निर्माण का कालान्तर मे इस वंश का राज्य भी मुसलमानों के उल्लेख किया गया है। इस वश के द्वितीय नरेश बुक्का- सम्मिलित आक्रमण का शिकार हुआ। राजधानी विजयराय प्रथम (१३६५-७७ ई.) ने जैनों (भब्यों) और वैष्णवो नगर पांच माह तक लूटी और जलाई गई । अनेक मन्दिर (भक्तो) के बीच जिस ढंग से विवाद निपटाया उसका मतियां नष्ट हो गए। विजयनगर के विध्वम के बाद भी सूचक शिलालेख कर्नाटक के धार्मिक एवं राजनीतिक इसके वंशज चन्द्रगिरि से १४६५ ई. से १६८४ ई. तक इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। उसमे श्रवण- राज्य करते रहे। उनके समय में भी हेग्गरे की वसदि, बेलगोल की रक्षा और जीणोंद्वार आदि को भी व्यवस्था मत्तर की अनन्तजिन बसदि और मलेयूर की पार्श्वनाथ की गई थी। आगे चलकर शासक देवराय की पत्नी ने बसदि का निर्माण या जीर्णोद्धार इन राजाओं के उपश्रवणबेल ल मे 'मंगायीवसदि' का निर्माण कराया था। शासको या महालेखाकार आदि ने करवाया था। संगम राजा देवराय द्वितीय (१४१६-४६ ई.) तो कारकल विजयनगर के (हम्पी) के जैन स्मारकों, जैनधर्म के मे गोमटेश्वर की ४१ फुट ५ इच ऊची प्रतिमा के इस क्षेत्र का प्राचीन इतिहास और विजयनगर शासको, प्रतिष्ठा-महोत्सव में सम्मिलित हुमा था। विजयनगर में उनके सेनापतियों आदि का जैनधर्म से सम्बन्ध आदि इस वंश से पहले भी जैन मन्दिर थे, खुदाई मे दो मन्दिर विवरण के लिए इसी पुस्तक मे 'हम्पी' देखिए । और भी निकले बताए जाते हैं। स्वय इस कुल के राम मंसर का ओडेयर राजवंश : मन्दिर मे तीर्थंकर प्रतिमाएं उत्कीणं हैं । यह ठीक है कि कर्नाटक पर शासन करने वाले गजवंशो में अन्तिम यह वंश जैन नहीं था किन्तु इसके परिवार के कुछ सदस्य एवं सुविदित नाम ओडेयर राजवश का है। आधुनिक जिनधर्मावलम्बी, उसके प्रति उदार, सहिष्णु और पोषक मंसूर (प्राचीन महिशूर, मैसूरपट्टन) इस वंश की राजथे इसमे सन्देह नही। मन्त्री, सेनापति मे से कुछ जैन थे धानी रही। इतिहासकारो का मत है कि यह वंश भी उस और उन्होंने जैन मन्दिरों का निर्माण या जीणोद्धार गगवंश की ही एक शाखा है जो जैनधर्म के अनुयायी के कराया था। राजा देवराज द्वितीय (१४१६-४६ ई.) के रूप में कर्नाटक के इतिहास में प्रसिद्ध है। कालान्तर में सम्बन्ध मे यह उल्लेख मिलता है कि उसने विजयनगर के इस वश ने अन्य धर्म स्वीकार कर लिया किन्तु इसके 'पान-सुपारी' बाजार मे एक चैत्यालय बनवाकर उसमे शासको ने श्रवणबेलगोल को हमेशा आदर की दृष्टि से पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान की थी। देखा और उसका सरक्षक बना रहा। स्वतन्त्रता-पूर्व तक Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नाटक में जैन धर्म वे महामस्तकाभिषेक में सम्मिलित होते रहे। मैसूर नरेशों की गोम्मटेश्वर-भक्ति का विशेष परिओडेयर वश से सम्बन्धित सबसे प्राचीन शिलालेख चय अनेक पुस्तकों में उपलब्ध है। १६३४ ई. का है। उममे उल्लेख है कि जिन महाजनों ने टीप: श्रवणबेलगोल की जमीन-सम्पत्ति गिरवी रख ली थी, उसे हैदर अली और टीपू सुल्तान ने भी अपनी राजधानी तत्कालीन मैसरनरेश चामराज ओडेयर ने स्वयं कर्ज चुका श्रीरंगपटन से राज किया। उन्होंने श्रवणबेलगोल के कर छुड़ाने की घोषणा की। इस पर महाजनो ने भूमि मन्दिरों और गोम्मटेश्वर की मूर्ति को हानि नहीं पहुंचाई। आदि कर्ज से स्वय मुक्त कर दी। इस पर नरेश ने शिला. टीपू सुलतान ने तो गोम्मटेश्वर को नमन भी किया लेख लिखवाया कि जो कोई भी इस क्षेत्र को जमीन गिरवी । आदि रखने का कार्य करेगा वह महापाप का भागी होगा स्वतन्त्रता प्राप्ति क बाद : और समाज से बहिष्कृत माना जायगा । मैसूर के ओडेयर वंश की सत्ता समाप्त होकर प्रजा तान्त्रिक कर्नाटक सरकार बनी। उसके मुख्यमन्त्रियों ___ 'मुनिवंशाम्युदय' नामक एक कन्नड़ काव्य मे वर्णन है कि मंसूरनरेश चामराज श्रवणबेलगोल पधारे और सर्वश्री निजलिंगप्पा, देवराज अर्स और श्री गुण्डराव ने उन्होने गोम्मटेश्वर के दर्शन किए। उन्होने चामुण्ड राय गोम्मटेश्वर के महामस्तकाभिषेक आदि मे जो सहर्ष सह. से सम्बन्धित लेख पढवाए, वे सिद्धर बसदि गए और योग दिया वह स्मरणीय है । एक हजार वर्ष पूर्व होने पर उन्होंने कर्नाटक के जैनाचार्यों की परम्परागत वंशावली तो भारत की प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाधी ने भी सुनी और पूछा कि आधुनिक कहां हैं। जब उन्होने यह महामस्तकाभिषेक के अवसर पर गोमटेश के प्रति अपने जाना कि चन्न रायपट्टन के सामन्त के अत्याचारो के कारण श्रद्धा-सुमन अर्पित किए थे। गोम्मटेम्वर की पूजा बन्द कर गुरु भल्लातकीपुर (प्राज भालातकीपर (प्राज- वर्तमान में भारत सरकार का पुरातत्त्व विभाग और कल के गेरुसोप्पे) चले गए है तो उन्होंने सम्मानपूर्वक गुरु कर्नाटक सरकार का पुरातत्व विभाग, धारवाड़ विश्व(भट्टारक जी) को श्रवणबेलगोल बुलवाने का प्रबन्ध किया विद्यालय कर्नाटक के जन स्मारकों मे वैज्ञानिक ढग से और दान देने का वचन दिया। उन्होंने किया भी वैसा ही सहर्ष सक्रिय सहयोग प्रदान कर रहे है। कुछ स्मारक, और चन्न रायपट्टन के सामन्त को हराकर पदच्युत कर प्राचीन मूर्तियां, शिलालेख आदि तो इन्ही के कारण दिया। सुरक्षित रह गए हैं। ये सभी संस्थान जैन समाज की शिलालेख है कि चिक्कदेवराज ओडेयर ने कल्याणी विपुलप्रशंसा के पात्र है। सरोवर का निर्माण या जीर्णोद्धार करवाया था तथा कर्नाटक के छोटे राजवंश : उसका परकोटा वनवाया था। उन्होने १६७४ ई. मे जैन कर्नाटक में पृथक राजा या सामन्त आदि के रूप मे साधुओ के आहार के लिए भट्टारक जी को मदने नामक और भी अनेक धर्मानुयायी वश रहे हैं जो थे तो छोटे गांव भी दान मे दिया था। किन्तु धार्मिक प्रभाव के उनके कार्य बहुत बड़े घे (जैसे उपर्युक्त नरेश के उत्तराधिकारी कृष्णराज ओडेयर कारकल का राजवश, हुमचा का सान्तर राजकुल आदि)। ने श्रवणबेलगोल के भट्टारक जी को अनेक सनदे दी थी इन।। भी सक्षिप्त परिचय यहां दिया जा रहा है। जो उनके वंशजो द्वारा मान्य की गयी। उनमें ३३ मदिरों सेन्द्रक वंश: के व्यय एवं जीर्णोद्धार के लिए तीन गांव दान में दिए जाने का उल्लेख है। नागरखण्ड या वनवामि के एक भाग पर शासन करने मैसूरनरेश कृष्णराज ओडेयर चतुर्थ भी श्रवणबेलगोल वाले इस वश का बहुत कम परिचय शिलालेखों से मिलता आए थे और उन्होने नवम्बर १९०० ई. मे अपने आगमन है। ये पहले कदम्ब शासको के और बाद मे चालयों के के उपलक्ष्य मे अपना नाम चन्द्रगिरि पर खुदवा दिया था सामन्त हो गए। जैन धर्मपालक इस वश के सामन्त भानु. जो अभी भी अंकित है। शक्ति राजा ने कदम्बराज हरिवर्मा से जिनमन्दिर की Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ बर्ष ४५, कि०१ अनेकान्त पूजा के लिए दान दिलवाया था। इसी प्रकार इस वंश के प्रतिमा इसी सान्तर वंश की देन है। जिनदत्तराय ने द्वारा एक जैन मन्दिर के निर्माण और पुलिगेरे (लक्ष्मेश्वर) अपना राज्य राज्य लगभग ८०० ई. मे स्थापित किया के शंख जिनालय के लिए भूमिदान का भी उल्लेख था। कारकल मे इस वंश ने लगभग १६०० ई. तक मिलता है। राज्य किया। सान्तर वंश: रट्ट राजवंश: जैनधर्म के परमपालक इस वश का मूलपुरुष उत्तर शिलालेखों से ही ज्ञात होता है कि इस वश का प्रथम भारत से आया था। वह भगवान पाश्वनाथ के उरगवंश पुरुष पृथ्वीराम था जो कि मैलपतीर्थ के कारेयगण के में उत्पन्न हुआ था। उसकी कुलदेवी पद्मावती देवी थी गुणकोति मुनि के शिष्य इन्द्रकीति स्वामी का शिष्य था। जो कि पार्श्व प्रभ की यक्षिणी है। इस देवी की अतिशय उनको राजधानी आधुनिक सौन्दत्ति (प्राचीन नाम सुगन्धमान्यता आज भी हमचा मे एक लोक-विश्वाम और पूज- वति) था। इस वश ने राष्ट्रकट वश को अधीनता मे नीयता में अग्रणी है । इस वंश की राजधानी पोम्बुर्चपुर लगभग ६७८ ई. से १२२६ ई. तक शासन किया। उसने (शिलालेखो में नाम) थी जो घिसते-घिसते हुमचा (हुवा) तथा उसके वशजो ने सोन्दत्ति में जिन मन्दिरो का निर्माण हो गई है। वहां पद्मावती का मन्दिर दर्शनीय है। राज- कराया। मुनियो के आहार आदि के लिए दान तथा महल के अवशेष भी हैं। यह स्थान उत्तर भारत के महा- मन्दिरो की आय के लिए कुछ गांव समर्पित कर दिए थे। बीरजी या राजस्थान के तिजाग जैसा लोकप्रिय है। इस वंश के एक शासक लक्ष्मीदेव ने १२२६ ई. में सान्तरवंश का प्रथम राजा जिनदत्तगय था। उसी अपने गुरु मुनि चन्द्रदेव की प्राज्ञा मे मल्लिनाथ मन्दिर का ने कनकपूर या पोम्बर्चपुर (हपचा) मे इस वश की नीव निर्माण कराके विविध दान दिए थे। डा. ज्योतिप्रसाद पद्मावती देवी की कृपा से डाली थी। इस वश द्वारा के अनुसार, 'मुनि चन्द्रदेव राजा के धर्मगुरु हो नही, बनवाए गए जैन मन्दिरो, दान आदि का विस्तृत परिचय शिक्षक और राजनीतिक पथ-प्रदर्शक भी थे। उन्ही की 'हमचा' के प्रसग में दिया गया है। पाठक कृपया उसे देख-रेख मे शासन-कार्य चलता था। स्वय राजा लक्ष्मीदेव अवश्य पढे। इस वश की स्थापना की उपन्यास जैसी ने उन्हें रट्ट राज्य संस्थापक-ग्राचार्य उपाधि दी थी। कहा कहानी भी वहाँ दी गई है। जाता है कि सकटकाल में उन्होने प्रधानमन्त्री का पद सान्तर वंश की एक शाखा ने कारकल में भी राज्य ग्रहण कर लिया था और राज्य के शत्रुओं का दमन करने किया। इसी जिनदत्तराय के वशज भैरव पुत्र वीर पाड्य के लिए शस्त्र भी धारण किए थे। सकट निवत्ति के ने कारकल में बाहबली की लगभग ४२ फुट ऊँची (४० उपरान्त वह फिर से साधु हो गए थे। वहकाणरगण के फुट ५ इच ऊची) प्रतिमा कुछ किलोमीटर दूर से किस प्राचार्य थे।" प्रकार लाकर सन् १४३२ ई. में स्थापित की थी, इसका गंगधारा के चालक्य: रोमांचक विवरण इस राजवश के शासको सहित कारकल सुप्रसिद्ध चालुक्य वश की एक शाखा ने गंगधारा के प्रसंग मे इसी पुस्तक में दिया गया है। इस प्रतिमा के (सम्भवतः प्राचीन पुलिगेरे या आधुनिक लक्ष्मेश्वर नगरी वर्शनों के लिए आज भी यात्री वहा जाते है और इस या इसका उपनगर। राजधानी में राष्ट्रकूटों के सामन्त के प्रतिमा को तथा वहां की चतुर्मख बसदि को देखकर पुल- रूप मे ८०० ई. से शासन किया। दसवीं सदी मे गंगधारा कित हो उठते है। दोनो ही छोटी वृक्षहीन सरल पहाड़ियों की प्रसिद्धि एक राजधानी के रूप मे थी। इस वश के पर है। यह स्थान मूडबिद्री से बहुत पास है। अरिकेशरी राजा ने कन्नड़ भाषा के महान जैन कवि पम्प कर्नाटक मे सान्तर राजवंश ने जैनधर्म की जो ठोस को भी आश्रय दिया था। उसके उत्तराधिकारी बट्रिग नीव डाली वह भूलाई नही जा सकती। श्रवणबेलगोली द्वितीय के शासनकाल में ही प्रसिद्ध जैनाचार्य सोमदेव सूरि गोम्मटेश्वर प्रतिमा के बाद दूसरे नम्बर की बाहुबली ने गगधारा में अपने निवास के समय सुप्रसिद्ध काव्य Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नाटक में जैनधर्म 'यशस्तिलक चम्पू' तथा प्राचीन भारतीय राजनीति- हुणसूर तालुक) में था, जो कि आगे चलकर पश्चिम-मैसूर सिद्धान्त ग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध 'नीतिबाक्यामत' की रचना और कुर्ग जिलों तक फैल गया। इस वंश से सम्बन्धित कौटिल्य के अर्थशास्त्र को सूत्र-शैली में की थी। प्राचीन अधिकांश शिनालेय ग्यारहवी-बारहवी सदी के हैं । किन्तु भारतीय राजनीतिक सिद्धान्तों के अध्ययन के सिलसिले मे पन्द्रहवीं शताब्दी में भी यह वश अस्तित्व मे था । ये चोल आज भी यह ग्रन्थ विश्वविद्यालयों मे पठिन-संदर्भित किया एन होयसल नरेशो के सामन्त प्रतीत होते हैं । इस वंश के जाता है। उपर्युक्त राजा ने ही लक्ष्मेश्वर मे 'गंग-कन्दर्प' अधिश राजा शैव मत को मानते थे किन्तु ११-१२वी जिनालय का निर्माण कराया था। इस वश के राजा जैन- सदी में ये जिनमत थे । धर्म के अनुयायी रहे। उपर्युक्त वश का सबसे प्रसिद्ध राजा वीगजेन्द्र चोल कोंगाल्व वंश : नन्नि चगाल्व ने चिक्क हनसोगे नामक स्थान पर देशीगण __ इस राजवश ने कर्नाटक के वर्तमान कुर्ग और हासन पुस्तकगच्छ के लिए जिनमन्दिर का निर्माण लगभग जिलो के बीच के क्षेत्र पर, जो कि कावेरी और हमवती १०६० ई मे क गया था। उमी स्थान की एक बसदि का नदियों के बीच था, शासन किया। उस समय यह प्रदेश उसने जीर्णोद्धार कराया था जिसके मम्बन्ध में यह प्रसिद्धि कोंगलनाड कहलाता था। इस वश का सम्बन्ध प्रसिद्ध थी कि उसका निर्माण श्री रामचन्द्र ने करवाया था। चोलवश से जान पडता है। सम्राट् राजेन्द्र चोल ने इसके सन् १०८० ई. के एक शिलालेख से, जो कि हनसोगे की पूर्वपुरुष को अपना सामन्त नियुक्त किया था। यह वश बमदि मे नवरग-मदा के द्वार पर उत्कीर्ण है. यह प्रतीत ग्यारहवी सदी मे अवश्य विद्यमान था (शिलालेख बहुत होना है कि इस चगाच तीर्थ मे आदीर, नेमीश्वर कम मिले है) और जैनधर्म का अनुयायी था। सोमवार आदि जिनमन्दिर थे जो भट्टारका मुनियो के सरक्षण में ग्राम में पुरानी बसदि एक पाषाण पर लगभग १०८० ई. थे एव चंगाल्व नरेश ने उनका जीर्णोद्धार कराया था। के शिलालेख से विदित होता है कि राजेन्द्र पृथ्वी कोगाल्व चगाल्व नरेश मरियपेगंडे पिल्वय्य ने 'पिल्दुविनारक इस वश के राजा ने 'अदटरादित्य' नामक चैत्यालय ईश्वर देव' नामक एक बसदि का निर्माण १०९१ ई. के का निर्माण अपने गुरु मूलसघ, कान र गण, तगारगळ गच्छ लगभग कराया था । मुनियो को भी आहार दान दिया था। के गण्डविमुक्ति देव के लिए कराया था और पूजा-अर्चना श्रवणबे गोल के १५१० ई. के एक शिलालेख से यह के लिए दान दिया था। आचार्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव का भी ज्ञात होता है कि इस वश के एक नरेश के मन्त्री-पुत्र वह बड़ा आदर करता था और उसने अपने शिलालेख के ने गोम्मटेश्वर की ऊपरी मंजिल का निर्माण कराया था। प्रारम्भ में उनकी बड़ी प्रशसा की है। लेख मे यह ी निगल वंश : उल्लेख है कि उसके शिलालेख की रचना चार भाषाओ उत्तर मैमूर के कुछ भाग पर राज्य करने वा। इन के ज्ञाता सन्धिविग्रहक नकुलार्य ने की थी। इस राजा ने वश के शासन सम्बन्धी उल्लेख तेरहवीं शताब्दी के प्राप्त अपने को औरेयपुर वराधीश्वर' तथा 'सूर्यवंशी-महामण्ड- होते है। अमरापुर तथा निडुगल्लु बेट्ट (जैन बसदि) के लेश्वर' कहा है। शिलालेखो से ज्ञात होता है कि राजा स्वय को चोलकुछ इतिहासकारों क मत है कि यह वंश चौदहवीं वश के तथा ओरेयुरपुरवराधीश कहते थे। शताब्दी या उसके बाद तक शासन करता रहा और अन्त उपर्युक्त वश के इरुगोल के शासन काल मे मल्लिसेट्रि तक जैनधर्म का अनुयायी बना रहा । जो भी हो, इस वश ने तलगेरे बमदि के प्रसन्न पाश्र्वनाथ के लिए सुपारी के के सम्बन्ध में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं है। दो हजारो पेडो के हिस्से दान में दिए थे। इसी राजा के चंगाल्व वंश: पहाड़ी किले का नाम कालाजन था। उसकी चोटियां इस वंश का शासन कर्नाटक के चगनाडु (आधुनिक ऊंची होने के कारण वह 'निडुगल' कहलाया। उसी के Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ बर्ष ४५, कि.१ मनकामत दक्षिण में गंगेयनमार ने एक पाश्वं जिनालय बनवाया था। मैररस वंश : अपने इस धर्मप्रेमी गगेयन की प्रार्थना पर राजा इरुंगोल कारकल का यह राजगंश हुमचा के परम जिनभक्त ने पार्श्वनाथ की दैनिक पूजा, आहारदान आदि के लिए राजाओं की एक शाखा ही था । यह बंश जैनधर्म का भूमि का दान किया था। वहां के किसानों ने भी अखरोट अनुयायी रहा। इसी वश के राजा वीरपाण्डय ने सन मोर पान का दान किया था तथा किसानों ने अपने १४३२ ई. में कारकल मे बाहुबली की ४१ फुट ५ इच कोल्हओं से तेल ला-लाकर दान में दिया था। ऊंची प्रतिमा निर्माण कराकर वहां की पहाड़ी पर स्थापित ऐसा उल्लेख मिलता है कि इस गजा को विष्णुवर्धन की थी जिसकी आज भी वन्दना की जाती है। इस वश ने हराया था। के विवरण के लिए देखिए 'कारकल' प्रकरण । अलप वंश: अंजिल वंश : इसका शासन-क्षेत्र तुलनाडु (मूडबिद्री के आस पास का क्षेत्र) था। दसवीं सदी मे तौलव देश के प्रमुख जैन नरेश प्रमख जैन. अपने आपको चामुण्डराय का वंशज बताने वाला केन्द्र थे मुहबिदी, गेरुसोप्पा, भटकल, कारकल, सोदे, यह वश बारहवी सदी मे उदित हुआ । इसका शासन-क्षेत्र हाइहल्लि और होन्नावर । इन में से कुछ तो अब भी प्रमुख वेणर था। वेणर ही इसकी राजधानी रही और इसका जैन केन्द्र के साथ प्रदेश तुलनाड के अन्तर्गत सम्भवत. पंजलि के कहलाता भी प्रदान किया था और अनेक जैन बमदियों के लिए था। यह वंश प्रारम्भ से अन्त तक जैनधर्म का अनुयायी था। यह वश दान दिया था। ये राजा १११४ ई. से लगभग १३८४ ई. रहा। " __ रहा। इसी वश के शासक तिम्मराज ने १६०४ ई. मे तक राज्य करते रहे। इस वंश का राजा कुलशेखर- बर. वणूर म बा वेणूर में बाहुबली की ३५ फुट ऊ ची प्रतिमा स्थापित की अलुपेन्द्र तृतीय मडबिद्री के पार्श्वनाथ का परमभक्त था। थी जो आज भी पूजित है। इस वंश के वशज आज भी देखिए 'मुडबिद्री' प्रकरण । विद्यमान हैं और सरकार से पेशन पाते हैं। (देखिए 'वेणूर' प्रकरण)। बंगवाडि वंश का वंश: अलुपवंश के बाद तुलनाड में इस वंश ने राज्य किया कर्नाटक के उपर्युक्त सक्षिप्त इतिहास पर विचार (देखिए 'मूडबिद्री')। करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस राज्य मे जैनधर्म संगीतपुर के सालुव मण्डलेश्वर : को विद्यमानता एव मान्यता अत्यन्त प्राचीन है। कम-से कम महावीर स्वामी के समय मे तो वहां जैनधर्म का सगीतपुर या साढुहल्लि (उत्तरी कनारा या कारवाड प्रचार था जो कि पार्श्वनाथ-परम्परा की ही प्रवाहमान जिला के समुद्र नगर में इस वंश ने पन्द्रहवीं शताब्दी मे धारा मानी जाए तो कोई बहुत बड़ी ऐतिहासिक आपत्ति राज्य किया। महामण्डलेश्वर सालुवेन्द्र भगवान चन्द्रप्रभ का बड़ा भक्त था। उसके मन्त्री ने भी पार्श्वनाथ का नही उठ सकती है, क्योकि पाननाथ यहां तक कि भगवान एक चैत्यालय पनाकरपुर में बनवाया था। नेमिनाथ ऐतिहासिक पुरुष मान लिए गए हैं। इसी प्रकार कर्नाटक के लगभग हर छोटे या बड़े राजवश ने या तो चोटर राजवंश: स्वयं जैनधर्म का पालन किया या उसके प्रति अत्यन्त __ मडबिद्री को अपनी राजधानी बनाने वाले इस वंश उदार दृष्टिकोण अपनाया। मध्ययुग की ऐतिहासिक या के राजा १६८० ई. मे स्वतन्त्र हो गए थे। इस वंश ने राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए भी यह निष्कर्ष लगभग ७०० वर्षों तक मूडबिद्री मे राज्य किया। इनके अनुचित नही होगा कि कर्नाटक में प्रचुर राज्याश्रय प्राप्त गंशज और इनका महल आज भी मूडबिद्री में विद्यमान होने के कारण बहुसख्य प्रजा का धर्म भी जैनधर्म रहा है। वे जैनधर्म का पालन करते है और शासन से पेशन होगा। पाते हैं । (देखिए 'मूडबिद्री') Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नाटक में जनधर्म कर्नाटक में संगीत की ध्वनि देने वाले स्तम्भ भी हैं। नक्कासी में भी यहां के मन्दिर आगे हैं। बेलगांव की कमल बमदि अहिंसा के स्मारकों की भूमि का कमल आबू के मन्दिरों के कमल से होड़ करना चाहता अत्यन्त प्राचीनकाल से ही कर्नाटक जैनधर्म का प्रमुख है तो जिननाथपुरम के मन्दिर काम उत्कीर्णन मन मोह केन्द्र रहा है। इस प्रदेश का जो इतिहास श्रुन केवली भद्र- लेता है। मानस्तम्भों की भी यहां विशेष छवि है । कारबाह और चन्द्रगुप्त मौर्य के पाले बों, विभिन्न मन्दिरो, कल मे एक ही शिना से निमित ६० फुट ऊँचा मानस्तम्भ शिनालेखों आदि से प्राप्त हुआ है उससे इस कथन की पुष्टि है तो मडबिद्री में मात्र ४० इच ऊंचा मानस्तम्भ देखा होती है। यहां इतने मन्दिर और तीर्थ कालान्तर मे बने जा सकता है। या विकमित हुए कि इप भूमि को अहिंसा के स्मारको की मतिकला का तो कर्नाटक मानो संग्रहालय ही है। भूमि कहना अनुचित नही होगा । यहा मडबिद्री मे पकी मिट्टी (clay) की मूर्तियां है तो कर्नाटक विभिन्न शैली के मन्दिरो की निर्माणशाला पाषाण से निर्मित विशालकाय गोम्मट (बाहुबली) मतियां या विकासशाला रहा है । ईसा की प्रारम्भिक सदी में यहां है। श्रवणबेलगोल की ५७ फुट ऊँची मूति तो अब विश्वकाष्ठ के जैनमन्दिर निर्मित होते थे। एक कदम्बनरेश ने विरूपात हो चुकी है। कार कल की ४२ फुट ऊँची बाहुहलासी (पलाशिका) में ईसा की पाचवी सदी मे लकड़ी बली मति खड़ी करने का विवरण ही रोमाचक है । वेणूर का एक जैनमन्दिर बनवाया था। हुमचा के शिलालेखों और धर्मस्थल तथा गोम्मटगिरि की मूर्तियों का अपना में उल्लेख है कि वहां पाषाण मन्दिर बनवाया गया। यह हो आकर्षण है। बादामी का गुफा मन्दिर की बाहुबली तथ्य यह भी सूचित करता है कि पहले कुछ मन्दिर मति तो जटामो से युक्त है और श्रवणबेलगोल की मूति पाषाण के नही भी होत थे। काष्ठमन्दिरो के अतिरिक्त से भी प्राचीन है। पार्श्वनाथ की मृति के विभिन्न अकन कर्नाटक में गुफा मन्दिर भी हैं जो पहाड़ी की चट्टान को देखने के लायक हैं। हमचा मे कमठ के उपसर्ग सहित, काट-काटकर बनाए गए। इस प्रकार के मन्दिर ऐहोन तो कही-कहीं सहस्र फण वाली ये मूर्तियां मोहक हैं। और वादामी मे है । कालान्तर मे पाषाण की काफी चौड़ी चतुर्मुखी पाषाण-मूर्तियो का एक अलग ही आकर्षण है। मोटी शिलाओ से मन्दिर बनाए जाने लगे। ऐसा एक यक्ष यक्षिणी की भी सुन्दर मूर्तिया है। मन्दिर ऐहोल मे ६३४ ई. मे बना जो इसलिए भी प्रसिद्ध पचधातु, अष्टधातु, सोने-चाँदी और रत्नो की मतियां है कि प्राचीन मन्दिरो मे वही एक ऐसा मन्दिर है जिसकी भी अनेक स्थानों मे है। तिथि हमे ज्ञात है। हम्पी (विजयनगर) का गानिगित्ति ताडपत्रो पर लिखे गए हजारो ग्रन्थ इस प्रदेश में है। मन्दिर विशाल शिलाखण्डो से निर्मित मन्दिरो का एक प्राचीन धवल, जयधवल और महाधवल ग्रन्थ भी इसी सुन्दर उदाहरण है। तीन मोटी और ऊंची शिनाओ से प्रदेश से हमे प्राप्त हुए। उसकी दीवार छत तक पहुंच गई है । शायद उसमे जोड़ने जैन और अजैन राजाओ की धार्मिक सहिष्णुता के के लिए मसाले का भी प्रयोग नहीं किया गया है। मंदिरो लेख भी यहाँ प्राप्त होते है। जैसे हम्पी के शासक की के शिखरों का जहा तक प्रश्न है, कर्नाटक मे उत्तर भार- राजाज्ञा । विजय नगर साम्राज्य के अवशेष यही तीय और दक्षिण भारतीय दोनों ही प्रकार के शिखरो के हनुमान की फिकिधा भी यही है। मन्दिर विद्यमान हैं। मूडबिद्री के मन्दिर तो नेपाल और कुन्दकुन्दाचार्य ने जिस पर्वत से विदेह-गमन किया तिब्बत की निर्माण शैली से सयोगवश या सम्पर्कवश था वह कुन्दाद्रि भी यही है। साम्यता रखते हैं । सुन्दर नकासीयुक्त एक हजार स्तम्भो कर्नाटक मे कई हजार शिलालेख बताए जाते हैं। तक के मन्दिर (माबद्री) कर्नाटक मे है। और उनमे से केवल श्रवणबेलगोल मे ही ६०० के लगभग शिलालेख है। कुछ की पालिश अभी भी अच्छी हालत में है। कुछ मदिरों (शेष पृ.८ पर) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रश भाषा के प्रमुख जैन साहित्यकार : एक सर्वेक्षण लेखक -- जिनमती जैन एम. ए., प्राकृत शोध संस्थान वैशाली (बिहार) जनधर्म के मनीषियों ने विभिन्न भाषाओं में अपनी व्याकरणो के नियमों से बांध दिया तो उस समय जनकृतियां लिप्तकर भारतीय वङमय को मम्बधित किया साधारण जो भाषा बोनले हे वही अपभ्रश के नाम से है। मध्यकाल में विभिन्न प्राचार्या ने नमानीन अपभ्रश विख्यात हुई। अपभ्रण का माधारण अर्थ भ्रष्ट च्युत और भाषा को अपनी कृतियों को सपा को अपनाया है। छठी अशद होता है। भर्तहरि ने मतादीन शब्दों को अपशताब्दी से लेकर ई. मन .०वी शताब्दी तक जो जैन भ्रश कहा है। कुछ लोगों ने इसे ग्रामीण य. देशी भाषा साहित्य मृजित हुआ है उसकी भाषा अपभ्र श ही है। भी कहा है। अन कुछ विद्वानो ने हमे आभीरों की बोगी अपभ्रश का स्वरूप अपभ्र श भाषा मध्यकालीन माना है। डॉ. निसन ने स्थानीय प्राकृन को अपभ्र श भारतीय आर्य भापा के तनीय स्तर की प्राकृत भाषा भाषा वहा है। डॉ० हीरालाल जैन का मत है कि इस मानी जाती है। इस भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा भषा का सर्व प्रथम उल्लेख पातजल महाभाप मे जा सकता है कि जन प्रथम और द्वितीय र की प्राकृतो मिलता है । लेकिन यहां पर पातञ्जलि ने सस्कृत से ने साहित्य का रूप ले लिया और वैयाकरणो ने उन्हें अपभ्रष्ट शब्दों को अपभ्र शहा है। दण्डी ने संस्कृत के (पृ० ७ का शेषाश) अतिरिक्त अन्य सभी शब्दों को अपभ्रश माना है। भरत इनसे जैन राजाओं और जैन आचार्यों की परम्परा स्थापित मुनि ने अपभ्रंश भाषा को पार बहुला कहा है। जो करने में वडी सहायता मिली है। हो यह तो निश्चय ही है कि अपभ्र श भाषा जनसाधारण ___ काजू, काफी, नारियल, कालीमिर्च, सुपारी, इलायची का साली की भाषा थी। आज वह प्राकृत और आधुनिक हिन्दी आदि के सुन्दर वक्षो से हरी-भरी मोहः पहाडि और आदि भाषाओ की सेतु मानी जाती है। जोग मरने (९०० फुट ऊँचे से गिरने वाले) पर्यटक को प्रमुख अपभ्रंश भाषा के साहित्यकार-अपभ्रंश सहज ही आकर्षित करते हैं। भाषा मे जिन आचार्यों ने जैनधर्म के सिद्धान्तानुसार रचकर्नाटक में लगभग २०० स्थानों पर जैन तीर्थ मंदिर नाए का ह उनम चउमुख, द्राण, स्वयम्भू, त्रिभुवन, पुष्पया ध्वस्त स्थान है। दन्न, धवल, धनपाल, वीर, मुनि नबनन्दि, कनकामर, यद्यपि इस पुस्तक में प्रचुर मात्रा मे जैन धार्मिक योगेन्दु, रामसिंह, विवुध श्रीधर, रइधु और हरिदेव प्रमुख स्थानों और पुरातात्त्विक स्मारको का परिचय कराया साहित्यकार है। इनका सक्षिप्त परिचय निम्नांकित हैगया है, किन्तु उस । मुख्य उद्देश्य तीर्थयात्रियों चउमुख-च उमुख या चतुर्मुख अपभ्रश भाषा के के लिए एक उपयोगी निर्देशिका प्रस्तुत करना है। प्राचीनतम कवि हैं। इनका उल्लेख धवल, धनपाल बीर कर्नाटक कोपरासंपदा तिहासिक महत्त्व का भी कुछ प्रादि कवियों ने किया है। डा. देवेन्द्र कुमार शास्त्री ने दिग्दर्शन है। "अपभ्र श भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियां" नामक ___ सन्तोष की बात यह है कि कर्नाटक के विश्वविद्या- कृति में लिखा है कि चतुर्मख से पहिले गोविन्द नामक लयो और शोध-संस्थानोम अध्ययन और खोज प्रयत्न जारी कवि हुए थे, जिन्होंने अपभ्र श भाषा में कृष्ण विषयक हैं। बावजूद इसके कोई भी पुस्तक ऐतहासिक साक्ष्य की प्रबन्ध काव्य लिखा था। इस उल्लेख से ऐसा पता चलता की परिपूर्णता का दावा नही कर सकती। है कि चतुर्मुख गोविन्द के उत्तरवर्ती महाकवि हैं। चतुर्मुख Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनश भाषा के प्रमुख जैन साहित्यकार : एक सर्वेक्षण के विषय में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। उत्तरार्ध के महाकवि थे। इनके जन्म स्थान पर राख स्वयम्भू और उनके पुत्र त्रिभूवन के उल्लेख से ज्ञान होता हीरालाल जैन, पं० नाथ र म प्रेमी, डा. भोलाशंकर व्यास है कि महाकवि चतुर्मुख ने दुवई एवं ध्रकों से युक्त एव डा० भावाणी ने गवेषणात्मक विचार व्यक्त किये हैं। पढडिया छन्द का आविष्कार किया था। इसके अतिरिक्त इससे पता चलता है कि व दाक्षणात्य थे। ऐसा प्रतीत होता है कि चतुर्मुख ने व्यास शैली में महा- ४. विभवन स्वयम्भ-स्वयम्भ के पुत्र एवं आगम भारत एव पञ्चमी चरिउ नामक ग्रंथ की रचना की थी। व्याकरण के ज्ञाता त्रिभवन स्वयभ ने भी अपनश भाषा लेकिन किसी कारण से आज वे ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। में अपने पिता के अधुरे कार्य को पूरा किया है। पउमचंकि स्वयम्भू ने चतुर्मुख का उल्लेख किया है, इसलिए चरिउ ती प्रशस्ति गाथा से ज्ञात होता है कि उन्होंने यह कहा जा सकता है कि चतुर्मुख स्वयम्भू के पहिले के परम चरिउ को पूरा किया था"। ० हीरालाल जैन है। स्वयम्भ का समय ई. सन् ६७६.६७७ के आसपास का नत के विभवन Fan rame सिर का माना जाता है। इसलिए चतुर्मुख को ईस्वी सन् ६०० चरिउ के अपूर्ण अश को पूरा किया है। लेकिन पउमका कवि माना जा सकता है । चरिउ को प्रशस्ति गाणा के आधार पर डा० भायाणी ने २. द्रोण-द्रोण कवि का भी उल्लेख त्रिभुवन माना है कि त्रिभान वियभू ने पउपचरिउ रिठ्ठनेमि स्वयम्भू ने अपने रिट्ठनेमि चरिउ मे 'क्या गया है। चरिउ और श्री पञ्चमी चरिउ को पूरा किया है। पं. इसके अलावा पुष्पदन्त, धवल, धनपाल, आदि ने भी नाथूगम प्रेमी का भी यही मन है कि त्रिभुवन स्वयंभु ने सम्मानपूर्वक स्मरण करते हुए उनकी लोकप्रियता को अपने पिता की उक्त अपूर्ण कृतियो को पूर्ण किया है। सचिन किया है। इससे सिद्ध होता है कि द्रोण नामक इसका समय ईमवी सन् वी शताब्दी माना है। कवि अवश्य ही हुए है। द्रोण ने भी अपभ्रश भाषा मे ५. पुष्पदन्त-पुष्पदन्त अपम्रश भाषा के दूसरे महाभारत की कथा लिखी थी। उनकी यह कृति अनुप- ऐसे महाकवि हैं, जिन्होंने अपभ्रंश भाषा मे महापुराण, लब्ध है। ये भी स्वयम्भू के पूर्ववर्ती एव चतुर्मुख के उत्तर- जसहर चरिणायकूमार चरिउ लिखकर अपनश साहित्य वर्ती थे। को समृद्ध किया है। णायकुमार चरित की प्रशस्ति से ३. स्वयम्भू-अपभ्रंश भाषा के सर्वप्रथम महाकवि ज्ञात होता है कि उनके पिता का नाम केशव और माता है। मारुतदेव और पानी के पुत्र स्वयंभू' को इनके नाना पाटवी या fRAYA और में उनरवर्ती कवियों ने महाकवि कविराज चक्रवती जैसी गुरु से उपदेश पार जैन हो गये थे। बाद में उनके माता उपाधियों से विभूषित किया है। इनके परिवार में इनको पिता ने जैन सन्यास विधि से मरण किया था। पुष्पदन्त दो पत्नियां-आदित्यात्वा और सामि व्वा एवं त्रिभुवन काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण कुन मे उत्पन्न हुए थे। इससे नामक पुत्र था। धनजय के आश्रय में रहने वाले और पता चलता है कि पुष्पदन्त को जैनधर्म की शिक्षा अपने कालीदास के समकक्ष अपघ्रश के महाकवि स्वयंभू का माता-पिता से मिनी होगी। जसहर चरिउ में वे कहते हैं पारिवारिक जीवन सुखी एवं सम्पन्न था"पउम चरिउ, क "पापहारिणी मुग्धा नामक ब्राह्मणी के उदर से रिट्टनेमि चरित, स्वयम्भू छन्द, शोद्धचरिउ, पञ्चमी उत्पन्न श्यामल वर्ण, काश्यप गोत्रो के शव के पुत्र, जिनेन्द्रचरिउ और स्वयम्भू व्याकरण के रचयिता महाकवि चरणो के भक्त, धर्म में आसक्त, व्रतों से संयुक्त, उत्तम स्वयम्भू के जन्म-काल एवं उनके जन्म-स्थान के विषय में सात्विक स्वभावी अथवा श्रेष्ठ काव्य शक्तिधारी, शकाविद्वानों में मतभेद है। उनकी कृतियों में जिन पूर्ववर्ती रहित, अभिमान चिह्न, प्रफुल । मुख, खण्ड कवि ने यह कवियों का उल्लेख हुपा है और उनके उत्तरवर्ती कवियों यशोधर कथा की रचना की और उसके द्वारा विद्वानों की में स्वयम्भू का उल्लेख किया है उसके आधार पर कहा सभा का मनोरजन किया। जा सकता है कि स्वयम्भू ईसवी सन् ८वीं शताब्दी के उपर्युक्त कथन से सिद्ध होता है कि खा या खण" Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०, वर्ष ४५, कि०१ अनेकान्त नाम वाले पुष्पदन्त दुर्बल श्यामल शरीर वाले, कपल के है कि पुष्पदन्त बुध हरिसेन के पूर्व महाकवि के रूप में समान प्रफुल्लित मुख वाले, स्वाभिमानी और महान् प्रसिद्ध हो चुके थे। डा. हीरालाल ने लिखा है कि महाआत्मविश्वासी, श्रेष्ठ काव्य शक्तिधारी जैनधर्म दर्शन के पुराण की रचना ईसवी मन् ६६५ में समाप्त हो चुकी मर्मज्ञ स्पष्टवादी और उग्र स्वभाव के व्यक्तित्व वाले थे। थो"। इससे स्पष्ट है कि पुष्पदन्त का समय ई. सन् महाकवि पुष्पदन्त ने अपने आश्रयदाता का नाम मान्यखेट ८१६--१७२ के मध्य निर्धारित किया जा सकता है। नगरी के राजा कृष्णराज के महामत्री नन्न थे। डा. नेमिचन्द्र शास्त्री ने इनका समय ईस। सन् की महाकवि पुष्पदन्त के जन्मस्थान के बारे मे विद्वानों १०वी शताब्दी माना है। में मतभेद है। पं० नाथू गम प्रेमी का मत है कि अप- धनपाल-अपभ्र श भाषा मे महाकाव्यों की रचन भ्रंश साहित्य की रचना उत्तरी भारत मे हुई है। पुष्पदन्त करने वालो मे महाकवि धनपाल का नाम आदर के साथ की रचनाए अपभ्र श भाषा मे रची गयी हैं, इससे सिद्ध उल्लिखित हुआ है । "भविस यत्तकहा" नामक महाकाव्य है कि पुष्पदन्त उत्तर से दक्षिण आए होगे। अत: इनका लिकर ये अमर हो गए। महा.वि धनपाल का विस्तृत जन्म उत्तरी भारत मे किसी स्थान पर हुआ होगा। डा० परिचय उपलब्ध नहीं है । इनके महाकाव्य के आधार पर हीरालाल जैन का मत है कि पुष्पदन्त दुष्टो के कारण कहा जा सकता है कि धनपाल का जन्म धक्कड़ वैश्य कुल भ्रमण करते हुए मान्यखेट पहुंचे थे और वही पर उन्होने मे हुआ था। इनके पिता का नाम माएसर (माहेश्वर) अपनी रचनाएँ लिखीं। इससे सिद्ध होता है कि वे मान्य- और माता का नाम धनश्री था। ये दिगम्बर जैन मत खेटा निवासी नहीं थे। दूसरी बात यह है कि इनके के अनुयायी थे। धनपाल ने अपने को सरस्वती पुत्र बचपन के नाम 'खण्ड' से प्रतीत होता है कि वे महाराष्ट्र कहा है। के निवासी थे, क्योंकि यह नाम आजकल महाराष्ट्र मे महाकवि धनपाल के समय का निर्धारण करते हुए बहत प्रचलित है। डा. पी. एल. वैद्य ने पुष्पदन्त को डा. हरमन जगवी, श्री पी. वी. गुणे, डा. देवेन्द्रकुमार रचनाओं में आई हुई लोकोक्तियो और शब्दो के आधार शास्त्री आदि ने अपने dिar ama पर उन्हें उतरी भारत के किसी स्थान का माना है। हीरालाल जैन ने ईसवी सन् १०वी सदी का महाकवि उपर्यस्त विचारों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा माना है। राहल सांकृत्यायन का भी यही मत है"। सकता है कि पूष्पदन्त का जन्म उत्तरी भारत मे ही हुआ फिर भी इनके समय के सम्बन्ध में गम्भीर अन्वेषण एवं था। अनुसंधान को आवश्यकता है। महाकवि पूष्पदन्त के समय के विषय में भी विद्वानो धवल-अपभ्रश भाषा में हरिवश पूराण नामक में मतभेद है। क्योंकि उन्होने अपने जन्मकाल के विषय महाकाव्य के रच यता महाकवि धवल के पिता का नाम मे कुछ भी उल्लेख नही किया है। इसलिए डा० हीरा- सूर माता का नाम केसुल्ल था। इनके महाकाव्य से ज्ञात लाल जैन, पं० नाथराम प्रेमी, डा. पी. एल. वैद्य आदि होता है कि इनके गुरु का नाम अम्बसेन था। ब्राह्मण कुल विद्वानों ने महाकवि की कृतियों में उल्लिखित घटनाओ, मे उत्पन्न हए महाकवि धवल जैन मुनि के कारण जैन ग्रंथ और अथकारो एवं उनके उत्तरवर्ती कवियों की कृति मतानुयायी हो गये थे। मे उल्लिखित पुष्पदन्त के नाम के आधार पर उनका महाकवि ने अपने हरिवंश पुराण को उत्थानिका में समय निर्धारण किया है। महापुराण में ईसवी सन् ८१६ जिन आचार्यों का उल्लेख किया है उससे ज्ञात होता है मे रचे गये (वीरसेन के) धवला और ८३७ मे रचे गये कि वे ईसवी सन् १०-११वी के महाकवि थे"। जयपवला के उल्लेख से सिद्ध होता है कि पुष्पदन्त इनके वीरकवि-अपभ्रंश भाषा में जबसामिचरिउ के बाद हए होंगे"। इसी प्रकार ईसवी सन् ९८७ में लिखी रचयिता, काव्य व्याकरण, तर्क कोश, छन्द शास्त्र द्रव्यानुगयी धर्म परिवखामे इनका उल्लेख हुआ है। इससे सिद्ध योग, चरणानुयोग, करणानुयोग आदि विषयो के ज्ञाता Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनश भाषा के प्रमुख बन साहित्यकार : एक सर्वेक्षण महाकवि वीर ने अपना परिचय स्वय दिया है। उससे के बाद इनका नाम मुनि कनकामर हुआ। इनका शरीर ज्ञात होता है कि महाकवि वीर का जन्म मालव देश के कनक अर्थात् सोने के समान अत्यन्त मनोहर था"। महागुलखेड नामक ग्राम में हुआ था। लाडवर्ग गोत्र में उत्पन्न कवि कनकामर ने मात्र अपभ्रंश भाषा मे 'करकडरिउ' महाकवि देवदत्त इनके पिता थे। इनकी माता का नाम नामक महाकाव्य की रचना की और इसी एक मात्र कृति श्रीसन्तुआ था"। इनके तीन भाई थे-सीहल्ल, लक्षणांक से वे अमर हो गए। डा. हीरालाल जैन ने 'करकडुचरिउ' एवं जसई। महाकवि वीर की जिनमति, पद्मावती, लीला- की प्रस्तावना मे ऊहापोह के साथ मुनि कनकामर के समय वती और जयादेवी नाम की चार पस्नियां थी"। 'जंबू- का विश्लेषण करते हुए उन्हें १०४०-१०५१ ईसवी सन सामिचरिउ' की प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि का बतलाया है। डा० नेमिचन्द्र शास्त्री का भी यही इनकी प्रथम पत्नी से नेमिचन्द्र नाम का पुत्र हुआ था जो मत है"। इनका व्यक्तित्व साधुमय था और ये उदार विनय गुण से युक्त था । संस्कृत भाषा के पडित, राज- हृदय के मनस्वी थे। इनके आश्रयदाता का नाम विजय नीति में दक्ष, स्वभाव से विनम्र उदार, मिलनसार, भक्त पाल नरेश, भूपाल और कर्ण राजा थे ऐसा प्रशस्ति से व्रती एवं धर्म में आस्था रखने वाले 'वीर महाकवि' ने ज्ञात होता है। 'करकडुचरिउ' की प्रशस्ति से यह भी अपने पिता की प्रेरणा से 'जंब्रसामिचरिउ' की रचना की ज्ञात होता है कि उनके चरण कमलों से भ्रमर स्वरूप थी। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि अपने पिता के मित्रों तीन पुत्र थे-आहुल, रल्हु और राहुल"। इनके माताके अनुरोध पर अपभ्रंश भाषा में इस महाकाव्य को पिता एवं जन्म स्थान के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध लिखा था। अपने पिता की स्मृति में मेघवन पट्टण में नहीं है, लेकिन 'आसाइय' नगरी में रह करके 'करकंड़महावीर भगवान का मन्दिर भी बनवाया था। महाकवि चरिउ' की रचना की थी। डा० हीरालाल ने अपनी वीर के विषय में यह भी ज्ञात होता है कि उन्होंने जैन गवेषणात्मक 'करकंडचरिउ' की प्रस्तावना में इस नगरी ग्रंयों के अलावा शिव पुराण' वाल्मीकि रामायण, महा. को मध्यप्रदेश में माना है। भारत, भरत नाट्य शास्त्र आदि का भी अध्ययन किया मुनि नयनन्दी-अपभ्रश भाषा में 'सुदंसणचरित' 'लविहिविहाण काव्य' की रचना करने वाले मुनि महाकवि वीर का जन्म कब हुआ यह तो बतलाना नयनन्दि माणिक्यनन्दि विद्य के शिष्य थे। ये आचार्य सम्भव नही है। लेकिन 'जंबूसामिचरिउ' की समाप्ति वि. कुन्दकुन्द की परम्परा में हुए थे, उनके ग्रंथ से ज्ञात होता सं.१०७६ में माघ शुक्ल १०वीं के दिन हुई थी। इससे है" । 'सुदर्शनचरित्र' की अन्तिम सन्धि में उन्होंने अपनी सिद्ध है कि वीर निश्चित ही ११वीं शती से पहिले हुए गुरु परम्परा का उल्लेख किया है। उससे ज्ञात होता है थे। दूसरी बात यह है कि वि० की आठवी शदी मे हुए कि सुनक्षत्र, पचनन्दि, विष्णूनन्दि, नन्दिनन्दि, विष्वनन्दि, स्वयंभू एव ९-१० वि० की शदी में हुए पुष्पदन्त का विशाखनन्दि, रामनन्दि, माणिक्यनन्दि और इनके प्रथम इन्होंने उल्लेख किया है। इससे यह भी स्पष्ट है कि वि. शिष्य जगविख्यात एवं अनिंद्य मुनि नयनन्दि हुए। उन्होंने सं० १०२९ और १०७६ के मध्य महाकवि वीर का जन्म अवन्ती देश की धारानगरी में राजा भोजदेव के शासनहुभा होगा। काल में विशाल जिन मन्दिर में वि० स० ११०० में कनकामर-अपभ्रंश भाषा के महाकवि मुनि सुदर्शन चरित्र की रचना की थी। कनकामर का जन्म ब्राह्मण वंश के चण्ड ऋषि गोत्र में योगीन्दु-अपभ्रश भाषा मे आध्यात्म तत्व की हआ था। 'करकंडचरिउ' को प्रशस्ति से ज्ञान होता है कि रचना करने करने वाले जोइन्दु, योगीन्दु, योगीन्द्रदेव, इनके बचपन का नाम विमल था। वैराग्य होने पर जोगीचन्द, जोगचन्द के नाम से जाने जाते हैं। ऐसा इन्होंने दिगम्बर दीक्षा ली थी। इनके गुरु का नाम उक्त लगता है कि अपनश शब्द जोइन्दु के ही शेष शब्द हिन्दी प्रशस्ति में बुधमंगलदेव बतलाया गया है। मुनि दीक्षा लेने भाषा में पर्यायवाची बन गये हैं। योगीन्दु ने अपने विषय Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२, बर्ष ४५, कि.१ अनेकान्त में कुछ भी नहीं लिखा है। उनके 'परमात्म प्रकाश' से चरिउ' महाकाव्यो की रचना की थी। 'पासणाहचरित' केवल इतना ही ज्ञात होता है कि अपने मुमुक्षु शिष्य भट्ट के उल्लेख से ज्ञात होता है कि इन्होंने 'चंदप्पहचरिउ' की प्रभाकर को सम्बोधित करने के लिए परमात्म प्रकाश की भी रचना की थी जो अनुपलब्ध है। डा. राजाराम जैन रचना की थी। ने इनके अलावा 'सुकुमालचरिउ' एवं 'भविसयत्तकहा' डॉ. ए. एन. उपाध्ये ने योगीन्दु को ईसा की छठी तथा 'सम्तिजिणेसरचरिउ' को भी विवध श्रीधर की शताब्दी का आचार्य माना है। जबांक आचार्य हजारी कृतियां मानी हैं । लेकिन डा. नेमिचन्द्र शास्त्री ने श्रीधर प्रसाद द्विवेदी ने इन्हे ८वी-६वीं शताब्दी का कवि माना द्वितीय (वि. सं. १२००) को 'भविसयत्तचरिउ' का और है। हरिवश कोछड़ ने भो इनका समर्थन किया है। श्रीधर तृतीय (वि. स. १३७२) को 'सुकुमालचरिउ' का 'डा. नेमिचन्द्र शास्त्री ने चण्ड और पूज्यपाद के साथ कवि माना है। इसलिए सिद्ध है कि विवध श्रीधर ने तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत कर योगीन्दु को छठी शताब्दी केवल 'पासणाहचरिउ' और 'बड्ढमाणचरिउ' की रचना के उत्तरार्ध का आचार्य माना है। योगीन्दु की कृतियो की थी। "के अध्ययन से भी यही सिद्ध होता है । अचार्य योगीन्दु ने रह-रइधू के विषय मे डा. राजाराम जैन ने संस्कृत और अपभ्रश भाषा मे रचनाए की है। परमात्म विस्तार से विवेचन किया है । ये अपभ्रंश भाषा के महाप्रकाश, मौकार श्रावकाचार, योगसार, सावयधम्मदोहा' कवि हैं । इनका अपर नाम सिंहसेन था। इनके पिता का ये अपभ्रंश भाषा मे लिखे हैं । 'ध्यात्मसन्दोह', सुभाषित नाम हरिसिंह साहू था और माता का नाम विजय श्री -तन्त्र, अमृतासोती, तत्त्वार्थ टीका की भाषा सस्कृत है। था। ये सघपति देवराज के पौत्र थे। इनकी पत्नी सावित्री इस प्रकार हम देखते है कि आवाय जोइन्दु ने दोहा शैली से उदयराज नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था। बहोल और में आध्यास्मिक ग्रथों की रचना की वैदुध्य पूर्ण रचना की है। मानसिंह नामक इनके दो बड़े भाई थे। इनका जन्म वि. रामसिंह-मुनि रामसिंह एक आध्यात्मिक अपभ्रंश सं. १४५७-१५३६ में ग्वालियर में आया। ये पावती भाषा के कवि थे। इनका समय वि. स. १००० माना पुरवाल वश के थे। डा. राजाराम जैन ने इनकी निम्नांजाता है। इन्होने पाहुड दोहा, सावधम्म दोहा की कित रचनाएं मानी है-(१) मेहेस रचरिउ, (२) णेमिरचमा की थी। णाहचरिउ, (३) पासणाहचरिउ, (४) सम्मइ जिणचरिउ, विवध धोधर-अपभ्रंश भाषा के कवि विवुध (५) तिसट्ठिमहापुरिसचरिउ, (६) महापुराण, (७) बलश्रीधर के पिता का नाम बुधगोलह और माता का नाम हद्दचरिउ, (८) हरिवंश पुराण, (९) श्रीपाल चरित (१०) वील्हा देवी था। ये अग्रवाल कुल में उत्पन्न हए थे। प्रद्युम्न चरित, (११) वृत्तसार, (१२) कारण गुणषोडशी, 'विवध श्रीधर ने 'वढमाण रिउ' को प्रशस्ति में कहा है (१३) दशलक्षण जयमाला, (१४) रत्नत्रयो, (१५) षह. कि नेमिचन्द्र की प्रेरणा से उन्होने 'वड्ढमाणचरिउ' की धर्मोपदेशमाला, (१६) भविष्यदत्त चरित, (१७) करकंड रचना की है। इससे सिद्ध है कि नमिचन्द्र साहू उनके चरित, (१०) आत्मसम्बोधन काव्य, (१६) उपदेशरत्ननाश्रयदाता थे। 'पासणाह वरिउ' को प्रशस्ति से ज्ञात माला, (२०) सिमधर चरित, (२१) पुण्याश्रव कथा, होता है कि 'पासणाहचरित' के रचने की प्रेरणा उन्हे (२२) सम्यक्त्वगुणनिधान काव्य, (२३) सम्यग्गुणारोहण नट्टल साहू से प्राप्त हुई थी। काव्य, (२४) षोडशकारण जयमाला, (२५) बारहभावना, विध श्रीधर ने 'पासणाहचरिउ' का रचना फल (२६) सम्बोधपंचाशिका, (२७) धन्यकुमार चरित, (२८) वि० सं० ११९. बतलाया है। इससे सिद्ध होता है कि सिद्धान्तार्थसार, (२६)वहसिद्धचक्र पजा. (३०)सम्यक्त्व'ये वि० सं० १२वीं शती के कवि हैं । डा. राजाराम जैा भावना, (३१) जसहरचरिउ, (३२) जीपंधरचरित,(३३) 'मे इनका समय वि० सं० ११८६-१२३० माना है। कोंमुह कहापबंधु, (३४) सुक्कोसलचरिउ, (३५) सुदंसण विध श्रीधर ने 'बडढमाणचरिउ' और 'पासणाह- चरिउ, (३६) सिद्धचक्रमाहप्प, (३७) अणथमिकहा। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भाषा के प्रमुख जन साहित्यकार : एक सर्वेक्षण हरिदेव-अनश भाषा में 'मयणपराजयचरिउ' थे जिन्होंने संस्कृत मे मदन पराजय की रचना.की.पी। की रचना करने वाले हरिदेव ने इस खण्ड काव्य मे जैन इनका जन्म सोमकुन में वि. सं. १२-१५वी शती के बीच सिद्धान्तानुसार आचार विषयक तत्त्वो का उल्लेख किया में हुआ था" । 'मयपराजय चरिउ' में जिस प्रकार जैनहै। इनका उल्लेख करते हुए बतलाया है कि कौन मे तत्व धर्मविषयक तत्त्वों का उल्लेख हआ है, उससे,सिद्ध होता मोक्षमार्ग एव मोक्ष की प्राप्ति में वाधक हैं और कौन से है कि वे जैनधर्म पे क्षिा वश्य हप होगे। तत्त्व मोक्ष-प्राप्ति में साधक है। 'मयणपराजय चरिउ' के उपर्युक्त उल्नेख में यह साष्ट हो जाता है f. अपभ्रश प्रारम्भ मे हरिदेव ने जो अपना परिचय दिया है उससे भाषा में जैनधर्म दर्शन एवं सस्कृत परमात्रा मे सम्बधित ज्ञात होता है कि इनके पिता का नाम चगदेव और माता करने के लिए अपभ्रश के महाकवियो ने महाकाव्य और का नाम चित्रा था। किंकर कृष्ण राघव और द्विजवर खण्ड गि लिखकर भारतीय वाङ्मय के सम्बर्धन मे इनके भाई थे। इनकी छठी पीढी मे नागदेव द्वितीय हए बहन बड़ा योगदान दिया। सन्दर्भ-सूची १. डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री . अपभ्रश भाषा और १३. (क) डा. विद्याधर जोहा पुरकर : स्वयम् का प्रवेश, साहित्य की शोध प्रवत्तिया पृ८। . वही। ३. जैनविद्या अक १ पृ. ७-१८ । द्रष्टाहा हीरालाल जैन : भारतीय संस्कृति म (ख) निम्तृत परिनय के लिए देखें ---डा. नेमिचन्द्र जैनधर्म का योगदान । ४. डा. राजाराम जै। : रइधू शास्त्री : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य साहित्य का आलोचनात्मक परिशीन पृ.६-१0। पर परा, खड ४, ६-६८। ५. वही पृ.८। १४. पउमरि उ, प्रशस्ति गाथा ३-४ । ६. (क) च उमुह सम्भवाण । स्वयम्भू: प उपचारउ १५. डा. हीरालाल जै। भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का प्रशस्ति गा. ७. __ योगदान, पृ १५४। (ख) डा. हीरालाल जैन : भारतीय संस्कृति में जैन- १६. प्रशस्ति गाथा १०.६ । धर्म का योगदान पृ १५५ । ७. पृ २५ । १७ णायकुमारचारउको कवि प्रशस्ति की पक्ति ११-१५॥ ८. डा. राजाराम जैन : र इधू साहित्य का अलोच- १६. पुष्पदन्त . ज मह · चरिउ सन्धि ४ कडवक ३१ पृ १५६ नात्मक परिशीलन पृ. ११-१४ । १६. पु पदन्न : महापुरा भाग,सधि १, काव्य ६ । ..(क) महाकवि पुष्पदन्त : महापुराण भाम १, प्रथम २०. डा. नामचन्द्र शास्था : तीर्थंकर महावीर और उनकी सन्धि ९-५। ____ आचार्य पम्पग खण्ड ४, पृ. १०५ । (ख) र इध साहित्य का आलोचनात्मक पारशीलन २१. डा. हीरालाल जैन गायकूनार चरिउ को प्रस्तावना प. १०. माउर-सुग्रसिटिकइराए । पउमच रे उ, प्रशस्ति २२. डा नेमिचन्द्र शास्त्री: ती. म. और उसकी आचार्य गाथा १६। ११. "क इरायस्स......।" प उमारउ, प्रशस्ति गाथा ४ परम्परा खण्ड ४, पृ. १०६ १०७ । एवं १६ । और भी देखें-जैन विद्या (स्वयम्भू २३. वही। विशेषाक) १, पृ.६। २४. णायकुमार चरि उ, प्रस्तावना, पृ. १६-१८ । १२. (क) णापण साऽभिधा। सयम्भ धरिणी महासत्ता २५. तीथकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा पउमचरिउ सन्धि २० की पुष्पिका ।। (ख) आइच्च. पृ.१०८।। एवि-पडिएवि-पडिमोवभाए आइच्यम्बिमाए। वा. २६. धकार्वाण । भाएमरदो समुभविण । मम उज्ज्ञां-कण्ड सयान-धारणाएं लहविय ।। वहीं, धसिरहा वि सुगणावरइ उ स रसइसमविण॥ सन्धि ४२ की पुष्पिका । भवितयतकहा २२/११. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. देखें तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, खंड ४, पृ. ११३-११४ । २८. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ. १६१। २६. जैनविद्या, अंक ४, अप्रैल १९८६, पृ.६। ३०. (क) डा. हीरालाल जैन : भारतीय संस्कृति मे जैन धर्म का योगदान । (ब) डा. राजाराम जैन : र. सा. आ. प. पृ. २१-२२ ३१. डा. नेमिचन्द्र शास्त्री : ती. म. मा. प. खड ४, पृ. ११८-११६ । ३२. प्रशस्ति गाथा ६ । ३३. प्रशस्ति गाथा । ३४. पढमकलत्तंगहो संताणकतत्तविडवि पारोहो। विणयगुणमणिनिहाणो तणलो तह नेमिचंदोत्ति ॥वहीर ३५.(क) देखें-ती. म. आ.प.खड ४, ५.१२५। (ख) जंबूसामिचरिउ की प्रस्तावना पृ. १६। १६. सो जयउ कई वीरो जिणंदस्स कारियं जेण । पाहाणमयं भवणं पियरुद्दे सेण मेहवणे ॥प्र. गा.१० ३७. देखें-जंबूसामिचरिउ की प्रस्तावना १९ । ३८. (क) वही पृ. १३। (ख) ती. म. आ प. खंड ४, पृ. १२६-२७ । १६. देखें-'करकंडचरि' १०/२८ । ४..वही पृष्ठ ११-१२। ४१. देखें-ती. म. ना. प. भाग ४, पृ. १६०.१६१ । ४२. 'करकंडुचरिउ' १०.२९ । ४३. जिरिंगदस्स वीरस्स तित्थे महंते। महाकुंदकुंदाण्णा पतसंते॥ ... ... ... ... ... || 'सुदंसणचरिउ', १२-६-२ ४४. बही १२-१० । ४५. 'परमात्म प्रकाश' २/२११। ४६. जैन विद्या अंक ६ (दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र महा वीर जी राजस्थान) १९८८, पृ. २। ४७. ती. म. आ. प. खंड २, पृ २४७-२४८ । ४८. (क) पासणाह चरिउ, प्रशस्ति । (ख) वड्माणचरिउ, प्रशस्ति १०/४१। ४६.डा. नेमिचन्द्र शास्त्री: ती. म. आ. प. खंड ४ पृ. १३८-३६। ५०. 'वढमाणचरिउ' की प्रस्तावना पृ. ७ । ५१. वही पृ. ६। ५२. ती. म आ. प., खड ४, पृ. १४५-१४६ । ५३. डा. राजाराम जैन : रइधु साहित्य का आलोचना त्मक परिशीलन, पृ. ४६-५ । ५४. डा. हीरालाल जैन : 'मयणपराजय वरिउ' की प्रस्तावना पृ. ६१ । --प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली 'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धी विवरण प्रकाशन स्थान-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के निमित श्री बाबूलाल जैन, २ अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता-भारतीय । प्रकाशन अवधि-त्रैमासिक । सम्पादक-श्री पपचन्द्र शास्त्री, वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता-भारतीय । मुद्रक-गीता प्रिटिंग एजेंसी, न्यू सीलमपुर, दिल्ली-५३ स्वामित्व-वीर मेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ मैं बाबूलाल जैन, एतद् द्वारा घोषित करता हूं कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है। बाबूलाल जैन प्रकाशक Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म एवं संस्कृति के संरक्षण तथा विकास में तत्कालीन राजघरानों का योगदान डॉ. कमलेश जैन, रिसर्च एशोसिएट -सं. स. वि. वि., वाराणसी वर्तमान बिहार प्रांत का धार्मिक, सांस्कृतिक एवं यही हुए। जिन्होंने इस क्षेत्र में रहकर सम्पूर्ण भारत पर राजनैतिक दष्टि से अद्वितीय स्थान है। प्राचीनकाल में शासन किया। उपलब्ध जैन-जेनेतर सन्दो , पुरातात्विक यह क्षेत्र 'मगध' और 'विदेह' के नाम से प्रसिद्ध होता है . अवशेषों के अनुसार, यहां के कई नरेश जैनधर्म के अनु'मगध' जैनपुराणों में वणित १३ देशों, महाभारत मे यायी, अनुरागी एवं भक्त रहे हैं। उन्होने इस धर्म को न उल्लिखित १८ महाराज्यों, प्राकृत भगवती सूत्र के १६ केवल राष्ट्रीय-धर्म के समान प्रतिष्ठा दी, वरन उसके जनपदों तथा वर्धमान महावीर एवं बुद्ध कालीन ६६ महा- सरक्षण, उद्धार एव प्रचार-प्रसार मे श्री महनीय योगदान जनपदों में परिगणित किया गया है। प्राग-ऐतिहासिक दिया है । इसकी प्रभावना के लिए उन्होने महत्वपूर्ण कार्य काल से मगध और विदेह श्रमणधर्म/जैनधर्म और किये हैं । अत आधुनिक बिहार प्रांत का धार्मिक, राजसंस्कृति के प्रधान केन्द्र रहे हैं। वर्तमान में उपलब्ध राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण से विशेष योगदान जैनधर्म, साहित्य और संस्कृति का, प्राचीन काल में इसी है। क्षेत्र में सर्वाधिक संरक्षण, पोषण एव संवर्धन हा। जैन प्रस्तुत निवन्ध में आधुनिक बिहार प्रान्तीय तत्कालीन परम्परा के २४ तीर्थंकरों में से २२ तीर्थंकरो ने इसी क्षेत्र प्रमुख जैन राजाओ, राज्य से सम्बद्ध प्रमुख व्यक्तियों एवं में निर्वाण प्राप्त किया। छह तीथंकरो के गर्म, जन्म, ज्ञान उनके द्वारा जैनधर्म, साहित्य एम सस्कृति के संरक्षण तथा और निर्वाण कल्याणक भी यहीं हुए। प्रचार-प्रसार हेतु किए गये उपायो का सक्षिप्त आकलन यह वही पवित्र भूमि है, जहां पर वर्धमान महावीर किया गया है। एवं तथागत बुद्ध जैसे महान् पुरुषों का जन्म हुआ। इसी प्रायः ढाई हजार वर्ष पूर्व जिनधर्म या श्रमणधर्म की को उन्होने अपनी साधना तथा कर्मभूमि बनाया। और सर्वाधिक प्रभावना वद्धमान महावीर द्वारा हई। जैनधर्म, उत्कृष्ट, नैतिक, परमोपयोगी, सर्वजनग्राह्य, लोककल्याण- जन साहित्य एव जन-संस्कृति का जो स्वरूप मान उपकारी, सर्वजनहितकारी विचारों एवं क्रियाओं से शताब्दियों लब्ध है, उसका सबसे अधिक श्रेय वढमान महावीर को तक प्रभावित किया तथा आज भी हम उनके इस अवदान हो जाता है। वर्द्धमान का जन्म वैशाली के से प्राप्लावित तथा अनुप्राणित हैं। यह बिहार प्रांत उन्ही हुआ था। उनके पिता सिद्धार्थ इस कुल के मुखिया थे। ऐतिहासिक महान् आत्माओं की कर्मस्थली है, जिनके उनको माता विशला नैदेही गैशाली गणतत्र के शासक पावन उपदेशों ने न केवल भारतवर्ष को, अपितु समस्त चेटक की बेटी थी (एक अन्य अनुश्रुति के अनुसार त्रिशला संसार को अहिंसात्मक आचरण का प्रशस्त मार्ग दिखाया। चेटक की बहिन थी)। महावीर ने अनेक वर्षों तक इसी इस क्षेत्र के ऐतिहासिक राजाओं, महाराजाओं एवं बिहार प्रान्त के (दक्षिण बिहार) पर्वतीय तथा जांगलिक सम्राटो ने भी शताब्दियों तक देश-विदेश की राजनीति को प्रदेशों में कठोर आत्म साधना की। उनका प्रथम उपदेश प्रभावित किया है। प्राचीन भारतीय इतिहास मे शिशु- राजगृह या पन्चशेलपुर के विपुलाचल पर हुमा। मगध नागवश लेकर गुप्तवश तक के सभी प्रभावशाली सम्राट सम्राट श्रेणिक बिम्बसार उनका प्रमुख श्रोता था। इन्द्र Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६, वर्ष ४',कि.१ अनेकान्त भति आदि ग्यारह प्रधान शिष्य थे। महावीर का अनेक तीर्थकर पाप नाय का जन्म हुआ था। अतः मगध के इस स्थानो पर हार हुआ, इममह वा पविक ही था कि व्रात्य क्षत्रिय नागश का कुलधर्म प्रारम्भ से ही जैनधर्म यह क्षेत्र उनके उपदशा से प्रभावन ।। अतएव तत्का- रहा प्रतीत होता है। श्रेणिक के कुमार काल मे ही उसके लीन प्रसिद्ध राजा-महाराजा म से अधिकत उनके पिता ने किसी कारण कुपित होकर उसे राज्य से निर्वाउपदेश से प्रभावित हुए। उनके उपदेश का सार गोतम सित कर दिया था। और अपने दूसरे पुत्र चिलातिपुत्र को मादि गणघरो (शिष्यो) द्वादशाग श्रुत के रू। म गूया। अपने राज्य का उत्तराधिकार सौप दिया था। अपने और वही द्वादशांगश्रुत विपुल जैन माहित्य का मूल आधार निर्वासन काल मे श्रेणिक ने देश-देशान्तरों का भ्रमण बना । अन्त मे इसी क्षेत्र के एक वि। शष्ट स्था पावा में किया और अनेक अनुभव प्राप्त किये । इमी निर्वासन महावीर ने निर्वाण लाभ किया। महावीर के जीवन काल काल मे वह कुछ जैनतर श्रमण साधुओं के सम्पर्क मे आया मे ही उनके भक्त अनुयायो की मख्या ल खों मे पहुच और उनसे प्रभावित होकर उनका भक्त हो गया। साथ गयी थी, जिसका निरन्तर विकार होता रहा ओ. धीरे- ही जैनधर्म से विद्वेष भी करने लगा। कुछ अन्य अनुधीरे समस्त भारत तथा विदेश में भी उनके अनुयायो भक्त श्रुतियों के अनुसार वह बौद्ध हो गया था। परन्तु जैन बने। इनके अतिरिक्त अनेक व्यक्ति पार्व आदि पूर्व साहित्य के परिप्रेक्ष्य मे यह निश्चय किया जा सकता है तीर्थकरो के ही उपासक बने रहे। कि वर्तमान महावीर को देवल जान प्राप्त होने से पहले यद्यपि भगवान महावीर को आई श्रमण या जिनधर्म वह जनधर्म का अनुय भी हो गया था। साथ ही प्राचीन की ऋषभादि पार्श्वनाथ पर्यम्त एक लम्बी परम्प ना वि. जैन साहित्य के आलोक में यह अवश्य प्रतीत होता है कि सत मे मिली थी। उनके माता-पिता आदि भी पार्श्व के अंणिक अपने पूर्वाद्ध जीवन काल में किसी जैनेतर परंपरा अनयायी बताए गये है। महावीर परम्परा से प्राप्त उस (महावीर की मान्यताओ से पृथक विचार वाले अन्य धर्म को युगानुरूपता प्रदान की उगका पुनः उद्वार किया, श्रमण) का भक्त हुआ होगा। संभवत: इसी लिए जैन और उसमे यथोचिन परिवर्तन-परिवर्द्धन कर लोककल्याण परम्परा मे उसकी अवनति नरकाहि ra: के लिए उनका उपदेश किया। म विीर के उदेशों से कही गयी है। और चूकि वह महावीर की प्रथम ग्रामप्रभावित होकर राजा लोग उनके भक्त हुए । अनेक विशिष्ट सभा (समवशरण) होने तक पुन: जैनधर्म का पक्का व्यक्ति उनके सम्पर्क में आए और उनके अनुयायी होते श्रद्ध लु (अनुयायी) हो चुका था। पश्चात् उसने जैनधर्म गये। इस प्रकार तद्-तद् राजा का श्रद्धास्पद धर्भ हो का प्रचार-प्रसार एवं उसकी प्रभावना भी की, सभवत: प्रायः राष्ट्रधर्म या राज्य धर्म के रूप में प्रतिष्ठित होता इसीलिए उमके जन्मान्तर मे उत्कर्ष (भावी तीर्थकमे होने) गया और जैनधर्भ राजकुल का धर्म बना रहा । इस तरह की बात कही गयी है। ई.प.की अनेक शताब्दियों में जैनधर्म को राष्ट्रधर्म-राज्य श्रेणिक के भाई के राज्य कार्य से विरक्त होने के धर्म जैसा स्थान प्राप्त रहा, अर्थात् राज्याश्रय प्राप्त रहा। फलस्वरूप लगभग ई. पू. छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध मे ई. पू. सातवीं शती को मगध राज्यक्रान्ति के पश्चात् श्रेणिक मगध को राज्य गद्दी पर बैठा। उसने राजधानी शिशुनागवशीय प्रारम्भिक राजाओ में सर्वप्रसिद्ध राजा राजगृह का पुननिर्माण किया। राज्य के सगठन एवं विम्बिसार श्रेणिक था। इसके पूर्वजो ने काशी से आकर शासन को सुव्यवस्थित किया। एक कुशल एवं योग्य राजमगध की गद्दी पर अधिकार किया था। डा. काशीप्रसाद नीतिश के समान उसने पड़ोसी राजापों से यथोचित जायसवाल के अनुसार "काशी से आने वाला मगध का सन्धियो की। अपने से शक्तिशाली राजाओं को अपना प्रथम'नरेश शिशुनाग था और इसी कारण मगध का यह मित्र तथा सम्बन्धी बनाया। इस प्रकार श्रेणिक ने अत्यंत ऐतिहासिक राजवश शिशुनागवंश कहलाता है। यह राजा सूझ-बूम एवं राजनीतिक निपूणता से ५२ वर्षों तक मगध उसी वंश में पैदा हुआ था, जिसमे ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती एग पर शासन किया। ई.पू. ५३३ में उसकी मृत्यु हुई । जन Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म एवं संस्कृति के संरक्षण तथा विकास में तत्कालीन राजघरानों का योगदान साहित्य से यह भी पता चलता है कि विम्बमार श्रेणिक जैन माहित्य के अनुसार अजातशत्र कुणिक अत्यधिक मात्र एक विजयी, प्रतापवान् राजा ही नहीं था, अपितु महत्वकांक्षी एवं क्रूर स्वभाव का राजा था। कुणिक वह एक कुशल शासक एवं निपुण राजनीतिज्ञ भी था। महावीर का भक्त था और अपने कुलधर्म जैनधर्म का ही उसने एक नीतिपरायण आचारसंहिता के प्राधार पर अनुयायी था। केम्ब्रिज हिस्ट्री के अनुसार उसने जैन शासन किया था, अतएव उसके राज्य में न तो किसी श्रावक के व्रत धारण किये थे। कुणिक गौतम बुद्ध का भी . प्रकार की अनीति थी और न किसी प्रकार का भय था। आदर करता था, परन्तु वह उनका भवन या अनुयायी प्रजा भली भांति सुख का अनुभव करती थी। वह दया- नही था । बौद्ध साहित्य में उसकी बहुत निन्दा की गई है वान एवं मर्यादाशील था। साय ही दानवीर एवं निमाता और उसे पितृहन्ता कहा गया है। परन्तु, जैन परम्परा में भी था। उसने जैनधर्म और संस्कृति का बहुविधि प्रचार- अजातशत्रु को प्रशसा मिनती है। उसने मूर्तिनिर्माण कला प्रसार तथा विकास किया। उसने सम्मेदशिखर पर्वत पर को प्रोत्साहन दिया और उसके द्वारा महावीर आदि जैन निषिद्यकाएं बनवायी। अगर जैन मन्दिर बनवाये। तीर्थ करो की मूर्तियां बनवाई गयी। इसके अतिरिक्त उसके अनेक स्तूपों का निर्माण कराया एवं अनेक चैत्य आदि द्वारा स्य अपनी मूर्तियां भी बनवाई गयी प्रतीत होती भी उसके द्वारा बनवाये बताये गये हैं। राजगृह के प्राचीन हैं। परखम नामक स्थान से एक राजा की मति मिली है, भग्नावशेषों में श्रेणिक के समय की मूर्तियां आदि भी जिसे डा. जायसवाल ने स्वय अजातशत्रु कुणिक की मूर्ति मिली बताई जाती है। के रूप में पहचाना है। उनके मतानुमार यह मूति उसी जैन अनुश्रतियों के अनुसार श्रेणिक अपनी प्रिय पत्नी के शासनकाल मे निमित हुई प्रतीत होती है। चलना के प्रभाव से जैनधर्म का भक्त बना था। चेलना कुणिक एक प्रतापी राजा था। वह शासनकार्य में महाबीर की मौसी या ममेरी बहिन थी। महावार का भी अत्यन्त निपुण था। उसने अनेक विषयों में अपने पिता प्रथम उपदेश विपुलाचल पर हुआ था। राजा श्रेणिक की नीतियों का अपनाया। उसने साम-दाम-दण्ड-भेद की परिवार एवं परिकर सहित महावीर की धर्मसभा में नीति अपनाकर अपने राज्य का अत्यधिक विस्तार किया उपस्थित हुआ एक श्रावकसघ का नेता बना था। रानी तथा साम्राज्य शक्ति को भी सुदढ़ किया। पिता-पुत्र चेलना श्राविका संघ की मुखिया बनी। यह भी कहा दोनो के शासनकाल में भारत को श्रमण विचारधारायें जाता है कि श्रेणिक ने वर्द्धमान महावीर के समक्ष एक- मध्यएशिया होकर ईरान तक पहुची थी। एक करके साठ हजार प्रश्न उपस्थित किये और महावीर अजातशत्र के बाद उसका पुत्र उदयी या उदयिन ने उनका सविस्तार समाधान किया था। इन्हीं प्रश्न- मगध की राजगद्दी पर आसीन हुआ। जैन साहित्य में उत्तरो के आधार पर जनवाङमय की रचना की गई। उसके बहुत उल्लेख मिलते हैं और उसका विवेचन एक श्रेणि क के अभयकुमार, मेघकुमार, वारिषेण; कुणिक महान् जननरेश के रूप में किया गया है । उसने पाटलिश्रादि कई पुत्र थे । अभयकुमार आदि पुत्रो के विरक्त हो पुत्र को बसा !T, और अपनी राजधानी को राजगह से जाने के फलस्वरूप श्रेणिक ने चेजना से उत्पन्न पुत्र कुणिक पाटलितुत्र ले आया । इस नरेश की भी एक प्रस्तर मूति अपरनाम अजातशत्रु को राज्यपाट सौंप दिया। और स्वय मिली बताई जाती है। उदयो के पश्चात शिशुनाग वशीय धर्मध्यानपूर्वक शेष जीवन व्यतीत करने का निश्चय किया। कुछ और उत्तराधिकारियो ने मगध पर शासन किया। राज्यसत्ता प्राप्त होने पर कुणिक ने किसी (देवदत्त) के और वे भी जैनधर्म के भक्त तथा अनुयायी रहे, ऐसा माना बहकाने पर अपने पिता को बन्दीगह मे डाल दिया। जाता है। कालान्तर मे वहीं उसकी मृत्यु हुई। इस तरह धर्मपरायण कालान्तर मे मगध में नंदवश की स्थापना हुई। इस प्रतापी वंश एवं मगध के प्रथम ऐतिहासिक सम्राट वंश का प्रसिद्ध उत्तराधिकारी काकवणं कालाशोक था। श्रेणिक विम्बसार का दुःखान्त हो गया। वह नंदवश का सर्वाधिक प्रतापी राजा था। खारवेल के Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८, वर्ष ४५. कि०१ অলকা हाथीगुफा शिलालेख से यह तथ्य प्रकट है कि मगध के आदि जैनधर्म के प्रतीकों से युक्त सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। प्रतापी राजा नन्द (महापद्मनन्द) ने कलिंग पर विजय २५ वर्ष राज्य करने के बाद अपने पुत्र बिन्दुमार को प्राप्त की और उस राष्ट्र के इष्टदेवता कनिगजिन-आदि- राज्य देकर चन्द्रगुप्त मुनि होकर दक्षिण की ओर चला जिन (तीर्थंकर ऋषभदेव की प्रतिमा को उठाकर पाटलि- गया । और श्रवणबेलगोल पहंचा। वहां पर्वत पर तपस्या पुत्र (मगध) ले आया था। राजा खारवेल पुन. इस मूर्ति कर देहत्याग किया। उसी समय से वह पर्वत चन्द्रगिरि को मगध से कलिंग ले गया और अपने राज्य में उसे फिर के नाम से प्रसिद्ध हआ। उनके समाधिमरण स्थान पर प्रतिस्थापित किया। इस उल्लेख से राजानन्द एव खारबेल चरण-चिद्ध भी बने हातानी TEAM की जिनधर्म में श्रद्धा एवं भक्ति का महान् परिचय मिलता पगति" में चन्द्रगुप्त मौर्य को उन मुकुटबद्ध मांडलिक है। विन्सेन्ट स्मिथ तथा कैम्ब्रिज हिस्ट्री के अनुसार, सम्राटों में अन्तिम कहा गया है, जिन्होंने दीक्षा लेकर नन्दराजा जैनधर्म के अनुयायी थे। इस वश के अन्य । अपना अन्तिम जीवन जैन मुनि के रूप में व्यतीत किया। उत्तराधिकारी भी जैनधर्मानुयायी रहे है। इन्ही नन्द उसके पुत्र बिन्दुमार को भी उसका अनुकरण करने वाला वंशीय राजाओ के समय में श्रुतकेवली भद्रबाहु को मृत्यु बताया गया है। जमने भी अनेक मन्दिरों आदि का हई। सम्भवतः इसी समय वह परम्पराप्रसिद्ध भयकर निर्माण कराया था। दभिक्ष पड़ा, जिसकी सूचना पाकर भद्रबाहु दक्षिण कोबिन्दुमार के पश्चात् उसका पुत्र अशोक मौर्य साम्राज्य ओर विहार किए थे। का अधिपति बना। आधुनिक इतिहासकारों ने उसकी तत्पश्चात चन्द्रगुप्त मौर्य ने आचार्य चाणक्य को गणना संसार के महान सम्राटों मे की है। अशोक के अपने सहायता से मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। प्राचीन जैन श्रद्धास्पद धर्म के विषय में कोई स्पष्ट जानकारी नही अनश्रतियों के अनुसार चाणक्य के माता-पिता जन्म से मिलती है। उसके सम्बन्ध मे सबसे बडे अधार वे ऐति. बादाण और धर्म से श्रावक (जैन) बनाये गये हैं। चन्द्र- हासिक शिलालेख हैं जो उसके द्वारा लिखाये माने जाते गुप्त ने चाणक्य के सहयोग से साम्राज्य का संगठन एवं है। इन शिलालेखो के आधार पर कुछ विद्वानों को शासन की सचारु व्यवस्था की। उसने पड़ोसी राजामा मान्यता बनी है कि वह बौद्धधर्म का अनयायी था और को जीतकर उज्जनी को अधिकृत किया । और बौद्धधर्म के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से उसने ये लेख लिखफिर दक्षिणदेश की विजय करने के लिए यात्रा की। वाये । कुछ अन्य विद्वानो के अनुसार, इन शिलालेखों के मट में गिरिनगर (गिरनार) के नेमिनाथ की उसने भाव और विचार बौद्धधर्म की अपेक्षा जैनधर्म के अधिक वन्दना की। और गिरिनगर पर्वत की तलहटी मे सुदर्शन निस्ट हैं। उमका कुलधर्म भी जैन था इसलिए वह अपने झोल नामक विशाल सरोवर का निर्माण करवाया । इसी सम्पूण जीवन भर नही तो कम से कम अपने जीवनकाल सील के तट पर निग्रन्थ मुनियो के निवास के लिए उमने के पूर्वाद्ध मे वह अवश्य जैन रहा है। अनेक विद्वान् ऐसे अनेक गुफाएं बनवायीं, जो आज चन्द्रगुफा आदि के रूप भी हैं. जिनका मत है कि वह न मुरूपत. बौद्ध था और न २ प्रसिद्ध है। ही जैन, अपितु एक नीतिपरायण सम्राट था, जिसने प्रजा चन्द्रगुप्त मौर्य जैनधनुरागी था। वह साधुणों का के नैतिक उत्कर्ष के लिए एक ऐसा व्यवहारिक राष्ट्रधर्म विशेष रूप से आदर करता था। जैनपरम्परा मे उसे शुद्ध लोक के सम्मुख प्रस्तुत किया था जो सर्वजन ग्राह्य था। क्षत्रिय कुल मे उत्पन्न कहा गया है, ब्राह्मण साहित्य को उसके जीवन के प्रमुख एवं भीषण कलिंग युद्ध ने उसको भांति वृषल या शुद्र नही। उसने अनेक अतिथिशालाएं, मानसिक कायाकल्प कर दो, और उसने युद्धों से विरत धर्मशालाओं का निर्माण कराया। स्वय सम्राट श्रमणो रहने की प्रतिज्ञा की। फिर उसने अनेक लोकापयोगी और ब्राह्मणों को निमन्त्रित करता था। उनका आदर कार्य कराये। अशोक श्रमण और ब्राह्मण दोनों वर्गों का करा था। इस सम्राट के विरत्न, चैत्य एव दीक्षावृक्ष आदर करता था। उसने पशुवध का निवारण करने और Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म एवं संस्कृति के संरक्षण तथा विकास में तकालीन राजघरानों का योगदान १६ मांसाहार का निषेध करने के लिए कड़े नियम बनाये थे। समय में जैन प्रचारक भेजे गये और वहां जैन साधुओं के वर्ष के ५६ दिनों में उसने सभी स्थानो पर सब प्रकार की लिए अनेक विहार स्थापित किये गये । इस प्रकार अशोक जीवहिंसा बन्द रखने के लिए राजाज्ञा जारी की थी। ये और सम्प्रति दोनों के कार्यों से प्रार्यसंस्कृति एक विश्वदिन कौटिल्य के अर्थशास्त्र मे वणित पवित्र दिनों एवं जैन संस्कृति बन गयी और आर्यावर्त का प्रभाव भारत की परम्पराओं में मान्य पर्न-दिनो से प्रायः पूरी तरह मेल खाते सीमानों के बाहर तक पहुंच गया। अशोक की तरह शिलालेखों में अशोक के द्वारा निर्ग्रन्थों (नग्नमुनियों)का उसके इस पोते ने भी अनेक इमारते बनवाई । राजपूताने विशेष प्रादर करने के उल्लेख है। राजतरगिणी एवं आइने- की जैनकला कृतिया उसके समय की मानी जाती जैन अकबरी के अनमार अशोक ने कश्मीर मे जैनधर्म का प्रवेश लेखकों के अनुसार सम्प्रति समचे भारत का स्वामी था।" कराया था और इस कार्य मे उसने अपने पिता बिन्दुसार 'विपण्ट स्मिथ के अनुसार" मम्प्रति प्राचीन भारत तथा पितामह चन्द्रगुप्त का अनुकरण किया था। में बड़ा प्रभावक शासक हुआ है। उसने, अशोक ने जिस सम्राट अशोक के बाद उसका पुत्र कुणाल, जिसका प्रकार बौद्धधर्म का प्रचार किया था उमी प्रकार जैनधर्म दूसरा नाम सुयश भी है, मौर्य साम्राज्य का उत्तराधिकारी का प्रचार किया। धर्म प्रचार के कार्यों की दृष्टि से चन्द्रबना । किन्तु वह अपनी विमाता के छल से अन्धा हो गया। गुप्त से भी बढ़कर इसका स्थान है।" कुछ विद्वानो का था। प्रारम्भ मे उसके पुत्र सम्प्रति ने पिता के नाम से यह भी मत है कि अशोक के नाम से प्रचलित शिलालेखों राज्य किया। कालान्तर मे सम्प्रति स्वतंत्र राज्य करन में से कई शिलालेख सम्प्रति द्वारा खदाये गये हो सकते लगा। सम्प्रति ने उज्जैनी को अपनी प्रधान राजधानी जनका कथन है कि समाज की माता बनाया। अपने पितामह अशोक की तरह वह भी एक प्रिय" थी और सम्प्रति को वह "प्रियदशिन" कहता था। महान, शान्तिप्रिय एवं प्रतापी सम्राट था। जैनाचार्य अतः जिन लेखों मे "देवाना प्रियस्य प्रियदशिन राजा" सहस्ति उसके धर्मगुरु थे। उनके उपदेश से सम्प्रति ने एक द्वारा उनके लिखाये जाने का उल्लेख है। वे अभिलेख आदर्श राजा की तरह जीवन बिताया। उसने जैनधर्म की जिनमें जीवहिंसा निषेध एव धर्मोत्सवों प्रादि का वर्णन है। प्रभावना एवं प्रचार-प्रमार के लिए अथक प्रयत्न किये। सम्प्रति के पश्चात उसके अनेक उत्तराधिकारी भी बौदधर्म के प्रचार-प्रसार मे जो स्थान सम्राट अशोक अपने पूर्वजों की भाति जैनधर्म के भक्त रहे। उन सबके को दिया जाता है, जैनधर्म प्रचार-प्रसार मे उससे कही द्वारा भी दूर-दूर तक जैनधर्म का प्रचार होना बताया अधिक महत्त्व सम्राट सम्प्रति को दिया जा सना है। जाता है। कालान्तर मे मौर्यवंश के साथ-साथ मगध जैनसाहित्य विशेषतया, श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों मे साम्राज्य का भी अन्त हो गया। इसके बाद ई.पू. २-१ सम्प्रति के जीवन परिचय आदि के सम्बन्ध विषद वर्णन शती में शंगबंश की शासन स्थापना होने पर मगध एवं प्राप्त होते हैं । सम्प्रति ने जैन तीर्थों की वन्दना की ओर मध्यप्रदेश से जैनधर्म का राज्याश्रय समाप्त हो गया। इस जीर्णोद्धार कराये । अनगिनत जिनालयो एन मूर्तियो को प्रकार अपने मूल केन्द्र मे ही जैनधर्म शक्तिहीन, प्रभावहीन विभिन्न स्थानों में निर्माण तथा प्रतिष्ठापित कराया। एव अवनत सा हो गया। और जिस अहिंसामयी जैनधर्म ने विदेशों मे जैनधर्म के प्रचार हेतु प्रचारक भिजवाये। अनेक शताब्दियों तक न केवल भारतवर्ष की विचारधारा मामाज्य भर मे अहिंसा प्रधान जैन आचार का प्रसार को प्रभावित किया, वरन् विदेशी चिन्तन को भी प्रभावित करवाया। कर्णाटक के श्रवणबेलगोल मे भी उसके द्वारा किया, वही जैनधर्म अशक्त मा हो गया। जैन मन्दिरों का निर्माण कराया बताया जाता है। उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन से स्पष्ट है कि आधुनिक प्रो. जयचन्द्र विद्यालकार के अनुसार "चाहे चन्द्र- बिहार प्रान्त प्रायोतिरामिक काल मे: गत के च.हे सम्प्रति के समय मे जैनधर्म को बुनियाद का प्रधान केन्द्र रहा है और इस धर्म एवं सस्कृतिके संरक्षण, जाति के नये राज्यों में भी जा जमी, इसमे सन्दह पोषण एव विकास में तत्कालीन राजाओं-राजघरानों का नहीं। उत्तर पश्चिम के अनार्य देशों में भी सम्प्रति के अप्रतिम योगदान है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्षाधिक जिन विम्बों के प्रतिष्ठापक :साह श्री जीवराज पापड़ीवाल 0 ले० श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली श्री जीवराज पापडीवाल मंडासा नगर के निवासी थे प्रतिष्ठित कराया और फिर उन्हें भिन्न भिन्न स्थानों पर जो तत्कालीन राजस्थान का एक प्रसिद्ध नगर था और इस विराजमान कराया। समय यहां श्री राजा स्योंसिंह रावल का राज्य था जैसा इस शुभ कार्य के लिए श्री पापडीवाल ने यात्रासंघ कि फतेहपुर स्थित भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति के लेख का आयोजन किया जिसमें हजारों यात्री सम्मिलित थे। से ज्ञात होता है : इस यात्रा के लिए सहस्राधिक विशिष्ट वाहनों का तथा "स१५४८ बैसाख सुदि ३ श्रीमूलसघे भ० जिन- पालकियों का निर्माण कराया गया था जिनमे सभी जिनचन्द्र देवा: साह जीवराज पापड़ीवाल नित्य प्रणमति सौख्य विम्ब विधिवत् रूप से बिराजमान कर शिखर जो प्राति शहर मुडासा श्री राजा स्योसिंह रावल ।" क्षेत्रो की यात्रा के लिए प्रस्थान किया। जिनविम्बो की भोपापडीबाल खण्डेलवाल जाति के जैन थे। पापड़ी. प्रतिष्ठा और आदर को ध्यान में रखते हए लोग जिन• बाल आपका गोत्र था। शाह वखतराम ने अपने "बुद्ध विम्बों की पालकियो को स्वयं कंधों पर रख कर ले जाते बिलास" नामक ग्रन्थ में इस गोत्र का उल्लेख निम्न शब्दों थे। मार्ग मे जहां विश्राम होता वही मन्दिर में एक मति में किया है "जनवाणी भूलना पापड़ीवाल बनाये।" विराजमान कर देते। जहां मन्दिर या चैत्यालय नही . श्री पापडीबाल दि. जैन सस्कृति के प्रबल पोषक एवं होता नही चैत्यालय का निर्माण करा कर मूर्ति विगज' संरक्षक थे। जब उन्होने यवनो द्वारा मतिभजन का मान करा देते । इस तरह बैशाख शुक्ला तृतीया (अक्षय दूरभियान देखा तो उनकी आत्मा तड़फ उठी और उन्होंने ने तृतीया) स० १५४८ की प्रतिष्ठित मूर्तिया श्री पापड़ीवाल मन हो मन प्रतिज्ञा की कि यवन लोग जितनी भी मतियां ने जहां जहाँ की तीर्थ यात्रा की वही वही विराजमान तोड़ेंगे मैं उतनी ही नवीन प्रतिमाओ का निर्माण कर करते हुए आगे बढ़ते गये। • उन्हें जगह-जगह प्रतिष्ठित कराऊँगा । यद्यपि धृष्ट यवनो इस तरह श्री पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित स० १५४८ ने पुरानी कलापूर्ण अनेको मतियों का भंजन कर की मूर्तियां गुजरा, पंजाब, हरियाणा, बंगाल उ० प्र०, कमा एवं पुरातत्त्व का अपमान तो किया ही साथ ही महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, बिहार, बुन्देलखड आदि प्रदेशों में भारतीय संस्कृति की बहमल्य धरोहर को सदा के लिए प्रचुरता से मिलती हैं। ये मूर्तियां इस बात की प्रतीक नष्ट कर दिया खण्डित कर दिया। इस पीड़ा से पीड़ित कि यवनो द्वारा मूर्तिभंजन को चुनौती को श्री पापडीवाल भी पापडीवाल ने लक्षाधिक जिनविम्बों का निर्माण कर- ने मिशन के रूप मे सभाला था और वे अपने मिशन में वाया और अक्षय तृतीया (बैशाख शुक्ल तृतीया) सं० पूर्णतया कामयाब भी हुए थे। दि० जैन संस्कृति के प्रबल १५४८ तदनुसार ई. सन् १४.२ मे एक विशाल गजरथ पोषक श्री पापड़ीवाल को उस महान् गजरथ प्रतिष्ठा को प्रतिष्ठा महोत्सव कराया, इस महायज्ञ के होता श्री भ. इस अक्षय तृतीया को पांच सौ वर्ष हो जावेंगे, दि. जैन जिनचन्द्र थे जो जयपुर शाखा के दिल्ली पट्ट पर आसीन समाज को इस दिशा में कुछ समारोह कर श्री पापड़ीवाल थे। इसी प्रतिष्ठा समारोह में श्री पापड़ीवाल ने जो का पुण्य स्मरण करना चाहिए। यहां हम कुछ मति लेख लक्षाधिक जिनविम्बो का निर्माण कराया था, उन्हें प्रस्तुत कर रहे हैं जिनमें श्री पापड़ीवाल एवं भ. श्री Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साह भी गौवराज पापड़ीवाल - २१ जिनचन्द्र का नामोल्लेख है, ये मूर्तियां छतरपुर के जैन भ० जिनचन्द्र देव शाह जीवराज पापड़ीवाल वीतरागाय मन्दिरों में विद्यमान हैं ये मूर्तियां मूलरूप से छतरपुर की ...."प्रणमत । कम हैं पर आसपास के गांवों से जो उजड़ गये हैं लाकर (8) भ० पार्श्वनाथ श्वेत पाषाण पपासन १६" उ. यहा के मन्दिरों में विराजमान कर दी गई हों। कुछ १०" चौड़ी सं. १५४८ वर्षे बैशाख सुदी ३ मूलसंघे भ. मतियों मे स १५४८ के पहले का संवत् उत्कीर्ण है इससे श्री जिनचन्द्र देव जीवराज पापड़ोवाल ।। ऐसा लगता है कि जब ये मूर्तियां बनीं उसी वर्ष का संवत् (१०) भ० चन्द्रप्रभ श्वेत पाषाण पपासन १५.५" उत्कीर्ण कर दिया गया हो क्योंकि लक्षाधिक जिनविम्बों उ. ११.५" चोडी सं. १५४८ वर्षे बैशाख सुदी ३ श्री का निर्माण एक दो नहीं अपितु दशों वर्षों में हो पाया मूलसघे भ० जिन चन्द्र देव तम्य जीवराज शिष्य दीवी होगा पर सामूहिक प्रतिष्ठा और गजरथ महोत्सव निश्चय जनत प्रणमत शुभं भवतु नित्यं प्रणमत । ही अक्षय तृतीया सं. ०५४८ में हुआ था। कुछ मूनि लेख - (११) भ० पार्श्वनाथ श्वेत पाषाण पद्मासन १३.५" (१) भ० पानाथ श्वेत पाषाण पपासन '३' ऊँची उ. ८.५" चोडी सं. १५४६ वर्षे बैशाख सुदी ५ मलसंपे .." चौडी सं. १५४३ वर्षे बैशाख सुदी ३ मूल संघे भ० भ० श्री जिनचन्द्र देव शाह जीवराज पापड़ीवाल नयस श्री जिन चन्द्र शाह जीवराज पापडीवाल नित्यं प्रणमते। रामासुर मम श्रीरस्तु । तिसमध्ये सह सुग सा श्री। (१२) भ. पाश्र्वनाथ श्वेत पाषाण पद्मासन १५" उ. (२) भ० पार्श्वनाथ श्वेत पाषाण पद्मासन १६" उ. १०" चौड़ी सं. १४८० वर्ष वैशाख सुदी ३ श्री मूलसंधे १... चौडी स० १५४३ बैशाख सूदी ३ श्री मल सधे भ० श्री चन्द्रदेव शाह जीवराज पापडीवाल नित्यं प्रणमत भ० श्री जिन चन्द्र जीवराज पापड़ीवाल वस प्रणमत सुरम सरमम श्री राजा जी स्योसिंह रावल लसहार मुद्राम। सरमने श्री रजा जिए संघ.." नोट : --- इसमें स. १४८० गलत है यह सं. १५४८ होना (३) श्री भ० चन्द्रप्रभ श्वेत पाषाण पद्मासन ३.१" चाहिए। लिपिकार प्रथम अक' के आगे ५ उ. ६.५" चौड़ी सं. १५४६ बैशाख सुदी ३ मूनसंघे भ. लिखना भल गया जिससे अन्तिम अंक शुन्य जिनचन्द्रदेव शाह जीवराज पापडीवाल । जोड़ दिया। (४) भ. पार्श्वनाथ श्वेत पाषाण पपासन १३" उ. (१३) भ० अजितनाथ श्वेत पाषाण पपासन १." १." चौड़ी सं. १५४५ वर्षे बैशाख सुदी ३ शुभ जिनराज उ. " चौडी स. १५४८ वर्षे मूलसघे....."भ० जिनचन्द्र मानन्द वा जिनचन्द्र जीवराज। और जीवराज पापड़ीवाल त्रुटित अश में होना चाहिए। (५) भ० पाश्र्वनाथ श्वेत पाषाण ४०" उ. २८” (१४) भ. पाश्र्वनाथ श्याम पाषाण पचासन " उ. चौडी स. १५४८ बैशाख सुदो ३ भ. श्री जिनचन्द्र देव ५" चौड़ी स. १५४८ वर्षे .. त्रुटित अश वही भ० शाह जीवराज पापड़ीवाल मुरामा सोसिंघ राजा जी। जिनचन्द और जीवराज का उल्लेख होगा। (६) भ० चन्द्रप्रभु श्वेत पाषाण पद्मासन १७" उ. (१५) भ० चन्द्रप्रभु श्वेत पाषाण पद्मासन १०" उ. १७" चौडी सं. १५४५ बैशाख सुदी ३ श्री मूल सघं भ० " चौडी स. १५४८ वर्षे.....टित अश में उपरोक्त श्री जिनचन्द्र देव शाह जीवराज पापड़ोवाल नित्य प्रणमते नाम होंगे। शर्म श्री रासी जाससघ । (१६) भ० अरहनाथ श्वेत पाषाण पद्मासन ११" (७) भ० अजितनाथ श्वेत पाषाण पपासन १५" उ. उ. " चौड़ी स. १५४८ वर्षे बैशाख सुदी जीवराज...." १२" चौड़ी सं. १५४८ वर्षे बैशाख सुदी ३ भ० श्री जिन- (१७) भ. मुनि सुव्रतनाथ श्वेत पाषाण पद्मासन " चन्द्र देव... ऋटित अश मे पापड़ीवाल का नाम है। उ. ६" चौड़ो स. १५४८ वर्षे बैशाख सुदो ३ ....."टित (4) भ० पार्श्वनाथ श्वेत पाषाण पपासन ३.२५" अश में वही नाम होगे। उ.१०" चौड़ी सं. १५४८ बैशाख सुदी ३ श्री मूलसघे (१८) भ० पार्श्वनाथ श्वेत पाषाण पद्मासन १०.५" Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२, वर्ष ४५, कि०१ अनेकान्त उ." चौडी सं. १५४८ वर्षे..... त्रुटित अंश में वही नम्र प्रणमति सर मम श्री राजा जी सिवसिंह उका सहर नाम होंगे। मुडासा । (१६) भ० पार्श्वनाथ श्वेत पाषाण पद्मासन ३.७" (३२) भ० पार्श्वनाथ श्वेत पाषाण पद्मामन १३.५" उ.४" चौडी स. १५४८ वर्षे बैशाख...."टित अश मे उ. ८.२५ चौड़ी सं. १५४८ वरष बैशाख सुदी ३ श्री मूल वही नाम होंगे। सधे सरस्वती गच्छे भट्टारक जी श्रीजिन चन्द्रदेव""""" (२०)भ० अजितनाथ श्वेत पाषाण पद्मासन १०" (३३) भ० ऋषभनाथ श्वेत पाषाण पद्मासन १६" उ." चौड़ी सं. १५४८ वर्षे बैशाख सुदी ३ श्री जिन- उ. १३" चाड़ी श्री सं. १५५ बैशाख सुदी १ श्री मूलचन्द्र देव जय श्री भट्टारक राजेसा सघे । सघे भट्टारक श्रीजिन चन्द्रदेव शाह जीवराज पापड़ीवाल (२१) भ० पार्श्वनाथ श्वेत पाषाण पद्मासन १५" नित्य प्रणमति सोहाराम रा सागये संघा रावल । उ. १०" चौड़ी सं. १५४८ वर्षे बैशाख सुदी ३ मूलस उपर्युक्त मतिलेख श्रीकमल कुमार द्वारा सकलितभ० जिनचन्द्र देव............ "जिनमति-प्रशस्ति लेख से साभार"। (२२) तीर्थकर प्रतिमा चिन्ह उकेरना भल गये श्वेत उपर्युक्त मूति लेखों से प्रतीत होता है कि श्री पापड़ोपाषाण पदमासन १७" उ. १३.५" सं. १५४८ बैशाख वाल ने मुख्यतया श्वेत पाषाण की और पद्मासन प्रतिसदी ३ श्री मलसंघे भ. जिनचन्द्र देव शाह जीवराज माएं ही निर्मित कराई थी। उन्हें अक्षय तृतीया बहुत पापड़ीवाल...." अभीष्ट थी। अक्षय तृतीया का जैन सस्कृति में अपना ही (२३) भ. चन्द्रप्रभु श्वेत पापाण पद्मासन " उ. विशेष महत्व है, आज के शुभ दिन भ० आदिनाथ को ७" चौड़ी मूर्तिलेख क्रमांक २२ के समान । हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने षड्मासोपवास के बाद (२४) भ० अजितनाथ श्वेत पाषाण १४' उ. इक्ष रस का आहार दान दिया था तब से अक्षय तृतीया १०.२५" चौड़ी मूर्ति लेख क्रमांक २२ के समान । का जैन इतिहास में प्रतिष्ठित पर्व के रूप में प्रचलन है, (२५) भ० महावीर श्वेत पापाण पद्मासन १२" उ. यह शुभ दिन हर मांगलिक कार्य के लिए श्रेयस्कर समझा ९.५" चोड़ी सं. १५४८ वर्षे बैशाख सुदी ३ श्री मूलसंघे जाता है इसीलिए श्री पापडीवाल ने इस दिन को गजरथ भ. श्री जिनचन्द्रदेव शाह जीवराज पापडीवाल नित्यं प्रतिष्ठा कराई थी। श्री पापडीवाल राजश्रेष्ठि थे इसीप्रणमति सदामस्तु । लिए इतना विशाल आयोजन करा सके पर इतने विशाल (२६) भ. अजितनाथश्वेत पाषाण पद्मासन १४" उ. कार्य मे भले होना भी सम्भव है इसीलिए किसी मति में १०" चौड़ी मूर्ति लेख क्रमांक २५ के समान । चिन्ह का उकेरना रह गया, तो किसी मे सवत गलत (२७) भ० चन्द्रप्रभु श्वेत पाषाण पद्मासन १२” उ. अंकित हो गया तो किसी में नामोल्लेख करना भी रह ९.५" चौड़ी मूर्ति लेख क्रमांक २५ के समान । गया पर ये सब भूले क्षम्य हैं। (२८) भ० चन्द्रप्रभु श्वेत पाषाण पपासन १२" उ. श्री पापड़ीवाल भ० जिनचन्द्र के शिष्य थे जिन्होने " चौड़ी मूर्ति लेख क्रमांक २५ के समान । इनके जिनविम्बों के प्रतिष्ठा की थी, वे अपने समय के (२६) भ० सुपार्श्वनाथ श्वेत पाषाण पद्मासन ११" प्रतिष्ठित विद्वान् और प्रभावक आचार्य थे। वे मूल संघ उ." चौड़ी मति लेख क्रमांक २५ के समान । सरस्वती गच्छ वलात्कार गण के दिल्ली पट्टाधीश आचार्य (३०) भ० पार्श्वनाथ श्वेत पाषाण पद्मासन १३' पद्मनन्दी के प्रशिष्य तथा शुभचन्द्र के शिष्य थे । आचार्य उ.." चौड़ी मूर्ति लेख क्रमांक २५ के समान । जिनचन्द्र तक व्याकरणादि ग्रन्थ कुशली, मार्ग प्रभावक, (३१) भ० पार्श्वनाथ श्वेत पाषाण पदमासन १३" चारित्रचूडामणि आदि विरुदो (उपाधि या विशेषण) से उ. ६.२५" चौड़ी सं. १५४८ वरष बैशाख सुदी ३ श्री सुशोभित थे। उन्होने "चतुविशत जिन स्तोत्र" नामक मलस भ. श्री जिनचन्द देवाः शाह जीवराज पापड़ीवाल रचना का भी निर्माण किया था। (शेष पृ०२४ पर) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७वीं शताब्दी के महान् कवि कविवर बुलाकीदास एक परिचय उषा जैन, एम. ए., रिसर्च स्कालर जैन कवियों द्वारा निबद्ध हिन्दी साहित्य इतना अधिक हो। इनके पूर्वज बयाना रहते थे। लेकिन रोजी-रोटी के विशाल एवं विस्तृन है कि उसकी जानकारी प्राप्त करना लिए आगरा आकर रहने लगे थे। बुलाकीदास के पिता भी कठिन लगता है । यद्यपि विगत ४०-५० वर्षों मे जंन का नाम नन्दलाल था और उनकी मां थी जनुनदे। हिन्दी साहित्य को प्रकाश में लाने के बहुत प्रयास हुए हैं बुलाकीदास का जन्म कब हुआ इसका उनकी रचनाओं में और डा. कामताप्रसाद जैन, पं० नाथूराम प्रेमी, डा० कोई उल्लेख नही मिलता लेकिन वे महाकवि बनारसीनेमीचन्द्र शास्त्री, प० परमानन्द शास्त्री देहली एव डा० दास की मत्यु के पश्चात् प्रागरा मे उत्पन्न हुए। उनके कस्तूरचन्द जी कासलीवाल, जयपुर ने हिन्दी जैन कवियों समय में आगरा जैन विद्वानो का केन्द्र था। और उसी द्वारा निबद्ध हिन्दी साहित्य को प्रकाश में लाने को महत्व- साहित्यिक वातावरणमें कविका लालन-पालन हुआ। उनकी पूर्ण कार्य किया। डा० कासलीवाल साहब तो जैन कवियो माता जैनुलदे स्वाध्यायणीना महिला थी इसलिए उनका द्वाग निबद्ध हिन्दी साहित्य को २० भागो मे प्रकाश में अवश्य ही किसी न किसी विद्वान से सम्पर्क रहा होगा। प्रकाश लाने का एक भागीरथ प्रयत्न कर रहे है जिसके बुलाकीदास का बचपन का नाम बुनचन्द था। कुछ १० भाग प्रकाशित हो चुके हैं। इसी कार्य के लिए उन्होने बड़े होने के पश्चात अपनी माता के साथ आगरा छोड़ श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी नामक संस्था की स्थापना की दिल्ली आकर रहने लगे। यहीं पर कवि ने गोपाचल के और अब तक १०० से अधिक हिन्दी जैन कवियों पर १० (ग्वालियर) निवासी पं० अरुण रत्न के पास जैन ग्रन्थों भागो मे विस्तृत समीक्षा की है। इस प्रकार का यह पहला का विशेष अध्ययन किया। बुलचन्द देहली मे आकर प्रयास है फिर भी अभी तक जैन कवियो को इतनी अधिक बुलाकीदास कहलाने लगे और उनका यह नया नाम ही रचनाएं प्रकाशित एव अचचित हैं जिनका प्रकाशन बहुत सर्वत्र प्रसिद्ध हो गया। हिन्दी मे काव्य रचना करने की ही आवश्यक है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि श्री महावीर उनकी रुचि जागृत हुई जिसकी प्रेरणा उन्हें अपनी मां से ग्रन्थ अकादमी के माध्यम से हिन्दी मे शोध करने वाले प्राप्त हुई। कवि ने सर्व प्रथम संवत् १७४७ में अपनी मुझ जैसी शोधाथियो को विशेष लाभ हो सकेगा। प्रथम कृति 'प्रश्नोत्तर श्रावकाचार" लिखने का श्रेय मैं विगत दो वर्षों से १ वी-७वी शताब्दी के हिन्दी प्राप्त किया । यह कृति भट्टारक सकलकीर्ति के "प्रश्नोत्तर जैन कवियो पर शोध कार्य कर रही हू मुझे शोध के क्षेत्र श्रावकाचार" का हिन्दी पद्यानुवाद के रूप में है। जैन में इन दो शताब्दियो में होने वाले प्रयासो, कवियो का कवियों ने सस्कृत व प्राकृत को सभी मौलिक कुतियों का परिचय प्राप्त हुआ और उनकी महत्वपूर्ण कृतियो को हिन्दी में पद्यानुवाद करने का जो मार्ग अपनाया वह पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। प्रस्तुत लेख मे मैं एक ऐसे बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ और हिन्दी के प्रचार प्रसार कवि का परिचय देने का प्रयास कर रही हू जिसकी कृतियों में उनका सर्वाधिक योगदान रहा। प्रश्नोत्तर श्रावकाने मुझे अतीव प्रभावित किया तथा उसने हिन्दी साहित्य चार की रचना जब समाप्त हुई तो उनकी मां जैनुलदे ने को अत्यधिक महत्वपूर्ण सामग्री भेंट की। ऐसे कवि का उसे आदि से अन्त तक सुना और अपने लाडले पुत्र को नाम है कविवर बुलाकीदास जिसको काव्य रचना करने आशीर्वाद दिया और उसे मानव जीवन की सार्थक करने की प्रेरणा स्वय उनकी माता श्री जैनुलदे ने दी थी। इस वाला कार्य बतल.या। प्रश्नोत्तर श्रावकाचार का सं० प्रकार की एक भी महिला का नाम नही मिलता जिसने १७४७ बैशाख सुदी द्वितीया बुधवार को जहानाबाद अपने पुत्र को काव्य रचना करने की ओर प्रेरित किया (दिल्ली) एव पानीपत (हरियाणा) में पूर्ण किया जिसका Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४, वर्ष ४५, कि. १ अनेकान्त कवि ने निम्न प्रकार वर्णन किया प्राप्त किया। कवि को अपनी मां का आशीर्वाद प्राप्त सत्रहसे सैताल में दूज सुदो बैशाख । करना कितना महत्वपूर्ण और प्रिय होता है। इसका बुधवार मेरोहिनी भयो, समापन भाष ॥१०४|| प्रत्यक्ष प्रमाण कवि द्वारा निबद्ध पुराण में अपनी माता के तीनि हिसे या ग्रन्थ के, भये जहानाबाद । नामोल्लेख को पढ़ करके जाना जा सकता है। चौधाई जल पय विष, वीतराग परमाद ॥१०५॥ पाण्डवपुराण का हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण उल्लेख कवि की इस प्रथम रचना का सर्वत्र स्वागत हुआ है। जैन समाज मे इन काव्यो का विगत ३०० वर्षों से पठनऔर मन्दिरों में उसका स्वाध्याय होने लगा। पाठन हो रहा है। राजस्थान के जैन ग्रन्थ भंडारों में पानीपत में कुछ समय रहने के पश्चात् बुलाकीदास पाण्डवपुराण की पचासों गण्डुलिपियां संग्रहीत हैं । जिनका अपनी माता के साथ वापस देहली लौट आये लेकिन माता उल्लेख डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर ने राजस्थान और पुत्र दोनो ही स्वाध्याय प्रेमी थे । बुलाकीदास स्वय के जैन ग्रन्थ सूवी के पाचो भागों में किया है। यहीं नहीं भी प्रवचन करते और अपने ज्ञान से सबको लाभान्वित कवि बुलाकीदास एव उनकी रचनाओ का विस्तृत अध्ययन करते। कुछ समय पश्चात् माता ने अपने पुत्र के समक्ष श्री महाबीर ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकागित कवि बुलाखी पाण्डवपुराण को दिन्दी मे निबद्ध करने का आग्रह किया चन्द बुलाकीदास एव हेमराज नामक भाग-६ मे किया है। क्योकि संस्कृत व अपभ्रंश दोनो ही उसके लिए सहज जिसमे शोधाथियों को कवि के जीवन एव उनकी कृतियों समान मे नही आती थी। माता ने कहा यद्यपि शुभचन्द्र के अध्ययन में पूरी-पूरी सुविधा मिली है। का पाण्डवपुराण संस्कृत मे उपलब्ध है लेकिन उसको अन्त मे मैं यही कहना चाहूंगी कि बुलाकीदास का कठिन है। वुलाकीदास को माता की बात अच्छी लगी पाण्डवपुराण हिन्दी की महत्वपूर्ण कृति है जो वस्तु वर्णन, और उन्होंने पाण्डवपुराण को हिन्दी मे निबद्ध करने का भाषागत, विशेषताओं, छन्द, अलकार एवं रस की दृष्टि कार्य अपने हाथ में ले लिया। वे प्रतिदिन जितने छन्द से १७०० शताब्दी की एक महत्वपूर्ण काव्यकृति है । कथा निबद्ध करते अपनी माता को समझाते थे। काव्य निबद्ध प्रधान होने पर भी जिसमें काव्य कला के स्थान-स्थान करने का और माता को उसे सुनाने का कार्य कितन ही पर दर्शन होते हैं । इमलिए ऐसी हिन्दी की बेजोड़ कृति का महीनों अथवा वर्षों तक चलता रहा लेकिन स. १७५४ जितना अधिक समीक्षात्मक अध्ययन होगा उतना ही असाइ सुदी द्वितीया का वह पुण्य दिन था जब कवि ने काव्य का गौरव बढ़ेगा। --कसरावद पूरे पाण्डवपुराण को हिन्दी मे निबद्ध करने का मौभाग्य प. निमाड़-म. प्र. पृ० २२ का शेषाश) इस अक्षय तृतीया ५ मई १९६२ को श्री पापडीबाल जिन चन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित लादो मूर्तियां प्राप्त हो सकेगी। के इस शुभ प्रतिष्ठित कार्य को ५०० वर्ष हो जावेगे जैन आज से ५०० वर्ष पूर्व इतिहास को यह एक ऐसी अनठी समाज को उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन हेतु विभिन्न स्थानो घटना है जिसमे इतने अधिक जिनविम्बों का निर्माण और पर उच्च स्तरीय समारोह एवं कार्यक्रम आयोजित किये प्रतिष्ठा किसी और ने कई थी और भविष्य में भी जावें और उस महान् धर्मप्रभावक का पुण्य स्मरण किया कोई आशा नही कि इतने विशाल स्तर पर जिनविम्बों भाबे तथा जैन संस्कृति के इस मक सेवक के प्रति विन- का निर्माण हो सके। ऐसे स्वनामधन्य श्री जीवराज यांजलि एवं श्रद्धांजलि प्रस्तुत की जावे।। पापड़ीवाल को हम शतशः विनम्र विनयांजनि प्रस्तुत यहां हमने केवल छतरपुर के ही मूर्ति लेख प्रस्तुत करते हैं और आशा करते हैं कि जैन समाज भी सामहिक किए हैं यदि खोज की जावे तो उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरिः स्तर पर उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करे। याणा. बंगाल, बिहार, बुन्देलखण्ड, महपप्रदेश, राजस्थान, श्रुति कुटीर गुजरात, महाराष्ट्र, एवं कर्नाटक आदि प्रदेशों के छोटे-छोटे ६८ विश्वास मार्ग, विश्वास नगर, गांवों और नगरों में पापडीवाल द्वारा निर्मित तथा भ. शाहदरा दिल्ली-११००३२ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक हर्षकीति के 'पद' a डॉ० गंगाराम गर्ग, भरतपुर भट्टारक सकलकीति, ब्रह्म जिनदास, ब्रह्म यशोधर जिन देह जोति जीती सहम भान । भीमसेन तथा ब्रह्म वूपराज के इने-गिने पदों के रूप मे प्रभु सो सरण सोभाभिराम । जैन पद साहित्य का बिखरा-विखरा अस्तित्व प्राप्त हो मणि छांडि कांच खंड को गहत । जाने पर भी सत्रहवीं शताब्दी के भक्त कवि गंगादास के दूध छांडि कजिका को पिबति । ५०-६० पदों में ही इस विशिष्ट काव्यरूप का धारा-रूप धारि सुभ दया सार, निर्मित हुआ है। गंगादास के बाद आविर्भत भट्टारक कौन आन धर्म सेवं असार । रत्नकीर्ति और भट्टारक कुमुदचन्द्र के पदों में दास्यभावना मिध्यात पाप उपजे अनंत । की अपेक्षा राजुल-विरह की अभिव्यक्ति अधिक हैं। जैन काडू मधे काडू घोवंत । पद काव्यधारा को गतिमान बनाने में महाकवि बनारसी कहै 'हरषकीति' प्रभू गती पाय । दास और उनके गुरु पाण्डे रूपचन्द के समकालीन कविहर्ष मिथ्यान करत थे पोहि छुडाय ।। कीति का विशिष्ट योगदान है । अभी तक प्राप्त २५-३० भक्ति के प्रेरक तत्वो में जन्म-जन्मांतरों के कष्टों पदों के अतिरिक्त हर्षकीर्ति की ज्ञात रचनाएँ इस प्रकार और काल की भयावहता का आभास सभी संत मोर वैष्णव भक्तों ने बहुलता से कराया है। जन भक्त कवियों (१) चतुर्गति बेलि (सं० १६८३, (२) नेमि राजुल को भी इन दोनों स्थितियों ने भयाक्रान्त किया है। नरक गीत, (३) नेमीग्वर गीत, (४) मोरहा, (५) नेमिनाथ का तियंच गति और नर गति के कष्टो के प्रसंग मे हर्षकीति बारहमासा, (६) कर्म हिंडोलना, (७) बीस तीर्थकर की का कथन है :जखडी, (८) पावं छन्द, (९) श्रीमंधर को समोसरन, हं तो कांई बोल रै, भव दुख बोलणी न आवै । (१०) जिनराज की जयमाल, (११) जिन जी को वधावो, नरक निगोदिहि काल अनादि ही, कर्म लिखा भटकाव रे। (१२) पर नारी निवारण गीत, पन क्रिया जयमाल नर गति लीन्हो तीरजंच छीन, गर्भयबास हराव रे। (सं. १६८४) तथा सासु बहू को संवादो। जौंनि अधमुख मास रधो नौ, गिरै अर विललावं। एक विशिष्ट पद के आधार पर हा. कस्तूरचन्द कस्तूरचर जोबनरातो आरंभखातो, धरि चिना मन तारे। कासलीवाल ने इनका सम्बन्ध प्रसिद्ध तीर्थ श्री महावीर पर के कारण परधन बांछिन आपण नेम ललाव रे। जी से जोडते हुए इन्हें राजस्थानी माना है । हर्षकीति का संपति हीणुं आप दुखीन, जण गण 4 राव रे । इससे अधिक परिचय अभी तक ज्ञात नहीं हो सका। देस विदेस फिरतन कीन, सही मूल गवावा रे । हर्षकीर्ति के प्राप्त कतिपय पदों का प्रतिपाद्य भक्ति, लख चौरासी जूनि जु वामी, धरि धरि स्वांग पछावै रे। राजुल विरह एवं नीति-प्रतिपादन 'आत्म-निरूपण' रहा 'हरकिरत' सति मो भजि श्रीजिन. है। जिनेन्द्र के नाम स्मरण में हर्षकीर्ति को अधिक आस्था तात अनंत सुख पाव रे। समर्थ काल कर्मों के अनुसार व्यक्ति को अवश्य ही नहिं छांडो हो जिनराज नाम । दण्डित अथवा पुरस्कृत करता है-ऐसा हर्षकीति का दोष अठारह रहत देव, जाकी सुर नर करत सेव। विश्वास है Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६, वर्ष ४५, कि.१ अनेकान्त अवध दिन पूरे होत बजाइ । पुदगल को परिवर्तनशीलता मे निर ताता मानते मिर f. करन करत कंप को, छट 1 नाहि गई हए की जैन दार्शनिको ने उसके अस्तित्व को अस्वीकार करि कछ मोनि ममनि घट भीनरि, फल : मुकृ . कमाइ। नहीं किया और न शकराचार्य की तरह उसे 'भाया कह खोटो विण न रहैत नहि पदयरदा, मुहइ दीये परा। कर मात्र 'म्रम' प्रतिपादित किया। शकर का दार्शनिक दूरि विदेम विषम अनि माग, संगी न कोइ निसाइ। शब्द 'माया' सन्त और भक्त कवियो मे पर्याप्त मात्रा में 'हषकीरति' तुम साव छनो, अब भलो न फैट गहाइ। व्यवहन हुआ। धन-दौलत और वैभव का प्रतीक मानकर इसके त्याग की भी सीख दी गई।,जैन भक्तिकाव्य परमरा संत और क्त कवियो के अनुकरण पर जैन कवियों से हटकर केवल हर्षकीति ने 'उत्ख' अलकार के रूप में ने प्रबोधन के बहाने 'दुष्ट' 'ठ' आदि हीन विशेषणो के माया का तथ्यात्मक स्वरूप प्रस्तुत किया है :--- प्रयोग के साथ मन को फटकारने की प्रवनि नदी अपनाई माया मार रे प्यारे नान, सुन नर माला मारै रे। है निन्तु 'चेतन' को विषयामक्ति से विरक्त होकर अपना माया कारणि करू पाड, भारथ करि भरि बूथा। 'दर्शन' एव ज्ञान' समन्बित स्वरूप पहचानने की प्रेरणा माया कारिण मजन कटूंबी, कार करि कलह बिगूता । अवश्य दी है । हर्षकोति का कथन है : माया कारण रामदेव जी, करि बनमास बिरच्या। महीजादा कचरा कांदा धो रे माया माता माया माता, माया माई चात्रा। कछु चेतन प्यारे बांज हो रे । माया कारण जहर जराव, सकन माने मीना। धर्म न सकल नर का आणि मिलाया, कुल बल मोबन भाया माया नोगी माया भोगी, माया रण राजा। भोगोपभोग का लेपणा नाही, कार अनन विहाया । 'हाकि रति' ते धनि मुनिवर, छाडि कोया अपकाजा । करमन विह्वल कीया रूप गुमाया, नरक निगोदि घ्रमाया। 'माया' के लोभ मे कष्ट पाने वाले कौरव, पाडव, असुचि विषारी माझि घर राषे, तू त्रिभुवन गया। भरत और राम की चर्चा करके उक्त पद मे माया के षलक में अजहु तेरा भरम करदा, दरसन .ान गुरादा। आकर्षण से दूर रहने की प्रेरणा दी है। ऐसा ही प्रभाव'हरषकीर्ति' प्रभु आयो, दिषालो ज्यों बदली वन चंदा । कारी पद हर्षकीति ने मोह और लोभ के विरोध मे लिखा 'समवशरण' उत्सव के आयोजन और भक्ति मे सभी है :प्रसिद्ध भक्त कवियों ने दो-चार पद अबश्य लिखे ही है। रे काइ मोह नी कुंडी रे। हर्षकीर्ति इस अवसर पर खिरने वाली जिनेन्द्र की बाणी मोह नी कूडी रे कांई, मोह न कूडी है रे । सुनने को आतुर है। यह बाणी सप्त तस्व और षद्रव्य जानतु है निहबल नहिं काई, इहि जुग नाथि जुडी रै। के प्रतिपादन के साथ-साथ आस्थावान् श्रोता को मोक्ष लोभ ही लागि भार अति भरियो, जोबत नाम बूडी रै। भी प्रदान करती हैं : ए विकलप थयो बलदेव भवाणु, राम रुचं शिव रूडी रै। 'हरषको ति' भवनां सुख ही, जिन कचियानी घड़ी रै। पावन धुनि सुनि जिनराज की। अक्षर रूप अनक्षर साषित, भाखित विध शिवकार की। 'सोरठ' राग में लिखित एक कथात्मक गीत में हर्षसप्त तत्व नव भाव द्रव्य छह, नय प्रमाण गुण गाज की। कीति राजा 'भरत' का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए एक जा प्रसंग पाय परमारय, तृबक भये शिव माज की। अनुकरणीय तथ्य प्रतिपादित करते है कि अपार धन और अस्ति कचित नासति बोलतु, चर थीर वस्तु समाज की। वैभव के मध्य रहकर भी मनुष्य अपरिग्रह और विरक्ति बंदतु नद हेत करि चेतन, मुंचति वह अप लाज की। भाव का निर्वाह कर मोक्ष का अधिकारी हो सकता हैफाटत मोह तम सजतु ग्यान मद, स्यादवाद बरसात की। भरथ भूप घर ही मैं वैरागी।। 'हरकीरति' जिन की धुनि सुनियां, सहस बतीस मुकट बध राजा, सेष कर बड़भागी। सफल घड़ी सो आजको । छिनबसहस अतेवर जानौं, नहीं भयो अनुरागी। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारकहर्षकीति के पद' कोहि अठारा तुरंगम राज, कौड़ि चौरासी पागी। मोह नगर को राजा खायो, पीछ पैस्या गामा । लख चौरामी गज रथ सोहै, सुरति धर्म सों लागी। दुरमति दादी दोहि बडो दादी, मुख देखत ही मुवा। नौ निधि रतन चौदा घरि राज, मन चिता सब भागी।। मगल रूप बटी बधाई, तब याचिमण हवा । अत मुहूरत एक ही माही, लोल्या मुक्ति सौं लागी। 'भाउँ' नाम धरायो बेटा को, बरणी जोसिन जाई । ज्यों जल मांडी कंवल निति ही रहै, नहीं भयो रस भागी। कहत 'हर्षकीति' सुणो माधो, सब घट मांहि समाही। 'हरकोति' सेवग की लजां, दीजे मुक्ति मोहि मागी। पूर्ववर्ती पद रचयिता रत्नकीति और कुमुदचन्द्र द्वारा समकालीन कवि बनारसीदास ने अपने सरस और अपने पदों में हर्षकीति ने भी इन प्रसंग में दो भावपूर्ण पद लिखे हैं। बिना किमी अवगुग के परित्यक्ता राजुल पद श्रेष्ठ रहस्यवादी काव्य 'समयसार नाटक भाषा' म 'चेतन तत्त्व की पर परिणति और स्वरूप-स्थिति को अनेक ___का 'परेखा' किस कठोर हृदय को द्रवित नही कर देतादृष्टान्तो के माध्यम से माधुर्यपूर्ण शैली मे गमझाया है। हम बोल बोले की परतीति। इसके विपरीत कविवर हर्ष कीर्ति ने सर्वमान्य लोक शैली समुदविज सुत कोन संभारो, आठ भवन की रीति । में 'चेतन' तत्त्व को रूपायित कर साधारण जनता में नारायण उपदेस कराये, पसु सब आणि जमीति । अपना स्थान बनाया है। किसी भी कृत्रिम शब्दावली हमागे दोम नहिं जगजीवन, डारत हो यह रीति । दष्टान्त ओर रूपक अलंकार के मोह मे न पड़कर सर्वबोध औगण बिन हमको तजि चाल, देखो क्यों न अनीति । भाषा में 'चेतन' का उद्बोन हर्षकीति की व्यापक जन- हरषकीरति' प्रभु प्रीति निबाहो, हारह सारी मजीति। प्रियता का सकेत है : प्राकृतिक उपादानों में पावसकालोन मेष पपीहा द्वारा अविनासी जीवड़ा चेतनी हो। प्रियतम की टेर ने राजुल की विरह-वेदना और अकुलाहट तुम चेतन माया बाधो फिरो बादि टेक।। को बढ़ाया है। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश के अरिरिक्त हो माया तुम्हारी जाति न पांति न, नाल की वरनारी। पूर्ववर्ती हिन्दी काव्य परम्परा के अनुकूल हर्षकीति का इन तो तुम से मोहा ठिगे है, काहे को बढ़ाबत रारी। एक भावपरक पद है :हा जिह कुल जाय जाय उपजी तिहा ही रह्यो ललचाई। गरजन लागे री धन बादर । ते दुख नरक निमोदि सहे है, ते उ डागे बिसराई। नेमि बिना कही कैम रही री आलि, क्यो उतर दुख सागर। मान पि । सुत यध सहोदर, सजन भिन्न अब लोय । पपीहड़ा पीव पीव रटत है आली, मा मन को धरत न धागर इनके मोह जाल विचि, वेबा चेतन पद सोय । सोचत मोचत रयण दिनारी आलि, पसुवन के भये आगर। हृदय चेत मूढ मति ग्यांनी, चेनन पद तुब मांहि । हरषकीति प्रभु आइ मिलो अब, राजमती करि आदर । 'हरकिरति' जिनवर पद गाव, रहे चरण चित लाइ। गुरु कृपा और सत्संग के बर पर ममता, काम-क्रोध, उत्तर "ध्य युग में प्राप्त हिन्दी के विशाल जैन पद तृष्णा, मान, अभिमान, दुर्मति, द्रोह आदि-आदि कुभावो साहित्य की विशेषताओं के परिप्रेक्ष्य में उक्त विवेचन को से मुक्त चेतन का अनुपम मित्र भीर्षकीति ने लोक- परखने ५र यह स्पष्ट हो जाता है कि हर्षकीति किसी जीवन से उतारा है . बंधी बधाई लीक पर चलने के हिमायती नहीं है। अपने साधो मूला बेटो जायो। भक्तिभाव को उन्मुक्त होकर सरल और प्रभावोत्पादक गुरु परताप साध की संगति, षोदि कुटुंब सब पायो। काम्यशैली में प्रकट करना ही उनका लक्ष्य है। कविवर ममता माई जनमत पाई, खाया सुख दुख भाई। हर्षकीति के अद्यतन अाँचत कतिपय पद दिगम्बर जैन काम क्रोध काका दोय खाया, खाई त्रिसना बाई। मन्दिर कुम्हेर जिला भरतपुर में प्राप्त एक गुटके 'स्तुति पाप पुन्य पड़ोसी खाया, मान अभिमान दोय खाया। सत्रह' में संग्रहीत हैं। 00 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "पुष्पदन्तकृत-जसहरचरिउ में दार्शनिक समीक्षा" 0 श्री जिनेन्द्र जैन साहित्य-निर्माण की दृष्टि मे मध्ययुग (लगभग ६०० है साथ ही अन्य भारतीय दर्शनों पर भी अपनी लेखनी ई. से १७०० ई. तक) जैन साहित्य का स्वर्ण-युग माना चलाई है। भारतीय दर्शनों के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने जैन जाता है। क्योंकि इस अवधि मे जैन कवियो ने सस्कृत, धर्म व दर्शन से साम्य न रखने वाले सिद्धान्तों की समीक्षा प्राकृत एवं अपभ्रंश इन तीनों ही भाषाओं में काव्य-ग्रन्थों प्रस्तुत की है। यहां उन्हीं सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला की रचनाएं की हैं, जिनमे जीवन के विभिन्न पक्षो को गया है। प्रतिपादित करते हुए तत्कालीन धर्म एव दर्शन पर विशेष पशु हिंसा सम्बन्धी समीक्षा:प्रकाश डाला गया है । १०वी शताब्दी मे अपभ्रण भाषा यज्ञ में पशु-बलि सम्बन्धी वेद सम्मत मान्यता तथा के महाकवि पूष्पदन्त एक उदमट व समर्थ कहिए है. उनकी (वेदा) अपौरुषेयता पर कवि ने प्रश्नचिन लगाया है । ग्रन्थ मे नरिणत पशु-बलि हिमा के सन्दर्भ में यशोधर नामक ग्रन्थो की रचना करके अपभ्रश साहित्य में विशेष को माता के मुख से यह कहना कवि को उचित प्रतीत स्थान प्राप्त किया है । 'महापुराण' मे तीर्थंकरो एव महा- नहा हाता कि-"जगत में धर्म का मूल वेद-मार्ग है। पुरुषों के जीवन-चरित्र का विवेचन है। श्रतपञ्चमी के राजा को वेदों का ही अनुशरण करना चाहिए। वेदों में माहात्म्य को स्पष्ट करने के लिए कवि ने वैराग्य एव पशु-बलि को धर्म कहा गया है। क्योंकि पशु को मारने व पुरुषार्थ प्रधान “णायकुमारचरिउ" नामक चरित ग्रन्थ का खाने वाले स्वर्ग एवं मोक्ष के अधिकारी होते है। पशुसुजन किया एव "ज सहरचरिउ" मे अहिंसा प्रधान सिद्धांत बलि को उचित नही ठहराते हुए कवि ने उसके खण्डन मे की पुष्टि की है। पशु-हिंसा करने वालों को महापापी व मायाचारी बताया है। तथा वेद सम्मत उक्त पशु-बलि के सिद्धान्त का अनुतत्कालीन समाज में व्याप्त नैतिक, धार्मिक व दार्श शरण करने वाले को नरकगामी भी कहा है। निक बुराइयो पर उन्होने अपनी लेखनी चलायी और एक यह सर्वसाधारण मान्यता है कि वेद अपौरुषेय हैं। शाश्वत तथा वास्तविक मानव-धर्म का प्रतिपादन किया उन्हें किसी ने भी नहीं बनाया, किन्तु कवि इस पर अपना है। उनके द्वारा इस प्रन्थ में बताया गया यह मानव-धर्म आक्षेप लगाये हुए कहता है कि विचार करने से प्रतीत (सच्चा धर्म) समस्त गृहस्थ ग्राह्य होने के कारण उन्हे एक होता है कि शब्दों की पक्तियां आने आप ही आकाश सच्चा समाज-सुधारक भी कहा जा सकता है। यहां उनके में स्थित नहीं रह सकती, वायु से संघर्ष होने पर ही शब्द द्वारा रचित जसहरचार उ मे प्रतिपादित दार्शनिक मतों उत्पन्न होता है और आकाश में फैल जाता है। तथा की समीक्षा प्रस्तुत की गई है। मनुष्य के मुख से वह वर्ण और स्थान एव सकेतमय (अर्थजसहरचरिउ एक अहिंसा प्रधान काव्य-ग्रन्थ है, जिसमे मय) बुद्धि द्वारा भाषाओं के भेदानुसार निकलता है। ऐसी कवि ने यशोधर के पूर्व भवो का वृत्तान्त प्रस्तुत किया है। अवस्था मे यह कहना कि वेद अपौरुषेय (स्वयम्भ) है, और यह बताया है कि जीव-हिंसा करने से व्यक्ति अनेक उचित प्रतीत नहीं होता। याज्ञिकी हिंसा, मांस-भक्षण भवों तक अलग-अलग योनियो में जन्म लेता रहता है। और रात्रभोजन को धर्म का प्रतीक मानने वाले पौराणिक महाकवि पुष्पदन्त यद्यपि जन थे, इसलिए उन्होने जैन धर्म मतों की आलोचना/समीक्षा कवि ने अपने अन्य प्रन्यो मे बदर्शन के सिद्धान्तो की विशद् व्याख्या तो प्रस्तुत की ही भी की है। णायकुमारचरिउ नामक उन की एक अन्य Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पदन्तकृत-जसहरवरित में वार्शनिक समीक्षा कृति में इसका स्पष्ट वर्णन देखने को मिलता है। अहिंसा वासना के नष्ट होने पर ज्ञान प्रकट होता है, कुछ अपूर्ण धर्म की प्रतिष्ठा और महत्ता के लिए कवि ने कहा है कि होती है, क्योंकि वामना का भी अणमात्र के लिए अस्तित्व पुण्य के अर्जन हेतु चाहे मंत्र-पूजित खड्ग से पशु बलि करे रहता है, दूसरे हो क्षण वह परिवर्तित हो जाती है। अथवा यज्ञ करे या अनेक दुर्धर तपों का आचरण करे, और जोव-आत्मा को पृथक सत्ता विषयक समीक्षा:किन्तु जीव दया के बिना सब निष्फल है। शास्त्रों में यही दार्शनिक पिवान्तों की समीक्षा के अन्तर्गत कवि ने कहा गया है कि जो पाप है वह हिंसा है और जो धर्म अन्य दर्शनो की जीव/आत्मा विषयक मान्यताओं को भी (पुण्य) है, वह अहिंसा'। इसलिए प्राणिन्ध को आत्मवध अछूता नही छोड़ा । जीव (आत्मा) और देह (शरीर)को समरूप माना गया : १० । पृथक् सत्ता नहीं मानन वाले चार्वाक दर्शन के-"जिस "प्रत्यक्ष ही प्रमाण है" का खण्डन : प्रकार वृक्ष के पुष्प से गन्ध भिन्न नहीं होतो, उसी प्रकार भारतीय दर्शनो में चार्वाक दर्शन को अपनी अलग देह से जीव भी अभिन्न है।" उक्त कथन पर कवि ने मान्यता है, महत्ता है। उसके अनुसार "प्रत्यक्ष ही प्रमाण अपनो समीक्षात्मक शैली में प्रात्मा और पर (देह) के है"ऐसा मानना, जीव और उसकी सत्ता को अभिन्न भेद को स्पष्ट किया कि जिस प्रकार चम्पक की करना है तथा मोक्ष आदि के अस्तित्व को नकारना है। मामले की क्योंकि मोक्ष की कल्पना अनुमान से सिद्ध है न कि प्रत्यक्ष (सुवास) पृथक् है. उमी प्रकार यह देह और जीव की प्रमाण से। भिन्नता भी सिद्ध है। इन दोनो का पृथक् अस्तित्व है" । जसहरचरिउ में एक स्थान पर जब तलवर मुनि से अन्य मे जीव को मत्ता को लेकर प्रश्न मिलता है कि कहता है कि "मैं किसी धर्म, गुण या मोक्ष आदि को क्या जीव को शरीर से अलग हुआ किसी ने देखा है। नहीं जानता हूं। मैं केवल पचेन्द्रिय सुख (जो प्रत्यक्ष है) इसके समाधान में नमान का सहारा लेकर कहा गया है को ही सब कुछ मानता है", इसके उत्तर म मुनि द्वारा यह कहना कि-"ससार मे जीव अनेक योनियो मे जीवन- कि-"जिस प्रकार दूर से आता हा शब्द दिखाई नही देता, परन्नु शब्द कान मे लगने पर अनुमान-ज्ञान होता मरण के दुःखों और कर्मों के फल को भोगता है। इसीलिए मैं पंचेन्द्रिय सुख का त्याग करके निर्जन स्थान मे है, उसी प्रकार नरक-योनियो मे जीव की गति होती इसलिए जीव अनुमान से सिद्ध है"" रहते हुए भिक्षावृत्ति करता ह" चार्वाक दर्शन के बौद्ध दर्शन में आत्मा को पचस्कध (रूप, वेदना, "प्रत्यक्ष हो प्रमाण है" के खण्डन को प्रतिपादित करता है। संज्ञा, संस्कार और विज्ञान) का समुच्चय मात्र माना क्षणभंगुरता की समीक्षा: गया है, किन्तु ये स्कध क्षणमात्र ही स्थायी रहते हैं इसबौद्ध दर्शन में प्रत्येक वस्तु क्षण-विध्वंसी बताई गयी लिए उनका यह कथन भी पायो।चा नहीं कहा जा है। प्रत्येक वस्तु का मात्र एक ही क्षण अस्तित्व रहता है। सकता। घर अगले क्षण में वह परिवर्तित हो जाती है। इसी इस प्रकार इस ग्रन्थ में जहाँ एक और अहिंसा की प्रकार बौद्ध दर्शन में जीव की भी क्षणिक सत्ता मानी गई महत्ता को हिंसा के दुष्परिणामों के माध्यम से उजागर है। जिसके लिए कवि आपत्ति करता है कि-"यदि जीव किया गया है, वहीं दूसरी ओर तत्कालीन समाज की धर्म (चेतन) क्षण-क्षण में अन्य-अन्य हो जाता है तो छ: मास एवं दर्शन विषयक मान्यताओं को भी प्रस्तुत किया गया तक व्याधि (रोग) की वेदना (दु.ख) कौन (रोगी) सहन है। जैनधर्म व दशन के सिद्धान्तों को प्रतिष्ठापित करता है"। क्योकि जो प्रारम्भ मे रोग ग्रस्त होता है, करते हए अन्य दर्शनो की मान्यताओं पर अपनो आपत्ति छ: माह में उसका अस्तित्व अणिकवाद के अनुसार समाप्त प्रस्तुत करके कवि ने उक्त उक्तियो के माध्यम से उनका हो जाता है। इसी प्रकार बौद्धों की यह मान्यता कि (शेष पृ० ३२ पर) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विद्यासागर का रस विषयक मन्तव्य 0 डॉ. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर काव्यशास्त्रियो ने नव रस कहे हैं-शृगार, हास्य, है। यह बात दूसरी है जाते समय अपर सुलाकर भले करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त। हो छिटकाया जाता हो। उनके इतिहास पर न रोना सहृदयों को रस की अनुभूति कराना ही काव्य का मुख्य बनता है न हमना। (पृ० १३२.१३३) प्रयोजन है । यह आनन्द की अनुभूति सभी रसों मे समान हास्य रस के विषय में कहा है कि हमनशील प्रायः रूप से हुआ करती है। फिर भी भावक सामग्री के भंद उतावला रहता है। कार्याकार्य का विवेक, गम्भीरता और से इसमें चित्त की चार अवस्थाएं हो जाती है--विकास, धीरता उममे नही होती। वह बलक सम बावला होता विस्तार, क्षोभ और विक्षेप । शृगार में चित्त का विकास है। तभी स्थितप्रज्ञ हंसते नही है। आत्मविज्ञ मोह-माया होता है, वीर में विस्तार, वीभत्स मे क्षोम और रोद्र मे के जाल में नहीं फंसते हैं । खेद भाव के विनाण हेतु हास्य विक्षेप, हास्य, अद्भुत भयानक और करुम मे भी क्रमशः हास्य का राग जावण्यक भने ही हो, किन्तु वैरभाव के विकास आदि चारों हुआ करते है। शान्त रस मे मुदिता, विकास हेतु हास्य का त्याग अनिवार्य है। क्योकि हास्य मंत्री. करुण और उपेक्षा ये चार चित्त की अवस्थाये हुआ भी कषाय है। (पृ० १३३) करती हैं। रौद्र रस के विषय में आचार्य ने कहा है कि रुद्रना __ आचार्य विद्यासागर ने प्रसङ्गानुकूल रमो का विवे- विकृति है, विकार है। भद्रता प्रकृति वा प्रकार है, उसकी चन किया है। वीर रस के विषय म शिल्पी के मुख से अमिट लीला है। (पृ० १३५) कहलाया गया है कि वीर रम में तीर का मिलना कभी कवि को शृगार नटी रुवता। वह कहता है शृगार मत दी है और पीर का मिटमा त्रिकाल असम्भव। के ये अग- खग उतारशीन हैं । यग जलना जा रहा है। आग का योग पाकर धोता जल चाहे भले ही उनका श्रृंगार के रग-रंग अगार शीन है, युग जलता जा रहा है हो. किन्तु धधकती अग्नि को भी नियन्त्रित कर उसे बुझा (४० ४५ रवि के इस कथन मे वियोगी-कामी की सकता है । परन्तु वीर रस के सदन से तुरन्त मानव खून वह स्थिति द्यतित होती है, जब कामदव कामी को दिनउबलने जगता है, वह काबू मे नही आता। दूसरो को रान जलाना ही रहता है। उसे कपूर, हार, कमल, शान्त करना तो दूर, शान्त माहौल भी ज्वालामुखी के चन्द्रमा आदि विपरीत परिणत हुए दिखाई देने लगते हैं। समान खोलने लगता है, इसके सेवन से जीवन मे उद्दण्ड ।। ये वस्तुएँ उसे कुछ भी सुख नहीं पहुचाती। का अतिरेक उदित होता हे पर, पर अधिकार चलाने की बीभत्स रस शृगार को नकारता है, उसे चुनता नही भूख इसी का परिणाम है। मान का मूल बबूल के ठूठ है। श्रृंगार के बहाव में प्रकृति की नासा बहने लगती है। की भांति कड़ा होता है। मान को धक्का लगते ही वीर कुछ गाढ़ा, कुछ पतला, कुछ हरा, पीला मल निकलता रस चिल्लाता है। वह आप भूल कर आगबबूला हो पुराण है, जिसे देखते ही घणा होता है। पुरुष की परम्परा को ठकराता है। (पृ० १३१-१३२) करुण रस को भवभूति ने प्रधान रा माना है । भव वीर रस के पक्ष में हास्य रस कहता है वीर रस का भति के कारुण्योत्पादक काव्य को सुनकरअपना इतिहास है। जो वीर नहीं हैं, अवीर हैं, उन पर "अपि ग्रावा दोदित्यपि दलति वचस्थ हृदयम् ।" क्या उनकी तस्वीर पर भी अवीर नहीं छिटकाया जाता भवभूति के अनुसार करुण रस ही एकमात्र मुख्य रस Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य श्री विद्यासागर का रस विषयक मन्तव्य है। निमित्त घटना (बिभाव, गानुभाव और व्यभिचारी रिम धीरधर्मी है । करुणा रस पाषाण को भी मोम बना भावो की विलक्षणता से) यह भिन्न-२ रूप धारण कर देता है। वात्सल्य जघनतम नादान को भी सोम बना लेता है, परन्तु यथार्थत: वह एक ही होता है - देता है। किन्तु यह लोकिक चमत्कार की बात हुई। एको रमः करण एव निमित्त भेदाद शान्त रस संगम रत धीमान कोही 'ओम' बना देता है। भिन्न: पृथक्पृथगिवाश्रपते विवर्तान् । संक्षेपत: सब रसो का आत होना ही शान्त रस है। (पृ. आवर्तबुद्बुद्तरङ्गमयान्विकारान्, १६०)। नम्भो यथा, सलिलमेव हितत्सम तम् ।। इस प्रकार आचार्य विद्यासागर के मत में करुण रस -(उ० रामचरित ३।४७) मे सब रस समा जाते हैं । सब रसो की सत्ता का विलीन आचार्य विद्यामागर की दृष्टि मे करुण हेय नही, हो जाना शन्त म है। इस प्रकार आचार्य विद्यासागर की स विषयक अवधारणा रतये नही व्युपशान्तये है, उसकी अपनी उपादेयता है, अपनी सीमा भी है। करण । जो उनके सन्त हृदय को लक्षित करती है। करने वाला अहं का पोषक भले ही न बने विन्तु स्वयं को गुरु-शिष्य अवशा समझा है और निम पर करुणा निमित्त और उपादान की जाती , वह स्वयका शिशु शिष्य ३ च समझता के बल उपादान कारी का का जनक है। है । दोनों का मन द्रवीभ होता है। जिय शरण लेकर राः मान्यता दोषपूर्ण जगी। द्रवीभूत होता है, गुरु शरण देकर नछ अपूर्व अनुभव निमित्त वी कृपा भी अनिवार्य है। करते है । पर इसे सही सुख नही कहा जाता है। किन्तु इसने दु:ख मिटने और मुखक मिलने का द्वार अवश्य उपादान कारण ही कार्य में ढलता है, यह अकाट्य खुलता है। करुणा करने वाला बहिखी अवश्य होता। नियम है । किन्तु उसके ढलने मे निमित्त का सहयोग भी है। जिस पर करुणा की जा रही है, वह अधोमुखी अवश्य आवश्यक है। इसे यूं कहे तो और उत्तम होगा किहोता है । उपादान का कोई यहां पर करुणा को दो दृष्टियां हैं-एक विषालोलुपिनी, पर-मित्र है.. .."तो वह, निश्चय से निमित्त है। दूसरी विषय लोपिनी, दिशा बोधिनी। जो अपने मित्र का करुणा रस मे शान्त रस का आविर्भाव मानना बडी निरन्तर नियमित रूप से भल है । उछलती हुई उपयोग परिणति करुण है। इसे गन्तव्य तक साथ देता है। (पृ० ४८१ मूकमाटी) नहर की उपमा दी जा सकती है। उजली मे उपयोग सूक्ति-रत्न परिणति शान्त रस है। इसकी उपमा नदी से दी जा सकती है। नहर खेत मे भाकर सूख जाती है । नदी सागर १. श्रमण का शृगार ही ममना-साम्य है । (पृ० ३३०) को जाती है, राह को मिटा कर सुख पाती है। करुणा २. मोह और अमाता के उदय मे क्षुधा की वेदना होती तरल है, वह दूसरे से प्रभावित होती है। शान्त है, यह क्षुधा-तृषा का सिद्धान्त है, मात्र इसका ज्ञान रस दूसरे के बहाव मे बहता नहीं है जमाना पलटने पर होना ही साधुता नही है, वरन् ज्ञान के साथ साम्य भी अपने स्थान पर जम जाता है। इसमे यह द्योतित भी अनिवार्य है। (पृ० ३३०) होता है कि करुणा मे वात्सल्य का मिश्रण सम्भव नहीं ३. कोष के श्रमण बहुत बार मिले हैं। होश के श्रमण है (पृ. १५४--१५७)। हलकी सी मधुरता क्षणभंगुर विरले ही होते है। (पृ० ३६१) दर्शाती है। ४. उस समता से क्या प्रयोजन जिसमे इतनी भी क्षमता करुणा रस जोवन का प्राण है, वात्सल्य जीवन का नहीं है, जो समय पर भयभीत को अभय दे सके । बाण है । किन्तु शान्त रस जीवन का गान है। यह मधु- (पृ. ३६१)। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. वर्ष ४५, कि. १ अनेकान्त ५. जब आंखें आती हैं तो दुःख देती हैं, जब आंखें जाती हैं तो दुःख देती हैं। जब आँखें लगती हैं तो दुःख देती हैं। आँखों में सुख कहाँ ? ये आँखें दुःख को खनी हैं, सुख की हनी हैं। यही कारण है कि सन्त संयत साधुजन इन पर विश्वास नहीं रखते और सदा सर्वथा चरणों लखते विनीत दृष्टि हो चलते हैं। (पृ० ३५९-३६.) १. एक के प्रति राग करना दूसरो के प्रति द्वेष सिद्ध करता है। जो रागी भी है, द्वेषी भी है, वह सन्त नहीं हो सकता । (पृ०३६३) ७. पाप भरी प्रार्थना से प्रभु प्रसन्न नहीं होते। पावन प्रसन्नता पाप के त्याग पर आधारित है। ८. स्व को स्व के रूप में पर को पर के रूप में जानना ही सही ज्ञान है । स्व में रमण करना ही सही ज्ञान का फल है। (पृ० ३७५) ६. तन और मन का गुलाम ही पर-पदार्थों का स्वामी बनना चाहता है। (पृ. ३७५) १०. सुखा प्रलोभन मत दिया करो, स्वाश्रित जीवन जिया कगे। (पृ० १८७) ११. पर के दुःख का सदा हरण हो । जीवन उदारता का उदाहरण बने । (पृ० ३८८) (मूक माटो महाकाव्य) पृ० २६ का शेषांष) खण्डन करने का प्रयास किया है। दार्शनिक मान्यताओ संस्कृति को जानने में एक कड़ी का कार्य करती है। के समीक्षात्मक विश्लेषण को प्रस्तुत करने के लिए इस ग्रंथ में चार्वाक डोट मांख्य व वेदान्त आदि दर्शनों को मय -सहायक आचार्य प्राकृत भाषा एवं साहित्य विभाग, बिन्दु बनाया गया है। इस तरह दार्शनिक दृष्टि से इस जैन विश्वभारती इस्टीट्यूट (मान्य विश्वविद्यालय) इस ग्रन्थ में पर्याप्त सामग्री मिलती है जो भारतीय लाडनूं-(राज.), ३४१ ३०६ सन्दर्भ-सूची १. महापुराण (पुष्पदन्त) गम्पा. ब अनु.-पी. एल. ७. वही - २६१-६. बोट, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली [भाग १-४)। ८. णयकुमारचरिउ-१७-१६. २. णायकुमारचरिउ (पुष्पदन्त) सम्पा व अनु.-डा. ६. जस०-२१८. हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली १६७२. १०. वही-२॥१४॥६. हरचारउ (पुष्पदन्त) सम्मा. व अनु.-डा. पी. १. अण्णु धम्मु गुणु मोक्खु ण याणमि । एल.वैद्य एवं डा. हीरालाल जैन भारतीय ज्ञानपीठ, हउँ पचिदिय सोक्खई माणमि ॥ जस० ३३९।३. दिल्ली, १९६२. १२. जस०-३।२०१७.८. ४. जगि वे उ मूलुधम्मछिवहो, वेएण मग्गु भासिउणिवहो। १३. वही--३।२६।३. तंकिज्जा बलि वेए महिउ, पसु मारण परमधम्मु कहिउ। १४. वही-३२६।४. पसु हम्मद पलु जिम्मा सग्गहो मोक्खहो गम्मइ ।। १५. वही-३॥२११५-१६. जस. २११५८-१० १६. इरा एंतु सदुणउ दोसइ, पर कण्णम्मि लग्गओ। ५. जस०-२।१६. णज्जइ जेम तेम जगि जीउ वि बहजोणीकुलं गओ।। ६. वही-३।११।१०. -जस० ३।२२।१-२. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्राह्य ज्ञान - कण -दर्शन मोह के नाश होने पर चारित्रमोह की दशा स्वामोहोन कुत्ते की तरह हो जाती है --- भौंकता है परन्तु काटने में समर्थ नहीं । X X X - आज तक हमने धर्मसाधन बहुत किया परन्तु उसका प्रयोजन जो रागादि निवृत्ति है उस पर दृष्टि नहीं दी । फन यह हुआ कि टस से मस नहीं हुए । X X X - पर-द्रव्य और पर-भाव है संसार में भ्रमण के कारण हैं। पर द्रव्य तो पर दिखाई देता ही - मगर पर-भाव भी पर हो है, क्योंकि वह भी पर-द्रव्य की उपस्थिति से है - इसलिए पर-भाव भी पर ही है । - X X - वह दिन सबसे अभिशप्त मानना चाहिए जब इन्सान के दिल में बेईमानी से एक भी रुपया हासिल करने का विचार उत्पन्न हुआ हो । X X X X कठोर और कड़ी मेहनत की आदत, चाहे लोग इससे घबराते ही हों, हमारे कण्ठ में पुष्पहार की भाँति सुवासित-सुसज्जित रहती है । X - X X 1xx --- - मेरा कुछ मी नहीं है ऐसी भावना के साथ स्थिर हो। ऐसा होने पर तू तीन लोक का स्वामी (मुक्त) हो जायगा । यह तुझे परमात्मा का रहस्य बतला दिया है। X × X - जोव द्रव्य चेतन है और पुद्गल जड़ है - कोई जीव न तो पुद्गलरूप परिगमन करता है ओर न उसको ग्रहण करता है और न उसमें उपजता है । हाँ, जीव का स्वभाव जानना है सो उसको जानता है - ऐसा समझना । X X X X - घर को छोड़ा, जगत को घर बना लिया। घर मे तो परिमित कुटुम्ब होता है - यहाँ तो उसकी सीमा नहीं । यही ममता तो संसार को माता है । -श्री शान्तिलाल जैन कागजी के सौजन्य से विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते है । यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो । पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते । कागज प्राप्ति :- श्रीमती अंगूरी देवी जैन, धर्मपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी नई दिल्ला-२ के सौजन्य से Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन नसम्प-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं. परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... नम्ब-प्रशस्ति संग्रह, भाग २ : अपभ्रंश के १२२ प्रप्रकाशित ग्रन्थों को प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह । पचपन ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय पोर परिशिष्टों सहित । सं.पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द । १५... पवणबेलगोल मोर दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जन ... जैन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । बैन लक्षणावली (तीन भागों में): स.पं.बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री प्रत्येक भाग ४०... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पमचन्द्र शास्त्री, सात विषयों पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन २-०० Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of Jaia References.) In two Vol. Volume I contains 1 to 1044 pages, volume ll contains 1045 to 1918 pages size crown octavo. Huge cost is involved in its publication. But in order to provide it to each library, its library edition is made available only in 600/- for one set of 2 volume. 600-00 सम्पादन परामर्शदाता: श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक : श्री पचन्द्र शास्त्रो प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीरसेवा मन्दिर के लिए मुद्रित, गोता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५३ प्रिन्टेड पत्रिका बक-पैकिट Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोर सेवा मन्दिरका मासिक अनकान्त (पत्र प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वर्ष ४५ : कि०२ __ अप्रैल-जून १९९२ इस अंक में क्रम विषय १.पंच-परमेष्ठियों का स्वरूप २. अकलंक देव की मौलिक कृति तत्त्वार्थवार्तिक -डा. रमेशचन्द्र जैन ३. संस्कृत जैन चम्पू और चम्पूकाव्य -डॉ. कपूरचन्द्र जैन ४. प्राकृत साहित्य में स्यावाद : चिंतन -डा. लालचन्द्र जैन ५. प्राकृत और मलयालम भाषा -श्री राजमल जैन, दिल्ली ६. जैन कवि लक्ष्मीचन्द के छप्पय -हा. गंगाराम गर्ग ७. संग्रहालय गूजरी महल में सर्वतोभद्र प्रतिमाएं -डॉ. नरेश कुमार पाठक ८. श्री देवीदास कृत चौबीसी स्तुति : -सौजन्य : श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली ६. दिल की बात दिल से कही-और रो लिए -श्री पद्मचन्द्र शास्त्री 'संपादक' १०.नैतिक शिक्षा समिति : आशा की किरण कवर पृ०२ प्रकाशक: वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **** *xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx* नैतिक शिक्षा-समिति : आशा की किरण गर्मियों की छुट्टियों में दिगम्बर जैन नैतिक शिक्षा समिति दिल्ली ने राजधानी की इक्कोस कालोनियों में शिक्षग शिविर आयोजित किये। विद्वानों द्वारा प्रातः बच्चों को धर्म की प्रारम्मिक जानकारियां दो जाती थीं और रात्रि में समाज के पुरुषों और महिलाओं को धार्मिक शिक्षा दी जातो यो। लगमा ४००० शिक्षार्थी इन शिविरों से लामावित हए। बच्चों में देवदर्शन, पूजा, शाकाहार करने, रात्रि में भोजन नहीं करने, वकं आदि अमश्य ग्रहण नहीं करने के संस्कार मरे गये। XKKKK**************** XXXXXXXXXXXX दिनांक ५-७-६२ को समापन समारोह में १४ बच्चों ने अपने भाषण दिये और उन्होंने स्वीकार किया कि इस तरह के शिविर वास्तव में हमारे जीवन को ऊँचा * उठाने में सक्षम हैं। समारोह के मुख्य अतिथि श्री चक्रेशकुमार जैन, महासचिव लोक समा थे और अध्यक्षता महासमिति के अध्यक्ष श्री रतनलाल गंगवाल ने की। इस अवसर पर दिल्ली नगर के ५०० से अधिक लोग उपस्थित थे। इस अवसर पर शिविर के विद्वानों को सम्मानित भी किया गया। नैतिक शिक्षा का यह कार्यक्रम अब उत्तर प्रदेश और हरियाणा में मो चलाये * जाने को योजना है। इस समारोह में श्री जैनेन्द्र कुमार जैन एडवोकेट रोहतक, श्री ताराचन्द प्रेमी हरियाणा व श्री जयनारायण जेन मेरठ भी उपस्थित थे। समिति के संरक्षक श्री सुभाष जैन (शकुन प्रकाशन), श्री पदमप्रसाद जैन (सुप्रीम होजरी), अध्यक्ष श्री धनपाल सिंह जैन तया मंत्री श्री विमत प्रसाद जैन (डेसू) हैं। समो को हमारी वधाई। हम आशा करें कि ऐसे आयोजन बड़े पैमानों पर जगह जगह होंगे-और जैन संस्कारों के प्रचार को बल मिलेगा। XXXXKK**XXXXXXXXXXXXXKKkk:***** आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०० ७० वार्षिक मूल्य : ६) ६०, इस अंक का मूल्य १ रुपया ५० पैसे Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ III, KAR S U DHIARRHTINAR . : 4 . .. - TIMIR परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ स वर्ष ४५ किरण २ वोर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण सवत् २५१८, वि० स० २०४६ । अप्रैल-जन १९६२ पंच परमेष्ठियों का स्वरूप घण-घाइकम्म-रहिया केवलणाणाइ-परमगुण-सहिया। चोत्तिस-अदिसअ-जुत्ता अरिहंता एरिसा होति ॥ णट्रद्र-कम्मबंधा अट्र-महागण-समणिया परमा। लोयग्ग-ठिवा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होति ।। पंचाचार-समग्गा पंचिदिय-दंति-वप्प-णिहलणा। धोरा गुण-गंभोरा आयरिया एरिसा होति ॥ रयणत्तय-संजुत्ता जिण-कहिय-पयत्थ-देसया सूरा। णिक्कंखभाव-सहिया उवज्झाया एरिसा होति ।। वावार-विप्पमुक्का चउम्विहाराहणासयारत्ता। णिग्गंथा णिम्मोहा साहू एदेरिसा होति । अर्थ--घन-घातिकर्म से रहित, केवलज्ञानादि परम गुणो से सहित और चौंतीस अतिशयों से यक्त अर्हन्त होते हैं ॥७१।। जिन्होंने आठ कर्मों के बन्ध को नष्ट कर दिया है, जो आठ गुणों से संयुक्त, परम, लोक के अग्रभाग में स्थित और नित्य हैं, वे सिद्ध हैं।।७२।। जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य इन पांच आचारों से परिपूर्ण, पाँच इन्द्रियरूपी हाथी के मद को दलने वाले, धीर और गुण-गम्भीर हैं, वे आचार्य हैं ॥७३॥ जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीन रत्नों से युक्त, जिनेन्द्र के द्वारा कहे गये पदार्थों का उपदेश करने में कुशल और आकांक्षा रहित हैं, वे उपाध्याय है ।।७४॥ जो सभी प्रकार के व्यापार से रहित हैं, सम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और तपरूप चार प्रकार की आराधना में लोन रहते है, बाहरो-भीतरी परिग्रह से रहित तथा निर्मोह हैं, वे ही साध हैं ॥७॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकलङ्कदेव को मौलिक कृति तत्त्वार्थवातिक 0 डॉ रमेशचन्द जैन, बिजनौर जैनागमो की मलभाषा प्राकृत रही है। संस्कृत में टीकाएं प्राप्त हैं। समकालीन या परवर्ती समस्त टीकाएँ सर्वप्रथम जैन रचना होने का श्रेय गद्धपिच्छाचार्य उमा- इन टोकाग्रन्थों से प्रभावित है। प्रस्तुत लेख का प्रतिपाद्य स्वामिकृत तत्त्वार्थसूत्र को है। तत्त्वार्थसूत्र सूत्र शैली में तत्त्वार्थवातिक ही है। लिखा गया है। सूत्र रूप मे प्रथित इस ग्रन्थ मे जैन तत्त्वार्थवातिक तत्त्वार्थसूत्र पर प्रकलङ्कदेव द्वारा तत्त्वज्ञान का सागर भरा हुआ है । लघु काय सूत्रग्रन्थ होने अतिगहन, प्रखर दार्शनिकता और प्रौढ शैली में लिखी पर भी यह 'गागर मे सागर' भरे जाने की उक्ति को गई मौलिक कृति है। इसे तत्त्वार्थराजवातिक अथवा चरितार्थ करता है। यही कारण है कि जैनधर्म की राजवानिक के नाम से भी जाना जाता है। वातिककार दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो परम्पराओ मे यह मान्य अकलदेव ने सर्वार्थसिद्धि का अनुसरण करने के साथ-२ है। इस सूत्र ग्रन्थ का मुख्य नाम तत्त्वार्थ है। इस नाम उसकी अधिकांश पंक्तियो को अपनी वार्तिक बना लिया का उल्लेख टीकाकारो ने किया है, जिसमें आचार्य पूज्य- है। वार्ति के साथ उसकी व्याख्या भी है। कि तत्त्ार्थ पाद, अकलङ्कदेव और विद्यानन्द प्रमुख हैं। जीव, अजीव, सूत्र मे दस अध्याय है, अतः तत्त्वार्थवार्तिक मे दस ही आसव, बध, सवर निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्वार्थ हैं। अध्याय हैं, किन्तु उद्योत करके न्यायवार्तिक की तरह इन्ही सात तत्त्वार्थों का तत्त्वार्थमूत्र मे विवेचन है । ग्रन्थ प्रत्येक अध्याय को आह्निको में विभक्त कर दिया गया की महत्ता को देखते हुए इस पर अनेक टीकाएं लिखी है। इससे पहले जैन साहित्य में अध्याय के आह्निकों मे गयीं। दिगम्बर परम्परा मे इस पर सबसे प्राचीन टीका विभाजन करने की पद्धति नहीं पाई जाती। अकलदेव आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि कृत सर्वार्थसिद्धि प्राप्त होती द्वारा तत्त्वार्थवार्तिक में दिए गए वार्तिक प्रायः सरल है। यद्यपि सर्वार्थसिद्धि मे कुछ प्रमाण ऐसे हैं, जिनसे और संक्षिप्त है, किन्तु उनका व्याख्यान जटिल है। इस पता चलता है कि इससे पूर्व भी कुछ टीकाएँ लिखी गई ग्रन्थ में प्रकलङ्कदेव के दार्शनिक, सैद्धान्तिक और वैयाथों, जो आज अनुपलब्ध है। श्वेताम्बर परम्परा मे इस करण तीन रूप उपलब्ध होते है। पर तत्त्वार्थाधिगम भाष्य प्राप्त होता है, जो स्वोपज्ञ कहा दार्शनिक वैशिष्ट्य जाता है। किन्तु इसके स्वोपज्ञ होने में विद्वानो ने सन्देह तत्त्वार्थवार्तिक के अध्ययन से यह बात स्पष्ट पता व्यक्त किया है। सर्वार्थसिद्धि मे तत्त्वार्थसूत्र का जो चलती है कि इसके रचनाकार भट्ट अकलङ्कदेव विभिन्न पाठ निर्धारित किया गया है, दिगम्बर परम्परा के सभी भारतीय दर्शनों के तलस्पर्शी अध्येता थे। उन्होने विभिन्न विद्वान् आचार्यों ने उसका अनुसरण किया है । सर्वार्थसिद्धि दर्शनो के मन्तव्यों की समीक्षा कर अनेकान्तिक पद्धति से को ही दृष्टि मे रखते हुए उस पर भट्ट अकलङ्कदेव ने समाधान करने की परम्परा को विकसित किया । उनका तत्वार्थवातिक और आचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोक वाङ्मय गहन है । विद्वान् भी उसका विवेचन करने मे वार्तिक जैमी प्रौढ और गहन तत्त्वज्ञान से ओतप्रोत अनेक कठिनाई का अनुभव करते है। उनके विषय मे वादिराज टीकाएँ लिखी हैं। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र पर सर्वार्थसिद्धि, सूरि ने कहा है-- तत्त्वार्थवार्तिक और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के जोड की "भूयो भेदनयावगाहगहन देवस्य यद्वाङ्मयम् । टीकाएं नही मिलती हैं, यद्यपि सख्या की दृष्टि से अनेक स्थद्विस्तरतो विविध्य वदितुं मन्दः प्रभुदिशः ॥" Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकलदेव की मौलिक कृति तत्त्वार्थवातिक अर्थात् "अकलङ्कदेव की वाणी अनेक भङ्ग और नयों है; स्वतन्त्र पदार्थों में समवाय के नियम का अभाव है। से व्याप्त होने के कारण अतिगहन है। मेरे समान अल्पज्ञ यदि उष्ण गुण एव अग्नि परस्पर भिन्न हैं तो ऐसा कौनप्राणी उनका विस्तार से कथन और वह भी विवेचनात्मक सा प्रतिविशिष्ट नियम है कि उष्ण गुण का समवाय अग्नि कैसे कर सकता है ?" में ही होता है, शीत गुण मे नही ? उष्णत्व का समवाय तत्त्वार्थवार्तिक मे न्याय वैशेषिक, बौद्ध, सांख्य, उष्ण गुण में ही होता है-शीत गुण में नही, इस प्रकार मीमांसा तथा चार्वाक मतों की समीक्षा प्राप्त होती है। का प्रतिनियम दृष्टिगोचर नहीं होता। इसमें न्याय, वैशेषिक और बौदर्शन को समीक्षा अनेक इसके अतिरिक्त समवाय के खण्डन में अनेक युक्तियाँ स्थलो पर की गई है। अकलकुदेव का उद्देश्य इन दर्शनों दी गई हैंकी समीक्षा के साथ-साथ इनके प्रहारो से जैन तत्त्वज्ञान १. वृत्त्यन्तर का प्रभाव होने से समवाय का अभाव की रक्षा करना भी रहा है। इसमे वे पर्याप्त सफल भी है। हुए हैं। उन्होने जैन न्याय की ऐसी शैली को जन्म दिया, २. समवाय प्राप्ति है, इमलिए उसमें अन्य प्राप्तिजिसके प्रति बहुमान रखने के कारण परवर्ती जैन ग्रन्थ- मान का अभाव है, ऐसा भी नहीं है, क्योंकि इस प्रकार कार इसे अकलङ्क न्याय के नाम से अभिहित करते हैं। के कथन मे व्यभिचार आता है। उनकी शैली को परवर्ती जैन न्याय ग्रन्थकारो ने, चाहे वे दीपक के समान समवाय स्व और पर इन दोनो का दिगम्बर परम्परा के रहे हो या श्वेताम्बर परम्परा के, सम्बन्ध करा देगा, ऐसा कहना भी उचित नही है, ऐसा खूब अपनाया। इस रूप में आचार्य समन्तभद्र और सिद्ध- मानने पर समवाय में परिणामित्व होने से अनन्यत्व की सेन के बाद जैन न्याय के क्षेत्र में उनका नाम बड़े गौरव सिद्धि होगी। लिया जाता है। यहाँ हम उनके द्वारा की गई इन सब कारणों से गुणादि को द्रव्य की पर्यायविशेष विभिन्न दर्शनों की समीक्षा पर प्रकाश डालते हैं। मानना युक्तिसगत है। वैशेषिक समीक्षा-तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के वैशेषिक मानते हैं कि इच्छा और द्वेष से बन्ध होता प्रथम सूत्र की व्याख्या मे सांख्य, वैशेषिक और बौद्धो के है। इच्छा-द्वेषपूर्वक धर्म और अधर्म मे प्रवृत्ति होती है। मोक्ष के स्वरूप का वर्णन किया गया है । वैशेषिक आत्मा धर्म से सुख और अधर्म से दुःख होता है तथा सुख-दु.ख से के बुद्धि, सुख, दु.ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, और संस्कार इच्छा द्वेष होते है । विमोही के इच्छा-द्वेष नही होते; रूप नव विशेष गुणों के अत्यन्त उच्छेदको मोक्ष कहते हैं। क्योंकि तत्त्वज्ञ के मिथ्यादर्शन का अभाव है। मोह ही ऐसा मानते हुए भी कर्मबन्धन के विनाश रूप मोक्ष के अज्ञान है । विमोही षटपदार्थ तत्त्व के ज्ञाता वैरागी यति सामान्य लक्षण में किसी को विवाद नहीं है। के सुख-दुःख, इच्छा और द्वेष का अभाव है। इच्छा-द्वेष वैशेषिक के मत से द्रव्य, गुण और सामान्य पदार्थ के अभाव से धर्म, अधर्म का भी अभाव हो जाता है। पृथक-पृथक स्वतन्त्र हैं, इसलिए उनके मत मे उष्ण गुण के धर्म-अधर्म के अभाव में नतन शरीर और मन के संयोग योग से अग्नि उष्ण है, ऐसा कहा जा सकता है, स्वयं का प्रभाव हो जाता है। धर्म-अधर्म के अभाव मे नतन अग्नि उष्ण नहीं हो सकती। अयुतसिद्ध लक्षण समवाय शरीर और मन के सयोग का अभाव हो जाता है। शरीर यह इसमें है, इस प्रकार की बुद्धि प्रवृत्ति का कारण होता और मन के संयोग के अभाव में जन्म नहीं होता, वह है, इसलिए गुण-गुणी मे प्रभेद का व्यपदेश होता है और मोक्ष है। इस प्रकार अजान से बन्ध होता है, यह वैशे. इस समवाय सम्बन्ध के कारण ही उष्णत्व के समवाय से षिक भी मानता है। गुण में उष्णता तथा उष्ण गुण के समवाय से अग्नि उष्ण अकलङ्कदेव के अनुसार वस्तु सामान्य विशेषात्मक हो जाती है। है। इसे वे वैशेषिक मे भी घटित करते हैं। वैशेषिक इसके उत्तर मे अकलदेव ने कहा है कि ऐसा नहीं पृथिवीत्व आदि सामान्य-विशेष स्वीकार करते हैं। एक Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, वर्ष ४५, कि० २ अनेकान्त ही पृथिवीत्व स्व-व्यक्तियों में अनुगत होने से सामान्या- जाता है। अतः कारण की निवृत्ति होने पर कार्य की त्मक होकर भी जलादि से ध्यावृत्ति कराने का कारण निवृत्ति होना स्वाभाविक है । आत्यन्तिक दु.ख की निवृत्ति होने से विशेष कहलाता है। इस प्रकार एक ही वस्तु में होना ही मोक्ष है; क्योंकि सुख-दुःख का अनुपयोग ही मोक्ष सामान्य विशेषात्मक स्वीकार करने वाले वैशेषिक सिद्धान्त कहलाता है। में भी एक वस्तु के उभयात्मक मानने मे विरोध नहीं जैनदर्शन के अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और आता। सम्यकचारित्र की समग्रता के बिना मोन की प्राप्ति नहीं प्रथम अध्याय के दसवें सूत्र की व्याख्या मे ज्ञाता हो सकती है। जैसे रसायन के ज्ञानमात्र से रसायनफल और प्रमाण भिन्न-२ हैं, ऐसा मानने वाले वैशेषिक के अर्थात रोगनिवत्ति नहीं हो सकती; क्योंकि इसमे रसायन अज्ञत्व दोष आता है, इसका विवेचन किया है । यदि ज्ञान श्रद्धान और रसायनक्रिया का अभाव है। पूर्ण फल की से आत्मा पृथक है तो आत्मा के घट के समान प्रज्ञत्व का प्राप्ति के लिए रसायन का विश्वास, ज्ञान और उसका प्रसङ्ग आएगा। ज्ञान के योग से ज्ञानी होता है, यह सेवन आवश्यक है। उसी प्रकार दर्शन और चारित्र के कहना भी ठीक नही; क्योकि जो स्वय अज्ञानी है, वह अभाव में ज्ञानमात्र से मोक्ष की प्राप्ति नहीं सकती। ज्ञान के सयोग से ज्ञानी नही हो सकता। जैसे जन्म से नैयायिक मानते है कि शब्द आकाश का गुण है, वह अन्धा दीपक का सयोग होने पर भी दृष्टा नहीं बन वायु के अभिधात आदि बाह्य कारणो से उत्पन्न होता है, सकता, इसी प्रकार अज्ञ आत्मा भी ज्ञान के सयोग से इन्द्रिय प्रत्यक्ष है, गुण है, अन्य द्रव्यो मे नहीं पाया जाता, ज्ञाता नही हो सकता"। निराधार गुण नही रह सकते, अत: शब्द अपने आधारभूत प्रथम अध्याय के बत्तीसवें सूत्र की व्याख्या मे कहा गुणी आकाश का अनुमान करता है, ऐसा कहना युक्तिगया है कि वैशेषिको का मत है कि प्रतिनियत (भिन्न-२) संगत नहीं है क्योंकि पौदगलिक होने से पुद्गल का विकार पृथ्वी आदि जाति विशिष्ट परमाणु से अदृष्टादि हेतु के ही शब्द है, प्राकाश का गुण नहीं है। सन्निधान होने पर एकत्रित होकर अर्थान्तरभूत घटादि पांचवें अध्याय के २५वें सूत्र की व्याख्या में यह सिद्ध कार्यरूप आत्मलाभ होता है, यह कहना युक्तिसगत नही किया गया है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु स्कन्ध के ही है; क्योकि वैशेषिक के अनुसार परमाणु नित्य है, अतः भेद हैं तथा स्पर्श, रस, शब्द आदि स्कन्ध की पर्याये हैं। उसमें कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति का अभाव है, इससे नैयायिक के इस सिद्धान्त का खण्डन किया गया है इसी प्रकार ५वें अध्याय के प्रथम सूत्र मे मोक्ष के कि पृथ्वी मे चार गुण, जल में गन्धरहित तीन गुण, अग्नि कारणो के विषय में विभिन्न वादियों के मतो का कथन मे गन्ध और रस रहित दो गुण तथा वायु मे केवल स्पर्श करते हुए न्यायदर्शन की मान्यता की ओर सत किया गुण है। ये सब पृथिव्यादि जातियां भिन्न-२ हैं । गया है कि वे मानते हैं कि ज्ञान से ही मोक्ष होता है"। सल्लेखना के प्रसङ्ग मे कहा गया है कि जो वादी तत्त्वज्ञान से सभी के उत्तर को (मिथ्याज्ञान) की निवृत्ति (नैयायिक) आत्मा को निष्क्रिय कहते हैं, यदि उनके पुन: हो जाने पर उसके अनन्तर अर्थ है, उसकी भी निवृत्ति हो साधुजन सेवित सल्लेखना करने वाले के लिए आत्मवध जाती है। मिथ्याज्ञान के अनन्तर क्या है ? दोष है। दषण है तो ऐसा कहने वाले के आत्मा को निष्क्रिय मानने क्योंकि दोष मिथ्याज्ञान का कार्य है। दोष कार्य होने से की प्रतिज्ञा खण्डित हो जाती है। निष्क्रियत्व स्वीकार दोष के अनन्तर प्रवृत्ति है, क्योंकि दोष के अभाव में करने पर आत्मवध की प्राप्ति नहीं हो सकती। प्रवृत्ति का अभाव है। प्रवृत्ति के उत्तर जन्म है, प्रवृत्ति दान के प्रसङ्ग में कहा गया है कि बात्मा में नित्यत्व, का कार्य होने से । प्रवृत्ति रूप कारण के अभाव मे जन्म अज्ञत्व और निष्क्रियत्व मानने पर दानविधि नहीं बन रूप कार्य का भी प्रभाव हो जाता है। जन्म के उत्तर सकती। जिनके सिद्धान्त में सत्स्वरूप आत्मा अकारण दुःख है, इसलिए जन्म के अभाव मे दु:ख का भी नाश हो होने से कटस्थनित्य है और ज्ञानादि गुणों से भिन्न होने Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकलदेव की मौलिक कृति तत्त्वार्थवातिक से (अर्थान्तरभूत होने से) आत्मा अज्ञ है और सर्वगत होने से अभिव्यक्त होने वाला, अर्थ के प्रतिपादन में समर्थ, से निष्क्रिय है, उनके भी विधिविशेष आदि से फलविशेष अमूर्त, नित्य, अतीन्द्रिय,निरवयव और निष्क्रिय शब्दस्फोट की प्राप्ति नहीं हो सकती; क्योंकि ऐसी आत्मा में कोई स्वीकार करना चाहिए। उनका यह मत ठीक है अर्थात् विकार-परिवर्तन की सम्भावना नही है"। शब्द को क्षणिक, अमर्त, निरवयव और निष्क्रिय शब्दपांचवें अध्याय के दूसरे सूत्र की व्याख्या में नैयायिको स्फोट मानना उचित नहीं; क्योकि ध्वनि और स्फोट में के 'द्रव्यत्व योगात् द्रश्य' की विस्तृत समीक्षा की गई है। व्यंग्य-व्यंजक भाव नहीं है। चार्वाक दर्शन समीक्षा-पांचवें अध्याय के २२वें सांख्य दर्शन समीक्षा-प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र में शरीरादि को पुद्गल का उपकार कहा है। उक्त सूत्र की व्याख्या में विनिम्न वादियो की मोक्ष की परिप्रसंग में कहा गया है-तन्त्रान्तरीया जीवं परिभाषन्ते, भाषा के साथ सांख्यदर्शन की मान्यता की ओर भी निर्देश तत्कथं इति । अर्थात् अन्य वादी (चार्वाकादि) जीव को किया गया है। सांख्य यद्यपि प्रकृति और पुरुष का भेद. पुद्गल कहते हैं, वह कैसे ? इस प्रश्न के उत्तर मे सूत्र विज्ञान होने पर स्वप्न में लुप्त हुए विज्ञान के समान कहा गया है कि स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण वाले पुद्गल अनभिव्यक्त चैतन्यस्वरूप अवस्था को मोक्ष मानता है। तथापि कर्मबन्धन के विनाशरूप मोक्ष के सामान्य लक्षण मोमांसा दर्शन समीक्षा-सम्यग्दर्शन, सभ्य ज्ञान में किसी को विवाद नहीं है। और सम्यक्चारित्र तीनों को एकता से मोक्ष होता है, इस पंचम अध्याय में आकाश के प्रदेशों की अनन्तता के सिद्धान्त के प्रतिपादन के प्रसग मे अन्य मतों की समीक्षा विषय में आपत्ति होने पर बौद्ध और वैशेषिक द्वारा के साथ मीमांसा के इस सिद्धान्त की भी समीक्षा की गई अनन्त को मान्यता दिए जाने का उल्लेख करते हुए सांख्य है कि क्रिया से ही मोक्ष होता है। सिद्धान्त के विषय में कहा गया है कि सांख्य सिद्धान्त में प्रथम अध्याय के बारहवें सूत्र की व्याख्या में प्रत्यक्ष सर्वगत होने से प्रकृति और पुरुष के अनन्तता कही गई के लक्षण के प्रसंग में बौद्ध, वैशेषिक और सांख्य की है। समीक्षा के साथ मीमांसकों के इस मत की समीक्षा की जैनधर्म में धर्म और अधर्म द्रव्य को गति और गई है कि "इन्द्रियों का सम्प्रयोग होने पर पुरुष के उत्पन्न स्थिति मे साधारण कारण माना है। यदि ऐसा न मानहोने वाली बद्धि प्रत्यक्ष है। मोमासको क इस मत को कर आकाश को सर्वकार्य करने में समर्थ माना जायगा तो स्वीकार किया जायगा अर्थात् इन्द्रियनिमित्त से होने वाले वैशेषिक, बौद्ध और सांख्य सिद्धान्त से विरोध बाएगा। ज्ञान को प्रत्यक्ष माना जाएगा तो आप्त के प्रत्यक्ष ज्ञान उदाहरणार्थ सांख्य सत्व, रज और तम ये तीन गुण मानते नही हो सकता"। हैं । सत्त्व गुण का प्रसाद और लाधव, रजोगुण का शोष पांचवें अध्याय के सत्रहवें सूत्र में कहा गया है कि और ताप तथा तमोगुण का आवरण और सादनरूप भिन्न अपूर्व नामक धर्म (पुण्य-पाप) क्रिया से अभिव्यक्त होकर भिन्न स्वभाव है। यदि व्यापित्व होने से प्राकाश को ही अमूर्त होते हुए भी पुरुष का उपकारी है अर्थात् पुरुष के गति एव स्थिति में उपग्रह (निमित्त) मानते है तो व्याउपभोग साधनों मे निमित्त होता ही है, उसी प्रकार अमूर्त पित्व होने से सत्त्व को ही शोष तापादि रजोगुणधर्म और धर्म और अधर्म द्रव्य को भी जीव और पुद्गलो की गति सादन प्रावरण बादि तपोधर्म मान लेना चाहिए; रज, और स्थिति में उपकारक समझना चाहिए"। तम गुण मानना निरर्थक है तथा और भी प्रतिपक्षी धर्म पाँचवें अध्याय के २४वें सूत्र की व्याख्या मे स्फोट- हैं। उनको एक मानने से सङ्कर दोष आएगा । उसी प्रकार वादी मीमांसकों के विषय में कहा गया है कि वे मानते सभी आत्माओं मे एक चैतन्य रूपता और आदान-अभोगता हैं कि ध्वनियाँ क्षणिक हैं । वे क्रम से उत्पन्न होती हैं और समान है, अतः एक ही आत्मा मानना चाहिए, अनन्त अनन्तर क्षण में विनष्ट हो जाती हैं। अतः उन ध्वनियों नहीं अर्थात् आत्मा भी चैतन्य भोक्त बादि समान होने से Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६, वर्ष ४५, कि० २ अनेकान्त सर्व आत्मा में एकत्व का प्रसङ्ग आएगा। उसी प्रधान का विधार होने से आकाश के भी अनित्यत्व, पांचवें अध्याय के मत्रहवें सूत्र की व्याख्या मे कहा अमर्तत्व और असर्वगतत्व होना चाहिए या फिर आकाश गया है कि जैसे अमूर्त भी प्रधान पुरुषार्थ प्रवृत्ति से महान् की तरह घट के भी नित्यत्व, अमूर्तत्व और सर्वगतत्व अहंकार आदि विकार रूप से परिणत होकर पुरुष का होना चाहिए; क्योंकि एक कारण से दो परस्पर अत्यन्त उपकार करता है, उसी प्रकार अमूर्त धर्म और अधर्म विरोधी नहीं हो सकते। द्रव्य को भी जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति मे छठे अध्याय के दसवें सूत्र की ख्या में कहा गया उपकारक समझना चाहिए। है कि कारण तुल्य होने से कार्य तुल्य होना चाहिए, इस सांख्य का आकाश को प्रधान का विकार मानना पक्ष में प्रत्यक्ष और पागम से विरोध आता है। मिट्टी के ठीक नहीं है। क्योकि आत्मा की तरह प्रधान के भी पिण्ड से घट, घटी, शराब, उदञ्चन आदि अनेक कार्य विकार रूप परिणमन नही हो सकता। होने से उपर्युक्त सिद्धान्त से प्रत्यक्ष विरोध आता है। प्रश्न-सत्व, रज और तम इन तीन गुणों की साम्य सांख्य एक प्रधान तुल्य कारण से महान् अहंकार आदि अवस्था ही प्रधान है, उस प्रधान मे उत्पादक स्वभावता नाना कार्य मानते है"। है। उस प्रधान के विकार महान, अहकार आदि है तथा वस्तुओं में भिन्न-२ स्वभाव स्वीकार किए जाने में आकाश भी प्रधान का एक विकार है। सांख्य का भी उदाहरण दिया गया है, जहाँ सत्त्व, रज, उत्तर-यह कथन भी अयुक्त है; क्योकि प्रधान पर. तम गुणो का प्रकाश, प्रवृति और नियम आदि स्वभाव मात्मा के समान नित्य, निष्क्रिय, अनन्त आदि अविशेषपने ___माना गया है"। से परमात्मा का आविर्भाव और तिरोभाव नहीं होने से योगदर्शन-मोक्ष के कारणों के विषय मे विभिन्न उसमे परिणमन का अभाव है, उसी प्रकार आत्मा के वादियों के मत वैभिन्न को दिखलाते हुए योगदर्शन की समान अविशेष रूप से नित्य, निष्क्रिय और अनन्त होने मान्यता की ओर निर्देश किया गया है, जिसके अनुसार से प्रधान के भी विकार का अभाव है और प्रधान के ज्ञान और वैराग्य से मोक्ष होता है। पदार्थों के अवबोध विकार का अभाव होने से "प्रधान का विकार आकाश को ज्ञान कहते है और विषयसुख की अभिलाषाओं के है', इस कल्पना का व्याघात होता है। अथवा जैसे प्रधान त्याग अर्थात् पंचेन्द्रियजन्य विषयसुखो में अनासक्ति को के विकार घट के प्रनित्यत्व, मत्तत्व और असर्वगतत्व है, वैराग्म कहते है"। (क्रमशः) सन्दर्भ-सूची १. विशेष जानकारी के लिए सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र २०. वही ५२२२२२६. २१. अपर आहः क्रियात एव शास्त्री की सर्वार्थसिद्धि को प्रस्तावना देखिए। मोक्ष इति । तत्त्वार्थवार्तिक १।११५. २. न्यायकुमुदचन्द्र प्र. भाग (प. कलाशचन्द्र शास्त्री रा २२. सत्सम्प्रयोगे पुरुषष्पन्द्रियाणां बुद्धिजन्मतत्प्रत्यक्षं । वही १११।५. मी. द. १२१४. लिखित प्रस्तावना पृ. ४३)। २३. तत्त्वार्थवार्तिक १३१२१५. ३. तत्त्वार्थवातिक ११८. ४. वही १११।१२. २४. अपूर्वाख्यो धर्मः क्रियया अभिव्यक्तः सन्नमर्तोऽपि पुरु५. वही १३११३. ६. वही १।१।१४. षस्योपकारी वर्तते तथा धर्माधर्मयोरपि गतिस्थित्युप७. वही १११११५. ८. वही १११६. ग्रहोऽवसेयः । वही ५। ७।४१. . वही १११४४. १०. वही ११६१४. २५. तत्त्वार्थवार्तिक २२४१५. ११. वही १।१०।८-६. १२. वही ११३२१४. २६. वही ११११८. २७. वही श. १३. केचित्ताबदाहुः ज्ञानादेव मोक्ष इति वही ॥१॥६. २८. इतरे ब्रवते-प्रकृतिपुरुषयोरनन्तत्वं सर्वगतत्वादिति । १४. तत्त्वार्थ वा. १।१।४५. १५. वही ११११४६. वही ५४. २६. तस्वार्थवार्तिक ५॥१७॥२३ ३०. वही ५।१७।४१. १६. वही ५।१८।१२. १७. वही ५।२६।१७. ३१. वही ५।१८।१ . ३०. वही ६।१०।११. १८ वही ७।२२।१०. १६. वही ॥३६६. ३३. वही ६२७४६. ३४. वही १.१०६. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत जैन- चम्पू और चम्पूकार भारतीय काव्यशास्त्र मे काव्य के दृष्य और श्रव्य ये दो भेद किए गये है । श्रव्यकाव्य को भी गद्य पद्य और मिश्र इन तीनों भागों में विभाजित किया गया है मिश्र रचना शैली के प्राचीनतम उदाहरण ब्रह्मण प्रन्थों मे पाये जाते हैं । पालि की जातक कथाओं और प्राकृत के "हुवलयमाना" प्रभृति ग्रन्थो मे इसके दर्शन होते है। "पंचतन्त्र" और "हितोपदेश" जैसी रचनाओं में तथा संस्कृत नाटको में दोनों का प्रयोग हुआ है । किन्तु यहां गद्य और पद्य का अपना विशिष्ट स्थान रहा है । यहां कथात्मक भाग गद्य में और उसका सार या उपदेश गद्य मे ग्रथित रहा। परन्तु जब गद्य तथा पद्य दोनो मे ही प्रोढता और उत्कृष्टता आने लगी तब नवगुणानुरागी कवियों ने सम्मिलित प्रौढ़ गद्य और पद्म से कसोटी पर अपने आपको परखा, फलतः अनेक कवियो ने गद्य की पद्य की रागमयता से समन्वित गद्य-पद्य मिश्रित काव्यों की रचना कर डाली । कालान्तर में यह काना विद्या चम्पू नाम से अभिहित हुई । महाकवि हरिचन्द्र ने लिखा है कि गद्यावलि और पद्यावाल दोनों मिलकर वैसे ही प्रमोद उत्पन्न करती है, जैसे बाल्य और तारुण्य अवस्था से युक्त कोई कान्ता अर्थगरिमा व चानिः पद्यपरम्परा च प्रत्येकहतिप्रमोदम। हर्षप्रकर्षं तनुते मिलित्वा द्राग्वात्प्रतारण्यवतीव कान्ता || चम्पू शब्द चुरादिरणीय मत्कचप" धातु से "उ" प्रत्यय लगाकर बना है । “चम्पयति इति चम्पू" किन्तु सतसे शब्द का स्वरूप मात्र उपस्थित होता है। हरिदासाचार्य के अनुसार वत्पुनाति सहृदयान् विस्मयीकृत्य प्रमादगति इति चम्पू: " चम्पू की परिभाषा है । यह व्युत्पत्ति अधिक उपयुक्त जान पडती है । चम्पू काव्य चमत्कार प्रधान हुआ करते हैं । चमत्कार से तात्पर्य उक्ति बनाएव पाब्दी काटछाट से है। चम्पू [D] डॉ. कपूरचन्द जैन काव्यों मे रस एवं औचित्य की अपेक्षा पाण्डित्य प्रदर्शन की ओर कृतिकारों का अधिक ध्यान रहा है। यों तो योजना विश्व सब जगह दिखाई पड़ता है, किन्तु चमत्कार प्रदर्शन की ओर सर्वाधिक प्रवृत्ति चम्पू काव्यों मे दृष्टिगत होती है । काव्य की प्रतिष्ठा मध्यकाल में हुई फलत: इस पर अधिक ध्यान नही दिया गया दण्डो ने कहा हैमिश्राणि नाटकादीनि तेषामन्यत्र विस्तरः । गद्यपद्यमय काचिचरपि विद्यते ॥ इसी प्रकार की परिभाषा विश्वनाथ ने भी प्रस्तुत की है। किसी अज्ञात विद्वान की भी एक परिभाषा प्राप्त होती है, जिसमे उक्ति प्रत्युक्ति तथा विष्कम्मक का न होना तथा अक और उच्छ्वास का होना बताया गया है । "गद्यमयी सांकासोच्छ्वासा कविर्गुम्फिता उक्तिप्रत्युक्तिविष्कम्भक शून्या चम्पूरुदाहृता ।।' चकाव्य की साफ और सोच्छ्वास विशेष | हेमचन्द्र ने भी स्वीकार की है "गद्यपद्यमयी साका सोच्छवासा चम्पू ।" डा० के० भुजबली शास्त्री ने चम्पू शब्द को देश्य माना है। उनका कहना है कि चम्पू काव्य जैनो की अनुपदेन है। उन्होन कर्णाटक के प्रसिद्ध कवि श्री द० ० वेन्द्र के मत का उल्लेख किया है, तदनुमार कन्नड़ और तुलु भाषाओ मे "सपु और चपे" के रूप में जो शब्द उपलब्ध है, उनका अर्थ "गुम्दर" और मिथ" होता है। बहुत कर इन्ही शब्दों से हुआ होगा। बम्बू शब्द निष्पन्न आज भी कन्नड और तुलु भाषा के "केन् चेन्" ये मूल "कें" के रूप में निष्पन्न होकर सुन्दर और मनोहर अर्थ को प्रदान करते है। गद्य पद्य मिश्रित काव्य विशेष को जनाने सर्वप्रथम सुन्दर एवं मनोहर अर्थ मे 'बंधु' के नाम से पुकारा होगा और बड़ी बाद मे रूढ़ि के Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त बल से चेम्पु या चम्पु के नाम से प्रसिद्ध हुआ होगा'। वर्णित राजवर्मा ही काञ्ची के अधिपति पल्लव नपनि डा. हीरालाल जैन और डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये है। पल्लव नृपति शैव मतावलम्बी थे और उसके प्रचाका भी यही मत है कि सम्भव है यह आर्यभाषा का शब्द रक भी, इनका राज्यकाल ई. ६६० से ७२५ तक माना न होकर द्राविड़ भाषा का शब्द हो । गया है। डा० छविनाथ त्रिपाठी ने "चम्पूकाव्य का आलोच- उक्त विवेचन से इतना तो स्पष्ट है कि चम्पू काव्य नात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन" ग्रन्थ मे चम्पूका न्य की का उद्भव दक्षिण भारत में हा। दण्डी चम्पूकाव्यों से निम्न विशेषताएं बताई है--यह गद्यपद्यमय होता है, परिचित थे, किन्तु वे चम्पूकाव्य कौन-कौन थे, यह अब अंकों से युक्त तथा उच्छवासो मे विभक्त होता है, उक्ति भी रहस्य बना हुआ है। इस गुत्थि को सुलझाने के लिए प्रत्युति एव विष्कम्भक नही होते आदि। किन्तु ये विशेष- हमे कन्नड के चम्पूकाव्यों की ओर जाना होगा। उपलब्ध ताएं सभी चम्पू काव्यो में प्राप्त नही होती अतएव चम्पू कन्नड़ साहित्य मे भी दसवी शताब्दी के ही चम्पू काव्य काव्य की कोई निष्पक्ष और पूर्ण परिभाषा नहीं दी जा प्राप्त होते हैं, जो सुप्रसिद्ध जैन कवि पम्प, पोन्न और सकती तथापि डा. छविनाथ त्रिपाठी को निम्न परिभाषा रन्न के हैं। किन्तु इससे पूर्व भी चम्पू शैली के काव्यों उचित जान पड़ती है। और चमुओं के नाम उपलब्ध होते हैं। नृपतग (८१४गद्यपद्यमयं श्रव्य 'सम्बन्ध' वहुवणितम् । ८७७ ई०) द्वारा लिखित "कविराजमार्ग" नामक लक्षण साल कृतं रस मिक्तं चम्पुकाव्य मुदाहृतम् ॥ ग्रन्थ में विमलोदय, नागार्जुन, जयबन्धु, दुविनीत श्रीविजय, चम्प काव्यों ने सर्वप्रथम किस भाषा मे जन्म लिया कवीश्वर आदि अनेक कन्नड़ कवियों का नामोल्लेख हुआ यह प्रश्न भी कम विचारणीय नहीं है, सस्कृत के उपलब्ध है। इनमें श्रीविजय का उल्लेख दुर्गसिंह (११४५ ई.) ने चम्पू काव्यों में त्रिविक्रम भट्ट का 'नलचम्पू' प्रथम है किया है और उनकी कविता को कवियों के लिए दर्पण इसका समय ६१५ ई० स्वीकार किया जाता है, यतः एवं दीपक बताया है। भंगरम (१५०८ ई०) और उन्होंने राष्ट्रकूट नायक तृतीय इन्द्र (ई० सन् ११४-१५) दोड्डय्य (१५५० ई.) ने कहा है कि श्री विजय ने "चन्द्रके आश्रय मे उक्त चम्पू रचा था। इस राजा के नौसारी प्रभपुराण" चम्पू शैली में लिखा है"। श्री विजय का वाले दानपत्र के लेखक यही त्रिविक्रम भट्ट थे। इनका एक समय ८वीं शती स्वीकार किया जाना चाहिए यत: नपतुंग अन्य चम्पू "मदालसा चम्पू" भी प्राप्त है। (८१४-८७०) ने इनका उल्लेख किया है। दूसरा महत्वपूर्ण चम्पू आचार्य सोमदेव का 'यशस्ति- इसी प्रकार गुणवर्म (प्रथम) का समय ९०० ई० लक चम्पू" है। उन्होंने भी राष्ट्रकूट राजा कृष्णराजदेव माना गया है। केशिराज ने गुणवर्म के "हरिवश" का (तृतीय कृष्ण) समय ९४५-९७२ ई० के समय मे उक्त उल्लेख किया है, जिसका अपरनाम "नेमिनाथपुराण" भी चम्पू समाप्त किया था। अत: यशस्तिलक का काल १०वी है। विद्यानन्द '(१५५० ई.) ने अपने "काव्यसार' शती का उत्तरार्ध सिद्ध है। नामक संकलन ग्रन्थ में गुणवर्म के 'शुद्रक' ग्रन्थ का उल्लेख चम्पू काव्यों की उपलब्ध परिभाषाओ मे दण्डी की किया है तथा उसके गद्य-पद्य को उद्धृत किया है। परिभाषा सबसे पहली है । दण्डी का समय सप्तम शताब्दी "काव्यसार" में सभी उदाहरण चम्पू काव्यो के हैं । अतः या अष्टम शताब्दी का पूर्वाधं स्वीकार किया जाता है वे इस अनुमान को पर्याप्त आकार मिल जाता है कि 'शद्रक' बरार (विदर्भ) निवासी थे और बाद में काञ्ची के पल्लव चम्पू ग्रन्थ रहा होगा इस ग्रन्थ मे गगराज एरेपथ्य (८८६. राजाओं के आश्रय मे रहे थे। यह जनश्रुति मुविख्यात है ६१३ ई०) की तुलना शूद्रक से की गई है तथा कन्नड़ कि पल्लव नपति के राजकुमार को शिक्षित बनाने के जैन कवियों की यह विशेषता रही है कि वे एक लौकिक लिए उन्होने अपने प्रख्यात ग्रन्थ काव्यादर्श की रचना की काव्य अपने माश्रयदाता के गुणगान में और एक धार्मिक थी। कई लेखको का यह भी मत है कि काव्यादर्श मे काव्य तीर्थंकरों को जीवनी से सम्बद्ध लिखते रहे है, इसी Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत बन चम्मू और चम्पूकार लिए पं० के० भुजबली शास्त्री ने लिखा है-इस (उक्त) चिन्तामणि, यशोधर महाराजचरित (यशस्ति लक) और परम्परा के प्रवर्तक गुणवर्म हैं, परवर्ती कवि पम्प, पोन्न नीतिवाक्यामृत नामक ग्रन्थों की रचना की थी", और रन्न ने यही पद्धति अपनाई है। पम्प से पहले ही पं० कैलाश चन्द्र शास्त्री ने "अध्यात्मतरङ्गिणी" की कन्नड़ में चम्पू शैली मे सम्पन्न ग्रन्थ रचने का श्रेय गुण- भी सोमदेव की रचना बताई है। श्री नाथराम प्रेमी के वर्म को प्राप्त है। अनुसार चालुक्यवंशीय अरिकेसिन् तृतीय के दानपत्र में इस प्रकार यह कहना असमीचीन जान नही पड़ता सोमदेव को "स्याद्वादोपनिषत्" का कर्ता कहा गया है" कि दण्डी जिन चम्पूकाव्यो से परिचित रहे होगे वे श्री डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने अध्यात्मतरंगिणी का दूसरा नाम विजय आदि के चम्पू ही रहे होगे । “कविराजमार्ग" भी योगमार्ग बताया है। इनमें से केवल "यशस्तिलक", मौलिक ग्रन्थ नही है। दण्डी के "काव्यादर्श' का ही "अध्यात्मतरगिणो" तथा "नीतिवाक्यामृत' ही प्राप्त कन्नड़ रूपान्तर है। इससे यह सिद्ध है कि दण्डी दक्षिण तथा प्रकाशित हैं। मे रहे और कन्नड काव्य शास्त्रियों से उनकी घनिष्टता अपने रचनाकाल के विषय मे स्वयं सोमदेव ने लिखा रही। “गद्य-पद्यमयी काचित चम्पूरित्यभिधीयते" में हाक-शक संवत् ८८१ (६५६ ई.) में सिद्धाथ काचित् पद के द्वारा उन्होने चम्पकाव्यों की अल्पता और के अन्त के अन्तरगत चैत्र मास की मदनत्रयोदशी (शुक्लपक्ष की उनके प्रति उपेक्षा ही सुचित की है। ऐसी उपेक्षा अन्य त्रयोदशी) मे जब श्री कृष्णराज देव पांड्य, सिंहल, चोल भाषा के काव्यों के प्रति ही होती है। अतः लगता यही है व चेलम प्रादि राजाओ पर विजयश्री प्राप्त करके अपना कि दण्डी कन्नड़ के चम्पुओ से ही परिचित थे। राज्य माल्याटी (मेलपाटी) मे वृद्धिंगत कर रहे थे तब ___ अपने उद्भव के साथ ही चम्पूशैली अत्यधिक लोक- यशस्तिलक समाप्त हुआ" । दक्षिण के इतिहास से विदित प्रिय हुई और विपूल मात्रा मे चम्पूकाव्यों का सृजन होता है कि उक्त कृष्णराजदेव (तृतीय) कृष्ण राष्ट्रकट हआ। डा० छविनाथ त्रिपाठी ने 'चम्पूकाव्यो' का आलो. या राठौर वश के महाराजा थे और इनका दूसरा नाम चनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन" अन्य में प्रकाशित- अकाल वर्ष था। इनका राज्यकाल कम से कम शकसंवत् अप्रकाशित लगभग २५० चम्पकाव्यो की सूची दी है। ८६७.८६४ (९४५-६७२ ई०) तक प्रायः निश्थित है। जैन चम्पकाव्यो की परम्परा का परिचय यहां हम प्रस्तुत अतः सोमदेव का समय ई० को १०वी शताब्दी प्राय: कर रहे है। निश्चित मानना चाहिए। यशस्तिलक चम्पू: सोगदेव महान् तार्किक और अक्खड़ किस्म के विद्वान् न केवल जैन चम्पूकाव्यों अपितु समग्र संस्कृत चम्पू. थे। उन्होने स्वयं कहा है कि 'मैं छोटों के साथ अनुग्रह, काव्यों मे यशस्तिलक का स्थान अप्रतिम है। इसके बराबरी वालो के साथ सुजनता और बड़ो के साथ महान रचयिता आचार्य सोमदेव का जीवन चरित संस्कृत के आदरभाव का बर्ताव करता हूं। किन्तु जो ऐंठ दिखाए है, अन्य कवियों की भांति अन्धकाराछन्न नहीं है। यतः उसके लिए गर्वरूपी पर्वत को विध्वंस करने वाले मेरे उन्होंने यशस्तिलक तथा नीति वाक्यामत मे अपने सम्बन्ध वववचन कालस्वरूप हो जाते हैं। वाद के समय वृहस्पति मे पर्याप्त सूचनाएं दी हैं। तदनुसार वे देवसंघ के तिलक भी मेरे सामने नही ठहर सकते'। काव्यकला के विलास आचार्य यशोदेव के प्रशिष्य और सकलनार्तिक-घडामणि, में उनका कौशल कम नहीं है, उनकी बुद्धिरूपी गो ने चम्बितचरण श्रीमान् नेमिदेव के शिष्य थे। उनके बड़े जीवन भर तर्करूपी घास खाया पर उसी से काव्यरूपी भाई का नाम भट्टारक महेन्द्रदेव था तथा स्याद्वादाचलसिंह, दूध उत्पन्न हुआ है। उनके राजनैतिक शान के सन्दर्भ ताकिकचक्रवर्ती, वादीभपचानन, वाक कल्लोलपयोनिधि, में "नीतिवाक्यामत" ही निवर्शन है । एक जगह तो उन्होविकलराज उनकी उपाधियाँ थी। उन्होंने षण्णवति ने शब्दार्थ रस मे समग्र लोक को अपना उच्छिष्ट कह प्रकरण, युक्तिचिन्तामणि सूत्र, महेन्द्र मातलिसंजल्प, युक्ति- डाला है"। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०, वर्ष ४५, कि०२ अनेकान्त "यशस्तिलक" के अन्तिम तीन आश्वासों में सोमदेव हो गये । राजन् वे हो हम मुनिकुमार हैं। हमारे आचार्य का धर्माचार्यत्व प्रब ट हुआ है। वे वेद और उपनिषदो के नगर के समीप ही ठारे है। अप्रतिम ज्ञाता थे। पशुबलि को लेकर जो तकं वैदिक यह मनकर राजा बडा आश्चर्यचकित हुआ और उसने ग्रन्थों के उद्धरण देकर प्रस्तुत किये गये है, वे इस बात के दीक्षा देने का आग्रह किया (पचम आश्वास) आगे के समुज्ज्वल निदर्शन हैं। 'यशस्तिलक मे पाठ आप स है। तीन आश्वामो मे जैनधर्म के सिद्धान्तो का विशद्-विवेचन पन्तिम तीन मे धर्म का विवेचन है इसके गद्य पर है जिसके बकना आचार्य प्रदत्त है। सभी ने धर्म ग्रहण कादम्बरी का प्रभूत प्रभाव है। इसी प्रकार कथावस्तु का किया और यथायोग्य स्वर्ग-गद पाया, अन्तम मंगल तथा संघठन भी कादम्बरी से प्रभावित है। मोमदेव का उद्देश्य आत्म-रिचय गाथ ग्रन्थ ममानि । अहिंसा के उत्कृष्टतम रूप की प्रतिष्ठा करना रहा है। जीवन्धर चम्पू-दूमरा महत्वपूर्ण जन चम्पू इसकी कथावस्तु से उन्होने दिखाया कि जब अटे के भी "जीवन्धर चम्प" है। इसके कर्ता महाकवि हरिचन्द्र ने मुर्गे की हिंसा करने में लगातार छह जन्मों तक पशु "धर्मशभ्य दय" महाक' की भी रचना की है। जिसमे योनि मे भटकना पडा तो साक्षात पशु हिंसा करने का पन्द्रहवे तीर्थंकर धन थ का चरित्र चित्रिता। यद्यपि कितना विषाक्त परिणाम होगा इसपी कल्पना भी नाठन श्री नाथूराम प्रमी ने जीवन्धर चम्प का कर्ता महाकवि है, यशस्तिलक की सक्षिप्त - थावस्तु निम्न है- हरित दोन कर किसी अन्य कवि को माना है, यौधेय जनपद में मारिदत्त नाम का राजा था। किन्तु डा. पन्नालाल माहित्याचार्य ने "धर्मशर्माभ्युदय" जिसने एक कौलाचार्य के कहने पर भी जोड़ो के सा: और बीनर चम्प" के नामों तथा शब्दो को समानता मनुष्य के जोड़े की बलि देने का विचार किया। सेवक के आधार पर दोनो का कर्ता एक ही माना है। डा० दो प्रवजित भाई बहिन को पकड लाये, जो अल्पायु थे। बीच भी जीवन्धर चम्पू का कर्ता हरिचन्द्र को ही मानते (प्रथम सं०)। मनिकुमारो को देख राजा का क्रोध शान्त हो गया। हरिचन्द्र का समय, कुल, माता-पिता एव भाई आदि और उसने उनका परिचय पूछा, मुनिकुमारों ने कहा- अज्ञात नहीं है । 'धर्मशर्माभ्युदय" की अन्तिम प्रशस्ति से उज्जयिनी का राजा यशोधर था (द्वितीय आश्वास तथा इनका परिचय मिल जा: है, यद्यपि यह प्रशस्ति सभी तृतीय आश्वास) एक दिन रात में छद्मवेश से उसने देखा हस्तलि खन प्रतियो में नही पाई ज तो है, तथापि कि उसकी रानी महावत के साथ सम्भोग कर लोट आई भाण्डा कर रिसच इस्टीट्यूट पूना से प्राप्त प्रति मे यह है। प्रातः यशोधर को उदास देखकर इसको माता ने उल्लिखित है । यह प्रनि विक्रम सवत् १५३५ मे लिखित कारण पूछा। राजा ने अशुभ स्वप्न का बहाना बनाया, है जिमसे यह ज्ञात होता है, कि यदि यह प्रशस्ति बाद में जिसकी शान्ति के लिए माता ने पशुबलि हा प्रस्ताव जोडो गई है तो, १५३५ वि० स० के पूर्व जोडी गई है। रखा। राजा के न मानने पर अन्त मे आटे के मुर्गे की प्रस्त हार पन्द्र के पिता का नाम आर्द्रदेव आया है बलि देना तय हुआ। इधर रानी ने उम प्रसाद में राजा और धर्माभ्युिदय में भी आद्रदेव का उल्लख हुआ,२९, को माने के लिए विष मिला दिया। जिससे मा बेट प्रशस्ति की भाषा भो महाकवि की भाषा से मिलती. दोनो मर गये । (चतुर्थ आश्वास) जुलती है। अतः प्रशस्ति का हरिचन्द्र कन मानना असमीभावहिंसा के कारण वे दोनों छह जन्मों तक पशू- चीन न होगा। योनि मे भटकते रहे और क्रमशः मोर-कुना, हिरण-सर्प, प्रशस्ति के अनुसार नामक वंश के कायस्थ कुल मे जल जन्तु, बकरा-बकरी, भैंग-भंसा और मुर्गा-मुर्गी हुए। आद्रदेव नामक श्रेष्ठ विद्वान हुए, जिनकी पत्नी का नाम यहीं एक मुनि की वागी मुन वे भाई बहिन हुए तथा रथ्या था, उन दोनो मे हरिचन्द्र नाम का पुत्र हुआ, हरिपूर्वजन्मों की स्मति के कारण बाल्यावस्था में ही प्रवजित चन्द्र के छोटे भाई का नाम लक्ष्मण था। गह का नाम Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत जैन चम्पू और चम्पूकार क्या था? यह उल्लिखित नहीं पर, गुरु के प्रमाद से पुगे में ही विमला और सुरमजरी से (अष्टम-नवम लम्भ) उनकी वाणी निर्मल हो गई थी। तथा काष्ठांगार को स्वयंवर मे हराकर लक्ष्मणा से विवाह कायस्थो मे वैष्णव धर्म का प्रचार देखा जाता है पर करते है (दशम लम्भ) अन्त में मामा की सहायता से काष्ठांगार को मारकर राजपुरी का राज्य प्राप्त करते हरिचन्द्र अपने परीक्षा प्रधान गूण के कारण जैन हो गये है । उनके राज्य मे प्रजा सुखो थी। अन्त मे जिन दीक्षा थे। कदाचित इमी कारण उन्होंने धर्मशर्माभ्युदय के लेकर उन्होने मोक्ष पद पाया, अन्तिम मगल के साथ चतुर्थ सर्ग में दशरय और सुमन्त के मध्य हुए वार्तालाप काव्य समाप्ति (एकादश लम्भ)। के माध्यम से यह दिखाया है कि कोई भी व्यक्ति कभी भी धर्म को मानने मे स्वतन्त्र है। उन्होने अपने जन्म पुरुदेव चम्पू :स्थान के संदर्भ में कोई सकेत नही दिर उनके तीम। महत्वपूर्ण जैन चम्पू "पुरुदेव चम्पू" है, इसके वर्णनो से ऐमा लगता है कि वे मध्य प्रान्त (वर्तमान मध्य कर्ता महाकवि अहंदास की "मुनिसुव्रत काव्य" तथा प्रदेश) के निवासी थे। हरिचन्द्र नाम के अनेक विनो "भव्य जनकण्ठाभरण' ये दो रचनाएं और उपलब्ध होती का उल्लेख मंस्कृत साहित्य मेहमा है। राजशेखर और हैं । उन्होंने अपने जन्मस्थान के गन्दर्भ म कोई सूचना नहीं बारा भट्ट" ने हरिचन्द्र का उल्लेख किया है। साहसाक दी है। श्री नाथ राम प्रेमी ने उनके ग्रन्थों का प्रचार राज का प्रधान वैद्य भी हरिचन्द्र था। पर ये तीनो कर्नाटक मे अधिक होने के कारण उनके कर्नाटक में रहने उक्त हरिचन्द्र से भिन्न है। यतः "जीवन्धर चम्" तथा का अनुमान लगाया है"। पण्डित आशाधर अपने अतिम "धर्मशर्माभ्युदय" पर "यशस्तिलक" का प्रभूत प्रभाव समय : अवन्ती के नलकच्छपुर में रहे थे और वही पड़ा है, नथा रवत तीनो हरिचन्द्र सातवी शनी से पूर्व के उन्होंने "जिनयज्ञ कल्प" और "अनगार धर्मामृत" को हैं और सोमदेव का समय ई० को दसवी शती का उत्तरार्ध टोका आदि ग्रन्थ लिखे थे। याः अहंदास आशाधर के है। अत: हरिचन्द्र का समय ११-१ वी शती मानना अन्तिम गमय में उनके पास पहुचे तो उनका स्थान अवंती चाहिए। धर्मशर्माभ्युदय को क प्रति पाटण के सर्व: प्रदेश मानना होगा किन्तु समुचित प्रमाणों के अभाव में पाडा के पुस्तक भण्डार में मिली है, जिस 1 लेखन काल वि० स. १२८७ (१२३० ई०) है। कुछ निश्चित कह पाना सम्भव नही है । जीवन्धर चम्म जैन कथ नदी में प्रसिद्ध जीवन्धर श्री नाथ नाम प्रमी ने मदनकीति यतिपति के ही का चरित्र चित्रित किया गया है। २जपुरी के राजा अहम बन जाने का अनुमान लगाया है। किन्तु पुष्ट सत्यन्धर को उसका मंत्री छल से मार डालता है, सी प्रमाणों के अभाव में इस मत को भी वास्तविक रूप में मसान मे एक पुत्र को जन्म देती , जिसे एक वैश्य उठा स्वीकार नही किया जा सकता। लाता है। (प्रथम लम्भ) विद्यालय मे गुरू जीवन्धः को पण्डित आशाधर महान् विद्वान् होते हुए भी मुनि सारी कथा बताते हैं। जीवन्धर नन्दगोप की पुगेका नही बने अपितु उन्होंने मुनियो के चरित्र में पनप रही विवाह अपने मित्र गोविन्दा से कराते हैं । (द्वितीय लम्म) तत्कालीन शिथिलता को कडी पालोचना की है। वे जीवन्धर वीणा वादन में गन्धर्वदत्ता को पराजित कर गृहस्थ पण्डित थे, अतः उनके शिष्य अर्हद्दास का भी उससे विवाह करते हैं (तृतीय लम्भ) सुदर्शन यक्ष की गहस्थ पण्डिन होना सम्भव है। डा. गुलाबचन्द चौधरी यता से हाथी को पराजित कर गुणमाला म चतुथ ने अहंदास को गृहस्थ पण्डित ही माना है"। लम्ब) विषमोचन कर पद्मा से (पचम लम्भ) जिनालय के किवाड़ खोलकर क्षेमश्री से (षष्ठ लम्भ), राजपुत्रों को यह विषय भी अत्यन्त विवादास्पद है कि महाकवि धनविद्या सिखाकर कनकमाला से (सप्तम लम्भ), राज- अहंदास पण्डित आशाधर के साक्षात शिष्य थे या नहीं। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२, बर्ष ४५, कि.. अनेकान्त उन्होंने अपने तीनों ग्रन्थों की प्रशस्तियों में आशाधर का नाम बड़े पादर और सम्मान के साथ लिया है। भव्यजनकण्ठाभरण के-- "सूक्त्येव तेषां भवभीरवों ये गृहाश्रमस्याश्चरितात्मधर्माः । त एव शेषाश्रमिणां सहाय्या धन्याः स्युराशाघरसूरिमुख्याः ॥" (क्रमशः) -निदेशक, प्राकृत एवं जन विद्या शोधप्रबन्ध संग्रहालय, खतौली (उ० प्र०) सन्दर्भ १. जीवन्धर चम्प भारतीय ज्ञानपीठ १/ १८. यशस्तिलक चम्प, उत्तराखण्ड पृ. ४८१ । २. काव्यादर्श चौखम्बा १/३१ १६. वही, ग्रन्थ परिचय पृ. २३ । ३. साहित्य दर्पण चौखम्बा ६/३३६ २०. नीतिवाक्यामृत, प्रशस्ति । ४. नृसिंह उम्पू चौखम्बा भूमिका २१. यशस्तिलक चम्पू : उत्थानिका । ५. काव्यानुशासन निर्णयसागर ८/ २२. वही चतुर्थ आश्वास, पृ. ६५। ६. मरुधर केशरी अभिनदन अथ, व्यावर पृ. २७६ २३. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ४१२ पादटिप्पण । ७ परुदेव चम्प भारतीय ज्ञानपीठ भूमिका २४. महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन, ज्ञानपीठ. ८. चम्पकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक पृ. १५-१८। अध्ययन : त्रिपाठी चौखम्बा पृ. ४६ । २५. संस्कृत साहित्य का इतिहास : अनु० मंगलदेव शास्त्री, ६. संस्कृत साहित्य का इतिहास : वाचस्पति गैरोला, मोतीलाल बनारसीदास पृ. ४१६ । चौखम्बा, पृ. ६११। २६. धर्मशर्माभ्युदय १६/१०१-१०२ श्लोकों से निर्मित १०. संस्कृत साहित्य की रूपरेखा, व्यास एव पाण्डेय, छकबध से निर्गत देखे धर्मशर्माभ्युदय, ज्ञानपीठ कानपुर, पृ. ६११। पृ. २२६ । ११. जैन साहित्य का बहद् इतिहास पार्श्वनाथ विद्याश्रम, २७. धर्मशर्माभ्युदय, प्रशस्ति । वाराणसी, भाग ७, पृ.८। २८. महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन पृ. १०। १२. वही पृ. ११ । २६. वही पृ. १२। १३. वही पृ.६। ३०. कर्पूर मंजरी, साहित्य भण्डार मेरठ, प्रथम जवनिका १४. यशस्तिलक चम्प : महावीर ग्रन्थमाला वाराणसी ३१. हर्ष चरित " " " ३/१२ ८/४६२ तथा नीतिवाक्यामृत, ज्ञानपीठ, ग्रन्थकर्तुः ३२. महाकवि हरिचन्द : एक अनुशीलन पृ. १३ । प्रशस्ति । ३३. वही पृ. १३। १५. उपासकाध्ययन, ज्ञानपीठ, प्रस्तावना पृ. १३ । ३४. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. १४३ । १६. जैन साहित्य और इतिहास, नाथूराम प्रेमी, बम्बई, ३५. वही पृ. १४३ । पृ.६१। ३६. जैन साहित्य का वृहद इतिहास, भाग ६, पृ. १४॥ १७. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, डा. ३७. भव्यजन कण्ठाभरण, सोलापुर, पद्य २३६ । नेमिचन्द्र शास्त्री, सागर, भाग ३, पृ.८८ । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत साहित्य में स्याद्वाद : केवल ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् भगवान महावीर की दिव्यध्वनि से सर्व प्रथम स्याद्वाद सिद्धान्त का घवतरण हुआ। इसके बाद ही अहिंसा और अपरिग्रह सिद्धान्तों का आविष्कार हुआ, इसका कारण यह है कि ने अपने केवलज्ञान के द्वारा तीन लोक के त्रिकालवर्ती पदार्थों को एक साथ जान लेने पर भी उन अनन्त पर्यायों वाले अनन्त द्रव्यों का एक साथ कथन न करके क्रमश किया था क्योंकि वाणी की शक्ति हो ऐसी है कि वह विराट् स्वरूप वाली वस्तु का अखण्डरूप से युगपत् कथन नही कर सकती है। भगवान महावीर के समय मे वस्तु के एक-एक पक्ष का कथन करके आपस में झगड़ रहे तथा अज्ञानता के कारण ही वस्तु के सच्चे स्वरूप को न जानने वालो में से किसी ने वस्तु को नित्य ही माना किसी ने अनित्य हो माना, किसी ने उसे सत् रूप माना, किसी ने असत् रूप । यह तो वैसा ही है जैसा कि जिन जन्मान्धों ने हाथी के जिस अग को स्पर्श करके जाना उसे वैसा ही कहने लगे और दूसरे को मिथ्या कहते हुए झगड़ने लगे' । महावीर ने कहा कि अन धर्मात्मक वस्तु को एक धर्म वाली मानने से वह अवस्तु हो जायेगी। यह कोई क्रिया करने में असमर्थ रहेगी'। कहा भी है- "एकान्त स्वरूप द्रव्य लेशमात्र भी कार्य नहीं करता और जो कार्य नहीं करता उसे द्रव्य कैसे कहा जा सकता है।" परिणाम रहित द्रव्य न तो उत्पन्न हो सकता है और न नष्ट, इसलिए उसे कार्यकारी नहीं कहा जा सकता है । इसी प्रकार पर्याय मात्र वाला विनाशी एवं प्रत्येक क्षण में बदलने वाला तत्त्व अन्वयो द्रव्य के बिना कोई कार्य नहीं कर सकता। आज यही कारण है कि भगवान महावीर ने कहा कि वस्तु स्वयमेव से अनंत धर्मात्मक है । अनन्त धर्म कहने का तात्पर्य यह है कि वस्तु चिंतन C डॉ० सालचन्द जैन, एक-अनेक आदि वस्तु में सत्-असत् नित्य-अनित्य परस्पर विरोधी धर्मों के जोड़े विद्यमान हैं। इस प्रकार वस्तु में परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों को प्रकाशित करने वाला सिद्धान्त अनेकान्त कहलाता है । माइल्ल धवल ने सम्यक एकान्त के समूह को अनेकान्त कहा है । अनेकान्तात्मक वस्तु का निर्दोष रूप से कथन करने वाली पद्धति स्याद्वाद कहलाती है। जब हम वस्तु के एक धर्म का कथन करते हैं तो ऐसा नहीं होता कि अन्य धर्म उसमे विद्यमान नहीं रहते हैं । कथन करते समय अभीष्ट धर्म मुख्य और अन्य धर्म गौर होते हैं । स्याद्वाद सिद्धान्त का प्रयोग विभिन्न कालों में विभिन्न भाषाओं मे हुआ है। प्रस्तुत मे प्राकृत भाषा मे निबद्ध धार्मिक साहित्य मे देखना है कि स्याद्वाद का अस्तित्व है या नहीं'। अर्धमागधी साहित्य में स्याद्वाद आधारंग अर्धमागधी साहित्य का प्रथम अंग है। इसमे स्याद्वाद सूचक शब्द उपलब्ध नही है। सूत्र कृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्छ के चौदहवे अध्ययन की गाथा' में आये यासियावाय शब्द का अर्थ डा० ए० एन० उपाध्ये ने स्याद्वाद किया है। पं० मालवणिया ने इसकी विस्तृत मीमांसा की है" । भगवती सूत्र ( व्याख्या प्रज्ञप्ति) नामक पांचवें अध्याय में अनेकान्त और स्याद्वाद सूचक अनेक प्रसंग दृष्टिगोचर होते हैं। इसमें भगवान महावीर द्वारा स्वप्न में देखे गये चित्र-विचित्र पंख वाले पुंस्कोकिल को देखने का फल बतलाया गया है कि भगवान विचित्र अर्थात् स्व-पर सिद्धान्त बतलाने वाले द्वादशांग का उपदेश देंगे। मनीथियो ने विचित्र विशेषण का अभिप्राय अनेकान्त माना है" । इस अंग में लोक, जीव आदि को निश्य- अनित्य, सान्त अनन्त, शास्वत प्रशास्वत, जीव को शरीर से भिन्न Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. वर्ष ४५, कि०२ अनेकान्त अभिन्न आदि कहा गया है । इसके अलावा इसमें स्याद्राद को घटित करने के लिए स्यात् शब्द का प्रयोग करना सूचक स्यात् शब्द का प्रयोग भी उपलब्ध है, जैग-- चाहिए। कषाय पाहुड मे स्यात् शब्द के प्रयोग के गौयमा, जीवा, सिय सासया सिय असासया । सम्बन्ध में यह भी कहा गया है कि यदि स्पात् शब्द के गोयणा दन्वट्ठयाए सासया भावठ्याए असामया।" प्रयोग का जो वक्ता अभिप्राय रखता है और यदि वह इसी प्रकार भगवती सूत्र में भंगो का उल्लेख भी उसका प्रयोग नहीं करता है तो उसके अर्थ का ज्ञान हो हुप्रा है। गौतम ने महावीर से पूछा कि हे भगवान रत्न जाता है"। प्रभा पृथ्वी आत्मा है या अन्य है ? कषाय पाहुड में स्यात शब्द के प्रयोग सहित सप्त ___ महावीर ने उत्तर दिया कि"- रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् भगी भी उपलब्ध है-(द्रव्य) स्यात् कषाय रूप है, द्रव्य आत्मा है । रत्नप्रभा पृथ्वी स्पात अवक्तव्य है। इसे सुन- स्यात अकषाय रूप है, द्रव्य अबक्तब्य है, द्रव्य स्यात् कर गौतम को जिज्ञामा होने पर महावीर ने कहा- कषाय और अकषाय रूप है, द्रव्य स्यात् कषाय रूप और अपनी अपेक्षा से आत्मा है पर की अपेक्षा मे आत्मा नही अवक्तव्य है, द्रव्य स्यात् अकषाय रूप अवक्तव्य। हर द्रव्य है। उभय की अपेक्षा से अवक्तव्य है। स्यात् कषाय रूप, अकषाय रूप और अवक्तव्य है। ज्ञातधर्मकथा" में शुरु नामक परिव्राजक द्वारा किये प्रथम और दूसरे भंग में विद्यमान स्थात् शब्द क्रमश: गये प्रश्नों का उत्तर थावच्चा ने स्थाद्वाद शैली मे दिये है। नोकषाय और कषाय को तथा कषाय और नौकषाय जैसे-ते मंते ! सरिमवयाभक्ष्य या अभक्ष्य? हे शुक विषयक अर्थ पर्यायो को द्रव्य में घटिल करता है। तीसरे सरिसवया भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है। भग मे यह कषाय और नोकषाय विषयक व्यञ्जन पर्यायों शुक-आप एक है ? दो है ? अनेक हैं ? हे शुक! को द्रव्य में घटित करता है। चौथे भग में स्यात कषाय मैं द्रव्य की अपेक्षा एक और ज्ञानदर्शन की अपेक्षा दो है। और नोकषाय विषयक अर्थ पर्यायों में घटित करता है। इसी प्रकार अनेक प्रश्नों के उत्तर सापेक्ष रूप से दिये पांचवें मंग मे स्यात् द्रव्य मे नोकषायपने को घटित गये है। करता है। छठवें भंग में स्यात् द्रव्य मे कषायपने को ___ इस प्रकार सिद्ध है कि अर्धमागधी आगम में स्थाद्वाद। घटित करता है। सातवें भंग मे स्यात् शब्द क्रम से कहे का अस्तित्व है। जाने वाले कषाय, नोकषाय और श्रवक्तव्य रूप तीनों शौरसैनी आगमों में साहित्य में स्याद्वाद धौ को द्रव्य में अमरूप रहने को सूचित करता है। दृष्टिवाद नामक बारहवे अग के अश रूप में उपलब्ध कातिकेयानप्रेक्षा में-- कानिकेयानुप्रेक्षा मे अनेषटखण्डागम मे "सिया पत्ता सिया अपज्जत्ता" के रूप कान्तवाद की प्रतिष्ठा की गई है। सभी द्रव्य को अनेमें स्याद्वाद के बीज उपलब्ध है। कान्तात्मक" कहकर जहाँ एक ओर एकान्तवादियों की ____ आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुड में विशेषकर पंचास्ति- मीमांसा की गई है, वही अनेकान्तवाद का अर्थ क्रियाकार और प्रवचनसार में स्थाबाद तक स्यात शब्द का कारी बतलाया है२२ । अनेकान्त को भी अनेकान्तात्मक प्रयोग और सात भगों का नामोल्लेख उपलब्ध है- सिद्ध करते हुए कहा गया है कि जो वस्तु अनेकान्त रूप "सिय अस्थि णात्थि ऽहमं अव्वतव्व पूणो य तत्तिदिम। है, वही सापेक्ष दृष्टि से एकान्त रूप भी है। श्रतनानी दवं सु सत्तभग आदेशवसेणा संभवर्वाद ॥" अपेक्षा अनेकान्त रूप और नय की अपेक्षा एकान्न रूप है। "अत्यित्ति य णस्थिति य हवदि अवत्तवमिदि पूणो दव्वं । क्योंकि वस्तु निरपेक्ष नहीं होती है। यद्यपि वस्तु नाना पज्जाएण दु केवि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा ।। धर्मों से युक्त है तो भी उसके एक धर्म का कथन किया ___ 'कषाय पाहुड' में भी स्याद् शब्द का प्रयोग उपलब्ध जाता है, क्योंकि उस समय उसी की विवक्षा होती है, है। जैसे-"दम्वम्मि अणुतासेस धम्माण घटावणळं शेष घमाँ की नहीं होती है। सियासहो जोजेन्वो""" अर्थात् द्रव्य में प्रतुक्त समस्त धों यद्यपि कातिकेयानुप्रेक्षा मे स्यावाद सूचक शब्दों का Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत साहित्य में स्पावाद : चितन प्रयोग नहीं हुआ है, लेकिन अनेकान्त का कथन करने के नित्य ही है और अनित्य ही है। ही का कथन करने लिए प्रश्नवश व्यवहार चलाने को सप्तभगो कहा गया वाला वाक्य दुर्नय कहलाता है। 'स्यात्' शब्द को निपात कहने का तात्पर्य यह है कि - इस प्रकार सिद्ध है कि आगम कालीन साहित्य मे स्यात् अव्यय है। अतः इसका अर्थ सशय या शायद नहीं स्याबाद की सत्ता विद्यमान है। है। स्यात् किचित और कथचित का सूचक है।। ____ अनेकान्त स्थापन काल में स्याद्वाद---आगम ____ स्यात्' वस्तु को सापेक्ष सिद्ध करता है। वस्तु किसी कालोन साहित्य मे स्याद्वाद के अस्तित्व का चिन्तन करने अपेक्षा से नित्य है और अन्य अपेक्षा से वस्तु अनित्य भी के पश्चात् अनेकान्त स्थापनकालीन प्राकृत साहित्य मे है। इस तरह स्यात् द्रव्य के गार्थ स्वरूप को बतलाता आचार्य सिद्धसेन के सम्म इसुत्तं के अध्ययन से ज्ञात होता है। चाहे प्रमाण का विषय हो या नय का वह सापेक्ष हो है कि इसमें अनेकान्त का गम्भीर विवेचन हुआ है। तो सम्यक और निरपेक्ष हो तो मिथ्या होता है । स्यात् उन्होंने अनेकान्त को व्यवहार का कारण और तीन लोक जहां वस्तु के एक धर्म को प्रकाशित करता है वही यह का गुरू कहकर नमस्कार किया है। स्यात् शब्द का प्रयोग किये बिना द्रव्य को सामान्य-विशेषात्मक द्रव्याथिक भी 'सद्ध करता है कि उसके प्रतिद्व-द्वो धर्म को भी सत्ता है। उस ममय अन्य धर्म गौण हो जाते है। और पर्यायाथिकनय द्रव्य पर्याय, नित्य-अनित्य आदि रूप 'स्यात्' शब्द का प्रयोग प्रत्यक पाक्य के साथ न से सापेक्ष मानकर विवेचन किया है और एकान्त मन म लगाने वालो के लिए कहा गया है कि वे अमनमय भोजन वन्ध और मोक्ष का अभाव भी दिखलाया है यही नहीं छोड़कर विषमय भोजन करते है। क्योकि 'स्यात्' के बल्कि स्यात् शब्द का प्रयोग किये बिना अतीत आदि बिना वस्तु का स्वरूप प्रतिपादित नहीं होता है।'। यही सास भंगो को दिखाया गया है। कारण है कि वस्तु को स्यात् सापेक्ष पूर्वक नही जानने न्यायसाहित्य में स्याद्वाद--आचार्य देवसेन कृत वालों को आचार्य ने मिथ्या दष्टि कहा है। नयचक और माइ लघवल नयचक्र (द्रव्यस्वभाव प्रकाशक), सातभंगी-- माइल्लधवल ने सात भगों के नाम जिमे क्रमश: लघु और वृहद् नय चक्र कहा गया, प्राकृत बतला कर प्रमाण, नय और दुनय र सात भग बतलाये भाषा: निपख है । इ में भी अनेकान्त और स्याद्वाद का उल्लेख हुआ है। हैं। स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्ति नास्ति, लघनयचक्र में स्याद्वाद.-देवसेन के नयचक्र मे नय स्यात् अवक्तव्य, स्यादस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति को अनेकान्त का मूल" और नयो के समूह को अनेकान्त अवक्तव्य और स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य । यह प्रमाण कहा गया 2,। स्याद्वाद को समझने के लिए आचार्य ने सप्तभगी है। क्योकि इसमे वाक्य स्यात् पद सहित है। इसी प्रकार म स्यात् पद के साथ 'एव' पद पूर्व नय नय को समझना आवश्यक माना है। भगी भी बन मरती है। द्रव्य स्वभाव नयचक्र में स्याद्वाद-माइल्ल धवल माइल्ल धन ल न स्याद्वाद सिद्धान्त का अनुकरण का ने नयचक्र मे एकान्त वादियों के सिद्धान्तो को मदोष तला फल बतलाते हुए कहा है कि स्याद्वाद दृष्टि से युक्त कर उनकी उपमा जन्मान्धो मे दी है। व्यक्ति मभी तरह की क्रिया से कर सकता है। इस समावाद शब्द 'स्यात्'-'वाद'क मिलने से बना है। सिद्धान्त में किसी तरह का विरोध नहीं है। बाद का अर्थ कथन होता है। स्यात् पद । निम्नाकित स्यावाद जैन धर्म का पर्यायवाची है। इस अनुपम विशेषताए बनलाई गई है, सिद्धान्त की जो उपयोगिता और आवश्यकता भगवान १. स्यात् सर्वथा नियम का निषेध करने वाला है। महावीर के काल मे थी उसमे अधिक आज है। इस २. रयात् निपात् रूप है। परमाणु युग मे विश्वशान्ति के लिए उत्पन्न खतरा ३. स्यात् वस्तु को सापेक्ष सिद्ध करता है। स्थावाद के सिद्धान्त के आधार पर ही टाला जा सकता स्यात् पद इस नियम का निषेध करता है कि वस्तु है। (प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६, वर्ष ४५, कि०२ अनेकान्त सन्दर्भ-सूची १. केवलज्ञान सम्मिश्रो दिव्यध्वनिसमुद्भवः । १७. द्रष्टव्य जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-४, पृ० ५०१। अत एव हि स ज्ञेये सर्वज्ञः परिभाषितः ।। १८. वही, पृ. ५०३ । माइल्ल धवलः नय चक्र, गाथा २५३ में उद्धृत। १९. गा० २२४, (१९) गा० २२५ २२६, २६२, २६४ । २. आ० कुन्दकुन्द : प्रवचनसार, गाथा ३७.४१ । २०. जो तच्चमयेयंतं णियमा सद्दहदि सवर्भगेहि। ३. दब्वं विस्ससहावं एक्कसहार्व कयं कुदिद्विहिं । लोयाण पण्ह वसदा ववहार पवत्तणट्ठ च ॥ ३११ लधुरण एपदेस जह करिणो जाइ अधेहिं ।। २१. जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सम्वहा ण विवहह । माइल्ल धवल नयचक्र, गा० ५६ तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणगतवायस्स ।। ४. (क) सव्वं वियस्यते दव्वसहावा विदूसिया होति । -सिद्धसेन सम्मइ सुत्तु २३।६६ टठं ताण ण हेऊ सिज्झइ ससार मोक्ख वा ॥ २२. अत्थतर भएहि य णियएहि दोहि समयमाईहि । वही गाथा ५५(४) कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. २२६ बयण वि संसाइय दध्वमन्तब्वय पडद॥ (बी) परिमाणेण विहीण णिच्च दध्व विणस्सदेणेव । अह देसो सम्भावे देसो असब्भाव पज्जवे णियओ। णो उप्पज्जेदि समा एव कज्जं कह कुरणदि ।। तं दबियमस्थि णत्थि य आएसविसे सियं जम्हा ।। पज्जय भिन तच्च विणस्सए खणे-खणे वि अण्णण्ण । सम्भावे आइट्ठो देसो देसो य उभहया जस्स । अण्णइ दब विहीण ण य कज्ज किपि साहेदि । तं बत्यि अवतव्वं च होइ दवियं विसप्पवसा ।। वतिकेयानुप्रेक्षा, गा० २२७-२२६ बाइट्ठो असम्भावे देसो देसोय उभय हा जस्स । '. अस्थित्ताइसहावा दव्वा सम्भाविणो ससम्भावो। तं णत्थि अवत्तव्वं चहोइ दविय वियप्पवसा ॥ माइल्ल धवल : नय चक्र, गा०७० सम्भावासब्भावे देसो देसो य उभयथा जस्स । ६. । को अणेयतो णाम जच्चतरत्तं । त अत्थि णत्थि अवत्तव्वयं च दविय वियप्पवसा ॥ वीरसेन धवला (जनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भा. ४,५,१०५ वही, १, गा० ३६-४० । ।। सति अणंताणता तीसुवि कालेसु सव्व दव्वाणि । २५. जह सद्धाण माई सम्मत्त जह तवाइगुणिलये। सव्व पि अणे यत तत्तो भणिद जिणेदेहि ॥ धाओ एयरस तह णयमूलो अणेयतो॥ गा० ४ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, भा० २२४ २६. एअतो एअणयो होई अणेयतमस्स सम्महो। गा०९ ७. नयचक्र, गाथा १८०। २७. जह्मा ण णएण विणा होई णरस्स सियवाय पडिवती। ८. णो छायए णोविय लूसएज्जा, तह्मा सो बोहब्वो एअत हंतु काम ण ॥ गा. ३ माणं ण सेवेज्ज पगासणं च । २८. गा० ५६ । णा यावि णण्ण परिहास कुज्जा, २६. णिपमणिसंहणसीलो णिपादणादो य जोहुखलु सिद्ध। ण यासियावाय विगारेज्जा ।। सोसियसद्दो भणिओ ओ सावेक्ख पसाहेदि । गा. २५३ ६. द्रव्य-आगमयुगकालीन दर्शन पृ० ६२ । ३०. गा० २५८ । ३१. गा० २६१ । १.पालसख मालवाणिया : आगमयुग का जनदर्शन, ३२. सियसावेक्खा सम्मा मिच्छारूवा ह तेपि हिरवेक्खा । पृ० ५२-५३ । तम्हा सिय सद्दादो विसयं बोहणंपि णायव्य ।। ११. ७।२।२७३ । अवरोप्परसावेक्ख ण्यविषय बा। १२. भगवती सूत्र, १२।१०।४६६ । त सावेक्ख भरिणय निरवेक्ख वि विवरीय ।। १३. शलक अध्ययन । गा० २५०-२५१ १४. षट्खण्डागम १।२।५०, पृ० २६२ । ३३. गा. २५६ । ३४. गा.२६०। १५. पचास्तिकाय, गा० १४ । ३५. गा. ५४ (गा.७१-७२) ३६. गा. ७३ । १६. प्रवचनसार, गा० २३ । ३७. गा. २५५-२५७ । ३८. गा. ६४ । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत और मलयालम भाषा 0 ले. श्री राजमल जैन, जनकपुरी दिल्ली प्राचीन काल में केरल तमिलगम (Tamilkam- कारण अर्धमागधी, जैन शौरसेनी, जैन महाराष्ट्री, पंशाची तमिलनाडु) का ही एक भाग था। इस सारे प्रदेश की आदि का प्रभाव सम्भव है। माहित्यिक भाषा भी 'चेन्ल गिल' थी।चेर प्रदेश (केरल) मे (iii) तीसरे चरण में, उत्तर-पश्चिम भारत के लोग प्रचलित तमिल को वोली को मलनाट्टतमिल कहा जाता केरल में आए (सम्भवतः डा० जोसफ का संकेत गुजरातथा। जो भी हो, प्राचीन तमिल को भी प्राकृत ने किसी राजस्थान से है)। उनके कारण "अपभ्रंश' का भी सीमा तक प्रभावित किया है। परिणामत: केरल की प्रभाव पड़ा। तत्कालीन भाषा को भी प्राकृत ने प्रभावित किया है। केरल के प्रसिद्ध इतिहासकार श्री श्रीधर मेनन मलयालम भाषा मे प्राकृत तत्त्व के सम्बन्ध में केरल अपनी पुस्तक "सोशल एंड कल्चरल हिस्ट्री आफ केरल" में एकाधिक शोध-कार्य भाषाविदो द्वारा किए गए है। मे यह मत व्यक्त करते हैं कि -"It may be noted उनमें से एक हैं-डा० पी. एम. जोसफ। उन्होंने हवी in this connection that during the Teriod of सदी से १५वी सदी तक के शिलालेखों और साहित्यिक the Aryanisation of Kerala, Sanskrit and its कृतियों का अध्ययन कर मलयालम में गृहीत प्राकृत शब्द "Proto forms' like "Prakrit" exercised a (Prakrit Loan words in Malaya'am) 1* profound influence on the life and language महत्वपूर्ण शोध-प्रबंध प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत लेखक के of the people of Kerala." (P. 333) मित्र के नाते उन्होंने केरल विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत दक्षिण भारत मे जैनधर्म के प्रभाव-प्रसार के सम्बन्ध किन्तु अप्रकाशित यह प्रबध उपलब्ध करा दिया। में प्रायः सभी इतिहासकार इस बात को स्वीकार करते उसकी सामग्री का इस अध्याय मे काफी प्रयोग किया है कि भद्रबाहु चन्द्रगुप्त मौर्य के श्रवणबेलगोल आगमन के गया है। समय से अर्थात् ईसा से ३५० बर्ष पूर्व के लगभग कर्नाटकडा० जोसफ ने प्राकृत भाषा के प्रभाब को तीन काल- तमिलहम में जैनधर्म का प्रवेश हुआ। प्रस्तुत लेखक ने चरणो में बांटा है :-- 'केरल मे जैनधर्म का इतिहास" अध्याय में यह सिद्ध (i) ईसापूर्व ६०० से ६०० ई० तक। इस काल में करने का प्रयास किया है कि सुदूर अतीत से ही केरल में जो भी ब्राह्मण दक्षिण में (केरल) में आए, वे प्राकृत के जैनधर्म विद्यमान था और चन्द्रगुप्त मौर्य केरल होते हुए किसी न किसी रूप का प्रयोग करते होगे। इसके अति- ही श्रवणबेलगोल पहुंचे होगे (उपर्युक्त अध्याय देखिए।) रिक्त मगध के भी कुछ व्यापारी आए होंगे जो स्वभावत: किन्तु इतना तो स्पष्ट है ही कि चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ मागधी का प्रयोग करते होंगे। बारह हजार मुनि आए थे। उनके साथ हजारो श्रावक यह स्मरणीय है कि केरल में नंतिरि ब्राह्मणों का एवं अकाल-भय से सत्रस्त हनारों नागरिक भी अपने आगमन "अहिच्छत्र" से बताया जाता है। सम्राट के साथ आए होंगे। ये मगधवासी थे और प्राकृत (ii) दूसरे चरण में, जैन, बौद्ध और मागधी भाषा भाषी थे। धर्म-प्रचार के लिए वे पहले से ही तमिल व्यापारियों का आगमन केरल मे हुआ होगा, (जैन ईसा आदि दक्षिणी भाषाएं सीख कर ही आए होगे। उन्हें से भी पहले केरल में विद्यमान है थे-लेखक) और उनके अवश्य ही प्राकृत जैसी संपर्क-भाषा इन प्रदेशों में भी Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. हर्ष ४५, कि. २ अनेकान्त सुलभ थी इस बात की सम्भावना पर अवश्य ही विश्वास वुमारी से लगभग १६ कि. मी. की दूरी पर स्थित किया जा सकता है। श्री लका मे बौद्ध धर्म के प्रवेश के "कोट्टरू" मे उसने बहुत-से दिगम्बरो को देखा । अब यह साथ (ईसा पूर्व सदियों मे) ही जिम मिडली भाषा का स्थान नागर कोविल शहर का एक भाग है। यहां यह विवाम हुआ, उसमें भी प्राकृत तत्व पाए गा हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि उसने दिगम्बर शब्द का ही प्रयोग स्थिति उसी प्रकार की सम्भव है जैसी कि किसी समय किया है। इससे यह परिणाम निकलता है कि नग्न मंस्कृत को एक सपर्क भाषा के रूप में थी और आजकल मुनियो ने आचार्य कुन्दकुन्द की प्राकृत रचनाओं जैसे हिन्दी या अंग्रेजी की। दक्षिण भारत मे भी अशोक के नियममार, समयमार आदि का प्रयोग अवश्य किया होगा शिलालेख प्राकृत मे हैं। यह भी इस तथ्य की सूचना है क्योकि जैनधर्म के प्रामाणिक ज्ञान के लिए ये ग्रन्थ अनिप्राप्त तमिलहम-केरल प्रदेश मे समझी जाती थी। वार्य पाठ्यपुस्तको जैसे है। ईसा की प्रारम्कि सदियो में आचार्य कृन्दवृन्द ने आठवीं शताब्दी में भी केरल मे प्राकृत का पठनप्राकृत भाषा मे ही दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रामाणिक ग्रन्थों पाठन होता था। इसका प्रमाण यह है कि मुसिरि की रचना। उनका स्थान इस सम्प्रदाय मे महावीर (प्राचीन काल में केरल का एक बन्दरगाह जो आजकल के समकालीन और उनके प्रमुख शिष्य (गणधर) के बाद कोडंगलपुर के नाम से जाना जाता है) के एक विद्वान बडे आदर गे स्तुति में लि ! जाना है। वे दाक्षि गम नीलकठन ने तमिन सगम माहिता की "इरेयनार" विद्वान थे यह सर्बमान्य है। आचार्य न इसकी रचना 'अकाप्पोमह' (Iraiyanar Akapporui) पर ए. टीका प्राकृत समझो वाली जनसमुदाय को ध्यान में रखकर को लिखा थी। उसमे उसने यह लिखा है कि यह टीका होगी। स्वयं उनका इस भाषा मे पाण्डिल्य भी यह सकेत उसकी दस पीढियों से मौखिक रूप से चली आ रही थी देता है कि प्राकत का पठन-पाठन व्यापक एवं व्यवस्थित जिसे उसने लिपिबद्ध कर दिया। इरेयनगर का अर्थ पहा होगा। केरल के वामनाड जिले मे "तिरुनेल्ली" में बश्वर होता है। किन्हीं कारणो से यह कह दिया गया प्राचार्य कन्दकन्द के चरण स्थापित हैं। उन्हें जैन परंपरा किइसकी रचना शिवजी ने की किसी आचार्य के चरण मानती है और ब्राह्मण परम्परा राम के शिवराज नामक विद्वान ने यह खोज की है कि हम रचना चरण घोषित करती है। आचार्य के श्रोता प्राकृत सम. और एक अन्य तमिल अथतोल कप्पियम (जिसे श्री झते होगे। शिवराज ने जैन कृति कहा है) के छदो में अनेक समानकेरल के अनेक शिलालेख या तो नष्ट हो गए हैं या ताये है । इस टीका मे पर्याप्त संख्या में प्राकृत शन्दो को अभी इस दिशा मे सर्वांगीण कार्य नही हआ है। इस देखते हुए मार जॉन राल्सटन ने "दी एट एन्थालॉजीज" कारण केरल के समीपवर्ती पल्लव-राज्य प्रदेशो के जो नामक पुस्तक में यह मत व्यक्त किया है कि- "From शिलालेख ईसा को चौथी शताब्दी तक के अध्ययन-क्षेत्र मे the above it is clear that in Kerala Prakrit आए हैं. उनसे यह निस्कर्ष सामने आया है कि इस अवधि was studies and even learnt oraley down to तक पल्लव "शिला नेख प्राकृत" मे थे, उसके बाद सस्कृत the eighth century." (P 4) मे और इसके बाद तमिल और संस्कृत मे। स्पष्ट है कि एक स्वतत्र भाषा के रूप में मलयालम नौवी दसवी उपर्यत अवधि में भी प्राकृत समझी जाती थी। केरल पर शताब्दी मे अस्तित्व मे आई किन्त सस्कत-प्राकत का भी उसका प्राव अनुमानित किया जा म कता है। मदुरै प्रभाव साथ में लेकर । तत्कालीन साहित्य, शिलालेखो आदि स्थान केरल से बहुत दूर नहीं है। आदि पर यह प्रभाव भासित होता है । "तमिल के साथ सातवी सदी मे चीनी यात्री ह्वेनसाग भारत की संस्कृत-प्राकृत सकलन से स्वतंत्र केरलीय भाषा का यात्रा पर प्राया था। उसने यह लिखा है कि दक्षिण प्राप-विकास लगभग नवम-दशम शती में परिलक्षित भारत में उसने दिगम्बरो को बड़ी संख्या में देखा। कन्या- होता है।" Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत प्रौर मलयालम भाषा १६ नौवीं शताब्दी के आते-आते केरल में ब्राह्मणो का यालम भाषा मे प्राकृत शब्दो की खोज की है। वह सूची प्रभाव वृद्धि की ओर अग्रसर था। वे सस्कत के पक्षधर भी विस्तृत है। दक्षिण को चारो भाषाओ में प्राकत के थे। किन्तु प्राकत का अध्ययन-अध्यापन और प्रयोग जारी शब्दों का भी उन्होने अध्ययन किया है। यह तथ्य इस रहा, ऐसा लगता है। बात की पुष्टि करता है कि प्राकृत ने भी दक्षिण भारतीय ___ नौवी से पन्द्रहवी सदी तक के शिलालेखो और भाषाओ को प्रभावित किया है। वह पभाव पूर्णतः मिट साहित्य का विशेष अध्ययन प्राकृत के मन्दर्भ में डा. नही सका यद्यपि उगे सरकत के पाबल्य का भी सामना जोसफ ने किया है। उन्होने सदियो के अनुसार (जैसे नौवी-दसवी) मलयालम शब्दो की सूची देकर प्राकृत शब्दो अब एक सक्षिप्त मर्वेक्षण कुछ गलगलम रचनाओं की सूची देकर प्राकृत शब्दों से उनकी व्युत नि बताई है। का जिनमें प्राकृत का प्रयोग हुआ है। इसकी अधिकांश इस कालावधि मे उन्होने ४.१ मलयालम शब्द प्राकत से सामग्री भी डा० जोसफ के अनुसार है। व्युत्पन्न है यह सिद्ध किया है। यह भी जान देने योग्य प्राकृत काव्य - श्रीविध काव्य नामक एक कृति केरल है कि इस अवधि में तमिलनाडु के माथ केरल में भी के श्रीकृष्णलीला- शुक नामक लेख की मिलनी है । इसका जैन ग्रन्थो, स्मारको आदि को क्षति पहुची। इस कारण काल तेरहवी सदी बताया गया है। इसमे कुल बारह यह सामग्री बती नाव मे से बचा ली गई या बच गई सर्ग है जिनमे आठ स्वयं कानीलाशुक ने लिया है। समझना चाहिए। अनेक मन्दिरो के शिलालेख क्षतिग्रस्त इन सगर्गों में वररुचि के अनुसार प्राकन व्याकरण के हुए है किन्तु किस कारण से यह निश्चयपूर्वक नही कहा। नियम समझाए गए है। शेष नार सर्ग लेखक के शिष्य जा सकता। कुछ शब्दो के उदाहरण यहां प्राकृन से दुर्गाप्रसाद यति ने लिखे है। इन्होंने इस ग्रन्थ की भक्तिव्युत्पत्ति बताने के लिए दिये जाते हैं : विलास नामक सस्कृत टीका भी लिखी है। कथावस्तु का अच्चन-एक सम्माननीय व्यक्ति, पिता, प्राकृत रूप सम्बन्ध कृष्ण ने है। उसके छन्दो मे "महाराष्ट्री (प्राक्त), अज्ज सम्माननीय व्यक्ति, पितामह या मातामह । शौरसेनी, मागधी और पैशाची" का प्रयोग हुआ है । इसमें ओच्चयार-माननीया महिला, दे, दासो, प्राकृत कृष्ण द्वारा गाये चुरा लिए जाने जैसे प्रसंगो द्वारा प्राकन रूप अजिजअ (महाराष्ट्रीय प्राकृत मे) एक पतिव्रता स्त्री, ब्णकरण के नियम समझाए गए है। आर्या सस्कृत । इस शब्द पर डा० जोसेफ ने एक महत्व- सम्भवतः पन्द्रहवी सदी को एक रचना कण्णस्स पूर्ण टिप्पणी में लिखा है कि अच्चन का अर्थ पिता है किंतु पणिककर नामक कवि की है। जिसका नाम है-'कण्णस्सअच्चि शब्द का अर्थ बदल दिया गया। केरल के ब्राह्मण रामायणम्' । कवि सवणं नही था, इसलिए ब्राह्मणो को जिन स्त्रियो से विवाह करते थे उन्हे तो प्राकृत शब्द से अपना देवता बताते हुए इस रचना के लिए क्षमा-याचना सम्बोधित किया जाता था किन्तु केवल मलयालम जानने की है और भाषा की शुद्धता बनाए रखी है किन्तु उसमे वाली उनकी माताओं को 'अच्चि' नही कहा जाता था। भी कुछ प्राकृत शब्द आ गए है। किन्तु यह शब्द देवदासी का बोधक हो गया क्योकि वे अज्ञात नतिरि ब्राह्मण ने 'कष्णगाथा' की रचना की देवदासियाँ ब्राह्मणों की रखैल आगे चलकर हो गई। है। इसमे केरल की तत्कालीन बोल-चाल की भाषा का इयक्कि-यक्षी, प्राकृत रूप अविखणी। प्रयोग अधिक किया है किन्तु इस कृति में भी प्राकृत शब्द कुट्टम् - कोह, प्राकृत रूप कुछ । आए हैं। कोवम् - क्रोध, प्राकृत रूप कोव । नीलकठ द्वारा रचित एक काव्य सत्रहवी सदी मे काबु-कावड़, प्राकृत रूप काव, कावड़ी। प्राकत मे 'सोरिचरित" नाम से उपलब्ध है। यह गाथाओ चोकि -योगी, प्राकृत रूप (जैन प्राकन मे) जोगि। के रूप मे है और अनुप्रास के कारण कुछ कठिन है । उपर्युक्त अध्ययन के अतिरिक्त डा. जोसेफ ने मल- इसलिए कवि के शिष्य कद्रदास ने इसकी संस्कृत टीका Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०, वर्ष ४५, कि० २ अनेकान्त भी लिखी है। इसका विषय कृष्ण-बलभद्र का जीवन है। गालउडा' नामक स्थान पर "विशाल भरत मन्दिर __ 'कंस वहाँ' नामक प्राकृत काव्य रामपाणिवाद ने रचा (कोविल)' के लिए यह अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ है। है। कवि का समय १८वीं सदी है। यह महाराष्ट्री प्राकृत इसके एक श्लोक का आशय यह है कि कोक (सन्देशवाहक) में निबद्ध है। स्पष्ट है कि यह कंस के वध से सम्बन्धित भरत-मन्दिर मे न जाए क्योंकि ब्राह्मण उसमें प्रवेश नही है। यह एक सुन्दर तथा प्रसिद्ध रचना मानी जाती है। करते हैं। इसी आधार पर अधिकांश विद्वानों का यह मत उपर्युक्त कवि ने एक जोर प्राकृत काव्य 'उसानिरुद्ध' है कि यह "जैन मनिरर" था और मूर्ति "ऋषभ पुत्र नाम से लिखा है। इसमे उषा और अनिरुद्ध के विवाह का भरत" की सिद्ध होती है। यद्यपि ब्राह्मण परम्परा इसे वर्णन है। भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है और रचना वररुचि राम के भाई भरत को मूर्ति बताती है। इसी पुस्तक म के प्राकृत व्याकरण के नियमों का अनुसरण करती है। 'हरिगुलकुडा' का भरत मन्दिर देखिए । नायक-नायिका चंपूकाव्य-मे भी प्राकृत का प्रयोग परिलक्षित बिछुड़ जाते है और नायक उपर्युक्त पक्षी के माध्यम से होता है। इस झीर्षक के अन्तर्गत तेरहवी सदी की दो- अपना सन्देश भेजता है। यह कति चौदहवी सदी को तीन रचनाएं आती है-(१) उण्णियाच्चीचरितम् - अनुमानित की जाती है । ए० श्रीधर मेनन के अनुसारइसमें गधर्व और एक सुन्दरी का कथानक है । (२) उष्ण- "The koka sandesam was another “Sandesh निरुतीवि चरितम-- इसकी नायिका एक देवदासी है, Kavya" compoped about 1400 A.D." इन्द्र उसके यहां जाता है और अनेक प्रेमियो की भीड़ भक्ति काव्य-प्राकृत से सम्बन्धित दो भक्ति काव्य देखता है। (३) दामोदर चाक्यार की कृति उणियाति. है-(१) अनतपुरवर्णनम् (त्रिवेन्द्रम के मन्दिरों का वर्णन) चरितम मे एक राजकुमार से उत्पन्न एक नतंकी को पुत्री (२) कालिनाटकम्-भद्रकाली और असुरों का कथानक। को कथा है। उसके मधुर गीतो से चन्द्रमा भी आकर्षित इसमे कुछ अन्यत्र अनुपलब्ध प्राकृत शब्द जैसे कल्ल हो जाता है। (नशा), प्राकृत रूप कल्ल (शराब) आदि पाए गए हैं। सन्देश काव्य-कालिदास ने जिस प्रकार एक यह कति भी चौदहवी सदी की जान पड़ती है। विरही यक्ष का सन्देश अलकापुरी स्थित उसकी प्रिया को नाटक-का एक प्रकार सट्टक है जिसमें सभी पात्र भेजने के लिए मेघ को साधन बनाकर 'मेघदूत' नामक प्राकृत बोलते हैं। रुद्रदास (तेरहवी सदी) ने चंडलेहा ललित काव्य की रचना की है। उसी शैलो मे करल के नामक एक इस कोटि नाटक लिखा है । हा० एन. उपाध्ये मलयाली कवियों ने अनेक सन्देश काव्यों का सृजन किया ने इसका संपादन भी किया है। है। इनमे भी प्राकृत शब्दों और प्राकृत व्याकरण के तुळ्ळण-केरल की एक हास्यरसपूर्ण नृत्य-विधा है। नियमों का सयोजन हैं। इनका सक्षिप्त परिचय इस इसके गीत (तुळळण पाटु-गीत) कहलाते है। इनमे भी प्रकार है प्राकृत का प्रयोग देखा जाता है। कवि कंचन नपियार ___ 'भगसन्देश' नामक एक ताडपत्रीय ग्रन्थ डा० जोसफ (१८वीं सदी) इसके लिए प्रसिद्ध है। उन्होंने 'पात्रचरितम्' ने ढढ निकाला है। उसके कवि और काल अज्ञात हैं। नाम रचना के एक ही स्तोत्र मे १६ पंक्तियां अर्धमागधी मे किन्तु प्राकत के दो व्याकरणकारों त्रिविक्रम और वररुचि लिखी हैं। उन्होने यह मत व्यक्त किया है कि अक्षर तो केवल की कृतियों से उद्धरण दिए गए हैं। माया के कारण नायक ५१ है और व्याकरण भी केवल दो ही हैं 'प्राकृत व संस्कृत'। के विरह का इसमे सुन्दर चित्रण है। इस कवि के संबंध मे श्रीदेव ने अपनी पुस्तक 'मलयालम पन्द्रहवीं सदी का एक सन्देश काव्य 'उणिनिलि- साहित्य' मे लिखा है, "नदियार ने सस्कृत और प्राकृत दोनों सन्देशम्' है । वह भी इसी प्रकार का है। भाषाओं में अनेक ग्रंथ लिखे हैं। उनके द्वारा रचित प्राकृत कोकसन्देश-एक महत्वपूर्ण सृजन है । इसके केवल व्याकरण बहुत प्रसिद्ध है।" इस हास्य कवि ने हिन्दी के भी १७ श्लोक ही उपलब्ध हो पाए है किन्तु केरल के 'रि- छन्द लिखे हैं। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत और मलयालम भाषा नाट्य विधा में प्राकृत-निम्न वर्ग के लोगों को डा. जोसफ ने अपने भाषावैज्ञानिक अध्ययन के प्राकृत बोलनी चाहिए, इस नियम के अनुसार अनेक पश्चात् दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैंरचनाओं में प्राकृत के अश पाए जाते हैं। (i) मलयालम और तमिल में प्राकृत के शब्द सबसे ___ मच पर खेले जाने वाले "कुटियाट्टम" और "कट्ट" अधिक पाए गए हैं। इससे यह तथ्य सामने आता हैमे स्त्री-पात्र प्राकृत बोला करते थे। "The posibility of Karnataka jains preaching कथकलि-संगीतपूर्ण नृत्य है। कोटयत्तु सपूरण exclsively in Kerala may be ruled out." नामक रचनाकार की इस विधा को काव्य कृति (सत्रहवीं (ii) केरल के लेखकों को प्राकृत का व्याकरण संबंधी सदी) में उर्वशी और अप्सराएँ प्राकृत बोलती है। अश्व- विवेचन करते हुए वे कहते है कि-"The presence तितिरुनाळ (अठारहवी शती)को रचना अम्बरीशचरितम of Pali and Ardhamagadhi loan words shows और वयस्कर मूस्स के दुर्योधनवधम् (उन्नीसवी सदी) मे that Buddhists and Jainas had come to Kerala. भो प्राकृत का प्रयोग हुआ है। Perhaps tney might not have entered into संस्कृत नाटकोमे भी महाराष्ट्रो और शौरसेनी प्राकृतो literary activities or what they had written का प्रयोग नोवी सदी से ही देखा गया है। might have been destroyed by their Hindu __ व्याकरण-उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि rurals," जब अजैन लेखको ने भी प्राकृत को अपनाया, 'वररुचि' के प्राकृत व्याकरण' को बहुत अधिक लोकप्रियता तब केरल के जैन लेखको ने प्राकृत मे कुछ भी नही लिखा प्राप्त रही है। शायद इसी कारण के रली परम्परा यह यह बात गले नही उतरती । अवश्य ही जैन प्रन्थ नष्ट हो मानती है कि वररुचि केरल के हो विद्वान थे। किंतु यह गए हाग। किन्तु यह गए होगे। किन्तु यह भी सत्य है कि इस दिशा में शोधमत स्वीकार्य नहीं हो सकता है। इसका अर्थ केवल इतना कार्य नहीं हुआ है । "त्रिवेन्द्रम की पब्लिक लायब्ररी में ही लिया जा सकता है कि केरल मे प्राकृत का सदियो से शायद चालास हजार हस्तालार पठन-पाठन और प्रयोग होता रहा और उनका मख्य श्रेय अन्य स्थानो पर भी अवश्य होगे। वररुचि को है। अनेक स्रोतो से इस अध्ययन के लिए सामग्री एकत्रित वैज्ञानिक साहित्य-इसमे १३वी सदीकी रचना मानी करने में प्रस्तुत लेखक का उद्देश्य यह भी है कि जैन जाने वाली कृति "भाषा कोटिलियम्' छदशास्त्र सम्बन्धी विद्वान केरल मे प्राकृत के प्रयोग से परिचित हों और इस १४वीं शताब्दी का ग्रन्थ है। इसमे दो अध्याय व्याकरण भूभाग में प्राकृत भाषा और साहित्य सम्बन्धी खोज गम्भीरतापूर्वक करें। पर भी है। लेखक ने शब्दो को तीन वर्षों में बांटा है। (a) देसी (b) सस्कृतभव; इस वर्ग में प्राकृत शब्दो को आज भो प्राकृत शब्दों का प्रयोग भी सम्मिलित कर उन्हें दो वर्गों मे पुनः विभाजित किया कुछ शब्दो के उदाहरण दिए जाते है। 'पाळ्ळ' शब्द है, एक तो वे जो परिवर्तित नही हए (जैसे माणिक्क) जैनो से सम्बन्धित है मुख्य रूप से । केरल के मन्दिर, तथा दूसरे ने जिनमें ध्वन्यात्मक परिवर्तन हुआ है; (c) मस्जिद, गिरजा घर आज भी इसी शब्द से सूचित किए संस्कृत समस् अर्थात् संस्कृत शब्द । जाते है । 'पळ्ळिक्कम' एक प्राकृत शब्द है जो कि केरल आयुर्वेद सम्बन्धी प्रन्थ 'योगामतम्' में भी प्राकत मे 'स्कूल' के लिए प्रयोग में लाया जाता है। प्राचीनकाल शब्दो का प्रयोग है। कुछ प्राकृत शब्दों को नवीन अर्थ मे जैन मन्दिर के साथ-साथ पाठशाला भी केरल मे होती प्रदान किया गया है। हड्डी टूटने पर लगाई जाने वाली थी। खपच्ची को 'तूणी' और अशुद्ध रक्त चूस लेने वाली जोक डा. के. गोद वर्मा ने 'केरल भाषा विज्ञानीयम्' में के लिए 'जाळुविक्कु' इत्यादि मुहूर्त विधि नामक पुस्तक में कुछ ऐसे शब्द दिए हैं जिनकी व्युत्पत्ति प्राकृत से हो संभव प्राकृत प्रयोग है। है। यथा-मकयिरम् (म.), मृगशिरा(स.) मागसिर(प्रा.); Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२, वर्ष ४५, कि० २ अनेकान्त चेट्टि (म.) श्रेष्ठिन् (सं.) सेट्ठी (प्रा.); कच्चवटम् (म. संस्कृत भी केरल को जैनों की देन पहले इससे कपड़ का व्यापार सूचित होता था। अब कुजिकुट्टन संपूराम ने 'केरलम्' नामक एक काव्य किमी भी प्रकार के व्यापार के लिए प्रयुक्त). कक्षापट में लिखा है। इनका समय उन्नसवी सदी के अत और (सं.) कच्छावट (प्रा-नंगापन छिपाने का वस्त्र)। 'बीसवीं सदी का प्रारभ है। कवि ने दूसरे सर्ग के इलोक केरल मे कोडंगल्लूर के भगवती मन्दिर मे जो 'कुडमी' संख्या ६८ मे यह उल्लेख किया है कि जैन लोगों की (Kudumi) लोग भरणी उत्सव के समय आते हैं, उनकी गतिविधियो के कारण ही केरल के सभी वर्गों के लोग भाषा कोंकणी का भ्रष्ट स्वरूप है। कुछ विद्वानों का मत सस्कृत सीख सके। यह सुविदित हो है कि सस्कृत एक है कि स्वय 'कोकणी' भी 'पैशाची प्राक1' और बिहार वर्ण की विशेष सम्पत्ति रही है। को मागधी का सम्मिश्रण' है। इस घ्य का उल्लेख करत हुए दी गोल्डन टावर' के लेखक श्री इन्दुचूडन ने लिखा नमोऽस्तु से लिपि सीखनाप्रारंभ है-"Trikkulasekharapuram is a place where एक लम्बी अवधि तक केरल में 'बट्टेळ तु' (Vattelot of 'Prakrit' has been used through the luttu) लिपि का प्रयोग होता रहा । तमिलनाडु में तो ages." क्योकि इस स्थान पर (जो कि कोडंगल्लर के यह पन्द्रहवी शताब्दी तक ही उपयोग मे लाई गई किन्तु समीप है) अनेक सस्कृत नाटक लिखे और खेलेगा। केरल में है का उपयोग अठारहवी शताब्दी तक होता इनमे स्त्रियां और निम्न वर्ग के लोग प्राकन बोलते थे। रहा । प्रसिद्ध करलाय बोलते थे। रहा । प्रसिद्ध केरलीय लिपिवेत्ता गोपीनाथ राव का मन इस सम्बन्ध मे श्री इन्दुचडन ने कूलशेखर वर्मा के नाटको है कि इस लिपि का आद्यरूप (प्रोटोटाइप) अनोक के में प्राकृत शब्दो के प्रयोग, केरल के कूडमी जाति के लोगो शिलालेखो की ब्राह्मी लिपि है अर्थात् यह ब्राह्मी से विककी भाषाओ तथा कोकड़ी लोगो की बोलियों को अपने मन सित हुई। जैन मान्यता है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का आधार बनाया है। केरल मे प्रायः खेले जाने वाले ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को यह लिपि सिखाई थी। एक सस्कृत नाटक 'आश्चर्यचूडामणि' का भी उन्होने उल्लेख प्राचीन जैन ग्रन्थ मे ब्राह्मी लिपि को नमस्कार भी किया किया है। गया है। मणिप्रवाल भाषा शलो उपर्युक्त मत के विपरीत डा. हरप्रसाद शास्त्री का ईसा को नौवी से बारहवी सदी मे मणिप्रवाल नामक मत है कि व?लुत्तु का विकास खरोष्ठी से हआ है। एक अलग ही भाषा-शैली विकसित हुई। इसमे मलयालम दु की बात है कि कुछ लोग खरोष्ठी का शाब्दिक अर्थ या तमिल के साथ अधिकाधिक सस्कृत शब्दो के उपयोग गधे (सर) के ओठ जैमी लिपि करते हैं। ससार में किसी की प्रवृत्ति चल पड़ी। वर्तमान में मलयालम भाषा मे ८५ भी लिपि का इस प्रकार नाम शायद ही मिलेगा। वास्तव प्रतिशत सस्कृत शब्द बताए जाते है। किन्तु मणिप्रवाल मे, खरोष्ठी शब्द 'वृषभोष्ठी' भ्रष्ट या घिसा रूप है। भाषा-शैली के प्रवर्तक भी जन थे। डा. ए. वेळ पिल्ल बृषभ से रिखनोष्ठी और उससे खरोष्ठी बना है, ऐसा ने अपनी पुस्तक Epigraphical Endenees for Tamil भाषाविज्ञान के नियमों से सम्भव है। वृषभ के ओठ से Studies मे मन व्यक्त किया है कि-"we have to प्रचलित की गई अर्थात् प्रथम तीर्थकर वषभदेवारा admit that the Jains first introduced the प्रचलित की गई लिपि वृषभोष्ठी है।। ** Manipravala style, equal admixture of Tamil अब वझेळत्त शब्द की व्युत्पत्ति वह दो प्रकार से की and Sanskrit... ..The Jains gare this up after जाती है-(१) Vatta (गोल, वर्तुलाकार)-Ezhultu some time but the Vaishnavites took it up" लिखावट, लिपि । (२) Vatha (उत्तरी, उत्तर की)+ यह उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त सदियो मे मल गलम तमिल Ezhultu उत्तर भारत की लिपि। दूसरा अर्थ करने पर से पृथक होने के विकास-क्रम मे थी। (शेष पृ० २६ पर) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कवि लक्ष्मीचंद के 'छप्पय' - डॉ० गंगाराम गर्ग, भरतपुर गेतिकालीन शृगारिक कवियो ने अपने मुक्तक काव्य मील बडो ससार, सुजस ही बेनि बधावै । मे दोहा, कविन, सबैया के अतिरिक्त छप्पय छद का भ' सोल न डो संसार, लधि ते पार करावं । प्रयोग किया है। रोला और उल्लाला से निर्मित छपय मील बडो संसार, मनि मेटन सुबदाई ! छंद का प्रयोग राज-प्रशस्ति के गान मे गापरता से सील बडो संसार, पा । भवि मन वच काई। हुआ। अपभ्रश का 'षटपद' हिन्दी काव्य मे 'छप्पय' के सील रतन मय होत है, गन मैं धरि अति मंत। नाम मे अवतरित होकर पृथ्वीराज रासो में सर्वाधिक 'लषगी' कहत यह सीख मठि, भवि घार निश्चित । प्रयुक्त हुआ है। डा. कस्तुर न्द नामलीवाल के द्वारा मोक्ष की ओर अग्रसर करना शील का सबसे बडा मोडल कवि कृत 'बावनी' के प्रकाशित कर दिए जा मे गुण है । अत: मामान्य नर-19ी नहीं, अपितु मुनिवर अपभ्रश का के बाद हिन्दी नीतिकाव्य के प्रवर्तक के भी शील व्रत का विशेष ध्यान रखते हैरूप में छोहल के प्रतिष्ठित होने की सम्भावना बढ़ी है। मोल रतन को धारि, मुनिश्वर ध्यान घर जी। 'छीहल-बावनी' में छप्पय छद ने ही धन, परोपकार, दान, मोल रतन को धारि, मिव पंथ गहै जी। त्याग आदि विभिन्न नैनिक "वधारणाओं को अधिक सील रतन को धारि, नारि नर सुभ गति है। अनुभूतिमय बनाया है। छोहल के बहुत समय बाद सील रतन को धारि, पूज्य संसार जु बहै है। रीतिकाल मे आविर्भूत बनारसीदास, द्यानतराय, देवी. सील रतन व्रत को गहत, नर नारी दिढ़ धारि के। दास, मनोहर दाम, लक्ष्मीचन्द तथा नथमल 'विलाला' तिन को नमत सुर इद सब, 'लषमी' मन हरषाय के। आदि जा कवियो ने भक्ति और नीति की अभिव्यक्ति के मर्यादा पालन की अनिवार्यता बतलाते हुए, नीतिलिए छप्पय छंद का प्रयोग किया। दिगम्बर जैन मन्दिर कार लक्ष्मीचन्द ने राज के लिए 'प्रजा-वात्सल्यता, प्रजा चाकसू (जयपुर) मे प्राप्त एक गुटके मे लक्ष्मीचन्द के के लिए 'राजाज्ञा-पालन', नारी के लिए 'शोल-व्रत' और कतिपय छप्पय कवित्त तथा २८ दोहे सकलित है। पुरुष के लिए 'शुभ-मार्ग ग्राह' करने का लक्ष्य निर्धारित आचा-नीति के बिधेयात्मक और निषेधात्मक दोनो पक्षो किया है-- पर कतिपय नीति-उक्तिला उत्पादित वी हैं। कवि ने पादन राजा होय, प्रजा को मुख उपजाये। सज्जन पुरुषो में सुगति, उपकार, मत्संग और पुण्य मे पावन परिजा होय, राज मब आनि न पावै। झवि आदि गुण बनलाए हैं - पावन नारी होय, मील गुन दिढ करि पाल । सज्जन गुन को गेह, कुमति मनि दूरि निवार । पावन नर जो हाय भल मुभ माग चाल । स न गुन को गेह, घरन उपगार जु करि है, एह च्यारी राज पवित्र है, ते पवित्र महर्ज बरं। सज्जन गुन को गेह, पाप मति कबहू न धरिस । 'लषमी' कहत ऐह, गब भवसागर तिर। सज्जन है पविहै, मन की। मृमल है। जैन परम्परा के अनमार लक्ष्मीचन्द की आस्था कर्मऐह जानि भवि मन आनि के, 'लक्ष्मी' उर धरि जग लहै। फन में भी है। शुभ कर्मों का फल पुण्य के रूप में कभी ___ 'शील' गुण को लक्ष्मीचन्द ने कुमनि का विनाशक और भी उदिन हो सकता हैयश का पदाता कहकर उसे धारण करने की शिक्षा दी है-- पुन्य उदै तब होय, सुजस पुनि बेल बधाव । १. 'गुरु निश्च निरपथ पक्ति के आधार पर लक्ष्माघद क दिगम्बर जैन होन म कोई सन्दह नहीं रह जाता। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त २४०२०२ उद तब होय, राज रिधि पल मैं आये । पुन्य पुग्ध उदे तब होय सत्रु मित्र म हो हो। पुन्य उदे सब होय, मिले फुनि पाएँ सोही एह रोला जांनि पुन्य प्रभाव तैं, इन्द्रादिक सुष भूलते। फिर वहैं मुकति सुजान, 'लक्ष्मी' निर्बं पुन्य ते । निषेधात्मक नीति तत्वों में कवि ने सामन्ती संस्कारों और दरबारी कवियों की वाणी मे 'काम वासना' का प्रसार देखकर उसको निंदा की है। श्रृंगारी कवियों ने परकीया प्रेम को शास्त्रीय जामा पहनाकर उसके मनभावने चित्र खीचे, जिसके विरोध में लक्ष्मीचन्द के तीचे तेवर तिमिला देने को वाध्य करते हैपरनारी परत वानि अति विष को झापा । परनारी परतषि, जांनि तू अर्गानि विसाला । परनारी पतषि, मी गुन भानं दिन में परनारी परतषि, जांनि अति षोटी मन में । । एह जांनि भवि परनारि को, तज शील गुन धारिकं । 'लक्ष्मी' कहत रावन गये, नरक भूमि निहारि के । कबि ने नरक श्रोर ससार भ्रमण का भय दिखला कर भी परकीया-रवि का परिणाम व्यक्त किया है परनारी रति होप, जलति संसार धर्मे पर नारी रति होय, नीच गति मांहि परं । पर नारी रति होय, नियां में दुख पावे। पर नारी रति होय, भली गति कबहू न जावे । पर नारी रति ते भया, तिनको हिरदो मलीन गन । पर वनिता तें तजत हैं, 'लक्ष्मी वं नर बुद्धजन । पारोन्मुख नीति मनुष्य को राग, दुर्बुद्धि तथा अधर्म आदि दोषों में फंसाती है। अतः लक्ष्मीचन्द पाप से वचने को प्रेरणा देते हैं- पाप उदे तबै होय, राग बहु व्यापै तन में। - पाप उदं तर्द होय, कुमति धारत प्रति मन में पाप उदै सबै होय, धरम नह ने सुहावे। पाप उर्द होय, संसार भ्रमावै । एह जांनि उदो अति पाप को, नरक निगोद्यां में फिरत । एह जांनि पाप मनि छांडिके, लक्ष्मी भवसागर तिरत । वैष्णव भक्त कवियों में नवधा भक्ति के सभी अंगो का विवेचन पर्याप्त मात्रा में हुआ है। जैन भक्ति काव्य में इन अंगों में 'प्रतिमा दर्शन को अधिक महत्वपूर्ण माना गया है । लक्ष्मीचन्द का कथन हैजिन मुख देव आजि, आजि मो भयो जुन जिन । मुख देष आजि, आज सुख भाषे बैनां । जिन मुख दे मज जिन मुख देष आजि, आज उर हर नैना आजि मेटो भव फैनां । श्री जिन मूरति निरखि के, मोहि रहै आनंद । (अपूर्ण) तीर्थंकरों के अतिरिक्त शील-व्रत धारण करने वाले तथा भक्तों को कुमतिको निवारने वाले मोक्षत्रिय सामो 1 की बदना भी लक्ष्मीचंद ने की है धनिसा संसार काम सौ रहे अनूठे धनि साध संसार, भ्रम्य ते भव छूटै । घनि साध संसार, कुगति को निवारी | धनि साध ससार, मुकति कांमनि अति प्यारी । धनि साध ससार मे, सील रतन करि हार । 'लक्ष्मी' [गुरु] सही तिन पग धोक हमार मन, वचन और काया से जैन शास्त्रो मे श्रद्धान रखने की अपेक्षा बतलाते हुए नीतिकार लक्ष्मीचन्द ने उनके श्रवण मात्र को आनन्ददायी तथा पुण्यप्रद बतलाया हैजैन प्रथ तब सुने जाने पाप से स्था जैन ग्रंथ तत्र सुन, पाप मति रहे न लगारी । जैन ग्रंथ तब सुन, पुन्य को होइ बढारो । जैन ग्रंथ तब सुन, श्रवन मे लागे प्यारी । जैन ग्रंथ सरधान करि, निर्च मन वच काय । भवि पावै परम गति, लिषमी कहत सुभाय । अलंकार-बधन और शब्द-शृगार के आडम्बर से कतई दूर व्यावहारिक भाषा में कतिपय नीत्युक्तियां कहकर लक्ष्मीचंद को कविता ने एक शिक्षिका के समान सर्वसाधारण को दिशा निर्देश दिया है। जैन नीतिकारी ने कवि और सर्वयों में तो दृष्टान्त और उदाहरण अलंकारों का पर्याप्त प्रयोग किया किन्तु छप्पय मे अनुभूति मात्र ही प्रखरता के कारण अधिक प्रभावकारी हुई है। रीतिकालीन परिवेश मे आविर्भूत वृन्द और दीनदयाल गिरि की परंपरा के विनोदीलाल, मनोहरदास, लक्ष्मीचंद आदि कई जैन कवियों का सामयिक महत्व भी अधिक है । OL Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रहालय गूजरीमहल ग्वालियर में सर्वतोभद्र प्रतिमाएँ "] श्री नरेश कुमार पाठक सर्वतोद्रिका या सर्वतोभद्र प्रतिमा का अर्थ है, वह कुषाण काजीन चौमुखी जिन मूतियां कायोत्सर्ग मे खडी है। प्रतिमा जो सभी ओर शुभ या मगलकारी है अर्थात ऐमा जहां हमें समकालीन जैन ग्रन्थो मे जिन चौमुखी मूर्तियों शिल्प खण्ड जिसमें चारो ओर चार प्रतिमाएं निरूपित की कल्पना का निश्चित आधार प्राप्त होता है, वह हो। पहली शती ईसवी मे मथुरा में इसका निर्माण प्रारंभ तत्कालीन और पूर्ववर्ती शिल मे ऐसे एक मुख और बहहुआ, इन मूयिो में चारो दिशाओ मे चार जिन मूपियां मुख शिवनिग एवं यक्ष-यक्षी मूर्तियां प्राप्त होती है, जिनसे उत्कीर्ण है । ये मुनिया या तो एक ही जिन की या अग. जिन चौमुखी की धारणा से प्रभावित होने की सम्भ वना जिनो को होनी है। ऐसी मूर्तियो का चतुविम्ब न हो सकती है। जिन नौमुन्नी पर म्बस्तिक तथा मौर्य चौमुखी और चतुर्मख भी कहा गया है, ऐमी प्रतिमाएँ। शामक अशोक के सिंह एव वृषभ शीर्षक का भी कुछ दिगम्बर स्थलो पर विशेष उल्लेखनीय है। प्रभाव असम्भव है। अगोक का सारनाथ सिंह शीर्षक स्तंभ इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है , जिन चौमुखी की धारणा को विद्वानों ने जिन समवसरण को प्रारम्भिक कल्पना पर आधारित और उसमे जि. चौमबी प्रतिमाओ को मुख्यतः दो वर्गों मे हुए विकास का सूचक माना है। पर इस प्रभाव कोव बाटा गमकता है । पहले वर्ग में ऐसी मूर्तियां है, जिनमें कार करने में कई कठिनाइया है। समवसरण वह देव एक ही जिन को चार मतियां उत्कीर्ण है। दसरे वर्ग की निर्मित सभा है, जहा प्रत्येक जिन कैवल्य प्रालि के मतियो मे नार अलग-अलग जिन की मूर्तियां है। पहले बाद अपना प्रथम उपदेश देते हैं । समबमरण तीन प्राचीगे वर्ग की मतियो का उत्कीर्णन लगभग ७वी-८वी शती ई० वाला भवन है। जिसके ऊपरी भाग अष्ट प्रातहार्यों से मे प्रारम्" हुआ किन्तु दूसरे वर्ग की मतिया पहली शती युक्त जिन ध्यान मुद्रा मे (पूर्वाभिमुख) विराजमान होते ईसवी में ही बनने लगो थी। मथुग की कुषाण कालीन हैं। सभी दिशाओ के श्रोता जिनके दर्शन कर सकें, चमुखी मूर्तिया इसी दूसरे वर्ग की है। तुलनात्मक दृष्टि उद्देश्य से व्यतर देवो ने अन तीन दिशाओम भी उसी में पहले वर्ग को मुनियो की मख्या में बहुत कम है। पहले जिन को प्रतिमा स्थापित की, वह उल्लेख सर्व प्रथम ८वी-हवीं शती ई० के जैन ग्रन्थो म प्राप्त होता है। वर्ग की मानियो में जिनो का लांछन सामान्यत: नही प्रारम्भिक जैन ग्रन्थो मे चार दिशाओ मे चार जिन के प्रदशित । निरूपण का उल्लेख नही प्राप्त होता, ऐसी स्थिति मे ___केन्द्रीय संग्रहालय गूजरी महल ग्वालियर मे पाच कुषाणकालीन जिन चौमुखी मे चार सबमरण नीधारणा सर्वतोभद्रिका प्रतिमाए सग्रहीत है। सभी प्रतिमाएं गभग से प्रभावित और उनमें हुए किसी विकास के मूचक नही ११वीं-१ वी शती ई की एव मर्तिकला की दृष्टि से माना जा सकता । :-हवी शतः के ग्रन्सों मे मी समव उल्लेखनीय है । सग्रीन प्रतिमाओं का विवरण इस प्रकार सरण मे किमी एक ही जिन को चार मतियो के निरूपण का उल्लेख है, जब कि कुषाण कालीन चौमखी कार जलगअलग जिनों को चित्रण किया गया है। सावमरण मे सग्रहालय मे पांच सर्वनोद्रिका प्रतिमा सग्रहीत है। जिन सदैव ध्यानम्थ मुद्रा में आमीन होते है, जब कि इनमे पे चार ग्वालियर दुर्ग से प्राप्त हुई है। १.वी पाती Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ व ४५, कि०२ अनेकान्त ईसवी की है। पांचवी इसी काल खण्ड की विदिशा से आकार की प्रतिमा बलुआ पत्थर पर निर्मित है। तिथिप्राप्त हुई है। ग्वालियर दुर्ग से प्राप्त सफेद बलुआ क्रम की दृष्टि से ११वी शती ईमवी की है। पत्थर पर निर्मित सर्वतोभद्रिका मति (सं० ऋ० ११५) मे स्तम्भ के चारो ओर सीर्थकर कायोत्सर्ग मे ध्यानस्थ खड़े ग्वालियर दुर्ग से ही प्राप्त तीसरी सर्वतोभद्रिका प्रतिमा' (स. क्र. २थ३) मे चारो कायोत्सर्ग मुद्रा में हुए हैं। इस प्रकार की प्रतिमाओ को किसी भी तरफ तीर्थकर प्रतिमायें अकित हैं। प्रथम ओर प्रथम तीर्थंकर से देखा जाय तीर्थकर के ही दर्शन हो जाते है। जिससे आदिनाथ प्रभामण्डल से सुशोभित कायोत्सर्ग मुद्रा मे खड़े मानव का कल्याण होता है। इसीलिए चारो तरफ मतियो है। सिर लाइनदार केश विन्यास लम्ब कर्णचाप पादपीठ वाली प्रतिमा को सर्वोभद्रिका की सज्ञा दी गई है। पर चक्र एव विपरीत दिशा मे मुख किए मिहो का अकन प्रस्तुत सर्वतोभद्रिका के चार तीर्थंकरों में से कवल आदि है। दूसरी ओर कायोत्सर्ग मुद्रा मे तीर्थकर नेमिनाथ नाथ को कंधे पर फैले केशों मे एव पार्श्वनाथ को मस्तक खडित अवस्था में प्रभामण्डल से सुशोभित है। दोनो ओर पर सप्त सगंफण नागमौलि से ही पहचाना जा सकता विपरीत दिशा में मुख किए मिह बने है। चौथी ओर है। किन्तु सर्वतोभद्रिका प्रतिमाओं मे चार विशिष्ट कुन्नलित केश, नागफण मौलि युक्त कायोत्सर्ग मे तीर्थकर तीथंकरों की ही प्रतिमाए अधिकतर बनाई जाती रही पाश्र्वनाथ खड़े है, कानों मे लम्ब कर्णाचाप, नीचे विप. हैं। यथा ऋषमनाथ (आदिनाथ) नेमिनाथ, पार्श्वनाथ रीत दिशा मे मुख किसे मिह और चक्र का आलेखन है। और महावीर स्वामी, अतएव इस मर्वतोभद्रिका प्रतिमा १२०४५०५५० से. मी आकार की बलुआ पत्थर पर की अन्य दो प्रतिमाए तीर्थक र नेमिनाथ एवं महावीर की निर्मित है । चौथी विदिशा से प्राप्त ६०x४०४४० मे. है। चारों प्रतिमाएं पच पादपीठ पर खडी है । मुख खंडित मी. आकार की सफेद बलुआ पत्थर पर निर्मित (स. क्र. है एवं प्रभावली से अलकृत है। ८०४१०x४० से. मी. १३१) यह प्रतिमा प्रतिमा, प्रतिमाक्रमांक ११५ के अनुआकार की प्रतिमा कच्छपधात कालीन शिल्पकला के अनुरूप है। ग्वालियर दुर्ग से ही प्राप्त दूसरी सर्वतोभद्रिका प्रतिमा ग्वालियर से ही प्राप्त पांचवीं सर्वतोभद्रिका प्रतिमा (स. क्र. ३६२) मे चारो ओर कायोत्सर्ग मुद्रा मे तीर्थकर मे चारो तरफ पद्मासन मुद्रा मे तीर्थकर प्रतिमा अंकित प्रतिमाएं अकित हैं। प्रथम ओर कुन्तलित केश, प्रभामंडल, है। (सं. क्र. २६१) प्रथम ओर तीर्थकर आदिनाथ पाश्रीवत्स युक्त तीर्थकर आदिनाथ हैं, दोनों ओर चांवर. सन में में बैठे हुए है। सिर पर कुन्तलित केश, जिनकी पारियों एव यक्ष गोमुख यक्षी चक्रेश्वरी का आलेखन है। जटाएं स्कंध तक फैली हुई है। सिर के पीछे प्रभामण्डल दूसरी ओर तीर्थंकर नेमिनाथ कुन्तलित केश, कर्णचाप, बना है। पादपीठ पर सिंह एव चक्र का अंकन है। दूसरे श्रीवत्स युक्त है। दोनो ओर चांवरधारी व यक्ष गोमेध ओर पद्मासन में तीर्थकर नेमिनाथ बैठे हुए हैं। सिर पर यक्षी आबका अकित है। नीचे लेख श्रीवावट लिखा है। कुन्तलित केश, पीछे प्रभामण्डल है। पादपीठ पर विपतीसरी ओर कुन्तलित केश, कर्णचाप, प्रभामण्डल युक्त रीत दिशा मे मुख किये सिंह एव चक्र अकित है। तीसरी तीर्थकर शान्तिनाथ है। दोनों ओर चांवरधारी खड़े है। ओर तीथंकर महावीर पपासन में बैठे है, मुख खण्डित नीचे पादपीठ पर शान्तिनाथ का ध्वज लांछन मृग एव है। सिर के पीछे प्रभामण्डल है। वक्ष पर श्रीवत्स चिह्न, यम गरुण यक्षी महामानसी का अंकन है। नीचे लेख श्री पादपीठ पर विपरीत दिशा में मुख किये सिंहो का अकन सातिल श्री कलला लिखा हुआ है। चौथी ओर तीर्थकर है। चौथी तरफ तीर्थकर पाश्र्वनाथ पपासन में बैठे हुए पार्श्वनाथ सर्पकण, नागमौलि, कर्णचाप, श्रीवत्स से अलकृत है। सिर के ऊपर सप्तफण नाग मोलि है, पादपीठ पर है। दोनों ओर चांवरधारी खड़े हए है एवं यक्ष धरण पक्षी विपरीत दिशा मे मुख किये सिंह, चक्र एव पूजक अकित पद्मावती का आलेखन है। १३५४६५४५० से. मी. है। प्रतिमा के वितान मे चारो ओर मदग वादक, Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केन्द्रीय संग्रहालय गूजरी महल ग्वालियर में संरक्षित सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएँ २७ मालाधारी विद्याधर, नीचे पादपीठ पर चारों ओर बारह से. मी. आकार की है। जिन प्रतिमा एवं अठारह परिचारकों का आलेखन है। पुरातत्त्व एवं संग्रहालय, नलघर बलुआ पत्थर पर निर्मित प्रतिमा-११५४६०४६० सुभाष स्टेडियम के पीछे, रायपुर (म.प्र.) सन्दर्भ-सूची १. तिवारी मारुति नन्दन प्रसाद "जैन प्रतिमा विज्ञान" ३. संग्रहालय में सुरक्षित एलबम मे छायाचित्र क्रमांक वाराणसी १९८१, पृ. १४८-४६. ६२ इसका प्राप्तिस्थान ग्वालियर दुर्ग लिखा है। २. ठाकुर एस. आर. कैटलॉग आफ, स्कप्चर्स इन दी ४. ठाकुर एम. आर. पूर्वोक्त पृ. २३ क्रमाक १६. आकिलाजिकल म्यूजियम ग्वालियर एम. बी. पृष्ठ ५. सग्रहालय में सुरक्षित एलबम में छायाचित्र क्रमांक २०, क्रमाक २. ६३ पर इस प्रतिमा स्थान ग्वालियर दुर्ग लिखा है. पृ० २२ का शेषाश) ब्राह्मी से उसका मेल बैठ जाता है। वर्तलाकार तो अक्षरो to be known as nana, mona alphabet. (Traके गोल-गोन होने के कारण कहा गया होगा। vancore Archicolugical Series, Vol. XVIनाना मोना लिपि--उपर्युक्त लिपि को नाना मोना देवनागरी उच्चारण लेखक ने दिए हैं । नमोऽस्तु का प्रयोग जनो द्वारा देवदर्शन, देवपूजन में प्रारम्भ मे ही प्रतिदिन या नानम मोनम् भी कहा जाता है। इस सम्बन्ध मे श्री किया जाता है । मुनि, सानो और यक्ष-यक्षणियो को भी गोपीनाथ गव ने लिखा है-"The name Nana-Mona नमोऽस्तु किया जाता है। is given to it be couse at the time, when the alphabet is taught to chidren for the first कालांतर में वझेळत्तु के दो भेद और भी हए । अत time, the 'benedictory' words 'namostu' etc मे ग्रथ लिपि जिसमे सस्कृत लिखी जातो है, अपना ली are vegun, which are spelt nana (नाना) mona गई । मलयालम भाषा की लिपि मे भी सुधार हुए । मुद्रण (मोना) ittanna (इत्तन्ना), tina (तीना) that is na, के कारण भी ये सुधार किए गए। mo and tu and the alphabet, therefore came ****** ******************* KKKXKk आवश्यकता वीर सेवा मन्दिर शोध-संस्थान के लिए प्राकृत-संस्कृत-अंग्रेजी के ज्ञाता सिद्धान्तज्ञ योग्य विद्वान की आवश्यकता है। आवास, पानी, बिजली को समचित व्यवस्था उपलब्ध है। मानदेय के रूप में स्वीकार्य वेतन दिया जायगा। कृपया वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२ से संपर्क करें। -सुभाष जैन, महासचिव ***********kkkkkkkkkkkxx ********* *XXXX Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पं० देवीदास कृत चौबीसी-स्तुति श्री आदिनाथ स्तुति सवैया इकतोसा -सोभित उतंग जाको णिक (धनुष) से पांच अंग परम सुरंग पीतवर्ण अति भारी है। गून सो अथंग देखि लाजत अनंग कोटि कोटि सूर सोम जातें प्रभा अधिकारी है। दुविध प्रकार संग जाकै गो न सरवंग हरि के भजंग भी त्रसना निवारी है। होत मन पंकज सु सुनत अभंग जाको ऐ(औ)से नाभि नंदन को वंदना हमारी है ॥१॥ अजितनाथ स्तुति छप्पय-द्रव्य भाव नो कर्म कंजनासन समान हिम । जन्म जरा अरु मरन तिमिर छय करन भान जिम । सुख समुद्र गंभोर मार कांतार हुतासन । सकल दोष पावक प्रचण्ड झर मेघ विनासन । ज्ञाय(इ)क समस्त जग जगत गुरु भव्य पुरि(रु)ष तारन तरन । बंदी त्रिकाल सुत्रिसुद्धि कर अजित जिनेश्वर के चरन ॥२॥ श्री संभवनाथ स्तुति सवैया-- मोह कर्म छोनि कै सुपरम प्रवीन भये फटिक (स्फटिक)मनि भाजन मंझार जैसे नीर है। सुद्ध ज्ञान साहजिक सूरज प्रकासे हिये नही अनुतिमिर परोक्ष ताको पीर है। सकल पदारथ के परची प्रतक्ष्य देव तिन्हि तें जगत्रय के विषै न धोर वीर हैं। जयवंतू होहु अमे संभव जिनेश्वर जू जाक सुख दुख कोन करता सरीर हे ॥३॥ श्री अभिनंदन स्तुति सवैया तेईसा-चार प्रकार महागुन सार करे तिन्हि घासन कर्म निकंदन । धर्म मयी उपदेश सुन तसु सोतल होत हृदय जिम चन्दन । इन्द्र नरेन्द्र धरणेन्द्र जती सब लोक पतो सूकर पद वंदन । घालि (डालि)गर (गले )तिन्हि की गुनमाल त्रिसुद्ध त्रिकाल नमौ अभिनंदन ॥४॥ _ श्री सुमतिनाथ स्तुति सवैया ३१-- मोह को मरम छेदि सहज स्वरूप वेदि तज्यो सब खेद सुख कारन मुकति के । सुभासुभ कर्म मल धोइ वीतराग भये सुराल)झे सुदुखतें निदान चार गति के । क्षायक समूह ज्ञान ज्ञायक समस्त लोक नायक सो सुरग उरग नरपति के। नमो कर जोरि सीसु नाइ(य) सो समतिनाथ मेरे हृदय हूजै आनि करता समति के ॥५॥ श्री पद्मप्रभ स्तुति सवैवा ३२-विनाशीक जगत जब लोकि जे उदास भये छोडि सब रंग हो अभंग वनु लियो है। जोरि पद पद्म अडोल महा आत्मीक जहां नासाग्र हो समग्र ध्यान दियो है। हिरदै पद्म जाके विषै मन राख्यो थंभि छपद स्वरूप हो अतीन्द्रिय रस पियो है। जेई पद्म प्रभु जिनेस जू ने पाइ निज आपन लब्धि विभाव दूरि कियो है ॥६॥ श्री स्व(स)पार्श्वनाथ स्तुति सवैया ३१-विनसें विभाव जाही छिन में असद्ध रूप ताही छिन सहज स्वरूप तिन्हि करखे (षे)। मति सु(श्रु)ति आदि दै(छ) सु दाह दुख दूरि भयो हृदै तास सुद्ध आत्मीक जल वरषे । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ श्री पं० देवीदास कृत चौबीसी-स्तुति केवल सदि(द)ष्टि आई संपति अट्ट पाई सकल पदारथ समय में एक परफे। तिनही सपारस जिनेस को बड़ाई जाके सुनै जग माहि भव्य प्रानो महां हरषे ॥७॥ श्री चन्द्रप्रभु स्तुति कण्डरि(ल)या-देवा देवानिके महाचन्द्रा प्रभु पद जाहि। बंदी भवि उर कमलिनी विगसत देखे ताहि। विगसत देखें ताहि स तो सब लोक प्रकासी। केतक करें प्रकास चन्द्रमहिं ज्योति जरासी। विमलचन्द्र मह चिन्ह देववानी सम मेवा । चंदा सहित कलंक वे स निकलंकित देवा ।।।। पहुप दंत स्तुति कवित्त छंद-मारयो मन तिन्हि मदन डरयो पि(पू)नि भगत अंत तिहि मिली न थानि । समोसरन महि सो प्रभ पग लर पहप रूप हो वरषौ आनि । पुनि तिन्हि की सुनाम महिमा सौं अपगुन भयौ महागुन खानि । तेई पहपदंत जिनवर के सेवत चरन कमल हम जानि ।।६।। श्री सीतल नाथ स्तुति कवित्त छंद-सीतल सरस भाव समता रस करि सपरम अतर उर भीनो। अति सीतल तुषार सम प्रगटे गुन उर करम कमल बन दोनो। दरसन ज्ञान चरन पुनि सीतल निरमल जगे सहज गुन तीनो। सीतलनाथ नमों स आपु तिन्हि सहज सुभाब आप लखि लीनौ ।।१०।। श्री श्रीयंस (श्रेयांस) नाथ स्तुति सवैया २.-चौसठ चंवरि जाके सीस सर ईस ढारं अतिशय विराजमान तास चारि अगरे। आठ प्रतिहार अन अंत है चतुष्टय को सति न्हि को प्रकाश लोकालोक वर्षे वगरे। क्षुधा तषा आदि जे सुरहित अठारह दोष सुद्ध पद पाय मोक्षपुरी काजै डगरे। धरिक सहाथ माथ नमौं सो श्रीयांसनाथ मिट तिन्हि सों सजगसौ अनादि झगरे ॥११॥ श्री वासुपूज्य स्तुति सवैया ३१-घातिया करम मैटि सहज स्वरूप मेंटि भये भव्य तिन्हें जे करैया ज्ञान दान के। हेतु लाभ मोष (क्ष) को सुआतम अदोष को अतीन्द्रिय सख भाग अतराय करै हान के। उपभोग अंतराय जैसी विभूति पाइ समो सरनादि सुख हेत निरवान के। वीरज अनंत व्रत्य दर्शन प्रकाश्यो सत्य असे वासुपूज्य सो समुद्र शुद्ध ज्ञान के ॥१२।। श्री विमल नाथ स्तुति तेईसा-निर्मल धर्म गह्यौ तिन्हि पर्म सनिर्मल पंथ लह्यो परमारथ । निर्मल ध्यान धरयो सर्वज्ञ जग्यो अति निर्मल ज्ञान जथारथ । निमल सुक्ख सुनिर्मल दृष्टि विषं सब भासि रहे सुपदारथ । निर्मल नाथ को हमरी मति ज्यौं अपनी सुकर्यो सब स्वारथ ॥१३॥ श्री अनंतनाथ स्तति सवैया ३१-सहज सुभाव ही सौं वीतत विकल्प सबै लखौ तिन्हि जगत विलास जैसे सपनो। जानिबो सजान्यो देखि वोहतो सुदेखो सब दिव्यो ज्ञान दर्शन खिप्यो समस्त झपनो। . Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०, बर्ष ४५, कि० २ अनेकान्त अंतराय कर्म अंत किये तैं अनंत बल भयो मोह मर्दन अनंत सुख थपनौ। जयवंत होहु असे जग में अनंतनाथ पायो तिन्हि सदा को गमायौ रूप अपनी ॥१४॥ श्री धर्मनाथ स्तुति सवैया ६२---गुन कौं अनंत जाके गन फन पती थाके रसना सहस करि पारु नहीं पायो है। घातिया करम चारि आठ दश दोष टारि सकति सम्हार भवभमन नसायो है। परम अतीन्द्रिय ज्ञान प्रगट्यो सहज आन अति सुख दान परधान पद पायो है। असे धर्मनाथ लिये मु:ति वधू सो साथ जाको देवीदास हाथ जोरि सोसु नायो है ॥१५॥ श्री शांतिनाथ स्तुति तेईसा-सुद्धोपयोग अतीन्द्रिय भोग लह्यौ तिन्हि कर्म कलंक निवारे। एक समै (मय) महि जे सर्वज्ञ सही सब लोक विलोकन हारे । प्रजत जे भवि या जग में तिन्हि पून्य उदय पद उत्तम धारे। ते भगवंत अनादि अनंत बसौ उर सांति जिनेस हमारे ॥१६॥ श्री कुंथनाथ स्तुति। सवैया ३१-जाके गुन ध्यावे ते सु पावै परमारथ के जाकै जस गावै कोटि तीरथ के किये मैं । जाके बैन सने नैन खुले उर अंतर के जाको नाम लेत फल महादान दिये मैं । जाकी करै बंदना के पाप को निकंदना है देखे रूप सख ज्यौ अतीन्द्रिय रस पिये मैं । तेई कुंथनाथ जू साथ मोक्ष मारग के देवीदास कहै जे सुवसो मेरे हिये मै ।।१७।। श्री अरहनाथ स्तुति सवैया ३१-मोह रिपु बांधि तिन्हि सुभट कषाय साधे धोधे मनु मदन विलात भयो डरि के। आपने स सहज स्वभाव सुद्ध नौका बैठि पार भये तृष्णा अपार नदो तरि के। लियो पद साहजीक परम अदोष होइ जन्म जरा मरनादि सखा छांडि करि के। बंदना स कॉर्ज अंसे अरह जिनेश्वर की होइ के त्रिसुद्ध हाथ जोड़ि सीसु धरि के ॥१८।। श्री मल्य (ल्लि)नाथ स्तुति तेईसा-मारि महाबलवंत हन्यौ सुजन्यो सुख राग विरोध वितोतो। इन्द्रिन को बिसयो विउ(व्यो)पार हतो अति हों दुख कारन लीती। स्वारथ सुद्ध जग्यौ परमारथ कारन खेद सबै जग जोती। मल्य जिनेस असल्य भये तिन्हि आपुन ह अपनी पद चीतो ॥१६॥ श्री मुनि सो(सु)वृत्त स्तुति तेईसा-अरि परिग्रह टारि महाव्रत धारि मिथ्यात्व मिटै दुख भूजौ। सेस नरेस सुरेस सबै जब आनि महां तिन्हिको पद पूजी। जा सम और नहीं जग में सुख कारन देव निरंजन दूजो। प्रान अधार सुधो तिन्हि के जयवंत सदा मुनि सोवत हूजी ॥२०॥ श्री नमिनाथ स्तति तेईसा-ध्यान कृपाण ते कोध निदान हन्यो तिन्ही मान बलो छल लोभा। राज विभति अनित्य लखो सब नीर भरै न रहै जिमि शोभा । (शेष आवरण पृ० ३ पर) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल की बात दिल से कहो-और रो लिए! C पद्मचन्द्र शास्त्रो सं० 'अनेकान्त' काश, एकांगी आत्मचर्चा न होती तो आत्मा शब्द, स्पर्श, रूप, रस-गन्ध राहत, अव्यय, भारत धर्मप्रधान देश रहा है और धर्म का सम्बन्ध अनादि अनन्न, महान् और ध्रुव है, उसको प्राप्त कर आत्मा से है। अतः सभी धर्मों ने प्राय: आत्मा को किसी मृत्यु के मुख स छूट जाता है। न किसी रूप में माना है। जनो ने आत्मा को सतत्र अन्य उपनिषदों में भी कही प्रजापति, इन्द्र और द्रव्य और अन्यो मे किसी ने ब्रह्म का अंश और किन्ही न असुरो और कही भारद्वाज और सनत्कुमार के माध्यम से और किसी रूप में। फलत: समय-समय पर लोगो में आत्मा की जिज्ञासा रहती रही है और चर्चाएं भी होती पान्मा की चर्चा है। इस प्रकार उस समय आत्म-जिज्ञासा रही हैं। उपनिषद् काल मे तो इस चर्चा का विशेष की धारा प्रवाहित होती रही। " जोर रहा है। कठोपनिषद में एक प्रसग में कहा है कि जीनयो मे तो आत्मा की उपलब्धि का मार्ग अनादि जब उद्दाक ऋषि ने ऋत्विजो को अपना सर्वस्व दान मे प्रवाहित रहा है। भूतकाल की अनन्त चौबीमी और दे दिया और वह शेष बची बूढ़ी गोओ को भी दान मे अनन्त अपरिग्रही मुनि ज्ञान और चारित्र के बल पर देने लगा तब उसके पुत्र नचिकेता ने उसे कहा-पिता प्रा.मा के स्वरूप का अवगम कर शुद्ध दशा को प्राप्त होते जी, इन बूढी गौओ को दान मे क्यों दे रहे हैं ? आपके रहे हैं। हाँ, उनमे विशेषता यह रही कि वे भेद-ज्ञान सर्वस्व मे तो मैं भी हूं, मुझे दान में दे दीजिए। जब द्वारा आत्मस्वरूप के उस पद को प्राप्ति के लिए, पर से पिता ने नचिकेता के बारम्बार कहने पर भी कोई उत्तर भिन्न-एकाकी-अपरिग्रही होने मे तत्पर रहकर ही आत्मन दिया। नचिकेता ने फिर-फिर कहना चालू रखा । तब दर्शन या आत्म-स्वरूप की उपलब्धि कर सके हैं । यदि वे कुपित हो पिता ने कहा कि जा, तुझे मैं यम को देता हूं। त्यागरूप चारित्र के बिना आत्मा की कोरी रट या चर्चा ऐसा सुनते ही नचिकेता यम के द्वार पर जा पहुच।। मात्र पर अवलम्बित रहते तो कदाचित् भो शुद्ध आत्मत्व वहीं मालूम हुआ कि यमराज कहीं बाहर गए है। तब को प्राप्त न होते। यम के द्वार पर तीन दिन-रात भखा.प्यासा पडा रहा। जैनियों के मान्य मूल-प्राचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट जब यम पाये तो इसकी लगन में प्रसन्न होकर कहा - तुझे मैं तीन वरदान देता है। बो। और मांग ले। नचि "अहमियको खलु सुद्धो बसण-णाण मइयो सदाऽरूवी। कता ने वरदान लेने से इन्कार कर दिया और कहा कि ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि प्रगणं परमाणमित्तं पि॥" मुझे तो माप आत्मा का स्वरूप बताइये । यम ने कहा तू नही समझ सकेगा, इस आत्मा के विषय मे तो बड़े-बड़े मैं एकाकी (अकेन्ना) हु, मैं निश्चय ही (स्वभावतः) महर्षि भी नहीं ममझ पाए है। फिर भी आत्मा का स्वरूप शुद्ध हू, मैं दर्शन-ज्ञान मय और अरूपी (रूप-रस-गंध जैसा है उसे सुन स्पर्श से रहित) हू । अन्य परमाणु मात्र भी मेरा नही है। 'अशब्दमस्पर्शमरूपमव्यय इसका आशय ऐया कि जब अन्य परमाणु मात्र भी मेरा तथारसं नित्यमगग्धवच्च यत् । नही है तब मैं एकाकी, शुद्ध, पूर्णदर्शन ज्ञानरूप और अरूपी प्रनाथनन्तं महतः परं ध्र, है। अथवा जब मैं णुद्ध हू तब अन्य परमाणु मात्र (भी) निचाभ्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते ।।' मेरा नही है। इस भाति गाथा की दोनों पक्तियां परस्पर Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२, वर्ष ४५, कि०२ अनेकान्त सापेक्ष हैं, इस भांति आत्मा का स्वरूप है । जब कि आज सुधार हेतु भी नैतिक-शिक्षा समितियां स्थापित करने की कुछ आत्म-वादियो ने प्रायः गाथा की प्रथम पक्ति मात्र चिन्ता तक भी की जाने लगी है, यानी कीचड़ में पैर को ग्राह्य मान दूसरी पक्ति को उसमे घटित करने की सानो और फिर धोओ। खेद ! आज जो लोग त्याग किए सर्वथा ही उपेक्षा कर दी है। इसका परिणाम यह होता बिना जो सम्यग्दर्शन प्राप्ति और आत्म-दर्शन कराने की जा रहा है कि आत्मवादी भी मिथ्यारूप एकागी मार्ग पर धुन मे लगे हैं, उन्हें सोचना चाहिए कि उन्हें कितना बढ़ते जा रहे है और साधारण व्यवहार आचरण में भी आत्म-दर्शना हुआ और कितना सम्यग्दर्शन ? या उनके मुंह मोड़ने लगे हैं। उपदेशों से कितनो ने आत्मदर्शन या सम्यग्दर्शन प्राप्त आत्मा के अरूपी होने का तात्पर्य हे उसमें पुद्गल किया? यदि दो-चार हो तो नाम सोचे। आगमानुसार सम्बन्धी उन गुणो का अभाव, जो इन्द्रियो व मन को तो ये विषय केवलीगम्य है और आत्मदर्शन की अग्राह्य और रागी छपस्थ की पहं के बाहर है, ऐसे में प्राप्ति विराग-क्षण के आधीन है। अन्यथा, आचार्यों ने इन्द्रियाधीन गगी छमस्थों द्वारा अरूपी आत्मा का । राग-भाव के त्याग पर बल न देकर, इस धर्म को वीतसाक्षात्कार सर्वथा असम्भव है। फलत: छद्मस्थो का कर्तव्य गग का धर्म न कहकर, सरागियो का धर्म कह दिया होता और हमारे देव भी वीतरागी देव न होकर रागीहै कि जो आँख, कान, न क मन आदि ज्ञानन्द्रियाँ उन्हे देव होते। मिली हैं उनका उपयोग बाह्य-पदार्थों की सही जानकारी मे करें---बारह भावनाओं के द्वारा उनी असारता का एक ने कहा- सम्यग्दर्शन-आत्मदर्शन तो चौथे गुणचिन्तन करे और उसे विरक्त होवें। पर से अलग होकर स्थान में हो जाता है। तब हमने पूछा--- ये तो बताओ आत्मा म्वय ही स्त्रभव !: स्वय नेह जापगा। स्वभान कि आपको चौथ गुण स्थान है या पहिला? और आपको में आने का प्रयत्न नहीं होता। जैन के नूसार तो पर उस ज्ञान के मे हुआ? क्या, अगम मे कही छमस्थ को से विरक्त होना ही वीतरागता है--स्व मे आने का प्रयता । इसके ज्ञान हो जाने की बात कही है? क्या केवलो के भी तो स्व के प्रति राग-भाव है और राग-भाव जैन मे सिवाय अन्य कोई इस बात को जान सकता है? आदि। सर्वथा वजित है। जैन के अनुसार तो जितनी-जितनी सो लोगो ने विरक्तता और त्याग के बिना, अपने विरागता है उतनी-उतनी जैनत्व के प्रति निकटता और परिग्रह-पाषण के पाप को छुपाने के लिए त्याग-रूप जितना-जितना राग उतनी-उतनी संसार परिपाटी को चारित्र के कठिन श्रम से बचते हए मनगढन्त बातें गढ नटिके। क्यो कि जन-मत मे विरक्तता मात्र ही आत्म- ली है और उल्टे मार्ग पर चल । ली है और उल्टे मार्ग पर चल पड़े हैं-ससार के पदार्थों ज्ञान और मुक्ति का द्वार है। की असारता जैसी असलियत को जान कर उनमे विरक्ति हमारे पूर्व महापुरुषों ने वैराग्य भाव से आत्म-दर्शन लेने की बजाय परिग्रह समेटे हुए, अदृश्य-अरूपी आत्मा देखने दिखाने, पहिचानने-पहिचनवाने के व्यर्थ प्रयत्न मे पाया और मुक्ति मार्ग खोजा है । और आज वैराग्य-नाव लग पड़े है -जैसे वे परिग्रह की बढवारी करते ही अदृश्य को तिलांजलि दे... परिग्रह में लिपटे-लिपटे, परिग्रह बढ़ाते, आत्मा को पा लेगे और बिना चारित्र पालन किएइन्द्रिय विषयों में रत रहते --उनमे रस लेते हए, आत्म राग-भाव मे आत्मा को पा लेंगे? या इस भांति वे करो चर्चा करते सुनते-सुनाते आत्मा के साक्षात्कार कर लेने की के मार्ग, वीतरागत्व को मात दे देगे ? जो परिपाटी चल पड़ी है वह संसार पार कराने वाली नही-- वह तो लोगों को भुलावे में डालने का फरेब है। क्या करें? कोई सुनता नही और जैन की ऐसी दशा ऐसी मिथ्या परिपाटी ने तो जैनों की स्थूल व्यवहारी पहि- पर गेना आता है। सोचते है-एकांगो आत्म-चर्चा न चान कोही तिरोहित कर दिया है और बालको के नैतिक होती नो नैतिक स्तर-पवहार चारित्र तो बना सुधार के प्रयत्न के साथ अब युवा और वृद्धो के चारित्र- रहता। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वान नहीं मिलते: इनको खुश करने की बात और क्यों करेगा इनके मन लोग कहते हैं अब विद्वान् ही नही मिलते । हम कहते चीते माफिक ? वह तो सोचेगाहैं-विद्वानो को समझने वाले ही कहां कितने हैं ? जो त्वं राजा वयमप्युपासित गुरुः प्रज्ञाभिमानोन्नताः।' विद्वान तैयार हों? उक्त प्रसंग और अर्थ-युग के प्रभाव फलतः यह तो व्यापारी को सोचना होगा कि वह को जान पूर्व विद्वानों ने अपनी संतान को अपनी लाइन धर्म-रक्षण के लिए विद्वान की सहाय करे या धर्म-विद्या से मोडा और उनकी संतान प्रायः पाश्वात्य शिक्षा में को पैसे कमाने मे प्रयोग करने वाले की? हमारी समझ दक्ष बनी और मजे में हैं। यह अर्थ युग का ही प्रभाव है से समाज ने ठीक से नही समझा और विद्वानों का अभाव कि आज प्राय: कितने ही नो-सिखिए तक ठहराव कर, होता गया। यहां तक कि गत समय में कई स्वाभिमानी पूजा-पाठ, विवाह, प्रतिष्ठा और विधान से धार्मिक प्रकाण्ड विद्वान तक अभाव मे घुटते-घुटते दम तोड़ गए। कृत्य करा पैसा बटोरने के धन्दे में लगे है-जिनवाणी पर, धन्य है उन्हें और उनकी विद्वत्ता को जो बिके नहीं। को बेचना कहां तक उसकी विनय है, इसे सोचिए ? हमे समाज की उक्त दशा पर रोना आता है और दिल दूसरी ओर अर्थ-व्यवसायी हैं जो मर्जी माफिक कार्य कर की बात दिल से कहकर रो लेते हैं-सुनता कोई नहीं। देने के कारण इन धर्म-व्यवसाइयों को प्रभूत धन देने पर हम कई नेताओं को कहते रहे हैं-ठोस विद्वान् तैयार तुले है-ठीक ही है माफिक आचरण करने वाले को करने में धन लगाओ। पर, किसका ध्यान है और किसे कौन नहीं चाहता? फुर्सत है यश-अर्जन के सिवाय? भला, विद्वान में यह बातें कहाँ ? विद्वान क्यों कहेगा, 00 (पृ० ३० का शेषांश) जे निरवारि विसद्ध भये तन चेनि कर्म पूरातम गोभा। श्रो नमिनाय सदा शिव (सिउ) के गुन की वरनौं स कहा करि शोभा ॥२१॥ श्री नेमिनाथ स्तुति तैईसा-राजमती सो त्रिया तजि के पनि मोख वध सत्रिया को सिधारे। राज विभौ/भव) तजिकै सबही सब जीव निदान दऐ हितकारे । आतम ध्यान धरयो गिरिनारि पै कर्म कलंक सबै तिन्हि जारे । जादौं को वंस करो सब निर्मल जै (य) जगनाथ जगत्रय भारे ॥२२॥ श्री पाश्वनाथ स्तुत सवैया ३२--नाम को बड़ाई जाके पाहन सुपाई काह ताहि स्पर्श होहि कंचन सु लोह को। अचिरज कहा है तिन्हि को निज ध्यान धरै होत है विनास रागदोष अरु मोह को। तिन ही बतायो मोक्ष मारग प्रकटरूप पारिवे को कम चेतन विछोह को। देखो प्रभ पारस को परम स्वरूप जाने भयो सो करै या सुद्ध आतम की टोह को ॥२३॥ श्री धर्द्धमान स्तति सवैया-सकल सुरेस सीस नावत असुर ईस जाके गुन ध्यावत नरेस सर्व देस के। धोई मैल कम चार घातिया पवित्र भये थिर हो अकंप विर्षे आत्मा प्रदेस के । तारन समर्थ भवसागर त्रिलोकनाथ कर्ता अनूप सुद्ध धर्म उपदेस के। असे वर्द्धमान जू को बंदना त्रिकाल करौं दाता हमकौं सु होहु सुमति सदेस के ॥२४॥ सौजन्य : श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली विद्वान लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं । यह आवश्यक नहीं कि सम्पादक-मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with tbe Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन गसम्ब-प्रशास्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित पूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों पोर पं. परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य. परिचयात्मक प्रस्तावना से प्रलंकृत, सजिल्द । ... बनवम्ब-प्रशस्ति संग्रह, भाग २: अपभ्रंश के १२२ मप्रकाशित ग्रन्थों को प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह। पचपन प्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं.पं. परमानन्द शास्त्री । सजिल्दा १५... भवणबेलगोल और दक्षिण के प्रम्य जैन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... जैन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ सध्या ७४, सजिल्द । अन लक्षणावली (तीन भागों में):सं०५० बालबाद सिद्धान्त शास्त्री प्रत्येक भाग ४.... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पनचन्द्र शास्त्री, सात विषयों पर शास्त्रीय तकंपूर्ण विवेचन २-०० Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of Jain References.) In two Vol. Volume I contains 1 to 1044 pages, volume II contains 1045 to 1918 pages size crowa octavo. Huge cost is involved in its publication. But in order to provide it to each library, its library edition is made available only in 600/- for one set of 2 volume. 600-00 - सम्पादन परामर्शदाता : श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक : श्री पचन्द्र शास्त्रो प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीरसेवामन्दिर के लिए मुद्रित, गीता प्रिंटिंग एजेन्सी, डी०-१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५३ प्रिन्टेड पत्रिका बक-पंकिट Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिरका त्रैमासिक अनकान्त (पत्र-प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगवीर') वर्ष ४५ : कि० ३ जुलाई-सितम्बर १९९२ इस अंक में कम विषय १. उपदेशी-पद २. अकलंक देव की मौलिक कृति तत्त्वार्थवार्तिक -डा. रमेशचन्द्र जैन ३. संस्कृत जैन पम्पू और चम्पूकाव्य -डॉ. कपूरचन्द्र जैन ४. सांख्य और जैन दर्शन में ईश्वर -डा. सुदर्शन लाल जैन ५. नागदेव जैन मन्दिर नगपुरा -श्री नरेश कुमार पाठक ६. आ० कुन्दकुन्द और जैन दार्शनिक प्रमाण व्यवस्था -डा. कमलेश जैन, वाराणसी ७. कसाय पाहुड़ सुत्त (शुद्धि-पत्र) ८. जैन मुनि-चर्या-श्री बाबूलाल जैन, कलकत्ता वाले। ६. श्री शांतिनाथ चरित संबंधी साहित्य -कु. मृदुला कुमारी, बिजनौर १०. दिल की बात दिल से कही-और रो लिए -धी पपचन्द्र शास्त्री 'संपादक'. ११. विसंगतियां दूर कैसे हों -महासचिव वीर सेवा मंदिर कवर पृ. २ १२. संचयित शान-कण-श्रीमान्तीलाल जैन कागजी , ३ प्रकाशक: वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसंगतियाँ दूर कैसे हों ? हमारे एक प्रसिद्ध आचार्यश्री सभा को संबोधित कर रहे थे। उनकी प्रस्तुति मन को छने वाली थी। उन्होंने कहा-'आज चारों ओर हिंसा का बोलबाला है। जैन समाज शाकाहार के सार्वजनिक प्रचार में तो लगी है किन्तु आज जैनों को ही संबोधित करना पड़ रहा है कि वे स्वयं अण्डा, मांस, मदिरा और धूम्रपान आदि का सेवन न करें। जैनो को तो आठ मूलगुणधारी होना चाहिए। हमारे शास्त्रों में मद्य, मांस, मध और पांच उदुम्बर फलों के त्याग का तथा झंठ, चोरी, कुशोल और परिग्रह को कम करने का उपदेश है।' यह एक गम्भीर विषय है कि समाज में कहीं न कही, किसी न किसी रूप में ऐसी बराइयाँ हैं। हमारे समाज के कई बड़े नेताओं, प्रचारको ओर धर्मक्षेत्र के कई सामाजिक व्यक्तियों को रात्रि भोजन करते तक देखा जाता है और धूम्रपान तो साधारण-सी बात है। कहीं-कहीं अण्डे को शाकाहार की संज्ञा देकर उसके सेवन की परिपाटी भी बढ़ाई जा रही है। कुछ लोगों में धन को प्रचरता उन्हें पांच सितारा होटलों तक खींच रही है । विवाह आदि होटलों में होने लगे हैं। वहाँ शाकाहार का प्रबन्ध बताया जाता है, पर स्पष्ट देखा जा सकता है कि इन होटलों में भोजन बनाने, परोसने आदि के वर्तनों में भेद नहीं होता। इस प्रकार आचारहीनता की वद्धि धर्मलोप का स्पष्ट सकेत दे रही है। यदि ऐसी बराइयों को न रोका गया तो वह दिन भी हमें देखना पड़ सकता है कि यह पूछने पर मजबूर होना पड़े कि-क्या आप शाकाहारी जैन हैं ? । यदि आपारवान त्यागी, विद्वान, नेता इस ओर लक्ष्य दें और पत्रिकाएं ध्यान देकर निष्पक्ष ईमानदारी से प्रचार करें तो जैन का रक्षण संभव है। क्या कहें पत्रिकाओं के बारे मे? प्रायः कई पत्र-पत्रिकाएँ पक्षों को खोंचातानी में फंसो है। ऐसा भी व्यक्तिगत पत्रिकाएं हैं जा निजो स्वाथ और टेक मंग्क्षण में सार्वजनिक संस्थाओं पर भी व्यर्थ के मिथ्या कुठाराघात करती हैं। पिछले दिनों 'तीर्थकर' पत्रिका ने ही संस्था वीर सेवा मन्दिर को बदनाम करने के लिए कई लेख प्रकाशित किए और जब उन्हें वीर सेग मन्दिर से रजिस्टर्ड पोस्ट द्वारा सप्रमाण स्पष्टीकरण छपाने के लिए भेजा गया तो वे आज तक मंह छपाए हए हैं- हमारा स्पष्टीकरण नही छाप सके। हाला कि संपादक महोदय शाकाहार के प्रचार में लग्न हैं, पर हमें तो विशेष खेद हुआ 'तीथंकर' अगस्त ६२ के अंक में छपे अनुत्तर-योगी संबंधो सामग्रो के बेतुके कोकशास्त्र जैसे अश्लोल अशों को पढ़कर। कई लोगों ने हमें कहा भी और कइयों ने तो अंक के पृष्ठ २४-२५ हो फाड़ फेंके। (पाठक उन्हें पढ़कर देखें)। हमारा उद्देश्य किसो को बदनाम करना नहीं और ना हो 'तीर्थकर' की तरह कोई प्रतिशोध । ये तो एक हकीकत है जिसके प्रति खेद होना चाहिए। नेताओं, त्यागियों, प्रचारकों व धर्म प्रेमियों और पत्रकारों आदि को संयम व सचाई वृद्धि को दिशा में निःस्वार्थ भाव से सावधान हो, प्रवर्तन करना चाहिए। तभो विसंगतियाँ दूर हो सकती हैं। महासचिव : वोर सेवा मन्दिर Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न TIMUR - परमागमस्य बीजं निषिबजात्पन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वोर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण संवत् २५१८, वि० सं० २०४६ वर्ष ४५ । जुलाई-सितम्बर १९६२ किरण ३ । उपदेशी-पद मत राचो धो-धारी। भव रंग-थंम सम जानके, मत राची धी-धारो। जन्द्रजाल को ख्याल मोह ठग विभ्रम पास पसारी॥ चहंगति विपतिमयी जामें जन, भ्रमत भरत दुख भारी। रामा मा, मा बामा, सुत पितु, सुता श्वसा, अवतारो॥ को अचंभ जहाँ आप आप के पुत्रदशा विस्तारो। घोर नरक दुख ओर न छोर न लेश न सुख विस्तारी।। सुर नर प्रचुर विषय जुर जारे, को सुखिया संसारी। मंडल है अखंडल छिन में, नप कृमि, सधन भिखारी। जा सुत-विरह मरी ह बाधिनि, ता सुत देह विवारी॥ शिश न हिताहित ज्ञान, तरुन उर मदन बहन परमारी। वद्ध भये विकलंगो थाये, कोन दशा सुखकारो।। यो असार लख छार मव्य भट भये मोख-मग चारी। यातें होह उदास 'दौल' अब, भज जिनपति जगतारी॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतांक से आगे: अकलङ्कदेव की मौलिक कृति तत्त्वार्थवातिक डॉ रमेशचन्द जैन, बिजनौर वेद समीक्षा-प्रथम अध्याय के दूसरे सूत्र की समय अकलङ्कदेव ने प्रायः बौद्ध, न्याय-वैशेषिक और ध्याख्या में "पुरुष एवेदं सर्वम्" इत्यादि ऋग्वेद के पुरुष- सांख्य को दृष्टि मे रखा है, किन्तु इनमे भी बौद्ध मन्तव्यों सूक्त की पक्ति उद्धृत करते हुए कहा गया है कि ऋग्वेद की उन्होंने जगह-जगह आलोचना की है। इसका कारण मे पुरुष ही सर्व है, वही तत्त्व है। उसका श्रद्धान सम्यग- यह है कि उनके समय बौद्धधर्म जैनधर्म का प्रबल विरोधी दर्शन है। यह कहना उचित नहीं है; क्योंकि अद्वैतवाद मे धर्म था। बौद्धधर्म का मर्मस्पर्शी अध्ययन करने हेतु क्रिया-कारक आदि समस्त भेद-व्यवहार का लोप हो अकलङ्कदेव को छिपकर बौद्ध मठ मे रहना पड़ा था। जाता है। इस हेतु उन्हे अनेक कष्टो का सामना करना पड़ा, किन्तु आठवें अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या में बाद- वे दुःखों के बीच रहकर भी घबराए नहीं। बौद्ध शास्त्रों रायण, वसु, जैमिनि आदि श्रुतविहित क्रिया प्रो का अनु- का अध्ययन कर उन्होंने जगह-२ उनसे शास्त्रार्थ कर जैन ठान करने वालों को अज्ञानी कहा है; क्योंकि इन्होने दर्शन को विजय दुन्दुभी बजायी। उनको तर्कपूर्ण प्रतिभा प्राणिवध को धर्म का साधन माना है। समस्त प्राणियों को देखते हए उन्हें प्रकलङ्क ब्रह्म कहा जाने लगा। के हित के अनुशासन में जो प्रवृत्ति कराता है, वही आगम तत्वार्थवार्तिक के कतिपय स्थल हम उदाहरण रूप में हो सकता है, हिंसाविधायी वचनों का कथन करने वाले प्रस्तुत करते हैं। जिससे उनकी बौद्धविद्या में गहरी पंठ आगम नही हो सकते, जैसे दस्युजनों के वचन'। अनवस्थान की जानकारी प्राप्त होती है। होने से भी ये आगम नहीं हैं अर्थात् कही हिंसा और कही प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या मे कहा गया अहिंसा का परस्पर विरोधी कथन इनमे मिलता है। है कि यद्यपि बोद्ध रूप, वेदना, सजा, सस्कार और विज्ञान जैसे पूनर्वसू पहला है पुष्प पहला है, ये परस्पर विरोधी इन पांच स्कन्धों के निरोध से आत्मा के अभाव रूप मोक्ष वचन होने से अनवस्थित एवं अप्रमाण है, उसी प्रकार के अन्यथा लक्षण की कल्पना करते है। तथापि कर्मवेद भी कही पर पशुवध को धर्म का हेतु कहा है जैसे बन्धन के विनाश रूप मोक्ष के सामान्य लक्षण मे किसी एक स्थान पर लिखा है कि पशुवध से सर्व इष्ट पदार्थ भी वादी का विवाद नहीं है। बौद्ध कहते हैं कि अविद्या मिलते है। यज्ञ विभूति के लिए है, अतः यज्ञ में होने प्रत्यय संस्कार के प्रभाव से मोक्ष होता है। जनों का वाला वध अवध है। दूसरी जगह लिखा है कि 'अज', कहना है कि संस्कारों का क्षय ज्ञान से होता है कि किसी जिनमे अकूर उत्पन्न होने की शक्ति न हो, ऐसे तीन वर्ष कारण से ? यदि ज्ञान से संस्कारों का क्षय होगा तो ज्ञान पराने बीज से पिष्टमय बलिपशु बनाकर यज्ञ करना होते ही संस्कारों का क्षय भी हो जायगा और शीघ्र मुक्ति चाहिए, इस प्रकार हिंसा का खण्डन किया गया है । इस हो जाने से प्रवचनोपदेश का अभाव होगा। यदि सस्कार प्रकार ये वचन परस्पर विरोधी हैं, अतः अध्यवस्थित तथा क्षय के लिए अन्य कारण अपेक्षित है तो चारित्र के सिवाय विरोधी होने से वेदवाक्य प्रमाण नहीं हो सकते'। इस दूसरा कौन सा कारण है ? यदि संस्कारों का क्षय चारित्र तरह वेदवाक्य की प्रमाणता का तत्त्वार्थवार्तिक में विस्तृत से होता है तो ज्ञान से मोक्ष होता है, इस प्रतिज्ञा की खडन किया गया है। हानि होगी। बौद्धदर्शन समीक्षा-अन्य दर्शनों की समीक्षा करते पांचवें अध्याय के नौवें सूत्र की व्याख्या में कहा गया Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकलदेव की मौलिक कृति तस्वार्थवातिक है कि बौद्ध लोकधातुओं को अनन्त मानते हैं। अतः किया गया है कि विज्ञान मे सामर्थ्य का अभाव होने से आकाश के प्रदेशों को जैनों द्वारा पनन्त माने जाने मे मन विज्ञान नहीं है। क्षणिक वर्तमान विज्ञान पूर्व और कोई विरोध नहीं है। उत्तर विज्ञानों से जब कोई सम्बन्ध नही रखता, तब गुणपांचवें अध्याय के सत्रहवें सूत्र की व्याख्या मे कहा दोष विचार और स्मरणादि व्यापार में कैसे सहायक बन गया है कि कोई बौद्ध मानते है कि रूपण, अनुभवनिमित्त सकता है। ग्रहण, संस्कृताभिसंस्करण, आलम्बन और प्रज्ञप्तिस्वभाव पांचवें अध्याय के २२वें सूत्र की व्याख्या में कहा गया लक्षण रूप-वेदना, संज्ञा, सस्कार और विज्ञान ये पांच है कि क्षणिक एकान्तवाद में प्रतीत्यवाद को स्वीकार स्कन्ध हैं। उन भिन्न लक्षण वाले स्कन्धों में यदि एक करने से उसकी प्रक्रिया में जितना कारण होगा, उतना स्कन्ध के ही सर्व धर्मों की कल्पना करते है । यदि विज्ञान कार्य होगा, अत: उनके भी वृद्धि नही होगी। कि च सर्व के नही होने पर भी अनुभव आदि नहीं होते है, विज्ञान के क्षणिक होने से अकुर का और उसके अभिमत कारण के ही अनुभव आदि होते हैं। अत: एक विज्ञान को ही भौमरस, उदकरम आदि का विनाश होगा या पौर्वापर्य मानना चाहिए। उसी से ही रूपादि स्कन्धों का रूपण, (क्रम) से । यदि कार्य और कारणों का युगपत् नाश होता अनुभवन, शब्द प्रयोग और सस्कारादि कार्य हो जायेंगे है तो उनके द्वारा वृद्धि क्या होगी? क्योंकि वृद्धि के तो शेष स्कन्धों की निव'त्ति हो जाने पर निरालम्बन कारण जब स्वयं नष्ट हो रहे है, तब वे अन्य विनश्यमान विज्ञान की भी स्थिति नहीं रह सकती अर्थात् विज्ञान की पदार्थ की क्या वृद्धि करेंगे? अर्थात् विनश्यमान पदार्थ भी निवृत्ति हो जाने से सर्वशून्यता ही हाथ रह जायगी, अन्य विनश्यमान पदार्थ की वृद्धि करते हुए लोक मे नही परन्तु बौद्धों को पांच स्कन्धों का अभाव इष्ट नहीं है। देखे जाते । यदि कार्य-कारण क्रमशः नष्ट होते है, तब भी सभी वादी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष पदार्थ को स्वीकार नष्ट अकुर का भौमरस, उदकरस आदि म कर सकते करते हैं। इसके समर्थन में कहा गया है कि कोई (बौद्ध) है ? अथवा विनष्ट रसादि. अकुर का क्या कर सकेंगे ? कहते हैं कि प्रत्येक रूप परमाणु अतीन्द्रिय है। उनका अनेकान्तवाद में तो अकुर या भोमरसादि सभी पदार्थ समुदाय, जो कि अनेक परमाणु वाला है, वह इन्द्रियग्राह्य द्रव्यदष्टि से नित्य है और पर्यायष्टि से क्षणिक है । अतः है। चित्त और चैतसिक विकल्प अतीन्द्रिय" है। वृद्धि हो सकती है। अमूर्त धर्म, अधर्म भी उपकारक होते हैं। इसके कारणतुल्य होने से कार्यतुल्य होना चाहिए, ऐसा उदाहरण मे बौद्धों का यह सिद्धान्त उपस्थित किया गया करने में आगम विरोध आता कहने मे आगम विरोध आता है। क्योंकि बोट विद्यारूप है कि अमतं भी विज्ञान रूप की उत्पत्ति का कारण होता तुल्य कारणों से पुण्य-अपुण्य और अनुभय संस्कारो को है। नाम रूप विज्ञान निमित्तक है। उत्पत्ति मानते है । पांचवें अध्याय के अठारहवें सूत्र की व्याख्या मे कहा सल्लेखना पर बौद्धो द्वारा आपत्ति किये जाने पर गया है कि यदि कोई (बौद्ध) ऐसा कहे कि आकाश नाम कहा है कि सभी पदार्थ क्षणिक हैं, इस प्रकार कहने वाले की कोई वस्तु नही है, केवल आवरण का अभावमात्र है क्षणिकवादो के स्वसमय विरोध है, उसी प्रकार जब सत्त्व तो ऐसा कहना ठीक नहीं है। आकाश आवरण का अभाव (जीव) सत्त्व सज्ञा (जीव का ज्ञान), वधक (हिसक) और मात्र नहीं है, अपितु वस्तुभूत है; क्योंकि नाम के समान वधचित्त (हिंसा) इन चार चेतनाओ के रहने पर हिंसा उसकी सिद्धि है । जैसे नाम और वेदना आदि अमूर्त होने होती है, ऐसा कहने वाले (इस मतवादी) के जब आत्मसे अनावरण रूप होकर भी सत् हैं, ऐसा जाना जाता है, वधक चित्त ही नहीं है, तब सल्लेखना करने वाले के उसी प्रकार अमूर्त होने से अनावरण रूप होकर भी आत्मघात होता है। ऐसा कहने वाले के असचेतित कर्मआकाश वस्तुभूत है, ऐसा जाना जाता है। बन्ध का अभाव है और उसमे भी आत्मगत काप्दोष मेर ५वे अध्याय के १९वें सूत्र की व्याख्या में यह सिद्ध पर स्वसमय (स्ववचन) विरोध आता है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ वर्ष ४५ कि० ३ धनेकॉल सातवें अध्याय के ३१वें सूत्र की व्यख्या में दान के प्रसंग में कहा गया है कि प्रतिग्रह आदि क्रियाओं में आदर विशेष विधिविशेष है । सर्व पदार्थों को निरात्मक मानने पर विधि आदि रूप का अभाव हो जाता है । जिस दर्शन में निरात्मक (क्षणिक) है, उस दर्शन में विधि आदि की विशेषता नहीं हो सकती। यदि विधि आदि की विशेषता है तो सर्वभाव निरात्मक है। इस सिद्धान्त के व्याघात का प्रसङ्ग आता है । क्षण मात्र आलम्बन रूप विज्ञान में इस बात की सिद्धि नहीं होती। जब ज्ञान सर्वथा क्षणिक है, तब तप, स्वाध्याय और ध्यान में परायण यह ऋषि मेरा उपकार करेगा। इसके लिए दिया गया दान, व्रत, शील, भावना आदि की वृद्धि करेगा, इसकी यह विधि है। इस प्रकार का अनुसन्धान प्रत्यभि ज्ञान नहीं हो सकता; क्योंकि पूर्वोत्तर क्षण विषयक ज्ञान, संस्कार आदि के ग्राहक एक ज्ञान का अभाव है । अतः इस पक्ष में दानविधि नहीं बन सकती" । प्रथम अध्याय के छठे सूत्र की व्याख्या में अनेकान्तवांद का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि विज्ञानाद्वैतवादियों के सिद्धान्त मे बाह्य परमाणु एक नही है, किन्तु तदाकार परिचत विज्ञान ही परमाणु संज्ञा को प्राप्त होता है। ये ग्राह्याकार, ग्राहकाकार और संवेदनाकार इन तीन शक्तियों का अधिकरण एक विज्ञान को स्वीकार करते हैं। इसलिए अनेक धर्मात्मक एक वस्तु में विरोध नहीं है"। अन्यत्र कहा गया है कि जिसके सिद्धान्त से आत्मा ज्ञानात्मक ही रहता है— उसके सिद्धान्त में आत्मा के ज्ञानरूप परिणमन का अभाव होगा; क्योंकि ज्ञानरूप से वह स्वयं परिणत है ही, परन्तु जैन सिद्धान्त मे किसी पर्याय की अपेक्षा अन्य रूप से ही आत्मा का परिणमन माना जाय वा इतर रूप से ही परिणमन माना जाय तो फिर उस पर्याय का कभी विराम नहीं हो सकेगा। यदि विराम होगा तो आत्मा का भी अभाव हो जायगा " । अतवाद समीक्षाको (अद्वैतवादी इस्य को तो मानते हैं, किन्तु रूपादि को नहीं मानते। उनका यह कहना विपरीत है। यदि द्रव्य ही हो, रूपादि नही हो तो द्रव्य का परिचायक लक्षण न रहने से लक्ष्यभूत द्रश्य का हो अभाव हो जायगा । इन्द्रियों के द्वारा सन्निकृष्यमाण द्रव्य का रूपादि के अभाव में सर्व आत्मा (अखण्ड रूप से ) ग्रहण का प्रसङ्ग आएगा; और पांच इन्द्रियों के अभाव का प्रसङ्ग आएगा; क्योंकि द्रव्य तो किसी एक भी इन्द्रिय से पूर्ण रूप से गृहीत हो ही जायगा । परन्तु ऐसा मानना न तो इष्ट ही है मोर न प्रमाण प्रसिद्ध ही है अथवा जिनका सिद्धान्त है कि रूपादि गुण ही है, द्रम्य नहीं है। उनके मत में निराधार होने से रूपादि गुणों का भी अभाव हो २० आयगा । उपर्युक्त वादों की समीक्षा के साथ जैन दार्शनिक मान्यताओं का समर्थन अकलङ्कदेव ने प्रवल युक्तियों द्वारा किया है। इस दृष्टि से प्रथम अध्याय के छठे सूत्र की व्याख्या में सप्तभङ्गी का निरूपण, हवें से १३वें सूत्र तक ज्ञानविषयक विविध विषयो की आलोचना, अन्तिम सूत्र की व्याख्या में ऋजुसूत्र का विषयनिरूपण, द्वितीय अध्याय के वें सूत्र की व्याख्या में आत्मनिषेधक अनुमानों का निराकरण, चतुर्थ अध्याय के अन्त मे अनेकान्तवाद के स्थापन पूर्वक नवसप्तमी और प्रमाणसप्तभंगी का विवे चन, पाँचवें अध्याय के २४वें सूत्र की व्याख्या मे स्फोटवाद का निराकरण २२ सूत्र की व्याख्या में अपरिणामवादियों द्वारा परिणामित्य पर आए दोषों का निराकरण, व्यासभाष्य के परिणाम के लक्षण की आलोचना तथा क्रिया को ही काल मानने वालों का खण्डन दर्शनशास्त्र के महत्वपूर्ण विषय है" । आगमिक वैशिष्ट्य तत्त्वार्थसूत्र में आगमिक मान्यताओ को निबद्ध किया गया है । टीकाकारो ने इन सूत्रों की व्याख्या युक्ति और शास्त्र के आधार पर की है। अकलङ्कदेव का तत्त्वार्थवार्तिक भी इसका अपवाद नहीं है । प्रथम अध्याय के ७वें सूत्र की व्याख्या में निर्देश, स्वामित्व प्रादि की योजना की गई है। प्रथम अध्याय के २० वें सूत्र की व्याख्या में द्वादशांग के विषयों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है । आगम में ३६३ मिथ्यामत बतलाए गए हैं। तत्त्वार्थवार्तिक मे वें अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या में ३६३ मतों का प्रतिपादन इस प्रकार है Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पकलदेव की मौलिक कृति तस्वार्थवातिक परोपदेश से होने वाला मिध्यादर्शन क्रियावादी, हैं। जैसेअक्रियावादी, अज्ञानी और वैनयिक मत के भेद से चार ज्ञानवान में मतुप् प्रत्यय प्रशंसा अर्थ में है। क्योंकि प्रकार का है। कौक्कल, काण्डविद्धि, कोशिक, हरि, ज्ञानरहित कोई आत्मा नही है। जैसे कहा जाता है कि श्मश्रवान्, कपिल, रमेश, हारित, अश्वमुण्ड, आश्वलायन यह रूपवान् है। रूप में मनप् प्रत्यय प्रशंसा अर्थ में है। आदि के विकल्प से क्रियावादी मिथ्यादृष्टियों के चौरासी क्योंकि रूपरहित कोई पुद्गल नहीं है। भेद हैं। मरीचि, कुमार, उलूक, कपिल, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, विभक्त कर्ता और अविभक्त कर्ता के भेद से करण वाटलि, माडर, मौद्गल्यायन आदि दर्शनों के भेद से दो प्रकार के हैं। जिसमे करण और कर्ता पृथक-पृथक अक्रियावादियों के १८. भेद हैं। साकल्य, वाकल, कुथुमि, होते हैं, उसे विभक्त कर्तृक (करण) कहते है । जैसेसात्यमुग्नि, चारायण, काठ, माध्यन्दिनी, मौद, पप्पलाद, "देवदत परशु से वृक्ष को काटता है", इसमे परशु बादरायण, स्विष्टिकृत, ऐतिकायन, वसु, जैमिनि आदि (कुल्हाडी) रूप करण देवदत्त रूप कर्ता से भिन्न है। मतों के भेद से अज्ञानवाद मिथ्यात्व के सडसठ भेद हैं। जिसमें कर्ता से अभिन्न करण होता है, उसको अविभक्त वशिष्ठ, जतु कर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षिण, सत्यदत्त, व्यास, कर्तृक (करण) कहते हैं । जैसे उष्णता से अग्नि इंधन को ऐलपुत्र, उपमन्यव, इन्द्रदत्त, अपस्थलादि मार्ग के भेद से जलाती है इममे उष्णता रूप करण अग्नि रूप कर्ता से वैनयिक मिथ्यात्व के बत्तीस भेद हैं। इस प्रकार ३६३ अभिन्न है। इसी प्रकार आत्मा ज्ञान के द्वारा पदार्थों को मिथ्या मतवाद है। जानता है-यह अविभक्तकर्तृक करण है; क्योकि उष्णता यही कहा गया है कि आगम प्रमाण से प्रारिणवध को की अग्नि से और ज्ञान की आत्मा से पृथक् सत्ता ही नहीं धर्म का हेतु सिद्ध करना उचित नही है। क्योंकि प्राणिवध अथवा कशल के स्वातन्य के समान FREE मे जाना का कथन करने वाले ग्रन्थ के आगमत्व की असिद्धि है". जाता है। जैसे देवदत्त कूशन को तोड़ रहा है-इसमे १-२१-२२ की व्याख्या मे अवधिज्ञान का विषय, २-७ की कुशल की भेदन किया मे जब स्वतन्त्रता की विवक्षा की व्याख्या मे सन्निपातिक भावो की चर्चा, २-४६ की जाती है, तब कुशल म्वय ही नष्ट हो रहा है। क्योंकि व्याख्या में शरीरों का तुलनात्मक विवेचन, तीसरे अध्याय भेदन क्रिया तो कुशूल मे हो रही है, तब कुशल स्वयं ही की व्याख्या मे अधोलोक और मध्यलोक का विस्तृत वर्णन, कर्ता और स्वयं ही करण बन जाता है। उसी प्रकार ४-१६ की व्याख्या में स्वर्गलोक का विवेचन, पांचवें आत्मा ही ज्ञाता और ज्ञान होकर कर्ता एव करण रूप अध्याय की व्याख्या में जैनो के षद्रव्यवाद का निरूपण, बन जाता है। अर्थात् आत्मा ज्ञान के द्वारा जानता है, छठे अध्याय में आस्रव, सातवे में जैनाचार, आठवें मे इसमे अभिन्न कर्ता-करण है कर्मसिद्धान्त, नवे मे मुनि आचार तथा ध्यान तथा दसव प्रात्मा और ज्ञान में कर्त्तापना मान लेने पर लक्षण मे मोक्ष का विवेचन अवलोकनीय है। का अभाव होगा-ऐसा कहना उचित नहीं है-बाहव्याकरणिक वैशिष्टय लकता होने से। अकलङ्कदेव व्याकरण शास्त्र के महान विद्वान थे। प्रश्न-कर्ता और कर्म मे एकता मानने पर लक्षण पाणिनीय व्याकरण तथा जैनेन्द्र व्याकरण का उन्होंने का अभाव होगा; क्योकि 'युट्' प्रत्यय होता है। भली भांति पारायण किया था। व्युत्पत्ति और कोश उत्तर-ऐसा कहना योग्य नही है क्योंकि व्याकरण ग्रन्थों का उनका अच्छा अध्ययन था। तत्त्वार्थवातिक में शास्त्र में कहे गये 'युट' और 'णिच्' प्रत्यय कर्ता आदि स्थान-स्थान पर सूत्रो एवं उसमे आगत शब्दो का जब वे सभी साधनो से पाये जाते हैं। भाव कम में कहे गये 'त्य' व्याकरण की दृष्टि से औचित्य सिद्ध करते है, तब ऐसा प्रत्यय करणादि में देखे जाते हैं। जिससे स्नान करता हैलगता है, जैसे वे शब्दशास्त्र लिख रहे हो। इस प्रकार स्नानीय चूर्ण, जिसके लिए देता है-वह दानीय अतिथि, के सैकड़ों स्थल प्रमाण रूप मे उद्धृत किए जा सकते समावर्तन किया जाता है, वह समावर्तनीय गुरु कहलाता Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ४५, कि. ३ अनेकास है। इसी प्रकार करणाधिकरण और कर्मादि में युट् प्रत्यय आठवें सूत्र की व्याख्या में मन्तर शब्द के अनेक अर्थ दिये देखा जाता है। जैसे-खाता है, वह निरदन, प्रस्कन्दन गये हैं । अन्तर शब्द छेद, मध्य, विरह आदि अनेक अर्थों जिससे होता है वह प्रस्कन्दन इसी प्रकार सातों ही विभक्ति में हैं। उनमे से अन्यतम ग्रहण करना चाहिए। अन्तर से होने वाले शब्दों में युट प्रत्यय होता है"। शब्द के अनेक अर्थ हैं। यथा-सान्तरं, काष्ठं में अन्तर एक ही अर्थ मे शब्दभेद होने से व्यक्तितभेद देखा छिद्र अर्थ में है अर्थात् छिद्र सहित काष्ठ है। 'द्रव्याणि जाता है। जैसे कि 'गेहं कुटी मठः' यहाँ एक ही घर रूप धान्त रमारभते' यहाँ अन्तर शब्द अभ्य अर्थ में है अर्थात् अर्थ में विभिन्न लिंग वाले शब्दों का प्रयोग है। पुष्यः, द्रव्यान्तर का का अर्थ अन्य द्रव्य है । 'हिमवत्सागरान्तरे' तारका, नक्षत्रम्', यहाँ एक ही तारा रूप अर्थ मे विभिन्न इसमे अन्तर शब्द का अर्थ मध्य है अर्थात् हिमवान पर्वत लिगक और विभिन्न वचन वाले शब्दों का प्रयोग है। और सागर के मध्य में भरत क्षेत्र है। क्वचित समीप अर्थ इसी प्रकार ज्ञान शब्द विभिन्न लिंग वाला होते हुए भी मे अन्तर शन्द आता है। जैसे-स्फटिक शुक्लरक्ताद्यन्तरआत्मा का वाचक है। स्थस्य तद्वर्णता, श्वेत और लाल रंग के समीप रखा हुआ 'दर्शन ज्ञान चारित्राणि' में तीनो को प्रधानता होने स्फटिक । यहाँ अन्तर का अर्थ समीप है। कही पर से बहुवचन का प्रयोग किया गया है। जैसे-'प्ल क्षन्न- विशेषता भर्थ मे भी अन्तर शब्द का प्रयोग आता है। प्रोधपलाशाः' इसमे अस्ति आदि समान काल क्रिया वाले जैसे--'घोड़ा, हाथी और लोहे में , 'लकड़ी, पत्थर और प्लक्षादि के परस्पर अपेक्षा होने से और सर्व पदार्थ प्रधान कपड़े में', स्त्री-पुरुष और जल में अन्तर ही नही महान् होने से इतरेतर योग मे द्वन्द्व समास और बहुवचन का अन्तर है। यहा अन्तर शब्द वैशिष्ट्यवाचक है। कही पर प्रयोग है। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में बहियोग में अन्तर शब्द प्रयुक्त होता है। जैसे-'ग्रामअस्ति आदि समान क्रिया, काल और परस्पर सापेक्ष होने स्यान्तरे कूपाः' मे बाह्यार्थक अन्तर शब्द है अर्थात् गांव से इतरेतर द्वन्द्व और सर्वपदार्थ प्रधान होने से बहुवचनान्त के बाहर कुयें हैं। कही उपसंख्यान अर्थात् अन्तर्वस्त्र के का प्रयोग किया गया है। अर्थ में अन्तर शब्द का प्रयोग होता है, यथा 'अन्तरे ____ जि' के समान सम्यक् विशेषण की परिसमाप्ति शारकाः'। कही विरह अर्थ मे अन्तर शब्द का प्रयोग प्रत्येक के साथ लगाना चाहिए अर्थात् द्वन्द समास के होता है। जैसे-'अनभिप्रेत श्रोतृ जनान्तरे मन्त्रयते' साथ कोई भी विशेषण चाहे वह आदि में प्रयुक्त हो या अर्थात् अनिष्ट व्यक्तियों के विरह में मन्त्रणा करता है। अन्त मे, सबके साथ जुड़ जाता है। जैसे-गुरुदत्त, देव इस प्रकरण मे छिद्र, मध्य और विरह में से कोई एक दत्त, जिनदत्त को भोजन कराओ, इसमे भोजन क्रिया का अर्थ लेता तीनों मे अन्वय हो जाता है। वैसे ही प्रशसावचन सम्यक अनुपहत वीर्य का अभाव होने पर पुनः उसकी उद्शब्द का अन्वय दर्शनादि तीनो के साथ होता है-सम्यग- मसि होना अनर है। किसी समर्थ द्रव्य की किसी निमित्त दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र"। से अमुक पर्याय का अभाव होने पर निमित्तान्तर से जब उपर्यक्त उदाहरण प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र के हैं। तक वह पर्याय पुनः प्रकट नही होती, तब तक के काल परे तत्त्वार्थवातिक में इस प्रकार की सैकड़ो चर्चायें हैं। को प्रातर करते र विशेष अध्ययन करने वालों को इन्हें ग्रन्थ से दखना अन्त शब्द के मनेक अर्थ होने पर भी 'वनस्पत्यन्ताचाहिए । इससे अकलदेव का व्याकरण के सभी अङ्गों नामेकम्' में विवक्षा वश समाप्ति अर्थ ग्रहण करना का तलस्पर्शी ज्ञान सूचित होता है। चाहिए। यह अन्त शब्द अनेकार्थवाची है। कहीं अन्त शब्दों के अनेक अर्थ शब्द अवयव अर्थ में आता है। जैसे-वस्त्र का अन्त शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं, इसके उदाहरण तत्त्वार्थ- अर्थात् वस्त्र का एक अंश । कही सामीप्य अर्थ मे आता वातिक में अनेक मिल जायगे। जैसे-प्रथम अध्याय के है। 'उदकान्तं गतः' पानी के समीप गया। कही अवसान Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकलखेवको मौलिक कृति तत्त्वावातिक में आता है । जैसे-'संसारान्तं गतः' ससार का अन्त हो अर्थ का ज्ञान । कहीं सत्यता में आता है। जैसे-'प्रत्ययं गया। कु इसमें सत्य करो, यह अर्थ होता है। क्वचित् कारण __ अन शब्द भोजन, सेवन तथा खेलने के अर्थ में आता अर्थ मे प्रत्यय शब्द आता है-'मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये प्रत्यय हैं अर्थात् कर्मादान में प्रत्यय शब्द के अनेक अर्थ होने पर भी 'लब्धिप्रत्ययं कारण है । इस सूत्र में प्रत्यय शब्द कारण का पर्यायवाची च' सूत्र में हेतु अर्थ में लेना चाहिए। क्वचित् ज्ञान अथं जानना चाहिए"। मे प्रत्यय शब्द आता है। जैसे-'अर्थाभिधान प्रत्यया -बिजनौर (उ० प्र०) सन्दर्भ-सूची १. तत्त्वार्थवार्तिक १।२।२४. १६. वही ७।२२।१०. २. वही ८।१।१३. १७. वही ॥३६७-८. ३. वही ८११२-१४. १८. वही ११६।१४. ४. वही ८।१।१५-२७. १६ वही २।।१२. ५. अन्ये अन्यथालक्षणं मोक्ष परिकल्पयन्ति-रूपवेदना २०. वही १॥३२॥३. संज्ञा सस्कार विज्ञान पञ्चस्कन्धनिरोधादभावो मोक्षः २१. न्याय कुमुदचन्द्र : प्रस्तावना पृ० ४४. इति । त० व.तिक। २२. तत्त्वार्थ वा. ८१८-१२. २३. वही ८।१।१३. ६. अविद्याप्रत्ययाः संस्काराः इत्यादिवचनं केषाञ्चित् । २४. न्यायकुमुदचन्द्र : प्रस्तावना पृ. ४४. वही १९११४६. २५. तत्त्वार्थवातिक १।१३. ७. तत्त्वार्थवार्तिक ११०५२. २६. वही १।१२१-२२. ८. केचित्तावदाहुः 'अनन्ता लोकधातवः' वही श६४. २७. वही १३२२५. ६. वही ॥१७॥२३. २८. वही ११॥२७. १०. वही ५॥१७॥३४॥ २६. वही ११॥३४. ११. वही ॥१७४१. ३०. वही ११०५. १२. वही ५१८।११. ३१. वही १८७-८, १३. वही ५।१६।३२. ३२. वही १.२२।१. १४. वही ५।२२।१५. ३३. वही २।२३।४. १५. वही ६।१०।११. ३४. वही २१४७११. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतांक से आगे : संस्कृत जैन-चम्पू और चम्पूकार ___ डॉ० कपूरचन्द जैन सूक्त्ये तेषां भवभीरवों ये, गृहाश्रमस्याश्चरितात्मधर्माः। सूरि से अहंद्दास जी ने उपदेश ग्रहण कर उन्हें गुरू मान त एव शेषाश्रमिणां सहाय्या, धन्याः स्युराशाधरसूरिमुख्याः॥ रखा था, यह प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता। क्योंकि सूक्ति उक्त पद्य के आधार पर डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने और उक्ति का अर्थ रचना-बद्ध ग्रन्थ-सन्दर्भ का भी हो लिखा है कि 'इस पद्य में प्रकारान्तर से आशाधर की सकता है। प्रशसा की गई है और बताया गया है कि गृहस्थाश्रम मे हमारे अनुमान से यह उचित प्रतीत होता है कि रहते हुए भी वे जैन धर्म का पालन करत थे तथा अन्य आशाधर के अन्तिम समय अर्थात् वि. स. १३०० में आश्रमवासियों की सहायता भी किया करते थे। इस पद्य अहंद्दास आशाधर जी के पास पहुंचे होंगे और एक-दो वर्ष में आशाधर की जिस परोपकार वृत्ति का निर्देश किया नाशि किया साक्षात् शिष्यत्व प्राप्त कर उनके धर्मामत से प्रभावित होकर काव्य रचना में प्रवृत्त हुए होंगे। गया है, उसका अनुभव कवि ने सम्भवतः प्रत्यक्ष किया है अर्हद्दास के काल निर्धारण में भी आशाधर और और प्रत्यक्ष में कहे जाने वाले सद्वचन भी सूक्ति कहलाते अजितसेन (अलकार चिन्तामणि के कर्ता अजितसेन) हैं, अतएव बहुत सम्भव है कि अहंदास आशाधर के समकालीन हों'। कैलाश चन्द्र शास्त्री ने भी उक्त आधार महत्वपूर्ण मानदण्ड है । अर्हद्दास ने अपनी कृतियों में आशापर का नामोल्लेख जिस सम्मान और श्रद्धा से किया पर अहंदास का आशाधर के लघु-समकालीन होने का है उससे तो इस अनुमान के लिए पर्याप्त आधार मिलता अनुमान किया है। किन्तु इस सन्दर्भ मे प० नाथूराम है कि वे आशाधर के साक्षात् शिष्य रहे होंगे। किन्तु प्रेमी और प० हरनाथ द्विवेदी के मतों को दृष्टि ओझल आशाधर ने अपने ग्रन्थों में जिन आचार्यों और कवियो का नहीं किया जा सकता । प्रेमी जी ने लिखा है कि 'इन पद्यो उल्लेख किया है, उनमे अहंदास का उल्लेख नहीं है । यहाँ मे स्पष्ट ही उनकी सूक्तियों या उनके सद्ग्रन्थो का ही तक कि उनको अन्तिम रचना 'अनगार धर्मामत की टीका' संकेत है, जिनके द्वारा प्रदास जी को सन्मार्ग की प्राप्ति मे अहंदास या उनके किसी ग्रन्थ का कोई उल्लेख नहीं हुई थी। गुरू शिष्यत्व का नही। इसी प्रकार माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला से प्रकाशित 'पुरुदेव चम्पू' इससे इतना तो निविवाद सिद्ध है कि वे आशाधर के सम्पादक पं० जिनदास शास्त्री फडकुले के मत पर नजर के पश्चात्वर्ती हैं। साथ ही आचार्य अजितसेन ने अपनी कटाक्ष करते इए प० हरनाथ द्विवेदी ने लिखा है-“पुरु 'अलकार चिन्तामणि' मे जिनसेन, हरिचन्द्र, वाग्भट आदि देव चम्पू" के विज्ञ सम्पादक फडकुले महोदय ने अपनी के साथ ही अहंदास के 'मुनिसुव्रत काव्य' के अनेक श्लोक पाण्डित्यपूर्ण भूमिका मे लिखा है कि उल्लिखित प्रशस्तियो उदाहरण स्वरूप दिये हैं। मुनिसुव्रत काव्य के प्रथम सर्ग से कविवर अहंदास पण्डिताचार्य आशाधरजी के समकालीन का दूसरा श्लोक अलकार चिन्तामणि (भारतीय ज्ञानपीठ निविवाद सिद्ध होते है। किन्तु कम से कम मै आपकी सस्करण) के पृष्ठ १२३, १५३ तथा २६६ पर उदाहरण इस समय निर्णायक सरणी से सहमत हो, आपकी निवि स्वरूप दिया गया है । इसी प्रकार १/३४, २/३१, २/३२ वादिता स्वीकार करने में असमर्थ हूं। क्योंकि प्रशस्तियों तथा २/३३ श्लोक अलकार चिन्तामणि के क्रमशः पृष्ठ से यह नहीं सिद्ध होता कि आशाधर जी की साक्षात्कृति २०५२ २०५, २२८ तथा २११ पर दिये गये हैं। अहंदास जी को थी कि नही। सूक्ति और जक को इससे यह स्पष्ट है कि अर्हदास आचार्य अजितसेन से अधिकता से यह अनुमान करना कि साक्षात् आशाधर पूर्ववर्ती हैं। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत न चम्मू और चम्पूकार सौभाग्य से आशाधर के काल निर्धारणार्थ अधिक जैन (वीरसागर महाराज संघस्थ) ने वीर नि०सं० २४७६ महीं भटकना होगा, उन्होने अपनो अन्तिम रचना 'अनगार में प्रकाशित किया है, के प्राक्कथन में तत्कालीन जैन धर्मामत की टीका' वि० सं० १३०० मे पूर्ण की थी। गजट के सम्पादक प० इन्द्रलाल जैन ने पिता की मृत्यु के अत: उनका रचना काल ई. की १३वीं शती का पूर्वाधं समय उनकी आयु ७ वर्ष बतागी है" जो प्रान्त है। यतः निश्चित है। अजितसेन का रचना काल डा० नेमिचन्द्र लेखक स्वय मुनि ज्ञानसागर ग्रन्थमाला ब्यावर के शास्त्री ने वि० स० १३०७-१३१७ तथा डा. ज्योति प्रकाशक पं. प्रकाशचन्द जैन से मिला और उन्होंने १० प्रसाद जैन ने १२४०-१२७० ई. (१२९२-१३२७ वि० वर्ष की अवस्था ही ठीक बताई। स०) माना है। पिता की मृत्यु के बाद इन्हें जीविकोपार्जनाथं बाहर आशाघर और अजितसेन के मध्यवर्ती होने के कारण जाना पड़ा। वे बड़े भाब के साथ गया जाकर काम सीखने अहंदास का समय १३वी शताब्दी ई. का मध्यभाग लगे, यहीं बनारस के कुछ छात्रों से परिचय हो जाने से मानना समीचीन होगा। आप स्याद्वाद महाविद्यालय में आ गये और बिना परीक्षा पुरुदेव चम्पू के १० स्तबको में तीर्थंकर ऋषभनाथ । के ही सभी म त्वपूर्ण ग्रन्थों को पढ़ डाला, वे शाम को और उनके पूर्व भवों का चित्रण है। प्रारम्भ के तीन गमछे बेचकर विद्यालय में अपना भोजन खर्च जमा स्तबकों मे उनके १० पूर्वभवों का चित्रण है। अन्तिम कराते थे। कुलकर नाभिराय का ऋषभदेव पुत्र हुमा । (चतुर्थ स्तब्ध) अध्ययनोपरांत गांव में दुकानदारी करते हुए जैन देवताओं ने जन्मकल्याणक मनाया (पचम स्तब्ध) यश- पाठशाला में नि.शुल्क पढ़ाया तथा आजीवन ब्रह्मचारी स्वती और सुनन्दा से उनका विवाह हुआ तथा १०१ पुत्र रहे। वि० सं० २००४ में मुनिदीक्षा ग्रहण की। २०२६ व २ पुत्रियाँ दोनो रानियों से हुई। (षष्ठ स्तबक) पुत्रो मे नसीराबाद (राजस्थान) मे समाधिमरण पूर्वक स्वर्गको यथायोग्य उपदेश देकर उन्होने दीक्षा ले ली, (सप्तम वास हा। नसीराबाद में प्रापकी स्मृति में एक स्मारक स्तबक) १ वर्ष की कठोर साधना के बाद हस्तिनापुर में बनाया गया है। राजा श्रेयांश ने उन्हें सर्वप्रथम इक्षरम का आहार दिया। मुनि श्री विलक्षण प्रतिभा के धनी थे उन्होंने हिन्दी (अष्टम स्तबक) पुत्र भरत ने दिग्विजय यात्रा की। और संस्कृत में लगभग २१ ग्रन्थों का प्रणयन किया। (नषम स्तबक) भरत बाहुबलि का युद्ध हुआ तथा बाहु- सस्कृत रचनाओ मे ३ महाकाव्य, १ खण्डकाव्य, १ चम्पू, बलि, भगवान, भरतादि ने मोक्षपद पाया । अन्तिम मगल १ शतक तथा १ छायानुवाद है। के साथ काव्य समाप्ति (दशम स्तबक)। महाकाव्य जयोदय जयकुमार सुलोचना की कथा दयोदय चम्पू: वीरोदय भगवान महावीर की कथा दयोदय चम्पू के रचयिता मुनि श्री ज्ञानसागर महा सुदर्शनोदय सेठ सुदर्शन की शील कथा राज का गृहस्थावस्था का नाम भूरामल था। पिता का खण्ड काव्य भद्रोदय" सत्य का प्रभाव दिखाने वाली नाम चतुर्भुज और माता का नाम धृतवरी देवी था। सत्यघोष की कथा। जन्म जयपुर के समीप राणोली (वर्तमान सीकर जिला) चम्पूकाव्य दयोदय मगसेन धीवर की कथा ग्राम में द्वावडा गोत्रीय खण्डेलवाल जैन परिवार मे हमा शतक मुनि मनोरजन था। ये पांच भाई थे। पिच चतुर्भज की मृत्यु के समय शतक मुनियों के कर्तव्य वि० सं० १९५६ में भूरामल की आयु १० वर्ष की थी। छायानुवाद प्रवचनसार कुन्दकुन्द के उक्त ग्रन्थ का प्रतः इनका जन्म समय १९४८ वि० सं० है ऐसा सटीक (प्रतिरूपक) श्लोक बड अनुवाद । 'जयोदय" 'दयोदय' 'वीरोदय" आदि ग्रन्थों से पता दयोदय की कथावस्तु लम्बों में बंटी है, धार्मिक चलता है। किन्तु मूल 'जयोदय' जो ब्रह्मचारी सूरजमल काव्यों की तरह इसका उद्देश्य भी कथा के बहाने हिंसा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०, वर्ष ४५, कि० ३ का महत्व बताना है। कथा का मूल यद्यपि 'यशस्तिलक' तथा वृहत्कथाकोष में पाया जाता है पर उसमें पर्याप्त परिवर्तन और परिवर्धन है । अंगी रस शान्त है और नैषध की तरह प्रत्येक लम्ब के अन्त में लम्ब प्रशस्ति दी गई है। विषय के आधार पर सर्गों के नाम भी दिये गये हैं। थे। दयोदय में गये प्रमाणो से कुछ नवीन पचनस्यादि महाराज श्री प्रखर पाण्डित्य के धनी स्थान-स्थान पर वेद उपनिषदादि के दिये यह स्पष्ट है, सूक्तियों का तो यह भण्डार है। रामों की रचना भी महाराज श्री ने की है" की कथाएं भी यहाँ देखी जा सकती है । कथावस्तु इस प्रकार है। उनमें गुणवाल सेठ रहता था, जिसकी पुत्री का नाम दिया था। दो मुनिराजों ने एक बालक (सोमदत्त) को कूड़े के ढेर के पास खा बडे मुनि ने कहा कि यह विषा का पति होगा। तथा उसकी कथा इस प्रकार कही - यह पहले मृगसेन धीवर था, मुनि से पहली मछली न पकड़ने के व्रत से यहाँ के सेठ का पुत्र हुआ है मृगसेन की पत्नी विधा हुई है (प्रथम द्वितीय लम्ब) गुणपाल ने यह सुना तो उसे मारने का प्रयत्न करने लगा । पहले उसने चाण्डाल के द्वारा (तृतीय लम्ब) फिर पत्र भेजकर (चतुर्थ लम्ब) अनन्तर चण्डी के मन्दिर में मरवाने का प्रयत्न किया, पर सोमदत्त बचा रह गया, उल्टे उसका सगा पुत्र मारा गया और विषा का विवाह भी सेठ की अनुपस्थिति में उसके पुत्र ने सोम दत्त से कर दिया (पंचम लम्ब) । सेठ सेठानी ने विषमिश्रित लड्डुओं से उसे मारना चाहा पर बदले में वे दोनों मारे गये (षष्ठ लम्ब) रहस्य खुलने पर राजा ने भी अपनी पुत्री और आधा राज्य सोमदत्त को दिया। अन्त में सोमदत्त ने दीक्षा लेकर मोक्ष पद पाया । अन्तिम मंगल के साथ काव्य समाप्ति । महावीर तोथंकर चम्पू" : - महावीर तीर्थङ्कर चम्पू के रचयिता श्री परमानन्द वैद्य रत्न ( पाण्डेय) हैं । महावीर के २५०० वें निर्वाणोत्सव पर पाण्डेय जी ने यह काव्य रचा है। श्री पाण्डेय का परिवार राजकुल से सम्बन्धित रहा। वदरिकाश्रम (गढ़वाल) के जैन मन्दिर में आने जाने के कारण वे जैन अनेकान्स धर्म से प्रभावित हुए" वर्तमान में वे दिल्ली बासी हैं। श्री पाण्डेय मुनि विद्यानन्द जी के साथ वदरीनाथ की यात्रा में गये थे। लेखक ने आयुर्वेद सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ लिखे हैं । उनकी महत्वपूर्ण चम्पू रचना 'गणराज्य चम्पू' है, जो भारतीय गणतन्त्र की रजत जयन्ती के उपलक्ष्य में लिखा गया था । उक्त चम्पू मे संस्कृत के साथ ही हिन्दी अनुवाद (गद्यपद्यमय) दिया गया है । कथावस्तु को यद्यपि कवि ने बांटा नहीं है पर प्राक्कथन लेखक डा० कर्णसिंह के अनु सार इसके पूर्वार्ध में २४ तीर्थंकरों ओर उत्तराधं में महावीर का चरित्र वर्णित है । ग्रन्थारम्भ में दिल्ली मे लाल किले पर २५०० वें निर्माणोत्सव पर हुई दिगम्बरो और श्वेताम्बरों, स्थानक वासियों की गोष्ठी की चर्चा आगे, दिल्लीस्य लालकिले की स्थापना, तीर्थङ्करों का तीर्थंङ्करत्व एवं उनका संक्षिप्त परिचय दिया गया है। पुस्तक के १/३ भाग में मात्र कथा की उपस्थापना है । आगे १/३ भाग मे महावीर का चरित्र चित्रित है। शैली आधुनिक है तथा दिगम्बर और श्वेताम्बरों के मतभेदों का भी जगह-जगह उद्घाटित किया गया है। आधुनिक संस्कृत गीतिकाओ के लगभग ५ गीत दिये गये हैं तथा सुकरात, जग्मुस्त कथ्यूशिय आदि के समान महावीर को कान्तिवाहक बताया गया है। आगे १/३ भाग में जैनधर्म, देशभूषण महाराज सुपार्श्वनाथ पंचक, मुनि विद्यानन्द, सुशीलकुमार, ० कुमारी कौशल आदि का परिचय दिया गया है । अन्त में कहा गया है कि महावीर की शान्ति काति के बिना देश का कल्याण नहीं हो सकता । भाषा सरल सरस और समास रहित है। अनुप्राश की छटा दर्शनीय है । साधारण पाठक भी इसे समझ सकता है । अध्ययन से पता चलता है कि लेखक ने श्वेताम्बर साहित्य का अध्ययन अधिक किया है। परम्परा भेद स्पष्ट कर दिया गया है, यह अच्छी बात है, अनेक चित्र भी है। रचना प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है । वर्धमान चम्पू : वर्तमान में रचित जंन चम्पू काव्यों में वर्धमान चम्पू Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत जैन चम्पू और चम्पूकार महत्वपूर्ण चम्पू रचना है। यह कृति भी महावीर जी से प्रकाशित है। इसके रचपिता स्व० श्री मूलचन्द्र शास्त्री का जन्म मालयोन (सागर म० प्र०) लगभग १६०५ ई० में हुआ था। पिता का नाम सटोले और माता का नाम सल्लो था । ऐसी उनकी दूसरी कृति 'वचनदूतम' से पता चलता है" । आपने 'न्यायरत्न' नामक सूत्र ग्रन्थ 'लोकाशाह' महाकाव्य 'वचनदूतम' दूतकाव्य की रचना की है, कस्तोगी की समस्या पूर्ति और तीन ग्रन्थो का हिन्दी अनुवाद किया है। वर्धमान चम्पू में महावीर के पांचों कल्याणकों का चित्रण किया है। रचना सरल और सरस है । भारत चम्पू : भारत चम्पू का उल्लेख श्री मुख्तार ने किया है। उन्होंने लिखा है 'जयनन्दी नाम के यों तो अनेक मुनि हो गये हैं, परन्तु आशाधर जी से जो पहले हुए हैं, ऐसे एक ही जयनन्द मुनि का पता मुझे अभी तक चला है। जो कि कन्नडी भाषा के प्रधान कवि आदिपम्प से भी पहले हो गये है। क्योंकि आदि पम्प ने अपने 'आदिपुराण' और 'भारत चम्पू' में, जिसका रचनाकाल शक स० ८६३ (वि०स०] ११८) है, उनका स्मरण किया है"। स्पष्ट है कि इसके लेखक आदिपम्प हैं, इसकी भाषा कन्नड़ है । पुण्याश्रव चम्पू : इसके रचयिता श्री नागराज हैं, जिन्होंने शक स० १२५३ में वक्त चम्पू रचा। श्री जुगलकिशोर मुख्तार को समन्तभद्र भारती का एक स्तोत्र दक्षिण भारत में प्राप्त हुआ है जो श्री नागराज की रचना है। इस सन्दर्भ मे पादटिप्पण मे श्री मुख्तार ने लिखा है- 'नागराज नाम के एक कवि एक स० १२५३ मे हो गये है, ऐसा 'कर्णाटक कवि चरित्र' से मालूम होता है। बहुत सम्भव है कि यह स्तोत्र उन्ही का बनाया हुआ हो वे 'उभयकविता विलास' उपाधि से भी युक्त थे। उन्होने उक्त संवत् मे अपना पुण्याश्रव चम्पू बनाकर समाप्त किया था"। इसकी प्रति क्या है ? और वयं विषय क्या है, इसका उल्लेख श्री मुख्तार ने नहीं किया है। सम्भव है, इसमें किसी पुष्प के महत्व वाली कथा वर्णित हो ११ भरतेश्वराभ्युदय चम्पू : इसके रचयिता पं० आशाधर जी हैं जिनके सम्बन्ध मे हम पीछे लिख आये है इसे अनेक विद्वान महाकाव्य मानते हैं, पर डा० राजवंश सहाय हीरा" और डा० छविनाथ त्रिपाठी ने इसे चम्पू माना है। प्रेमी जी ने सोनागिर में इसकी प्रति होने का उल्लेख किया है" । प्रयत्न करने पर भी यह वहां नहीं मिली। इसका विवरण महास कंटलाग संख्या १२४४४ मे है। नामरूप इसमें भरत के अभ्युदय का वर्णन है । जंनाचार्यविजय चम्पू इसका लेखक अज्ञात है। डा० त्रिपाठी ने गवर्नमेन्ट ओरियन्टल सारी मद्रास में इसकी प्रति होने का उल्लेख किया है, इसमे ऋषभदेव से लेकर मल्लिषेण तक अनेक जंनाचार्यों की विद्वत्ता एवं उनको वादप्रियता के साथ उनकी अन्य सम्प्रदायों पर प्राप्त विजयो का वर्णन है" । २७ इस प्रकार जैन चम्पू काव्यों की परम्परा अविछिन्न रूप से चलो। यद्यपि सख्या की दृष्टि से अत्यल्प ही जैन चम्पू काव्यों का सृजन हुआ, पर गुणवत्ता और महत्व की दृष्टि से जैन चम्पूकाव्य पीछे नहीं है 'यशस्तिलक' संस्कृत चम्पू काव्यों का मेरु है। 'जीवन्धर चम्पू' जहां कथा तत्व की दृष्टि से अपनी मानी नहीं रखता, वही 'पुरुदेव चम्पू' काव्य कला, विशेषता श्लेष प्रधान चम्पुत्रों मे अग्रगण्य है। 'दयोदय' आधुनिक शैली पर लिखे जाने से स्वतः ही हृदयग्राही बन गया है, फिर इसका कथानक इतना सुन्दर है कि, पाठक एक बार पढ़ना श्राम्भ कर उसे सहज ही बीच मे नहीं छोड़ पाता 'महावीर ही च०' अन्य तीर्थंकरों का भी वर्णन करने से निश्चय ही उपादेय है । वर्धमान चम्पू का भी विद्वत्समाज मे समुचित आदर होगा, ऐसी आशा है । उपर्युक्त चम्पूओं की महता, वर्णन विशालता गुणवत्ता, सहृदयहारिता, काव्यात्मकता आदि के आधार पर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अप्रकाशित 'पुण्याश्रव', 'भारत', 'भरतेश्वराभ्युदय' और 'जैनाचार्यविजय भी निश्चय ही महत्वपूर्ण जैन चम्पू होगे । - निदेशक, प्राकृत एवं जंन विद्या शोधप्रबन्ध संग्रहालय, खतौली ( उ० प्र० ) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. वर्ष ४५, कि०३ अनेकान्त सन्दर्भ १. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, १५. जयोदय महाकान्त, ब्यावर, ग्रन्थकर्ता का परिचय भाग ४, पृ. ५० । पृ० १०। २. भव्यजन कण्ठाभरण, प्रस्तावना पृ० १०। १६. यद्यपि इसमे ६ सर्ग हैं, पर 'दो शब्द' मे प्रकाशक ३. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. १४२ । पं० विद्याकुमार सेठी ने इसे खंडकाव्य ही कहा है। ४. मुनि सुव्रत काव्य, आरा, भूमिक पृ० ख । १७. यथा दयोदय चम्पू ७/२७ । ५. अनगार धर्मामृत, ज्ञानपीठ, देखिए प्रस्तावना । १८. महावीर तीर्थंकर चम्पू प्रकाशक-राजेश पांडेय ६. नलकच्छपुरे श्रीमन्नेमिचैत्यालयेऽसिधत् । विक्रमाब्दशतेष्वेषा प्रयोदशसु कार्तिके।। ___ जयकृष्ण कुटी १७०१ चादनी चौक दिल्ली । अनगारधर्मामत की टीका प्रशस्ति २१ । १६. वही, प्राक्कथन । ७. पलंकार चिन्तामणि, ज्ञानपीठ, प्रस्तावना पृ० ३४ । २०. जैन सन्देश (मथुरा) २३ व ३० जून १९८३ । ८, व्यक्तिगत पत्र दिनांक २७-६-८२ के आधार पर। २१. वचनदूतम, महावीर जी, प्रशस्ति । ६. मुनि शानसागर ग्रन्थमाला ब्यावर (राजस्थान) से २२. जैन साहित्य और इतहास पर विशद प्रकाश १९६६ ई. में प्रकाशित । पृ. १६३ । १०. दयोदय चम्पू, प्रथम लम्ब, लम्ब प्रशस्ति । २३. वही पृ. ४८६ । ११. जयोदय महाकाव्य, ब्यावर, ग्रन्थकर्ता परिचय पृ. ६ । २४. सस्कृत साहित्य कोष, चौखम्बा, पृ. ३३० । १२. जयोदय चम्पू, ब्यावर, प्रत्यकर्ता परिचय पृ० ।। १३. वीरोदय महाकाव्य, ब्यावर, प्रकाशकीय । २५. च० आ० एवं ऐतिहासिक अध्ययन, पृ. १२१ । योदय (मलमात्र) प्रकाशक ब्रह्मचारी सरजमल २६. जैन साहित्य और इतिहास, प्र. १३७। प्राक्कथन, पृ०२। २७. च० आ० एवं ऐतिहासिक अध्ययन, पृ. २४७, २६७ । *KXXXXXXXXXXXXXX*********** एको मे सासबो अप्पा णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरामावा सम्वे संजोगलक्खणा॥ अथ मम परमात्मा शाश्वतःकश्चिदेकः, सहजपरमचिच्चितामणिनित्यशुद्धः। निरवधिमिजदिव्यज्ञानदृग्भ्यांसमुखः, किमिह बहुविकल्पे मे फलं वाह्यभावः॥ निश्चय से मेरा आत्मा नित्य, एक, अविनाशी है। ज्ञान-दर्शन लक्षण का धारी है। मेरे आत्मीक भाव के सिवाय अन्य सर्वभाव मुझसे बाह्य हैं तथा सर्व ही भाव संयोग लक्षण हैं अर्थात पर-द्रव्य के संयोग से उत्पन्न हुए हैं। Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx ******** Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्य और जैन दर्शन में ईश्वर डॉ. सुदर्शन लाल जैन 'ईश्वर' शब्द को सुनते ही हमारे मन में यह विचार- वास्तविक है और वेदान्त की दृष्टि से जगत् भ्रमात्मक धारा आती है कि इस जगत् को बनाने वाला, पालन या मायात्मक है । इस तरह वेदान्त की दृष्टि से परमब्रह्म करने वाला हमारे पाप-पुण्यरूप कर्मों का फल देने वाला, हो सत्य है और उम परमब्रह्म का मायारूप ईश्वर है, जो जीवो पर अनुग्रहादि करने वाला, सर्वेश्वर्यशाली, अनादि परमसत्य नहीं है। मुक्त, सर्वशक्तिसम्पन्न, अनन्त अ.नन्द मे लवलीन, व्यापक योगदर्शन-योगदर्शन सांख्यदर्शन का पूरक दर्शन तथा चैतन्य गुणयुक्त एक प्रभु है जिसकी इच्छा के बिना है। इसमें प्रकृति (अचेतन) और पुरुष (चेतन) ये दो मुख्य इस जगत् का पत्ता भी नहीं हिल सकता है। यह आत्मा तत्त्व हैं । पुरुष चेतन आत्मा) संख्या मे अनेक हैं। एक से पृथक तत्त्व है। ऐसा ईश्वर भारतीय दर्शन में केवल पुरुष-विशेष को ईश्वर कहा है जो अनादिमुक्त, क्लेशादि न्याय दर्शन ही स्वीकार करता है। अन्य भारतीय दार्श- (शुभाशुभ कर्मों) से सर्वथा मुक्त, विपाक (कों के फलोपनिक जिन्होने ईश्वर को स्वीकार किया है उनकी मान्यता भोग) तथा (नाना प्रकार के सस्कार) मे मर्वथा अस्पृष्ट कुछ भिन्न है। है। यह प्राणियो पर अनुग्रहादि करता है। इस तरह ईश्वरवादो और अनीश्वरवादो दर्शन-परम्परायें: इस दर्शन का ईश्वर एक पुरुषविशेष है और वह सत्य भारतीय दर्शन में चार्वाक, बौद्ध, जैन, साख्य, वैशे- रूप है। षिक और मीमांसा मूलत: अनीश्वरवादी दर्शन माने जाते सांख्यदर्शन--- इस दर्शन में प्रकृति और पुरुष ये दो हैं परन्तु परवर्तीकाल में चार्वाक को छोड़कर ये दर्शन भी ही तत्त्व है। प्रकृति और पुरुष का सयोग होने पर प्रकृति किसी न किसी रूप में ईश्वरवादी बन गए । इनका मे क्षोभ पैदा होता है और महदादिक्रम से प्रकृति से इस ईश्वर वैमा नही है जैसा कि ऊपर ईश्वर का स्वरूप बत- जगत् की सृष्टि होती है। इसम ईश्वर (पुरुषविशेष) को लाया गया है। मूलतः ईश्वरवादी वेदान्त और योगदर्शन कोई आवश्यकता नहीं है। सृष्टि स्वाभाविक प्रक्रिया से का ईश्वर भी वैसा नहीं है जैसा कि न्यायदर्शन का होती है। जैसे वत्सविवृद्धि के लिए दूध की प्रवृत्ति स्वत: ईश्वर है। होती है। वेदान्त-इस दर्शन मे नित्य, अनादि, अनन्त तथा जैनदर्शन-जनदर्शन मे छ द्रव्यों की सत्ता मानी गई शुद्ध सच्चिदानन्दस्वरूप एकमात्र निर्गुण ब्रह्मतत्त्व को है-पुद्गल रूपी (अचेतन), जीव (चेतन = आत्मा), धर्म स्वीकार किया गया है। इसके अतिरिक्त समस्त जगत् (गति-हेतु), अधर्म (स्थिति-हेतु), आकाश (अयगाह हेत) इसी का विवर्त (भ्रम) है । अर्थात् समस्त जगत् में एक- और काल (वर्तना या परिवर्तन हेतु) । इनसे ही स्वामात्र ब्रह्म तत्त्व है वह जब मायोपाधि से युक्त होकर भाविक रूप से सृष्टि होती है। इसका संचालक कोई सगुणरूप को धारण करता है तब वह कथचित न्याय. ईश्वर नही है। इतना अवश्य है कि जीव-मुक्तो और दर्शन के ईश्वर के तुल्य हो जाता है। न्यायददर्शन का विदेहमुक्तों को (ईश्वर) परमात्मा शब्द से सम्बोधित ईश्वर तो मात्र जगत् का निमित्त कारण है जबकि किया गया है। परन्तु वे वीतरागी होन से अनुग्रहादि वेदान्त का सगुण ब्रह्मरूप ईश्वर जगत् का निमिन और कुछ भी कार्य नहीं करते। वे केवल आदर्श पुरुष मात्र हैं। उपादान दोनों कारण है। न्याय की दृष्टि से जगत समीक्षा:-साख्यदर्शन और जैनदर्शन दोनों ही Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४, वर्ष ४५, कि०३ अनेकान्त मूलतः अनीश्वरवादी दर्शन हैं, परन्तु परवर्ती काल में अभाव में वह सृष्टि कर ही नहीं सकता। इसी तरह सांख्यदर्शन ईश्वरवादी दर्शन बन गया। सांख्यदर्शन को अन्य तर्कों के द्वारा अनिरुद्ध सांख्यसूत्रों की वृत्ति करते ईश्वरवादी दर्शन बनाने मे सर्वप्रमुख भूमिका आचार्य हए सांख्य को अनीश्वरवादी सिद्ध करते हैं। जैनदर्शन मे विज्ञानभिक्षु की है। सांख्यदर्शन के उपलब्ध सर्वप्राचीन भी कुछ इसी तरह की युक्तियों के द्वारा जगत्कर्ता ईश्वर प्रन्थ सांख्यकारिका तथा उसकी सभी प्राचीन टीकाओं में का खण्डन किया गया है। कही भी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नही किया गया इसके विपरीत आचार्य विज्ञानभिक्षु ने सांख्यप्रवचनहै। गौडपादभाष्य आदि टीकाओं में सृष्टिकर्ता ईश्वर के भाष्य में सांख्य शास्त्र के उपदेश कपिलमुनि को ईश्वर अस्तित्व का खण्डन अवश्य मिलता है। श्रीबालगङ्गाधर का अवतार तथा ईश्वर को मोक्ष प्रदाता बतलाया है" तिलक का विचार है कि ईश्वर कृष्ण की ६१वीं कारिका इस तरह इन्होंने सांख्य को निरीश्वरवादी-परम्परा में लुप्त हो गई है जिसकी रचना उन्होने गौडपादभाष्य के नया मोड दिया और कहा कि var मिति साटि आधार पर करते हए अनीश्वरवाद की स्थापना की है। प्रमाणों से न होने के कारण उसका अभाव नही माना ___ सांख्यकारिका की प्रसिद्ध टीका युक्तिदोपिका मे जा सकता। इसीलिए सांख्यसूत्र मे 'ईश्वरासिद्धे.' (१/ स्पष्ट शब्दों में प्रकृति की प्रवृत्ति में ईश्वरप्रेरणा का निषेध ६२) कहा है। 'ईश्वराभावात् (सा०प्र०भा०) १/६२) किया गया है। गौडपादकार भी ईश्वर को सृष्टि का नहीं, परन्तु विज्ञानभिक्ष का यह तर्क अनुचित है । किञ्च कारण मानने के मत को अस्वीकार करते हुए कहते हैं सांख्यसूत्र परवर्ती रचना है । अभी तक उसके कपिलमुनि कि ईश्वर जब निर्गुण है तो उससे सत्व आदि गुणों वाली प्रणीत होने की सिद्धि नहीं हो सकी है। वस्तुत: विज्ञान(सगुण) प्रजा की सृष्टि कैसे हो सकती है ? वाचस्पति भिक्ष का ईश्वर वेदान्त और योगदर्शन का मिला-जुला मिश्र का कहना है कि जगत् की सृष्टि या तो स्वार्थवश रूप है। सम्भव है या करुणावश । ईश्वर जब आप्तकाम है तो पहले बतलाया जा चुका है कि सांख्य दर्शन का अनुउसके स्वार्थ का कोई प्रश्न हो उपस्थित नहीं होता। गामी योगदर्शन कनेशादि से अपरामष्ट पुरुषतिशेष को करुणावश भी सृष्टि सम्भव नहीं है, क्योकि सृष्टि से पूर्व ईश्वर मानता है। योगदर्शन का यह ईश्वर सब प्रकार शरीर इन्द्रियादि के प्रभाव होने से दुःखभाव होगा फिर के बन्धनों से सर्वथा अछता है। इसमे निरतिशय उत्कृष्ट ईश्वर की करुणा कैसी? करुणाभाव तो दूसरो के दुःखो तत्त्वशाली बुद्धि रहती है जिससे यह ऐश्वर्यसम्पन्न माना के निवारण की इच्छा है । सृष्टि के पश्चात् प्राणियों को जता है। ज्ञान और ऐश्वर्य का प्रकृष्टतम रूप जिसमे दुःखी देखकर करुणा मानने पर अन्योन्याश्रय दोष होगा। देखा जाता है वही नित्य ईश्वर है। प्रकृति पुरुष के किञ्च, करुणा से सृष्टि मानने पर उसे सभी को सुखी हो विवेकज्ञानपूर्वक मुक्त होसे वाले जीवन्मुक्त और विदेहउत्पन्न करना चाहिए, दुःखी नहीं। अत: अचेतन प्रकृति मुक्त ईश्वर नही है क्योकि वे पूर्व मे बन्धनयुक्त रहे है । की स्वतः प्रवृत्ति मानना ही उचित है। किञ्च, यह ईश्वर अन्य पुरुषों (आत्माओ) से विशिष्ट वृत्तिकार अनिरुद्ध ने ईश्वरकर्तृत्व का खण्डन करते है। सामान्यपुरुष अकर्ता है, परन्तु ईश्वर अकर्ता नही है। हुए कहा है कि ईश्वर की सिद्धि करने वाला कोई प्रमाण इस तरह योगदर्शन सांख्यानुगामी होकर भी पुरुषविशेष नही है। ईश्वर के जगत्कर्तृत्व में निमित्तकारणता का के रूप में ईश्वर को स्वीकार करता है। वस्तुतः बुद्धि खण्डन करते हुए वे कहते हैं कि ईश्वर के न तो सशरीरो आदि प्रकृति के धर्म हैं तथा बुढ्यादि के रहने पर रहने होने पर और न अशरीरी होने पर सृष्टि सम्भव है"। वाले ऐश्वर्यादि गुणो का धारक पुरुषविशेष ईश्वर ऐश्वर्य यदि ईश्वर स्वतन्त्र होकर भी जीवो के कर्मानुसार उनकी सम्पन्न कैसे हो सकता है? सुष्टि करता है तो उसकी आवश्यकता ही क्या है? न्यायकूमदचन्द्र" आदि जैन ग्रन्थो मे योगानुसारी क्योंकि वह कार्य कर्म से ही हो जायेगा। किञ्च राग के सांख्यदर्शन के इसी ईश्वरवाद का खण्डन किया गया है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांख्य और न दर्शन में श्विर वस्तुतः जैसा कि पहले कहा जा चुका है-सांख्यदर्शन सार ही मानी जाती है। जैनदर्शन का कम-सिद्धान्त मूलतः जैनदर्शन की तरह अनीश्वरवादी है । डा० उमिला इतना व्यवस्थित है कि उसके रहते सृष्टिकर्ता ईश्वर की चतुर्वेदी ने सांख्यदर्शन और विसानभिक्षु नामक शोधप्रबंध आवश्यकता नहीं अनुभव मे आती। इसके अतिरिक्त में विज्ञानभिक्ष का पक्ष लेते हुए मांखण को ईश्वरवादी धर्मद्रव्य, अधमंद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य के रहते सिद्ध किया है। वस्तुतः सांख्यदर्शन के विकासक्रम को ईश्वर को कोई कार्य नही बचता जिसके लिए सृष्टिकर्ता देखने से उनके तीन रूप दृष्टिगोचर होते हैं। ईश्वर माना जाए। द्रव्य का स्वरूप उत्पाद, व्यय और (१) उपनिषदों", महाभारत", गीता" और पुराणों nanीता और पराणों ध्रौव्यात्मक होने से भी किसी प्रेरक ईश्वर की आवश्यकता में प्रतिपादित सांख्य दर्शन । नहीं है। इसी प्रकार सांख्यदर्शन में भी प्रकृति को स्व रूपतः सत्व, रजस् और तमस् (आवरक) रूप" मानने से (२) कपिलमुनि, वार्षगण्य, अनिरुद्ध, ईश्वरकृष्ण ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं है। सत्व, रजस् और की सांख्यकारिका और उसके टीकाकारों का सांख्यदर्शन। तमस् ये तीन गुण प्रकृतिरूप है, भिन्न नहीं। कर्मों से सर्वथा अस्पृष्ट सर्वदृष्टा ईश्वर कथमपि सम्भव नहीं है (३) परवर्ती सांख्यदर्शन जिसका प्रतिनिधित्व विज्ञान जैसा कि आप्तपरीक्षा मे कहा हैभिक्षु कहते हैं। जब हम कपिल के सांख्यदर्शन से जैनदर्शन की तुलना नास्पृष्टः कर्मभिः शश्वद् विश्वदश्वास्ति कश्चन । करते हैं तो देखते हैं कि दोनों में बहत साम्य है। दोनो में तस्यानुपायसिद्धस्य सर्वथाऽनुपपत्तितः ॥८॥ कहीं भी सर्वशक्तिमम्पन्न अनादि ईश्वर की आवश्यकता इस तरह हम देखते हैं कि अर्हत् पद अथवा सिद्धपद नहीं अनुभव की गई है परवर्ती काल मे जिस प्रकार (जीवन्मुक्त या विदेहमुक्त) को प्राप्त जीव ही जैनदर्शन सांख्यदर्शन में ईश्वरकतत्व का समावेश हुग्रा है उस में ईश्वर है। यद्यपि प्रत्येक जीव मे यह ईश्वरत्व शक्ति प्रकार जैनदर्शन में नहीं हुआ है। यद्यपि जैनदर्शन में है परन्तु अनादिकाल से कर्मबन्ध के कारण वह शक्ति ढकी ईश्वरोपासना मिलती है परन्तु जैनदर्शन का ईश्वर कोई हुई है। इस तरह पुरुषविशेष ईश्वर तो है परन्तु वह कभी अनादिमुक्त पुरुष विशेष नही है अपितु सभी पुरुष (आत्मा) बन्धन मे नही था ऐसा जैनदर्शन को स्वीकार्य नहीं है। परमात्मा रूप हैं, उनमें से जो जीवन्मुक्त" (अर्हत् या किञ्च, वह पुरुषविशेष जिसने कर्मबन्धनों को नष्ट करके तीर्थकर) और विदेहमुक्त (सिद्ध) है उन्ही को ईश्वर- अनन्तचतुष्टय (अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्त आनन्द रूप से उपासना की जाती है। जैनों के ये मुक्तपुरुष या ओर अनन्त शक्ति) को प्राप्त किया है, ईश्वर तो है, ईश्वर उपासक पर न कृपा करते हैं और न निन्दक पर परन्तु आप्तकाम और वीतरागी होन से सृष्टि के किसी क्रोध । उपासना के द्वारा भक्त अपने आत्म परिणामों की भी कार्य में रुचि नही लेता है । इस दृष्टि से वह कथचित निर्मलता से यज्ञ आदि को प्राप्त करता है । वस्तुत: जैनो साँच्यों के मुक्तो की तरह साक्षी दृष्टा मात्र है। अनन्तके मुक्त तो सांख्यदर्शन की तरह साक्षी एवं तटस्थ हैं। ज्ञान, अनन्त आनन्द आदि मानने से कथंचित् वेदान्त के वह शद्ध चैतन्यरूप और साक्षी होने के साथ-साथ सर्वज, ईश्वर तुल्य है। जैन ग्रन्थों में सांख्यदर्शन के ईश्वर का अनन्तशक्ति तथा अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द से भी सहित है जो खण्डन मिलता है वह योगवशंन की दृष्टि से है क्योकि जो सांख्यदर्शन के मुक्तपुरुष में नहीं है । ऐसे मुक्तात्माओं साख्यदर्शन मूलत: अनीश्वरवादी है । जनदर्शन में ईश्वरत्व में ईश्वरत्व का आरोप निराधार नहीं है । यद्यपि निश्चय अथवा महानता का द्योतन भोतिको अथवा महानता का द्योतन भौतिक ऐश्वयों से नहीं किया नय से ईश्वरकृपा नहीं है फिर भी व्यवहार से उसकी गया है क्योंकि वह ऐश्वर्य अन्यो के भी सम्भव है। उनकी कपा का उल्लेख मिलता है। वस्तुत: फल-प्राप्ति कानु- ईश्वरता का मापदण्ड कर्ममल से रहित आस्मा की शुद्ध Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ वर्ष ४५, कि०३ बनेकान्त परिणति है। जैसा कि आप्तमीमांमा में आचार्य समन्त- दोषावरणयोहानिनि: शेषास्यतिशायनात्। भद्र ने कहा है क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ॥४॥ अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, देवागमनभोयानचामरादिविभूतयः । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, मायाविप्पपि दृष्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ।,१॥ वाराणसी सन्दर्भ-सूची १. अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । १४. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० १११-११४. बश्वरप्रेरितो गच्छेत स्वर्ग नरकमेव ॥ १५. श्वेताश्वतरोपनिषद्, १/६. -उद्धृत, गौडपाद टीका ६१ १६. महाभारत, १२/३०६/३६. आप्तपरीक्षा टीका पद्य २३, स्याद्वादमजरी, १७. मयाध्यक्षेणं प्रकृति: सूयते सचराचरम् । पृ० ४१३-४१७. -गीता, ९/१०. २. क्लेशकर्मविपाकाशयरपरामष्ट: पुरुषविशेष. ईश्वरः । अह कृत्स्नम्य जगतः प्रभवः प्रल यस्तथा। गीता ७/६. ---- योगसूत्र, १, २४. १८. ब्रह्मपुराण, १/३३, विष्णु पुराण, १/२/२६. ३. सां० का० ५७. १६. तथा च वार्षगणाः पठन्ति प्रधानप्रवृत्तिप्रत्यया पुरु४. तत्त्वार्थसूत्र, ५, १-३, ३६ तथा ५, १७-२२. षेणापरिगृह्यमाणादिसर्ग वर्तते । पुक्ति० १६. ५. उत्पाद्ययधोपयुक्त सत् । तत्वार्थसूत्र ५, ३०. २०. पूर्वसिद्धमीश्वरासत्वम् । अनि०, ५/२. ६. बालगंगा परतिलककृत कारिका - यदीश्वरसिद्धी प्रमाणमस्ति, तदा तत्प्रत्यक्षचिन्ता कारणमीश्वर मेके ब्रवते काल परे स्वभाव वा । उपद्यते । तदेव तु नास्ति । अनि०, १/६२. कथं निर्गणतो व्यक्तः कालः स्वभावश्च ।। सांख्यकारिका मे मूलन: उपलब्ध कारिका २१. सांख्यकारिका, ५७ तथा उसकी टोकाये। प्रकृतेः सूकुमारतरं न किञ्चिदम्तीति मे मतिर्भवति। २२. केवलगाणदिवायर-किरणकलाउप्पणामिण्णाणो। या दृष्टाऽम्मीति पुनर्नदर्शनमुपैति पुरुषस्य ।। णवकेवलधुग्गमसुजणिय परमप्पवबएसो।। -सां० का०,६१. -गो. जीव० ६३. ७ तस्माद्युक्तमेतत्पुरुषविमोक्षार्था प्रकृतेः प्रवृत्तिर्न चैनन्य- असहायणाणदंसणसहिओ इदि केवली हु जोगेण । प्रसग इति । युक्ति० ५७. जुत्तोति सजोगिजिणो अणाइणिहणारिसे उत्तो। ८. अत्र साख्याचार्या आहुः---निर्गुण ईश्वर: सगुणानां ... गो. जीव० ६४. लोकानां तस्मादुत्पत्तिरयुक्तेति । गोड०६१. २३. अट्ठविहकम्मवियला सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा । ६. सांख्यतत्तकौमुदी, ५७. अटगुणा किदकिच्चा लोयगणिवासिणो सिया॥ १० यतीश्वरसिद्धी प्रमाणमस्ति, तदा तत्प्रत्यक्षचिन्ता -गो. जीव०, ६८. उपपद्यते । तदेव तु नास्ति । अनि०, १/९२ तथा २४. सिद्धि मे दिसंतु। तीर्थरभक्ति ८, तित्थयरा मे ५/१०-११. पसीयन्तु ।। तीर्थ०, भक्ति ६. ११. अनि०, १/६२. २५. सत्त्वं लघु प्रकाशकमिष्ट मुपष्टम्भकं चलञ्च रजः । १२. नारायणः कपिलमूर्तिः । सां०प्र०भा०, मंगलाचरण २. गुरु वरणकमेव तमः प्रदीपवच्चाऽतो वत्तिः।। १३. दीयतां मोक्षदो दहिः । वही ६. -सा० का०, १३. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागदेव जैन मन्दिर नगपुरा ० श्री नरेश कुमार पाठक मध्यप्रदेश के दुर्ग जिले में राजनांदगांव मार्ग पर मौलि बनी हुई है। वितान में विद्याधर गन्धर्व, अभिषेक शिवनाथ नदी के दूसरे तट पर १६ कि०मी० की दूरी पर करते हुए गणराज, त्रिछत्र, दुन्दुभिक का अंकन है। दोनों नगपुरा ग्राम स्थित है। गांव के बीच एक नवीन कमरा हाथ की हथेलियां एक-दूसरे पर रखी है और पैर के नुमा मढिया बनी है, जिसमे बीच में पीपल के पेड का तलुओं से टिकी हुई हैं। ध्यान में लीन इस प्रतिमा का चबूतरा बना है, उसमें कुछ प्रतिमा स्थापित है, जिसकी काल लगभग ७वीं-८वीं शती ई० प्रतीत होता है । सम्पूर्ण स्थानीय लोगों द्वारा पूजा की जाती है। इस मन्दिर में प्रतिमा काफी आकर्षक एवं मांसलता लिए है', प्रतिमा सबसे अच्छी हालत में सुन्दर प्रतिमा तेइसवें तीर्थङ्कर का आकार ८०४६०४३० से.मी. है। पार्श्वनाथ की है, पुरातत्वविद श्री वेदप्रकाश नगावच का तीर्थडर-यहां से दो लांछन विहीन तीर्थङ्कर मत है, कि सम्भवतः इसके ऊपर नागफण होने के कारण प्रतिमा प्राप्त हुई हैं। प्रथम प्रतिमा तीर्थङ्कर प्रतिमा का ही ग्रामवासी इसे नागदेव मन्दिर कहते हैं। यह भी अर्धभाग जिसमें तीर्थहर कुन्तलित केश, लम्बे कर्णचाप से सम्भव है कि इस प्रतिमा के कारण ग्राम का नाम भी अलंकृत है। बितान मे त्रिछत्र, दुन्दभिक अभिषेक करते नगपुरा हुआ है। दुर्ग जिला गजेटियर मे इसे कलचुरि हुए गजराज, ऊपर पद्मासन में तीर्थकर प्रतिमा बैठी हुई कालीन जैन मन्दिर लिखा है। मन्दिर मे प्राप्त पुराव- है। जिनके ऊपर मालाधारी विद्याधर एवं पीछे प्रभामंडल शेषो से स्पष्ट होता है कि, यहाँ एक जैन मन्दिर रहा है। दोनों पाश्वं मे एक-एक कायोत्सर्ग मुद्रा में जिन प्रतिमा होगा। मन्दिर ध्वस्त हो जाने के बाद मे श्रद्धालुओ ने का अकन है। प्रतिमा का आकार ४२४३०४७ मे.मी. इसी के ऊपर नवीन मन्दिर का निर्माण करवा दिया। है। दूसरी तीर्थकर प्रतिमा पर दो पद्मासन मे तीर्थङ्कर यहां मन्दिर के दोनो द्वार शाखा रखी है। जिन पर नदी बैठे हए अंकित है । प्रतिमा का आकार ४०४२५४१५ देवियो का अकन किया गया है। देवी एक हाथ में कलश से.मी. है। कालक्रम की दृष्टि से दोनों प्रतिमा ७वींलिए हुए है एवं मुकुट, चक्र, कुण्डल, हार, केयूर, बलय, वी शती ई. की प्रतीत होती है। मेखला व नुपुर पहने हुए है। नदी देवी के पार्श्व मे एक तीर्थडर प्रतिमा वितान-यहां से दो तीर्थङ्कर पुरुष प्रतिमा खडी है। नदी देवियों के अतिरिक्त चतुर्मुखी प्रतिमा वितान प्राप्त हुए है। प्रथम प्रतिमा तीर्थकर आसनस्थ गणेश, सर्प फण युक्त नाग प्रतिमा पर युक्त प्रतिमा का वितान है, जिस पर छत्र, गणराज, विद्याधर प्रतिमा पादपीठ रखे हुए है। यहां पर जैन प्रतिमाओ की युगल, प्रभामण्डल, आंशिक रूप से सुरक्षित है। ऊपर सख्या अधिक है जिसका विवरण निम्नानुसार है :- स्तम्भ युक्त गवाक्ष के अन्दर तीन पद्मासन मे तीन पपा पार्श्वनाथ-तेइसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ पद्मासन मे सन मे तीर्थङ्कर प्रतिमा बैठी है। मध्य के तीर्थङ्कर के शेष आसन पर ध्यानस्थ बैठे हैं। अर्ध उन्मीलित नेत्र, नीचे पाच कायोत्सर्ग मे जिन प्रतिमा खड़ी हैं। दायें ओर सिर पर कुन्तलिस केश, लम्दे कर्ण चाप, कंधे तक फैली के तीर्थङ्कर के नीचे दो पद्मासन मे एव चार कायोत्सर्ग में हुई जटाये हैं। वक्ष पर श्रीवत्स चिह्न का सानुपातिक जिन प्रतिमा अकित है। बायो और तीर्थङ्कर प्रतिमा के अंकन हमा है। पादपीठ से सर्प का घुमावदार अकन नीचे एक पपासन मे एवं दो कायोत्सर्ग में तीर्थकर प्रतिमा तीर्थकर के पीछे होता हुआ सिर के ऊपर सप्तफण की (शेष पृ० १८ पर) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द और जैन दार्शनिक प्रमाण व्यवस्था डॉ. कमलेश जैन, वाराणसी ज्ञान एवं प्रमाणविषयक चिन्तन भारतीय दर्शनों का पद्धति पर किया जाने लगा। इस प्रकार ज्ञानमीमांसा का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय है। भारतीय दार्शनिक इतिहास क्रमशः विकास हुआ जो कि ताकिक युग में प्रमाणमीमांसा को देखने से स्पष्ट होता है कि ज्ञान और प्रमाणमीमांसीय का प्रमुख आधार बना। चिन्तन उत्तरोत्तर विकसित हुमा है। प्रारम्भ में ज्ञान आचार्य कुन्दकुन्द रचित साहित्य में प्रमाणविषयक मीमांसा पर ही अधिक बल दिया गया और ज्ञान सम्यक् विवेचन नहीं है। 'प्रमाण' शब्द का प्रयोग कुन्दकुन्द के (प्रमाण) है या मिथ्या (अप्रमाण), इसके निर्णय पर साहित्य में मात्र पांच स्थलों पर भिन्न-भिन्न प्रसगो मे विस्तार से विचार किया गया। परन्तु ताकिक शैली के हुआ है, परन्तु उन पांच स्थलों में प्रयुक्त प्रमाण शब्द विकास के साथ ज्ञान । (प्रमाणविषयक) चिन्तन तार्किक कही भी प्रमाणमीमांसीय सन्दर्भ से सम्बद्ध नहीं है, अपितु (पृ० १७ का शेषाश) पांचों स्थानों पर प्रमाण का अर्थ परिमाण (परिमाप या बैठी हैं, प्रतिमा का आकार ३४४३२४७ सेमी. है। समानता) से है। समयसार गाथा ४, प्रवचनसार गाथा द्वितीय प्रतिमा तीर्थङ्कर प्रतिमा वितान का बायां भाग है, १/२३-२४, मोक्षप्राभूत गाथा ६६ । इस पर स्तम्भ युक्त गवाक्ष के अन्दर पद्मासन में तीर्थकर कुन्दकुन्द के प्रायः सभी ग्रन्थों में ज्ञानसामान्य की बैठे हैं। तीर्थंकर के बायें ओर एक पधामन में एवं दो चर्चा की गयी है । और आमिनिबोधिक/मत, श्रति आदि कायोत्सर्ग में जिन प्रतिमा बैठी हैं। इसके अतिरिक्त इस के भेद से ज्ञान की पांच अवस्थाओ का विवेचन है। उनके खण्ड पर विभिन्न प्रकार की लता बल्लरियों का आलेखन प्रवचनसार में ज्ञानाधिकार नाम से एक स्वतंत्र अधिकार है। प्रतिमा का प्राकार ३२४३३४२० से. मी. है। भी लिखा है । यहां पर ज्ञान का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप तिथिक्रम की दृष्टि से दोनों प्रतिमा ७वीं-८वी शती ई० में विभाजन है। इस विभाजन का आधार लोक व्यवहार की प्रतीत होती है। एवं जनेतर धार्मिक-दार्शनिक परम्पराओं से सर्वथा भिन्न यद्यपि यह मन्दिर अपने प्राचीन अस्तित्व मे नही है. है। यह आधार है-आत्मसापेक्षता। जो ज्ञान अतीन्द्रिय परन्तु यह दुर्ग जिले के जैन कला के विकास में अपना एव आत्मसापेक्ष है, वह प्रत्यक्ष है। और जिस ज्ञान में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। -पुरातत्व संग्रहालय इन्द्रिय, मन आदि की सहायता अपेक्षित होती है, वह इन्द्रिय, मन आदि का सहायता अपाक्ष रायपुर (म०प्र०) परोक्ष है। यहाँ पर दोनो का अन्तर समझना आवश्यक १. नगायच वेदप्रकाश 'नागदेव मन्दिर' नगपुरा का प्रत्यक्ष ज्ञान-यहीं पर 'अक्ष' शब्द का अर्थ हैनिरीक्षण प्रतिवेदन दिनांक १४-१०-८७. 'आत्मा/अक्षणोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा ।'२. दुर्ग डिस्ट्रिक गजेटियर पृ. १८२ एवं शर्मा राज- सर्वार्थसिद्धि १/१२ । केवलज्ञान आत्मा को योग्पता से कुमार 'मध्य प्रदेश के पुरातत्व का संदर्भ ग्रथ' भोपाल प्रकट होता है। यह ज्ञान अतीन्द्रिय, आत्ममात्रसापेक्ष और १९७४ पृ. २८३ क्रमांक १२३४. स्वावलम्बी है । इसके प्रकट होने पर दूसरे किसी ज्ञान की ३. शर्मा सीताराम 'भोरमदेव क्षेत्र पश्चिम-दक्षिरण स्थिति नहीं रहती, अत: अकेला रहने से 'केबल' कहलाता कोसल की कला' अजमेर १९६० पृ. १६२-१६३. है। इसके होने में इन्द्रियादिक परद्रव्यों की सहायता Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य कवकन्द और जनवार्शनिक प्रमाणव्यवस्था आवश्यक नहीं होती। अत: आत्मा की स्वशक्ति के आधार योगी हैं, वे अप्रमाण्य (मिथ्या) हैंसे प्रकट होने से, यह ज्ञान प्रत्यक्ष माना गया है। परमा- आभिणिसुदोधिमणकेवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि । र्थत: जैनदर्शन में यही प्रत्यक्षज्ञान है कुमदिसुदविभंगाणि य तिणि वि णाणेहि संजुते॥ -जदि केवलेण णाद हवदि हि जीवेण पच्चक्ख ।। -पंचास्तिकाय, गाथ ४१ प्रवचनसार, गाथा १/५८. अतएक सम्यग्दृष्टि के सभी ज्ञान सम्यक् (प्रमाण) परोक्ष ज्ञान-प्रकृत में अक्ष का अर्थ है- चक्षु । ' और मिथ्यादृष्टि के समस्त ज्ञान मिथ्या (अप्रमाण) कहे उपलक्षण से यहां पर चत्रु, कर्ण आदि पांचों इन्द्रियों तथा गये । आचार्य समन्तभद्र ने भी तत्त्वज्ञान (केवलज्ञान) को अनिन्द्रिय मन का ग्रहण होता है। चक्षु आदि इन्द्रियां ही प्रमाण कहा है, क्योकि वह एक साथ सबका शान परद्रव्य हैं, ये आत्मा का स्वभाव नहीं है । अत: परद्रव्यो कराने वाला होता हैइन्द्रियादिक की सहायता से उत्पन्न होने वाला पदार्थों तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् । का विशेषज्ञान, परजनित होने से पराधीन है, इसलिए क्रमभावी च यज्ज्ञान स्याद्वादनयसस्कृतम् ।। परोक्ष है। यह इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न ज्ञान पोद्गलिक -आप्तमीमांसा, कारिका १०१ इन्द्रियों द्वारा होता है, उनके आधीन होकर पदार्थ को उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि लोकव्यवहार मे जिसे जानता है, इन्द्रियां पराधीन हैं, अत: यह ज्ञान भी परोक्ष प्रत्यक्षज्ञान कहा जाता है । अथवा, जनेतर न्याय-वैशेषिहै, क्योकि पराधीन ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। कहा कादि दार्शनिक परम्पराओ मे जिन इन्द्रियजन्य ज्ञानो को भी गया हैपरदव्वं ते अक्खा व सहावो त्ति अप्पणो भणिदा । प्रत्यक्ष माना गया, वे सभी ज्ञान कुन्दकुन्द तक जैन परपरा मे-परोक्षज्ञान के ही अन्तर्गत थे। मूलत: यही प्राचीन उवलद्ध तेहि कध पच्चक्खं अप्पणो होदि ।। आगम सरम्परा है, परन्तु बाद में इसका क्रमशः विकास ज परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख त्ति भणिदमढेसु । हुआ है। प्रमाण-न्याय युग मे जैनदार्शनिको मे भी प्रमाण-प्रवचनसार, गाथा १/५७-५८ मीमासा के अनुरूप अनेक नये शब्दो को समाहित किया ज्ञान जीव का निज गुण है, और गुण गुणी से पृथक् नही रह सकता। कर्मबन्ध से पूर्णतया मुक्त एव शुद्ध इससे यह भी स्पष्ट होता है कि प्रमाणयुग मे उपर्युक्त स्वरूप को प्राप्त जीव को यह ज्ञान गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाता है । ज्ञान स्वसवेद्य तथा स्व-पर प्रकाशक भी है, प्रत्यक्ष ओर परोक्ष ज्ञानो को ही प्रमाण माना गया। इसलिए वह ज्ञाता और ज्ञेय दोनों है । ससारी अवस्था मे तत्त्वार्थसूत्रकार ने मति, श्रुत आदि ज्ञान के पांच भेदों कर्मबद्ध जीव के ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से ज्ञान का विवेचन किया और उन्ही पाच को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप दो प्रमाणों के नाम से विभक्त किया। यही से जैन का आवरण जैसे-जैसे कम होता है, वैसे-वैसे ज्ञान का परम्परा मे ज्ञानमीमासा का प्रमाणमीमांसीय विवेचन क्रमिक विकास होता जाता है। जैनपरम्परा ज्ञान को ही प्रमाण मानती है, परन्तु प्रारम्भ हुआ है। परन्तु, यहा पर भी ज्ञान की प्रमाणता यहां यह विशेष ध्यानदेन योग्य है कि आचार्य कुन्दकुन्द (सरयता) आर अ (सत्यता) ओर अप्रमाणता (असत्यता) का आधार पूर्ववत् के अनुसार ज्ञान की प्रमाणता (सत्यता-सम्यक्त्व) और रहा । लौकिक प्रत्यक्ष का परोक्ष मानने की परम्परा मी अप्रमाणता (असत्यता-मिथ्यात्व) बाह्य पदार्थों को यथार्थ पहले की तरह स्थिर रही। जानने अथवा अयथार्थ जानने पर आधारित नहीं है, इस प्रकार कुन्दकुन्द ने जो ज्ञान का प्रत्यक्ष एवं अपितु जो ज्ञान आत्म-सशोधन मे कारण हैं, और अन्ततः परोक्ष रूप मे विभाजन किया था, उसे ही बाद में एक मोक्षमार्ग में उपयोगी-सहायक सिद्ध होते हैं, वे ज्ञान नयी व्यवस्था दी गयी, और उसे प्रमाणरूप से विवेचित प्रमाण (सम्यक) हैं। एव जो ज्ञान मोक्षमार्ग में अनुप- किया गया। ___ (शेष पृ० २३ पर) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० х а а а "कसायपाहुड़ सुत्त" [सम्पादक-पं० होरालाल सि० शास्त्रो] -शुद्धि-पत्रनिर्माता-७० स्व. रतनचन्द एवं पं. नेमिचन्द मुख्तार, सहारनपुर प्रेषक-जवाहरलाल जन/मोतीलाल जैन, भीण्डर पंक्ति अशुद्ध द्रव्यम्रयनिक्षेप द्रव्यप्रेयनिक्षेप उपाघात उपधात जिस प्रकार विशेषार्थ-जिस प्रकार जीव अल्प हैं। इसी क्रम से जीव अल्प है और रागभाव के धारक उनसे विशेषाधिक है। इसी क्रम से [देखो ज.ध.११३५८-५६] हो जाने पश्चात् हो जाने के पश्चात् नाकषायों के नो कषायो के उवढपोग्गलपरियट्ट। उवड्ढपोग्गलपरियट्ट । आदि-सान्त सादि-सान्त गया है, स्थितिबन्ध का स्थिति सत्त्व का अनुत्कृष्ट बन्धप्ररूपणा अनुत्कृष्ट विभक्ति प्ररूपणा अजघन्य बन्धप्ररूपणा अजघन्यविभक्ति प्ररूपणा बन्ध प्ररूपणा विभक्ति प्ररूपणा बन्ध-काल प्ररूपणा विभक्तिकालप्ररूपणा होती है अजघन्यबन्ध होती है और जघन्यस्थितिबन्ध नवमगुणस्थान के अन्तसमय में होता है । अजघन्यबन्ध स्थितिबन्ध के स्थितिविभक्ति के स्थिति के बन्धक स्थितिविभक्ति वाले [देखो ज.ध. ३३५६-६०] स्थिति बन्ध का स्थिति विभक्ति का बन्धकाल विभक्तिकाल उत्कृष्ट बन्ध उत्कृष्ट विभक्ति स्थितिबन्ध वाले स्थिति विभक्ति वाले शेल समना शैल समान १६ दारुस्थनीय दारुस्थानीय अर्थपद उसे उसे अर्थपद л л л л л л л л л л л о е १५६ २४ १६६ १८३ १८८ १२ सुत्ताण्ण ज्जहा अनुपास कर सुत्ताण जहा अनुपालन कर १९२ १४ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायपाहा सुत्त २१ पंक्ति २३ २४६ २४८ २५२ २५९ अशुद्ध उदहरण निगादिया उत्कष्ट 'कदि चाण-सूत्र अंकमो सम्यग्मिध्यात्व से सबके कम बन्धस्थानों मे सेससु प्रमारण एक समय xvd WWK ३१३ 2 m. merry 9mN . .xmurrxur armmsx उदाहरण निगोदिया उत्कृष्ट 'कदि चूर्णिसूत्र असंकमो सम्यग्ल्यिात्व के सबसे कम बन्धस्थान मे सेसेसु प्रमाण तो वही रहता है, किन्तु अतिस्थापना के प्रमाण मे एक समय अपवर्तित सक्रमो समान संकामया जघन्य अनुभाग संक्रमण का अन्तर कहते हैं ॥१२३॥ अब जहण्णाणुभाग को होइ? सम्मत्तस्स अनन्तकाल ड्ढिदूण संक्रम उदीरणा कहा गया है) मरकर एक समय कम तेतीस क ३७४ अवर्तित संकमों समय संकासया अनुभाग संक्रमण का जघन्य अन्तर कहते है ॥२२३॥ जब जहण्णाणमाग होइ? सम्मत्त अन्तरकाल वढिपूण सक्रस उदारणा कहा गया है मरकर तेतीस या वर्गगाए असंख्यात होते हैं । विवक्षित ४१५ ४३५ ४५८ ४७१ ४८२ ४६३ .MMM. वर्गणाए असख्यात होते हैं । क्रोध के असख्यात अतिरिक्त अपकर्ष हो जाने पर एक बार मान अपकर्ष अधिक होता है । लोभ, माया, क्रोध व मान से उपयोग होने के पश्चात् लोभ से उपयुक्त होता है। फिर माया से उपयुक्त न होकर पुनः लोटकर मान से उपयुक्त होता है। फिर लोभ का उल्लघन कर माया से उपयुक्त होता है। विवक्षित Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२, ४५, कि. ३ अनेकान्त पृष्ठ ५६२ ६०२ xxxwww .. - mm पक्ति असुद्ध २७ ॥ २८७-२८८॥ ॥ २८७-२८६॥ सेढाओ सेढोओ द्वारा द्वारा संधीदा संधीदो कहकम्म कोहकम्म जागे जोगे उपशमम उपशम सुत्त सुप्त प्रथमोपशम सम्यक्त्व को सम्यक्त्व को [यहां अनुवाद मे अनुवाद-कर्ता को बड़ी भूल हुई है।] २७ प्रथमोपशम सम्यक्त्व सम्यक्त्व नोट-गाथा १०५ [पृ. १३५-३६] का अर्थ व विशेषार्थ गलत है। [देखो ज, ध. पु. १२ पृ. ३१७-१८] २४ वहां यहाँ ऐसे ६३२ ६३५ ० सेसे वह यह ७०३ ७०६ ७२६ ७४२ ७४३ ७५२ २८ २० , १३ २५-२८ चढमाणस्स मारणस्स कोटिशतसहस्र कोटि पृथक्त्व शतसहस्र पल्योपम के जघन्य के और संज्वलन की और क्रोध संज्वलन की चार तीन मूलणाहाए मूलगाहाए यह पांचवीं भाषा गाथा यह गाथा अथवा उससे पूर्व संसारावस्था मे वर्तमान x x x x x x यहां पर पठित 'वा' शब्द समुच्चयार्थक x x x x x x ................."गया है। अतएव भी बध्यमान बध्यमान ॥१४३॥ ॥१४२॥ अणिनन्तगुत अनन्तगुणित स्पर्धकवर्गणा स्पर्धक को आदिवर्गणा ७६७ ७६८ ७८८ ७६० पूर्व पूर्व ००० २७ के अन्तर समम से वेकककाल ९६४ के कृष्टि अन्तर समय से वेदक काल ६६५ ८३८ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxx पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ८४३ यवमध्यपप्ररूपणा यवमध्य प्ररूपणा वेगस्स वेदगस्स अंतोमुत्तणा अंतोमुहत्तणा २३ प्रथम कृष्टि को प्रथम संग्रह कृष्टि को माण मायं बधगियराणं बंधगियराणं ३ पच्छिमक्खधो पच्छिमक्खंधो नोट :-(1) पृष्ठ ७६७ १र लिखित विशेषार्थ के अन्तर्गत निम्न ११ पंक्तियां पुनः देख लें--"समस्थिति में प्रवर्तमान पर प्रकृतिरूप सक्रमण"......... . . (दृष्टान्त दिया । इसी प्रकार" नोट :-(i) पृष्ठ ३९८ पर पक्ति १८-१६ मे "पश्चात् नियम से गिरता है और मिथ्यात्वी हो जाता है।" इम वाक्य का भी इस प्रकार सुधार करना चाहिए- पश्चात् वेदक सम्यक्त्वी, सम्यग्मिध्यात्वी हो अथवा मिथ्यात्वी हो जाता है। [कारण देखो-गा. १०३ पृ. ६३४-३५ तथाँ इसको जयध. टीका] 22 dmdar पृ० १६ का शेषांश) इसके बाद ताकिक पद्धति से विकसित होने पर ने आत्ममीमांसा और ज्ञानमीमांसा की विस्तत एवं मम प्रत्यक्ष की उपर्युक्त परिभाषा मे भी परिवर्तन किये गये। तम विवेचना की है, जिससे सर्वज्ञता का सिद्धान्त स्थापित लोकव्यवहार तथा जनेतर धार्मिक-दार्शनिक परम्पराओं हुआ। से सामञ्जस्य बैठाने के लिए आचार्य अकलङ्क, जिनभद्र उपर्युक्त से यह भी स्पष्ट होता है कि जैन परम्परा मे आरम्भ मे ज्ञानमीमांसा पर अधिक जोर दिया गया। आदि दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष के पुनः दो भेद किए-१. सां ज्ञान सम्यक है या मिध्या, अथवा, ज्ञान प्रमाण है या व्यवहारिक प्रत्यक्ष और २. पारमार्थिक प्रत्यक्ष । और अप्रमाण, इस विषय पर विस्तार से चिन्तन किया गया, दूसरा इन्द्रियजन्य ज्ञान को परोक्ष से प्रत्यक्ष में स्थापित और यही मूल आगमिक परम्परा है।। किया। परन्तु पारमार्थिक और सांख्यव्यवहारिक प्रत्यक्ष मे व्याप्त प्रत्यक्षलक्षण विचारणीय रहा? तार्किक युग की परन्तु, ताकिक शैली के विकास के साथ-साथ प्रमाण विषयक चिन्तन क्रमश: तर्क पद्धति पर किया जाने लगा। चरम अवस्था में विशद और निश्चयात्मक ज्ञान को भी भिन्न-भिन्न दार्शनिक सिद्धान्तो की समीक्षा एवं स्वपक्ष प्रत्यक्ष मान लिया गया। की स्थापना के फलस्वरूप प्रमारणमीमांसा का उत्तरोत्तर निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कुन्दकुन्द मूलतः विकास भी हुआ। दूसरे शब्दों मे, ज्ञानविषयक प्राचीन प्राध्यात्मिक तथा आगामक आचाय है, प्रमाणशास्त्रयुगनि चिन्तन को ही प्रमाणमीमांसीय व्याख्या प्रस्तुत की या नैयायिक नही। उनके साहित्य मे प्रमाण विषयक का चर्चा नहीं है। दूसरे शब्दों में, जैन परम्परा मे आचार्य -प्राकृत एवं जैनागम विभाग कुन्दकुन्द तक प्रमाणमीमांसा का प्रवेश नहीं है। कुन्दकुन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी-२ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-मुनिचर्या श्री बाबूलाल जैन, कलकत्ता वाले सिंह सा पराक्रमी:-अगर पराक्रम सीखना हो तो जिसने अपने भीतर की कील को, केन्द्र को पहचान लिया सिंह से सीखना होगा। सिंह कैसा है ? जिसे किसी सहारे है इसलिए बाहर में, भीतर मे परिवर्तन आता है परन्तु की दरकार नही-जिसने सब सहारे छोड़ दिये हैं- वह कील हमेशा मेरु की तरह निश्चल है। साधु भोजन बेसहारा, वनों और पहाडों में विरना। करता है, बोलता है, जन्म लेता है, मरता है, परन्तु वह हाथी-सा स्वाभिमानी:--हाथी मे एक स्वाभि- कील हमेशा निश्चल है, बोलते हुए भी नही बोलता । मान है, अहंकार नही। अपने बन पर भरोसा है परन्तु चलते हुए भी नहीं चलता। सभी दुःख-सुख, प्रोति-अप्रीति बल का दिखावा नही। सभी चक्के पर है, कील सबसे बाहर है। साधु की मारी बषभ-सा भद्र :-बैल जैसा भद्र परिणामी-कभी चेष्टा यही है कि अपनी कोल को, ज्ञायक भाव को पकडे झगड़ा नहीं करता, उसका व्यवहार सज्जनोचित है। रहे । ध्यान में, समाधि में यही एक है । जिसने कील का मग-सा सरल :-मग को आँखो मे झांक कर देखो, सहारा लिया वह जन्म-मरण, दुःख-सुख सबसे अछूता सरलता-भरोसा दिखता है, जिसने कभी पाप नही जाना। रह जाता है। जिसकी आंखो मे पाप की रेखा ही नहीं है । क्वारी कन्या चन्द्रमा-सा शीतल : - चन्द्रमा में ताप नही है मात्र जैसा निष्पाप । मग स्वभाव से ही सरल होता है। उसकी प्रकाश है। साधु का सानिध्य जलाता नही है शीतल करता है । जहाँ जाकर आश्वासन मिले, बल मिले, सरलता साधी हुई नही है स्वाभाविक है। सीधा छोटे हिम्मत मिले, आशा बंधे कि मुझे भी मिल सकता है। दिखावा-मात्र सहज । मणि-सा कांतिमान :-जैसे किसी मणि को देखपश-सा निरोह:-असहाय अवस्था, समस्त उप कर सम्मोहित हो जाते है-उसी की तरफ देखते रह द्रवों से परे। जाते हैं, नजर वहाँ से हटती ही नही, वैमा । वाय-सा निःसंग:-हवा बहती रहती है परन्तु पृथ्वी-सा सहिष्णु :-कुछ भी हो जाए साधु नही नि:संग - नदियो से गुजरती है, फलो के ऊपर से गुजरती डगमगाता । रोग में, निरोग अवस्था मे, सम्मान मे, अपहै परन्तु रुक नही जाती, नि.सग भाव। मान में, जीवन में, मरण मे, हर हालत मे एक समान । सर्य-सा तेजस्वी:-कपट में, पाखंड में ज्योति बुझ सर्प-सा अनियत-आश्रमो:-सर्प अपना पर नही जाती है। जैसे ही व्यकिा सरल होता है, नि:संग होता बनाता । जहाँ जगह मिल गयी वही विश्राम कर लेता है। है, भद्र होता है, निरीह होता है, अकेला होता है, वैसे हो इसका अर्थ है कि कोई सुरक्षा का उपाय नही करता। उमके भीतर एक अगाध ज्योति जलने लगती है। भोजन के लिए चौके चलाना, बसें साथ रखना, रुपियासागर-सा गंभीर:-गहरा गम्भीर जिसकी थाह । पैसा रखना, किसी अन्य के पास रखना, यह सब सुरक्षा नहीं। के साधन नही करता। मेह-सा निश्चल:-गाड़ी का चाक घूमता है परन्तु आकाश-सा निरावलंब:--कोई सहारा नही, कील थिर रहती है, चाक घूमता है परन्तु कोल थिर है। आकाश जैसा बिना आधार, बिना खभे । दिगम्बर का अगर कील भी घूमने लगे तो गाड़ी गिर जायेगी। ऐसे ही (शेष पृ० ३२ पर) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शांतिनाथ चरित सम्बन्धी साहित्य 0 कु० मृदुल कुमारी, विजनौर 'श्री शान्तिनाथ पुराण' जैन वाङ्मय का अनुपम ग्रंथ (६५० ई.) में कन्नड़ कविता में अपने को (कन्नड़ कविहै। इस ग्रन्थ मे महाकवि 'असग' ने जैन धर्म के सोलहवे तेयोल असगम) वाक्य द्वारा असग के समान होना बततीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ का चरित्र वणित किया लाया है। यह महाकवि राष्ट्रकुट नरेश कृष्ण तृतीय (ई. ६३६भगवान शान्तिनाथ का चरित्र जन साहित्यकारों का ९६८) के दरबारी कवि थे। इनकी रचना का काल ई० प्रिय तथा प्रेरक विषय रहा है। दसवी शताब्दी मे महा- सन् १५० के आसपास का रहा होगा। यह वेगिमण्डलाकवि असग ने 'श्री शान्तिनाथ पुराण' की रचना की। न्तर्गत पंगनर के निवासी थे। वेगिमण्डल के पंगनर में जिसमे भगवान् शान्तिनाथ के पूर्व भवो का विस्तृत वणन नागमय्य नाम का एक जैन ब्राह्मण था। मल्लपय्य और मिलता है। उनके गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान, निर्वाण पन्नमय उसके दो पुत्र थे। वाणियवाडि के जिनचन्द्र देव आदि पञ्चकल्याणको का वर्णन भी मिलता है। इन्होंने इनके गुरु थे और अपने गुरु के गौरवार्थ विनयपूर्वक इन आचार्य गुणभद्र के उत्तर पुराण के बासठ-सठवें पर्व मे दोनों भाइयो ने १६वें तीर्थकर शान्तिनाथ की जीवनी पर उल्लिखित भगवान् शान्तिनाथ के चरित को शान्तिनाथ आधारित महाकवि पौन्न के द्वारा शान्तिनाथ पुराण की पुराण के रूप मे प्रस्तुत किया है। इस पुराण मे १६ सर्ग रचना कराई। इसका दूसरा नाम 'पुराण चूड़ामणि' है। है जिनमे कुल मिलाकर २३५० श्लोक है। इसकी रचना मल्लपय्य की एक बेटी थी अत्तिमब्बे । 'दान चिन्तामणि' शक सवत् ६१० के लगभग हुई है। शान्तिनाथ पुराण के इस महिला की उपाधि थी। इसकी दानशीलता सर्वत्र कवि प्रशस्ति पद्यो से स्पष्ट होता है कि असग ने साधुजनो विख्यात रही। इस देवी ने महाकवि पौन्न के शान्तिपुराण का प्रकृष्ट मोह शात करने के लिए शान्ति जिनेन्द्र का को एक हजार प्रतियां लिखवाकर रत्न एवं स्वर्ण की जिन यह 'शान्तिनाथ पुराण' रचा था। प्रतिमाओं के साथ उनका सम्पूर्ण कर्नाटक मे दान किया। प्राकृत, सस्कृत, कन्नड, तमिल, मराठी आदि भारतीय शान्तिनाथ पुराण के प्रारम्भ में 8वें आश्वास तक भाषाओं में इस चरित को प्राधार बनाकर लिखे गये तीर्थकर शान्तिनाथ के ११ पूर्वभवो का वर्णन है। केवल अनेक कवियों के ग्रथ उपलब्ध होते है जिनका सक्षिप्त अन्तिम तीन आश्वासो मे शान्तिनाथ का चरित्र प्रतिविवरण इस प्रकार है पादित है । पौन्न की इस शान्तिनाथ पुराण कथा में और १. शान्तिनाथ पुराण : कन्नड़ कवि पौन्न- कमलभव (ई. १२३५) के शातिपुराण की कथा में अनेक पौन्न कन्नड भाषा के प्रसिद्ध कवि हुए हैं । कवि चक्रवर्ती, स्थलो पर अन्तर दृष्टिगोचर होता है, इसका क्या कारण उभय चक्रवर्ती, सर्वदेव कवीन्द्र और सौजन्य कुन्दांकुर है ? यह स्पष्ट रूप से ज्ञात नही है । शांतिपुराण मे लोकाआदि इनकी उपाधियां थी। इनके गुरु का नाम इन्द्रनदि कार देशानिवेशन, चतुर्गतिस्वरूप आदि जैन पूराण के था। पौन्न तो बाण की बराबरी करते हैं। नयसेन ने लक्षणों के साथ महाकाव्यो के ६८ लक्षण भी मौजद । अपने धर्मामत के ३६वें पद्य के निम्न वाक्य 'असगन देसि जहां तहां विविध रसोत्पत्ति की अनुपम रचनाएं भी वर्तपोन्नत महोत्तेन तिवेत्त देडगुं' मे असग और पौन्न का मान हैं फिर भी यह कहना पड़ेगा कि पप और रत्न को नामोल्लेख किया है। पोन्न ने स्वयं शान्तिनाथ पुराण रचनाओ मे उपलब्ध वर्णन-सौंदर्य और पात्र रचना कौशल Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६, वर्ष ४५, कि० ३ अनेकान्त पोन को कृतियों में नही है। हाँ, पौन्न का बन्ध प्रौढ़ है। शांतिनाथ का यह चरित वीर जिनेश्वर ने गौतम को कहा, वस्तत: पारिभाषिक शब्द तथा सस्कत भाषा का व्यामोह, उसे ही जिनसेन और पुष्पदत ने कहा वही मैंने भी कहा है। इन दोनो ने महाकवि पौन्न की कृतियों की शैली को ३. शान्तिनाथ चरित: कवि महाचन्द्र-कवि क्लिष्ट बना दिया है तथापि कविता मे स्वाभाविकता और महाचन्द्र इल्लराज के पुत्र थे। प्रशस्ति मे काष्ठा संघ पांडित्य विद्यमान है। कवि ने इसमे १६ छन्दो का उपयोग माथुरगच्छ पुष्करगण मे भट्रारक यशःकीति और उनके किया है। काव्य में चम्पू काव्य के अनुकूल सुप्रसिद्ध अक्षर- शिष्य गुणभद्र सूरि थे। वृत्त एवं कन्द अधिक है उनम भी शान्तरसाभिव्यक्ति के कवि की एक मात्र कृति 'शांतिनाथ चरित' है जिसमे में कल १६३६ १३ संधियां अथवा परिच्छेद और २६० कड़वक हैं जिनको पदा. २ गाठ एव त्रिपादियाँ भी है। इसमें यत्र तत्र सुन्दर आनुमानिक श्लोक संख्या पांच हजार है। ग्रंथ की प्रथम कहावतें भी मौजूद है। पौन्न के अनुसार असग कन्नड़ संधि के १२ कड़वकों में मगध देश के शासक राजा श्रणिक कवियो मे सौ गुने प्रतिभाशाली थे। और रानी चेलना का वर्णन, श्रेणिक का महावीर के ___२. शान्तिनाथ चरित : शुभकोति - शुभकीति समवसरण मे जाना और महावीर को वंदन कर गौतम से आचार्य का रचनाकाल सदत् १४३६ है। इन्होने अपनी धर्म कथा का सुनना। गुरु परम्परा का उल्लेख नही किया है। प्रस्तुत शांतिनाथ दूसरी संधि के २१ कड़वकों में विजयाधं पर्वत का चरित १६ सधियों मे पूर्ण हुआ है। इसकी एक मात्र कृति वर्णन, अकलंक कोति की मुक्तिसाधना और विजयांक के नागौर के शास्त्र भडार मे सुरक्षित है। इस ग्रथ में जैनियो उपसर्ग निवारण करने का कथन है । तीसरी सधि के २३ के १६वें तीर्थकर भगवान् शातिनाथ का जीवन परिचय कड़वको मे भगवान् शांतिनाथ की पूर्व भवावली का कथन अंकित है। भगवान् शांतिनाथ ५वे चक्रवर्ती थे उन्होंने है। चौथी सधि के २६ कड़वकों मे शांतिनाथ के भवान्तर षटखण्डो को जीतकर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था। बलभद्र के जन्म का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। पाचवी अग्त मे अविनाशी पद प्राप्त किया। कवि ने इस ग्रथ को संधि के १६ कड़वकों में वायुध चक्रवर्ती का सविस्तार महाकाव्य के रूप मे बनाने का प्रयत्न किया है। काव्य कथन है और छठी संधि के २६ कड़वकों में मेघरथ की कला की दृष्टि से यह भले ही महाकाव्य न माना जाए, सोलह कारण भावनाओं की आराधना और सर्वार्थसिद्धि परन्तु अथकर्ता की दृष्टि उसे महाकाव्य बनाने की रही गमन है। है। १५वी शताब्दी के विद्वान कवि शुभकोति ने अत मे सातवी संधि के २५ कड़वको मे मुख्यतः भगवान ग्रंथ का रचनाकाल स. १४३६ दिया है जो एक पद्य से शांतिनाथ के जन्म-अभिषेक का वर्णन है। आठवीं संधि स्पष्ट होता है। के २६ कडवको में भगवान शांतिनाथ की कैवल्य प्राप्ति कवि ने प्रथ निर्माण में प्रेरक रूपचन्द्र का परिचय देते और समवसरण विभूति का विस्तृत वर्णन है। नवी संधि हुए कहा है कि वे इक्ष्वाकुव शो कुल मे आशाधर हुए, जो के २६ कड़वको मे भगवान् शातिनाथ की दिव्य ध्वनि एव ठक्कुर नाम से प्रसिद्ध थे और जिन शासन के भक्त थे प्रवचनो का कथन है। इनके धनवउ ठक्कुर नाम का पुत्र हुआ। उनकी पत्नी का दसवी सधि के २० कड़वकों में प्रेसठ शलाका पुरुषो नाम लोनावती था, जिसका शरीर सम्यक्त्व से विभूषित का चरित सक्षिप्त वर्णित है। ११वी संधि के ३४ कड़वको था, उससे रूपचन्द नाम का पुत्र हुआ, जिसने उक्त शाति- में भौगोलिक आयामो का वर्णन है। भरत क्षेत्र का ही नाथ चरित का निर्माण कराया। कवि ने प्रत्येक सधि के नही, तीनों लोकों का सामान्य कथन है। १२वी सधि के अत मे रूपचन्द की प्रशसा मे आशीवादात्भक अनेक पद्य १८ कड़वकों में भगवानशांतिनाथ द्वारा णित सदाचार दिए है। का कथन है। और अन्तिम १३वी सधि के १७ कड़वको कवि ने शांतिनाथ चरित के विषय मे लिखा है कि मे शांतिनाथ का निर्वाणगमन है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शान्तिनाबपरित सम्बन्धी साहित्य २७ यद्यपि इस ग्रंथ में कथावस्तु की दृष्टि से कोई नवी- बीच-बीच में अपभ्रश भाषा भी प्रयुक्त हुई है। इसकी नता नहीं है, किन्तु काव्य कला और शिल्प की दृष्टि से रचना खम्भात में की गई। ग्रंथ की प्रस्तावना में कुछ रचना महत्वपूर्ण है। ग्रंथ का वर्ण्य विषय पौराणिक है आचार्यों के नामों का उल्लेख है-इन्द्रभूति (कविराज इसी से उसे पौराणिकता के सांचे में ढाला गया है। चक्रवर्ती) भद्रबाह-जिन्होंने वासुदेव चरित लिखा (सवाय आलोच्यमान रचना अपभ्रंश के चरित काव्यो को कोटि लक्खं बहकहाकलियम) हरिभद्र समणादित्य कथा के प्रणेता की है। चरित काव्यों के सभी लक्षण हैं। प्रत्येक सधि के दाक्षिण्यचिह्न सूरि कुवलयमाला के कई तथा सिद्धषि आरम मे कवि ने अग्रवाल श्रावक साधारण को शांति- उपमितिभवप्रपचा क कर्ता (यह अब तक अप्रकाशित है)। नाथ से मंगल कामना की है। ___ इनकी एफ कृति 'मूल शुद्धि प्रकरण टीका' है। इसके अथ रचना में प्रेरक जोयणिपुर (दिल्ली) निवासी चौथे और छठे स्थानक मे आने वाले चन्दना कथानक तथा अग्रवाल कुलभूषण गर्ग गोत्रीय साहू भोजराज के पांच ब्रह्मदत्त कथानक को देखने से ज्ञात होता है कि पुत्रो मे से द्वितीय पुत्र ज्ञानचन्द्र का पुत्र साधारण था, इनमें आने वाली अधिकांश गाथाएं तथा कतिपय छोटेजिसको प्रेरणा से ग्रथ की रचना की गई है। कवि ने बडे गदा सन्दर्भ शीलाकाचार्य के 'च उपन्नमहापुरिसचरिय' प्रशस्ति मे साधारण के परिवार का विस्तृत परिचय मे आने वाले 'वसुमइसविहाणय' के अवशिष्ट भागों में से कराया है। उसने हस्तिनापुर की यात्रार्थ सघ चलाया था कितना ही भाग अल्पाधिक शाब्दिक परिवर्तन के साथ और निज मन्दिर का निर्माण कराकर उसकी प्रतिष्ठा चउपन्नमहापुरिमचग्यि का ही ज्ञात होता है । अनुमान है सम्पन्न कर पुण्यार्जन किया था । ज्ञानचन्द्र की पत्नी का सांतिनाहचरिय पर भी चउप्पन्न का प्रभाव हो। चकि नाम सउराजही था जो अनेक गुणों से विभूषित थी। अप्रकाशित होने से कहना कठिन है। शातिनाथ पर इस उससे तीन पुत्र हुए थे। पहला पुत्र सारंग साहु था, जिसन विशाल रचना के अतिरिक्त प्राकृत में एक लधु रचना ३३ सम्मेद शिखर को यात्रा की थी। उसकी पत्नी का नाम गाथाओं में भी जिन बल्लभ मूरि रचित तथा अन्य सोमतिलोकाही था। दूसरा पुत्र साधारण बड़ा विद्वान् और प्रभ मूरि रवित का उल्लेख मिलता है। गुणी था। उसने शत्रुजय की यात्रा की, उसकी पत्नी ५. शांतिनाथ चरित : दुलोचन्द्र-इम में १६३ सोवाही थी उससे चार पुत्र हुए थे-अभयचन्द्र, मल्लि- तीर्थंकर शातिनाथ का चरित्र वणित है"। भगवान् शांतिदास, जितमल्ल और सोहिल्ल। उनकी चार पत्नियों के नाथ तीर्थङ्कर के साथ चक्रवर्ती तथा कामदेव भी थे। इन नाम चंदणही, भदासही, समदो और भीखणही। ये चारो सभी विशेषताओ का इम काव्य मे वर्णन है। काव्य मे ही पतिव्रता, साध्वी और धर्मनिष्ठा थी। इस तरह साह १६ अधिकार हैं तथा ग्रन्थान ४३७५ श्लोक प्रमाण है। साधारण ने समस्त परिवार के साथ 'शांतिनाथ चरित' इमकी भाषा अलकारिक तथा वर्णन रोचक एवं प्रभावोका निर्माण कराया। त्पादक है । प्रारम्भ में श्रृंगार रस के साथ-साथ शात रस कवि ने इस ग्रंथ की रचना वि. सं. १५८७ की की ओर प्रवृत्ति पर कवि ने अच्छा प्रकाश डाला है। कार्तिक कृष्ण पंचमी के दिन मुगल बादशाह बाबर के ६. शान्तिनाथ चरित : श्रीधर-११वी-१२वी राज्यकाल मे योगिनीपुर में बनाकर समाप्त की थी"। शताब्दो के आचार्यों में श्रीधर ने सभवत: मं० ११६६ मे ४. शांतिनाह चरियं : देवचन्द्राचार्य-आचार्य शांतिनाथ चरित की रच-। को"। गुणसेन के शिष्य और हेमचन्द्राचार्य के गुरु पूर्णतल्ल- ७. शांतिनाथ चरित : माणिक्यचन्द्र सरिगच्छीय देवचन्द्राचार्य कृत १६। तीकर शांतिनाथ का मम्मट कृत काव्य प्रकार के टीकाकार माणिक्यचन्द्र सरि चरित लिखा गया"। की दूसरी रचना 'शांतिनाथ चरित है। इसकी एक ताडइसका परिणाम ग्रन्थान १२००० है। इसकी रचना पत्रीय प्रति मिलती है। इसमे आठ मर्ग हैं। इसकी रचना संवत ११६. में हुई। यह प्राकृत भाषा में गद्य पद्यमय है। विस्तार ५५७४ श्लोक प्रमाण है जो कवि ने स्वय Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८, वर्ष ४५, कि०३ अनेकान्त निर्दिष्ट किया है । इसका आधार हरिभद्र सूरि का अनुष्टुप छन्द का प्रयोग हुआ है। परन्तु सर्ग के अन्त में समराइञ्चकहा माना जाता है। छन्द बदल दिया गया है। मालिनी, शार्दूलविक्रीडित आदि इसमें वैसे महाकव्य के सभी बाह्य लक्षण समाविष्ट कुछ छन्दों का प्रयोग हुआ है । शांतिनाथ चरित की रचना हैं परन्तु भाषा शैथिल्य सर्वांगीण जीवन के चित्र विक्रम की तेरहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध मानने में आपत्ति उपस्थित करने की अक्षमता एवं मार्मिक स्थलों की कमी न होनी चाहिए। अनुमान किया जाता है कि यह कवि इसे प्रमुख महाकाव्य मानने में बाधक है। सगों के नाम की वृद्ध अवस्था होगी क्योंकि इस कृति में कवि अपने वणित घटनाओं के आधार पर रखे गये हैं। सप्तम सर्ग पांडित्य प्रदर्शन के प्रति उदासीन है जबकि काव्य प्रकाश तो जैन धर्म के सिद्धान्तों से ही परिपूर्ण है। काव्य वैराग्य संकेत में उनके प्रौढ़ पांडित्य के दर्शन होते हैं"। मूलक और शान्तरस पर्यवसायी है। इसका कथानक ८. शान्तिनाथ चरित : ज्ञान सागर-वहत्तपाशिथिल है और इसमे प्रबन्ध रूढ़ियो का पालन हुआ है। गच्छ के रत्नसिंह के शिष्य ज्ञान सागर ने संवत् १ण१७ मंगलाचरण परमब्रह्म की स्तुति से प्रारम्भ होता है। में शांतिनाथ चरित की रचना की। छठे. सातवें और आठवे सर्ग मे विविध आख्यानों का समा- शान्तिनाथ चरित: मनि भद्र सूरि-मुनिवेश है। कई स्थलो पर स्वमतप्रशसा और परमतखडन भद्र सूरि के शांतिनाथ चरित महाकाव्य की कथावस्तु का किया है। इस काव्य मे स्तोत्रों और महात्म्य वर्णनों की आधार मुनिदेव सूरि का शांतिनाथ चरित है। प्रचुरता भी दिखाई देती है। छठे और आठवें सर्ग में मूल कथा के साथ-साथ इसमें अवान्तर कथाओं को तीर्थकर शांतिनाथ के स्तोत्र तथा कई तीर्थों के महात्म्य भरमार है यथामंगल कुंभ कथानक, धनद, पुत्र कथा, का वर्णन है। इस शातिनाथ चरित का कथानक ठीक अमरदत्त नूप कथा, वणिक द्वय कथा, परिवार कथा, वही है जो मुनिभद्र सूरि के शांतिनाथ महाकाव्य का है, परन्तु इसमे कथानक का विभाजन नवीन ढंग से किया अमृताम्रभूपति कथा, स्कन्दिल पुत्र कथा, गुण वमं कथा, अग्नि शर्मा द्विजकथा, भानुदत्त कथा, माधव कथा आदि। गया है। इसमे प्रथम सर्ग मे शांतिनाथ के प्रथम भव, इसमे धनदत्त की कथा ५, ६, ७ सर्ग घेरे हुए है। इस द्वितीय, तृतीय भव का वर्णन है। द्वितीय सर्ग मे चतुर्थ पचम भव, तृतीय सर्ग में षष्ठ और सप्तम भव का, चतुर्थ अवान्तर कथाओं के चयन में भी प्रस्तुत काव्य के रचयिता सर्ग में अष्टम और नवम भव का, पंचम सर्ग मे दशम मुनिभद्र ने मुनिदेव का अनुकरण किया है। इस तरह और एकादश भव का, षष्ठ सर्ग में शांतिनाथ के जन्म, प्रस्तुत काव्य मे जैन धर्म के तत्त्वो का अनुकरण भी मुनिराज्याभिषेक, दीक्षा, केवलोत्पत्ति तथा देशना का वर्णन है भद्र ने किया है। इसमें मुनिभद्र ने मौलिक सृजन शक्ति सप्तम सर्ग में देशना के अन्त द्वादश भव तथा शील की का परिचय नहीं दिया फिर भी यह काव्य अपनी प्रौढ महिमा का वर्णन है और अष्टम सर्ग में श्री शांतिनाथ का। भाषा शैली और उदात्त अभिव्यंजना शक्ति से अपना पृथक निर्वाण का वर्णन है। कथानक विभाजन की दृष्टि से नक विभाजन की दृष्टि से स्थान रखता है। नहीं अपितु नवीन अवान्तर कथाओं की योजना में भी यह काव्य १६ सर्गों में विभक्त है। अनुष्टप मान से माणिक्यचन्द्र सूरि ने अपनी मौलिकता प्रदर्शित की है। रचना परिमाण ६२७२ श्लोक प्रमाण है । भवान्तर तथा इसकी भाषा सरल और प्रसाद गुण युक्त है। अधिक- अवान्तर कथानकों के प्राचर्य के साथ इस काव्य में स्तोत्री तर इसमें छोटे समासों वाली या समास रहित पदावली और महात्म्यों का समावेश भी अधिक मात्रा में हुआ है। का प्रयोग हुआ है। इसमे शब्दालंकार के चमक और प्रत्येक सर्ग का आरम्भ शांतिनाथ स्तवन से हआ है और अनुप्रास के प्रयोग से भाषा में प्रवाह और माधुर्य आ गया बीच-बीच मे देवताओं और कथानक के पात्रों द्वारा जिनेन्द्र है। अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक एवं विरोधा- स्तुति, मेघरथ आदि सत्पुरुषों की देवों द्वारा स्तुति की भास आदि अलंकार की सुन्दर योजना हुई है । इसमे प्रायः गई है। शत्रुजय महात्म्य आदि एक दो महात्म्य भी हैं। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शान्तिनाथ चरित सम्बन्धी साहित्य इस काव्य में अनेक स्त्री-पुरुष पात्र हैं किन्तु चरित्र मिलता है। अलंकारों में यमक के अतिरिक्त भाषा को की दृष्टि से शांतिनाथ, चक्रायुध, अशनिघोष सुतारा सरलता अक्षत है। उपमा, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास को आदि प्रमुख है। प्रकृति चित्रण कम है, कही-कहीं सक्षेप यत्र तत्र स्वाभाविक योजना है।। में प्रातः संध्या, सर, उपवन, ऋतु वर्णन है । सौन्दर्यचित्रण प्रत्येक सर्ग में एक छन्द तथा अंत में छन्द परिवर्तन भी है किन्तु परम्परागत उपमानों द्वारा ही मोलिक है। १४वें सर्ग में विविध छन्दों को प्रयोग है। कुल मिला कल्पनाएं कवि की सुन्दर है। इस काव्य मे सामयिक कर १६ छन्द हैं। उपजाति छन्द सर्वाधिक है। सामाजिक व्यवस्था सुन्दर है । अपने युग में जन्म, विवाह कवि ने काव्य पंचक (रघुवंश, कुमार सभव, किराआदि अवसर पर सामाजिक धार्मिक कार्यों का विवरण तार्जुनीयम्, शिशुपालवघ, नैषध) के समकक्ष जैन साहित्य देकर कवि ने रीति-रिवाजों पर अच्छा प्रकाश डाला है। में काव्य के प्रभाव की पूर्ति के लिए उक्त काव्य रचना काव्य कला की दृष्टि से विविध रस है। शांत रस की है। इस काव्य का संशोधन राजशेखर सरि ने किया प्रधान परन्तु वीर रौद्र, शृंगार वात्सल्य की छटा भी है। था। कवि का रचना काल भी प्रशस्ति मे संवत् १४१० काव्य की भाषा में प्रौढ़ता, लालित्य एवं अनेक रूपता के दिया गया है। दर्शन होते है। अलकारो मे यमक कई स्थलों पर प्रयोग (क्रमशः) सन्दर्भ-सूची १. स पुराणमिदं व्यधत्त शान्तेरसगः साधुजन प्रमोह कत्तिय पढम पक्खि पंचमिदिणि, शान्त्यः ॥ हुउ परिपुण्ण वि उग्गंतइ इणि ।। कवि प्रशस्ति पद्य, श्रीशांतिनाथ पुराण पृ. २५७. -कवि महाचन्द्र : शांतिनाथ चरित प्रशस्ति २. श्री परमानंद आचार्य : जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, १२. जिन रत्नकोश, पृ. ३७६. भाग २ पृ २१५-१६. १३. डा० गुलाबचन्द्र चौधरी : जैन साहित्य का वहद ३. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास (भाग ७), पार्श्वनाथ इतिहास, भाग ६, पृ. ८६. विद्याश्रम प्रकाशन, पृ. १६. १४. दुलीचन्द्र पन्नालाल देवरी १९२३, हिन्दी अनुवाद४. जैन साहित्य का वृसत् इतिहास भाग ७, पृ. १६-२० जिनवाणी प्र० का० कलकत्ता १९३६. (इसका अनुवाद सूरत से पं० लालाराम शास्त्रीकृत ५. वही-पृ. १०. भी उपलब्ध है।) ६. आसी विक्रमभपतेः कलियुगे शांतोत्तरे संगते । १५. जन माहित्य का वृहद् इतिहास भाग ६, पृ. १०६. सत्यं क्रोधननामधेयविपुले संवच्छरे संमते। १६. ज.ध. प्रा. इ. भाग २, पृ. ३५७. दत्ते तत्र चतुर्दशेतु परमो षट्त्रिंशके स्वांशके । १७. चतुः सप्तति संयुक्ते पञ्च पञ्चाशता शतो। मासे फाल्गुणि पूर्व पक्षकबुधे सम्यक् तृतीयां तिथो । प्रत्यक्षर गणनया ग्रन्थमानं भवेदिह ॥ -जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, भाग २, पृ. ४८५. -ग्रन्थाग्र ५५७४ प्रशस्ति श्लोक २०. ७. वही-पृ. ४८५. १८. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ६, पृ.१०५-६. ८. शुभकीति : शांतिनाथ चरित १०वी संधि । १६. वही-पृ. १०३. ६. जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, भाग २, पृ. ५२५. २०. शांतिनाथ चरित : मुनिभद्र सूरि--सर्ग १/५४, १०. वही-पृ. ५२५. ३/११३, ११६-१२८, ४/२६, ६-६०. ११. विक्रमरायहु ववगय कालहु, २१. जैन साहित्य का वृहत् इतिहास भाग ६, पृ. ५१०. रिसिवसु-सर-भविअंकालइ। २२. प्रशस्ति पद्य ११-१४ शांतिनाथ चरित : मुनिभद्र सरि Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल की बात दिल से कही-और रो लिए! [] पद्मचन्द्र शास्त्री सं० 'अनेकान्त' जयन्ती : एक गलत परम्परा : (जन्मदिन आदि) के रूप में मनाते देखे जाते हैं और ऐसी तीर्थकर भगवान तद्भव मोक्षगामी जीव होते हैं और जयन्तियाँ सांसारिक सुख समृद्धि की कामना में मनाई उनके कल्याणकों के मनाये जाने का शास्त्रों में विधान है। जाती हैं, जो श्रावक के लिए मनाना-मनवाना उपयुक्त है। जिनको पूर्व के किमी भव में तोथंकर प्रकृति का बन्ध । माधु तो सांसारिक बन्धन काट कर परम्प या मोक्ष पाने होता है उनके पांच कल्याणक होते हैं तथा चरम (चालू) न के उद्देश्य मे बना जाता है और इसीलिए माधुओ को भव में ही चौथे-पाँच गुणस्थान मे तीर्थकर प्रकृति बाँधने वैराग्य और तप जैसे संसार छेदक उपक्रमों मात्र का वालों के तप, ज्ञान, मोक्ष ये तीन और छठे-सातवें गुण- विधान है-'ज्ञान-ध्यान तपोरक्तः। याद स स्थान में नोकर प्रति प्रने वालों के जान और मोल चाहनामों की ही पूर्ति करना हो तो साधु बनना ही ये दो कल्याणक होते हैं-"तीर्थबन्धप्रारम्भश्चरमांगाणा. निरर्थक है। मप्रमत्तसंयत देशसंयतयोस्तदा कल्याणानि निष्क्रमणा- उक्त तथ्य के होते हुए भी पंचपरमेष्ठियों मे इस युग दीनित्रीणि प्रमत्ताप्रमत्तयोस्तदा ज्ञाननिर्वाणे दे।"-गो. के तीर्थंकर महावीर के बताए सिद्धान्तो को प्रचार में क./जी. प्र. ३८१/५४६/५ कल्याणक तद्भवमोक्षगामी के लाने की दष्टि से (आगम में उल्लेख के अभाव में भी) ही मनाये जाते है। दिल्ली की जैन मित्र मण्डल संस्था ने महावीर जयन्ती णमोकार मंत्र गभित किसी परमेष्ठी की जयंती मनाने मनाना आरम्भ किया और धीरे-धीरे यह भारत मे प्रचका शास्त्रों में कही विधान नहीं है न कभी किसी पूर्व परमेष्ठी लन पा गई । बाद को कतिपय अन्य तीर्थकरो की जयकी जयन्ती मनाई ही गई। यदि कहीं जयन्ती मनाने का न्तियां मनाना भी चाल हो गया। और किसी अपेक्षा उल्लेख हो तो आगम में देखें। वैसे तो एक-एक तीर्थकर धर्म प्रचार को दृष्टि से मोक्षप्राप्त आत्माओ के जामके समय मे कोड़ा-कोड़ियो मुनियो के मोक्ष जाने का वर्णन कल्याणक का यह सम-रूप लोगो मे धर्म प्रचार का साधक है-उनमें आचार्य, उपाध्यायऔर साधु सभी रहे-किसी सिद्ध हुआ। चूकि महावीर आदि कृत्यकृत्य (मोक्ष प्राप्त) को कोई जयन्ती नही मनाई गई। हम तो देख रहे हैं कि थे, उन्हें इससे कुछ लेना देना नहीं था। तीथंकरों की हमे कहीं, परम्परित पूर्वाचार्यों में ही किसी एक की हो, मोक्षप्राप्ति से पूर्व भी उनके कल्याणक उन्हें स्वय कोई किसी जयन्ती मनाये जाने का उल्लेख मिल जाय। आकर्षण पंदा नही करते, ज क आज सभी मे आकर्षण ही आखिर, धरसेन, गुणधर, यतिवृषभ, भूतवलि, पुष्पदन्त, आकर्षण शेष हैं। कुन्दकुन्द प्रभृति सभी तो हुए और ये वर्तमान आचार्य वर्तमान में त्यागो-साधुओं की जयन्तियां मनाने की और मुनियों से अपनी श्रेष्ठता में न्यून नही कहे जा सकते। बाढ-सी आ गई है। जन्म और दीक्षा को जयन्तियां तो अस्तु, कहीं भी किसी की जन्म, दीक्षा जैसी जयंतियों दर किनार रहा । अब तो आचार्यों में सर्वज्ञ भी होने अथवा कल्याणकों का उल्लेख नही है। जैसा चलन कि लगे, तब भविष्य में केवलज्ञान की जयन्ती की सम्भावना अब चल पडा है । होनाभी कोई आश्चर्य नहो। सुना है , कुछ समय पूर्वही लोगों संस्कारों में सोलह संस्कार श्रावक धर्म में है और ने एक आचार्य को 'कलिकाल-सर्वज्ञ' की उपाधि से भूषित श्रावक गण जन्म, विवाह आदि जैसे सस्कारों को जयन्ती किया है। सोचना यह है कि लोगों को क्या हो गया है ? Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल की गात दिल बेकही-और रो लिए! जब इस काल मे यहाँ से मोक्ष नही, तब केवलज्ञान की मात्र किसी एक पक्ष को लेकर ही न चला करें-आचार्यों सम्भावना कैसे ? और केवलज्ञान के दश-अतिशय उनमें के मूल शब्दार्थ पर चिन्तन कर ही बोला करे। किसने कब और कहाँ देखे ? आदि । इन विडम्बनाओं को वे बोले-हम तो कोई अपना पक्ष नही लेते, हम तो देखने से ऐसा भी सन्देह होने लगा है कि भविष्य में कहीं जिनवाणी के अनुसार ही व्याख्यान करते हैं। मुनियों की चार या पाँच जयन्तियां तक मनाना भी चालू हमने कहा-यदि ऐसा है तो आप कुन्दकुन्द स्वामी न हो जायं? लोगो का तो कहना है---इन जयन्तियों मे के समयसार की उस दूसरे नम्बर की गाथा को द्वितीय प्रभूत-द्रव्य का अपव्यय होता है। पर हम इससे उल्टा पक्ति की व्याख्या कीजिए, जो उन्होने 'पर-समय' की विचार कर चलते हैं-हमें द्रव्य के आय-व्यय की चिन्ता व्याख्या मे कही है-'पुगलकम्मपदेसटिठय च जाण परनहीं होती। द्रव्य तो पानी जानी चीज है, वह तो जैसे समयं ।' आया है वैसे ही जायगा, उसका क्या गम ? हमे तो दुःख उन्होने कहा-जो जीव (व्यक्ति) पुदगल कर्म प्रदेशों तब होता है जब हम आगम-रक्षा का लोप और श्रावक व मे-उनके फलों में, आपरा मानना है वह पर-समय (परमनियो द्वारा आगम-अ.ज्ञा का उलघन देखते-सुनते है। समयी) है। सम्भव है कि परिग्रह-संग्रही को आत्म-दर्शन कराने की हमने कहा-'जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी भाति यह भी कोई धर्म-मार्ग के धान का विडम्बना हा। पैठ'-कुछ पाने के लिए, गहरे पानी में गोता लगाना वैसे भी आज तो अनेक शोधक कुन्दकुन्दाद्याचार्यों की पड़ता पडता है-उसमे घुसना पडता है। समुद्र से मोतो निकलता कथनी के शुद्ध रूपो की खोज तक में लगे हैं। इसलिए है, गहरे पानी मे पैठने से---केवल पानी के ऊपर तैरने कई लोगो को तो आगम-रूपो पर सन्देह तक होने लगा से मोती नही निकलता। हमे आचार्यों के मल-शब्दार्थ के के कि आज जो आगम-रूप माना जाता है, कही वह पनसार वर्तत at विकत रूप तो नही है? वे इसी प्रतीक्षा में है कि जब ऊपर की गाथा की शब्दावली से तो कर्म या कर्मशुद्ध-रूप समक्ष आए, तब उस पर चलने का विचार किया फलो मे आपा मानने या आपा जानने जैसा भावात्मक जाय । सर्वज्ञ जाने, ये शोधक है या और कुछ क्रियारूप अर्थ प्रकट नही होता। वहाँ तो स्पष्ट रूप मे स्व-समय और पर-समय ? द्रव्यरूप-पुदगलकर्म प्रदेशो मे स्थितिमात्र की ही बात प्रकट ___ हम और आप दोनो ही इस मायने मे सदा भाग्य- होती है। वहाँ 'पुग्गलकम्मपदेसट्टिय' शब्द पुदगलरूप शाली रहे कि हमे और आपको कभी कोई अज्ञानी नही द्रव्य कमो को लक्ष्य कर रहा है और जहद्रव्य कर्मों मे टकराया--जो भी मिला वह बुद्धिमान ही मिला। कभी स्थित मात्र होना, आपा-पर मानने जैसे विकल्पो से सर्वथा किसी ने अपने को नासमझ रही समझा। चाहे लोग उसे विपरीत है। आपा-पर मानने जैसी क्रिया हो तो स्थिति रकमसले कहाँ ? स्थित होना और क्रिया होना दोनो परस्पर अज्ञानी भले ही समझते रहे हो। पर, किसी के समझने से तो कोई मूर्ख नही हो जाता; जब तक कि उसे अपनी विरोधी हैं। अत: वहाँ तो जीव यावत्काल पर द्रव्य को से बँधा है तावत्काल जीव पर-समय है। जब अज्ञानता का अनुभव स्वयं न हो। हमारी सतहत्तर वर्ष की उम्र में हमे बहु। से जान- यह रोधक-द्रव्य कमी से छुटकारा पाए सब स्व-समय होवे। कार मिले। उनमें कई ऐसे मिले जिन्होने अपने को गाथा का भाव स्पष्ट ऐमा जान पड़ता है कि जब विविध ग्रन्थों का गहन स्वाध्यायो होने का दावा तक तक यह जीव आत्मगुण घातक (घातिया) पोद्गलिक किया। हालांकि ऐसे विभिन्न विद्वानो मे भी आगमों के द्रव्यकर्म प्रदेशों में स्थित है-उनसे बधा है, तब तक यह मूलार्थ करने के विषय में भारी मत-भेद रहे। जीव पूर्णकाल पर-समयरूप है। मोह क्षय के बादहमने एक स्वाध्यायी और वाचक से कहा-कि हम केवलज्ञानी में ही स्व-समय जैसा व्यपदेश किया जा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२, वर्ष ४५, कि०३ अनेकान्त सकता है । और वह अवस्था चारित्र के धारण किये बिना आचार्यों ने यह भी कहा है-'अणियदगुणपज्जओध पर नही होती। जब कि आज परिपाटी ऐसी बनायी जा समओ........' । पुद्गलकर्म प्रदेशस्थितत्वात्परमेकत्वेन रही है कि कुछ एकन्ती बिना चारित्र पालन किए, युगपज्जानन् गच्छश्च पर-समय इति प्रतीयते'-"पुद्गलपरिग्रह की बढ़वारी मे रस लेते हुए, चतुर्थ-गुण स्थान में कर्मोदयेनजनिता ये नारकाधुपदेशा व्यपदेशा, संज्ञा पूर्वोक्तही पूर्ण स्व-समय में आने के स्वप्न देख, कुन्दकुन्द के निश्चयरत्नत्रयाभावात् तत्र यदा स्थितो भवत्ययं जीवस्तदा 'पुग्गलकम्मपदेसट्ठिय' जैसे कथन की अवहेलना कर रहे त जीवं पर-समयं जानीहि इति ।" हैं। उन्हें कुन्दकुन्द के 'चरित्तदंसपणाणट्ठिय जैसी त्रिमूर्ति इस प्रकार हम दोनों की बात अधुरी और चिन्तन का भी किचित् ध्यान नही। इन्हें पांचवे-छठे गुणस्थान का विषय ही बनी रह गई। विज्ञो को इस चर्चा मे से भी कोई प्रयोजन नही । खेद है, कि जिस मनुष्यगति में हमारी मदद करनी चाहिए कि हम कोरी चर्चा में ही संयम की विशेषता होनी चाहिए उस सयम (चारित्र) से स्व-समय की बात करें या स्व-समय को प्राप्त तीर्थंकरये मुंह मोड़ रहे हैं। जब कि इसमे आचार्यों ने श्रावक के अर्हन्तो वत् संयमाचरण के साथ उस और बढ़ने का प्रयत्न व्रत, प्रतिमाओं और महावतादि धारण करने का क्रम भी करें? जब कि आचार्यों ने समुदित रत्नत्रय को हो निर्धारित किया है। मोक्षमार्ग कहा है । तब ये कोरे सम्यग्दर्शन ध आत्मा देख वे बोले-अपेक्षा दृष्टि से यह कथन भी ठीक है। रहे हैं। –सम्पादक (पृ. २४ का शेषांश) अर्थ है आकाश जैसा-खाली । नग्न ही नहीं अपने को परिग्रह की वासना है उसका बाह्य त्याग निष्फल है। नग्न बना लिया, सबसे रहित । अगर बाहर का त्याग किया भी जाए तो भी यही ध्यान ऐसा जैन साधु होता है जो मोक्ष मार्ग पर गमन रखकर किया जाए कि वह भीतर के त्याग के लिए करता है। प्रबुद्ध और उपशांत होकर-एक साथ शात निमित्त बने । परन्तु लोग बाहर से तो छोड़ देते है भी और जागे हए भी। जितना जागरण उतना शांत, से छोड़ते नहीं। छोड़ने तक को पकड़ लेते है और त्याग साथ-साथ हैं। क्षणमात्र भी प्रमाद नहीं। का अहंकार आ जाता है । वास्तव मे भाव ही मुख्य लिंग है। द्रव्यलिंग परमार्थ जो देह आदि की ममता मे रहित है, मान आदि कषायों से पूरी तरह मुक्त है तथा जो अपनी आत्मा मे नहीं है क्योकि भाव ही गुण-दोषो का कारण होता है। भाव ही असली बात है। क्रिया तो उसकी छाया है। लान है वही साधु भावलिगी है। भावलिंगी वही है जो भाव मे प्राप्त हुआ वह क्रिया मे आवेगा परन्तु जो जिसन धन छाड़ा क्योकि पकड हो नही रही। द्रव्यलिंगी आते ही नही। वह है जिसने धन छोड़। परन्तु पकड़ना न छोड़ा। और जो भाव में है वह क्रिया मे आवेगा, इसलिए कि भाव जिसने बाहर से भी नहीं छोड़ा वह तो कुलिंगी है। प्रधान है। लोग भाव की चिंता नही करते द्रव्य की चिता ध्यान का दिया जलाना है। अगर आत्मध्यान का दिया करते हैं। अब तो द्रव्य की भी चिता न रही मात्र द्रव्य जल गया तो सब कुछ मिल गया अन्यथा जैसे थे वैसे रह (धन) की चिता रह गयी। भावों को विशुद्धि के लिए गये। २८ मूल गुणों का पालन तो वह लक्षण रेखा है ही बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है जिसके भीतर जिसको लांघ गये तो व्यवहार मुनिपना भी नही रहेगा। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचयित-ज्ञानकण -मैं स्वभावत: एक हूं, चैतन्य हूं, रागादिक शून्य हूं, यह जो सामग्री देख रहा हूं पर-जन्य है, हेय है, उपादेय तो निज ही है। -रागादिक गए बिना शान्ति की उद्भति नहीं। प्रतः सर्व व्यापार उसी के निवारण में लगा देना ही शान्ति का उपाय है। -मैं उसी को सम्यग्ज्ञानी मानता हूं जिसकी श्रद्धा में मान-अपमान से कोई हर्ष-विषाद नहीं होता। -गृहस्थ अवस्था में नाना प्रकार के उपद्रवों का सद्भाव होने पर भी निर्मल अवस्था का लाभ अशक्य या असम्भव नहीं। -इस ससार-वन में हमने अनन्त दुःख पाए। दुख का मूल कारण हमारा ही दोष है। हम 'पर' को अपराधी मानते हैं, इसी से दुःखी होते हैं। -अन्तरग की शान्ति पुरुषार्थ अधीन है, जब शुभ अवसर आवेगा, स्वयमेव कार्य बन जावेगा। -हमने केवल 'पर' को ही उपकार का क्षेत्र बना रखा है। मैं तो उसे मनुष्य ही नहीं मानता जो स्वोपकार से वंचित है। -केवल बाह्य पदार्थों के त्याग से ही शान्ति का लाभ नही, जब तक मूर्छा की सत्ता न हटेगी। बतः मूर्छा घटाना ही पुरुषार्थ है । --अभिलाषा अनात्मीय वस्तु है। इसका त्याग ही आत्म-स्वरूप का शोधक है। -मोह को दुर्बलता भोजन की न्यूनता से नहीं होगी, किन्तु रागादिक के त्यागने से होगी। -ऊपरी लिवास से अन्तरग की चमक नही आती। -कर्मोदय की प्रबलता देखकर अशात न होना। अजित कम का भोगना और समता-भाव से भोगना यही प्रशस्त है। -औदयिक भाव ही कर्मबन्ध के जनक हैं और वे भाव ही जो केवल मोहनीय के उदय में होते हैं, शेष कुछ नही कर सकते। -पर-पदार्थ के साथ यावत् सबंध है, तावत् ही संसार है । -जितनी शान्ति त्याग करते समय रहेगी, उतनी ही जल्दी संसार से छुटकारा होगा। -वर्णी जी सौजन्य : श्री शान्तोलाल जैन कागजी आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०.१० वाधिक मूल्य : ६) २०, इस अंक का मूल्य : १ रुपया ५० पैसे विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं । यह मावश्यक नहीं कि सम्पादक-मण्डल __ लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते। कागज प्राप्ति :-श्रीमती अंगूरो देवो जैन, धर्मपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी, नई दिल्ली-२ के सौजन्य से Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन नाम्य-प्रशस्ति संग्रह, भाग १: संस्कृत पोर प्राकृत के १७१ अप्रकाशित प्रस्थों की प्रशस्तियों का मगलाचरण सहित प्रपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों मोर पं. परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से प्रलंकृत, सजिल्द। ... नमन्म-प्रशस्ति संग्रह, भाग २: अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित प्रन्यों को प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह । पचपन पन्यकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय मोर परिशिष्टों सहित । सं. पं. परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १५... पवणबेलगोल और दक्षिण के प्रम्य जैन तीर्थ: श्री राजकृष्ण न ... म साहित्य और इतिहास पर विशा प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४, सजिल्द । अन ललनावली (तीन भागों में): सं०५. बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री प्रत्येक भाग ४.... जिन शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग : श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, सात विषयों पर शास्त्रीय तर्कपूर्ण विवेचन २-०० Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of Jain References.) In two Vol. Volume I contains 1 to 1044 pages, volume II contains 1045 to 1918 pages size crown octavo. Huge cost is involved in its publication. But in order to provide it to each library, its library edition is made available only in 600/- for one set of 2 volume. 600-00 . सम्पादन परामर्शदाता : श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक : श्री पचन्द्र शास्त्रो प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीरसेवामन्दिर के लिए मदित, गीता प्रिटिंग एजेन्सी, डी०.१०५, न्यूसीलमपुर, दिल्ली-५३ प्रिन्टेड पत्रिका बक-पंकिट Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिरका त्रैमासिक अनकान्त बब ४५ कि. (पत्र प्रवर्तक : प्राचार्य जुगल किशोर मुख्तार 'युगबीर') __ अक्टूबर-दिसम्बर १९९२ इस अंक में विषय १. ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावे २. जैन एवं बौद्ध साहित्य में श्रमण परम्परा | -हा. रमेशचन्द्र जैन ३. पाश्र्वनाथ और पपावती -श्री राजमल जैन ४. असंयन-समकित सत्-आचरण रहित नहीं होता -जवाहर लाल मोतीलाल जैन भीण्डर ५. जयघवला पु. १६ का शुद्धि-पत्र -श्री जवाहरलाल मोतीलाल अन, भीडर ६. श्री शांतिनाथ चरित संबंधी साहित्य -कु. मृदुला कुमारी, बिजनौर ७. बिना सुगन्ध फूल का मूल्य नहीं -श्री प्रेमचन्द जैन ८. जो हमें पसन्द नहीं आया -पचन्द्र शास्त्री सादिक | ..दिर की बात दिल से कही-और रो लिए -श्री पचन्द्र शास्त्री 'संपादक' १०. तब सुधार कैसे हो? अब.. कवर पृ. २ ११. सचिन ज्ञान-कण-श्री साम्डीलाल जैन कागजी , ३ - प्रकाशक: वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब सुधार कैसे हो ? जब : ० नितान्त अपरिग्रही कहलाने के अधिकारी कतिपय वेषधारी बैक-बेलैन्स और भव्य भवनादि में लीन हों। x X 0 समस्त समाज को एक सूत्र में बांधने की बातें करने वाले स्वयं अपने सीमित-परिकर को ही एकता में रखने में असमर्थ हों। x x समाज को सच्चरित्र बनाने में उद्यमी स्वयं मद्य पान, घम्रपान, रात्रि भोजन आदि में लीन हों। देव-दर्शन आदि दैनिक कर्तव्य तो संयोग से यदा-कदा ही करते हों। ऊंची ऊंचो तत्त्वचर्चा का रस-पान कराने में उद्यमो स्वयं हो विसंवादों को जन्म देते हों। 0 शुद्ध खान-पान का उपदेश देने वाले लुक-छप कर बाजार में चाट पकोड़े, मेवा मिष्ठान्न उड़ाते हों और विवाह-शादियों में पंचतारा होटलों तक में भाग लेते हों। आत्मा को अजर-अमर, पूर्ण शुद्ध बताने व शरीरादि के नश्वर होने का उद्घोष करने वाले शारीरिक-व्याधिग्रस्त होने पर डाक्टरों के चकर में पड़, अशुद्ध दवाइयों के सेवन और अस्पतालों में भर्ती होते फिरें। x 0 प्रसिद्ध तीर्थक्षेत्र पर कमरे खाली होने पर भो साधारण यात्रियों को बण्टित न हों ओर अपरिचित-परिचित नगर वासियों को रिजर्व रखे जाते हों। x 0 बिना राशि लि. पंचकल्याणक आदि कराने की घोषणा करने वालो संस्थाएँ अन्य कई बहानों से द्रव्य संचय करती हों। x x x पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएं धार्मिक-भावना से अछूती-केवल द्रव्य-संचय के लिए होने लगें। D समाज को मार्ग-दर्शन देने वाले (कथित) नेता स्वय धर्म-विरुद्ध मद्य-मांस, तम्बाकू, खण्डसारी जैसे हेय व्यवसायों में लीन हों। महासचिव वीर सेवा मन्दिर, २१दरियागंज, नई दिल्ली-२ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DuratioKIRA ITNIR परमागमस्य बीज निषिद्धजास्यन्धसिम्पुरविधानम् । सकलनयविलासितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष ४५ किरण ४ वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण संवत् २५१८, वि० सं० २०४६ अक्टूबर-दिसम्बर १९६२ ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावं ? ऐसा मोही क्यों न मधोगति जावे, जाको जिनवाणी न सुहावै ॥ वीतराग सो वेव छोड़ कर, देव-कुबेव मनावे । कल्पलता, दयालता तजि, हिंसा इन्द्रासन बावै ॥ऐसा०॥ रचे न गुरु निर्ग्रन्थ मेष बहु, परिग्रही गुरु भाव। पर-धन पर-तिय को अभिलाष, अशन अशोधित खावे ॥ऐसा०॥ पर को विमव देख दुख होई, पर दुख हरख लहावं। धर्म हेतु इक दाम न खरच, उपवन लक्ष बहावै ॥ऐसा०॥ ज्यों गृह में संचे बहु मंध, त्यों बन हू में उपजाव। अम्बर त्याग कहाय दिगम्बर, बाघम्बर तन छावै ॥ऐसा०॥ आरंभ तज शठ यंत्र-मंत्र करि जनपं पूज्य कहावं। धाम-वाम तज दासी राखे, बाहर मढ़ो बनावै ॥ऐसा०॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध साहित्य में श्रमण परम्परा D डॉ रमेशचन्द जैन, बिजनौर प्राचीन भारत को दो परम्पराये-भारत वर्ष मे २. जिसका चित्त राग द्वेष से अबाधित होता है। प्राचीन काल से ही दो परम्पराएं चली आ रही हैं- ३. समतायुक्त जिसका मन है, वह श्रमण है। १. श्रमण और २. ब्राह्मण । दोनों परम्परायें अपने आपको ४. श्रमण धर्म रूप हो सकता है। जो आगम में कुशल सबसे प्राचीन सिद्ध करने का प्रयास करती हैं। जैन प्रथों है, जिसकी मोहदृष्टि हत गई है और जो वीतराग के अनुसार भगवान ऋषम के पुत्र भरत ने ब्राह्मण वर्ण चारित्र में आरूढ़ हैं । उस महात्मा श्रमण को धर्म की स्थापना की। पचरित मे ब्राह्मण की उत्पत्ति ब्रह्म (मोह क्षोभ विहीन प्रात्म परिणाम रूप") कहा है। के मुख से होना निर्हेतुक सिद्ध करते हुए कहा गया है कि ५. जो निःसंग, निरारम्भ, भिक्षाचर्या में शुद्धभाव, समस्त गुणों के वृद्धिंगत होने के कारण ऋषभदेव ब्रह्म एकांकी, ध्यानलीन और सवगुणो से युक्त हो, वही कहलाए और जो जन उनके भक्त हैं, वे ब्राह्मण कहे जाते श्रमण होता है"। हैं। इस प्रकार ब्राह्मणों की परम्परा का सम्बन्ध भग- ६. पवित्र मन वाला श्रमण है"। वान ऋषभदेव के पुत्र भरत से है। परवर्ती काल में ७. जो अनिश्रित, अनिदान- फलाशंसा से रहित, ब्राह्मणों का आचार श्रमणों से भिन्न होता गया और इस आदान रहित, प्राणातिपात, मषावाद, अदत्तादान, प्रकार दो धाराओं ने जन्म लिया। यही कारण है कि मैथुन परिग्रह, क्रोध, मान, माया लोभ, प्रेय, द्वेष ब्राह्मणत्व के प्रति आदरभाव होते हुए भी जो कर्म से और सभी आस्रवों से विरत, दान्त, द्रव्यमुक्त होने ब्राह्मण नहीं हैं, उनकी जैन ग्रन्थकारों ने भर्त्सना की है। के योग्य और व्युत्सृष्ट काय-शरीर के अनासक्त है। आचार्य रविषेण के अनुसार ब्राह्मण वे हैं, जो अहिंसावत वह श्रमण है"। धारण करते है, महाव्रत रूपी चोटी धारण करते हैं, ध्यान धमण के लिए ब्रह्मचर्य की आवश्यकता-श्रमण रूपी अग्नि मे होम करते हैं; शान्त हैं और मुक्ति को के लिए ब्रह्मचर्य आवश्य है। ब्रह्मचर्य से विचलित होने सिद्ध करने में तत्पर रहते हैं। इसके विपरीत जो सब वाला श्रामण्य को नष्ट कर देता है । प्रकार के आरम्भ में प्रवृत हैं, निरन्तर कुशील में लीन बन्दनीय श्रमण-जो ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप और रहते हैं तथा क्रियाहीन हैं, वे केवल ब्राह्मण नामधारी हैं, वीर्य इन पांच आचारो का पालन करता है, वह श्रेष्ठ वास्तविक ब्राह्मणत्व उनमें नही है। ऋषि, संयत, धीर, श्रमण है, वही वन्दनीय है। (प्रवचनसार-२), (अष्ट पाहुड पृ०७१)। शान्त, दान्त और जितेन्द्रिय मुनि हो वास्तविक ब्राह्मण ___अन्तरात्मा और बहिरात्मा श्रमण-आवश्यक सहित हैं" । ब्राह्मण का सम्बन्ध ब्रह्मचर्य से है। ब्रह्मचर्य धारण श्रमण अन्तरात्मा है और आवश्यक रहित श्रमण बहिकरने वाला ब्राह्मण कहलाता है। पतंजलि ने ब्राह्मण रात्मा है । (नियमसार-१४६)। और श्रमण इन दोनों में शाश्वतिक विरोध बतलाया है। महाश्रमरण-सर्वज्ञ, वीतराग महाश्रमण है। पचास्तिश्रमण शब्द का अर्थ-श्रमण शब्द को अनेक काय-समयव्याख्या-२ । व्युत्पत्तियां की गई हैं : प्रश्नभमरण-वैया वृत्य मे कुशल, विनयी, सर्वसघ का १. जो श्रम-तप करते हैं (सूत्रकृतांग १.१६.१ प्रा० पालक, वैरागी और जितेन्द्रिय श्रमण प्रश्नश्रमण है। शीलककृत टीका पत्र २६३)। -(अनगार धर्मामृत १६६ शानदीपिका) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध साहित्य में श्रमण परम्परा धमणों के विभाग--प्रवचनसारोद्धार में श्रमणों के लिए मयूर के पंखों से निर्मित पिच्छिका और दूसरा पांच विमाग बतलाए गये हैं : शौचादि के लिए कमण्डलु । शरीर से बिलकुल नग्न रहते १. निर्ग्रन्थ - जैन मुनि हैं और श्रावक के घर पर ही दिन मे एक बार खड़े होकर २. शाक्य बौद्ध भिक्षु हाथों की अंजुलि को पात्र का रूप देकर भोजन करते हैं, ३. तापस जटाधारी, वनवासी, तपस्वी किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के अनगार पांच महावतों का ४. गेरूक त्रिदण्डी परिव्राजक पालन करते ए भी वस्त्र, पात्र रखते हैं। अनगारों की ५. आजीवक गोशाल के शिष्य । इस प्रवृत्तिभेद के कारण ही जैन सम्प्रदाय दो भागों में चारित्र क्षधमण-पाश्वस्थ, अवसन्न, संसक्त, विभाजित हो गया और वे विभाग दिगम्बर और श्वेताकुशील और मगचरित्र श्रमण चारित्र क्षुद्र श्रमण हैं१५१ म्बर कहलाए"। मवन्त-सर्व कल्याणों को प्राप्त हुए भदन्त कहलाते नामादि की अपेक्षा श्रमण के भेद-नाम, स्थापन्न, द्रव्य और भावनिक्षेप की अपेक्षा श्रमण चार प्रकार है दान्त-पाच इन्द्रियों को निग्रह करने वाले दान्त के होते हे"।-नाम-श्रमण मात्र को नामषमण कहते हैं लेप आदि प्रतिमाओ मे श्रमण को आकृति स्थापना षमण कहलाते है। पति-उपशमक और क्षपक श्रेणी पर आरोहण है। गुणरहित वैषग्रहण करने वाले द्रव्य श्रमण हैं और करने वाले यति कहलाते है"। मूल गुण -उत्तरगुणों के अनुष्ठान में कुशल भावयुक्त दिगम्बर-दिशायें ही जिनके अम्बर-वस्त्र है। भावश्रमण है"। श्रमण के पर्यायवाचो शब्द-जैन ग्रन्थों में श्रमण अचेलक-वसुनन्दी सिद्धान्त चक्रवर्ती ने "अचेलकत्व के अनेक पर्यायवाची नाम मिलते हैं, जो उनकी भिन्न-२ नाग्न्यमिति यावत्" कहकर नग्न अवस्था का नाम अचेविशेषताओ को सूचित करते हैं। इनका सक्षिप्त लक्षण लकत्व बतलाया है" । श्वेताम्बर परम्परा में अचेलक्य के इस प्रकार है विषय में विवाद है, क्योकि उनके यहां साधु वस्त्र धारण संयत-असयत रूप हिंसा आदि को जानकर और करते हैं। श्रद्धा न करके उनसे जो अलग होता है अर्थात् उनका निर्ग्रन्थ-वस्त्र आदि परिग्रह से रहित । त्याग करता है, उस सम्यक् युत को सयत कहते है। मण्ड-जो केशलुचन करता है और जो इन्द्रियो के ऋषि-जो सब पापो को नष्ट करते हैं अथवा सात । विषय का अपनयन करता है, उन्हें जीत लेता है, उसे प्रकार की ऋद्धियों को प्राप्त करते हैं, वे ऋषि है। मुण्ड कहा जाता है। बहत-समस्त शास्त्र का पारगामी । मनि-जो स्व-पर के अर्थ की सिद्धि को मानते हैं मिक्ष-भिक्षाशील साधु । पचास्तिकाय में कहा है जानते हैं, वे मुनि हैं"। जिसे सर्व द्रव्यों के प्रति राग, द्वेष या मोह नहीं है, उस साधु-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की जो सम सुख-दुःख भिक्षु को शुभ और अशुभकर्म आस्रावत साधना करते है, वे साधु है"। पद्मप्रभमलधारिदेव ने साधु को आसन्नभव्य जीव तथा अत्यासन्न भव्य जीव कहा है। नही होते"। सूत्रकृतांग मे भिक्षु के १४ नाम कहे हुए हैं-समण माहन, क्षान्त, दान्त गुप्त, मुत, ऋषि, मुनि, वीतराग-जिनका राग विनष्ट हो गया है"। कृती (परमार्थ पण्डित), विद्वान, भिक्षु, रूक्ष, तीरार्थी अनगार-नही है अगार गृह आदि जिनके सर्व- और चरणकरण पारविद" । परिग्रह से रहित मनुष्य अनगार है। अनगार पांच महा. असंयम जगप्सक-प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम व्रतों का पालक होता है। दिगम्बर परम्परा के अनगार में लगे हुए श्रमण"। अपने पास केवल दो उपकरण रखते हैं- एक जीवरक्षा के यथाजातरूपधर-व्यवहार से नग्नत्व, निश्चय से Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, वर्ष ४५, कि०४ अनेकान्त स्वात्म रूप यथाजात रूप होता है। इस प्रकार के रूप पाणितलमोजी-हाथ में हार करने वाले" । को जो धारण करते हैं, वे यथाजातरूपधर निर्ग्रन्थ होते निर्यापक-शिक्षा गुरू और श्रुतगुरू", गरू--लिङ्ग ग्रहण के समय जो प्रव्रज्यादायक हैं, वे योगी-योग साधना करने वाला। मूलाचार में तपस्वियों के गुरू है। कहा है कि पश्चिम, पूर्व, उत्तर और दक्षिण दिशाओं की स्थावर-बहुत कान से प्रवजित'। वायु से जिस प्रकार सुमेरु चलायमान नहीं होता, उसी अमम-स्नेह पाश से निकले हुए। प्रकार अचलित योगी सतत ध्यान करते हैं। निर्मम-निर्मोही । गणी-निन्दा, प्रशंसादि में समचित होने के कारण ब्राह्मण-पपचरित मे कहा गया है कि ब्राह्मण वे निश्चय, व्यवहार रूप पचाचार के आचरण में प्रवीण" हैं जो अहिंसावत धारण करते है, महाव्रत रूपी लम्बी होने के कारण अथवा आचरण करने में और आचरण चोटी धारण करते है। ध्यान रूपी अग्नि मे होम करते कराने में आने वाली समस्त विरति की प्रवृति के समान हैं, शान्त हैं और मुक्ति के सिद्ध करने मे तत्पर रहते है। आत्मरूप-ऐसे श्रामण्यपने के कारण जो श्रमण है।" गुणाढ्य है, कुल, रूप तथा वय से विशिष्ट हैं और नज बातवसन-वायुरूपी वस्त्रधारी। श्रमणा: दिगम्बरा: परमात्मतत्व की भावना सहित जो समचित श्रमणो को श्रमणावातवसन्नाः इति निघण्टु । विवसम-वस्त्र रहित मुनि । वेदान्तसूत्र की टीका अति इष्ट हैं, वे गणी होते हैं । आचार्य अमृतचन्द्र ने इन्हें में दिगम्बर जैन मुनि “विवसन" और "विसिच्' कहे शूद्धात्मतत्व के साधक आचार्य तथा जयसेनाचार्य ने पर. मात्मभावना के साधक दीक्षा दायक आचार्य कहा है। गये हैं। तपोधन-आचार्य जयसेन ने "श्रमणस्तपोधन" कह वातरशना-जिनसेनाचार्य ने दिग्वासा वातरशनों निग्रंन्थेश्मे निरम्बरः कहकर तीर्थंकर ऋषभदेव को वातकर श्रमण और तपोधन में ऐक्य स्थापित किया है। रशना बसलाया है । वातरशना का अर्थ है-जिसकी वायु समित-जो शुद्धात्मस्वरूप मे भले प्रकार से परिणत मेखला है । तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार “वात रशना" हुआ है अथवा (व्यवहार) से जो ईर्या आदि पांच समि शब्द का अर्थ नग्न होता है। तियों से युक्त हैं, वह समित हैं। नग्न-प्राचार्य कुन्दकुन्द ने एक नग्नपने को ही मोक्ष तपस्वी-शिवार्य ने तपस्वी की महिमा के विषय में का मार्ग कहा है. शेष सब उन्मार्ग है। कहा है कि असवत अर्थात् अशुभयोग का निरोध न करने वाला यति महान काल के द्वारा भी जिस कर्म की बाह्य सिद्धायतन-जिन मुनि के समीचीन अर्थ (आत्मा) तप के द्वारा निर्जरा नहीं करता, उस कर्म की संवत् अर्थात् सिद्ध हो गया है, जो विशुद्ध ध्यान और ज्ञान से युक्त है, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परिषहजय को करने मुनियों में प्रधान हैं तथा समस्त पदार्थों को जानते है । वाला तपस्वी अति स्वल्पकाल में क्षय करता है"। चैत्यगह-जो मुनि बुद्ध (ज्ञानमयी आत्मा) को नि:सङ्कः-अपरिग्रही श्रमण । शिवार्य ने कहा है कि जानता हो, आप ज्ञानमयी हो और पांच महाव्रतों से शुद्ध जितने भी परिग्रह (सग) राग-द्वेष को उत्पन्न करते हैं, हो, वह चैत्यगह है"। उन परिग्रहों को छोड़ने वाला अपरिग्रही साधु राग और अहंन्मुद्रा-जो तप, व्रत और गुणो से शुद्ध हो, शुद्ध देष को निश्चय से जीतता है। सम्यक्त्व को जानते हों, इस प्रकार दीक्षा और शिक्षा देने क्षपक-जो अपने अपराध और शरीर को त्यागने वाले आचार्य अहन्मुद्रा है। के लिए प्रवृत्त हुआ है"। जिनमत्रा-जो सयमसहित हो। जिसके इन्द्रियावंश क्षपणक-आचार्य हेमचन्द्र ने अपने कोष में नग्न में हों, कषायों की प्रवृत्ति न होती हो और ज्ञान को स्वरूप का पर्यायवाची शब्द क्षपणक दिया है"। मे लगाता हो, ऐसा मुनि ही जिनमुद्रा है"। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौद्ध साहित्य में श्रमण परम्परा बौद्ध साहित्य में श्रमण परम्परा मैंने एक घर से भोजन किया, सो भी एक ग्रास लिया या श्रमण संस्कृति की निगण्ठ (जैन). सबक (शाक्य-बोद) मने दो घरों से लिया सो दो ग्रास लिया। इस तरह मैंने तावस (तापस). गेस्य (गेरुक) और आजीव (आजीवक) सात घरों से लिया, मो भी सात प्रास, एक घर से एक ये पांच प्रधान शाखायें मानी जाती हैं। इनमे से प्रथम ग्रास लिया। मैंने कभी एक दिन में एक बार, कभी दो दो शाखायें आज जीवित हैं। अन्य शाखाओं का अन्तर्भाव दिन में एक बार, कभी सात दिन में एक बार लिया, कमी इन्ही में हो गया। पालि साहित्य मे श्रमणों के चार प्रकार पन्द्रह दिन भोजन नही किया । मैंने मस्तक, दाढी व मछों बतलाए गए हैं -मग्गजिन, मग्गजीविन, मग्गदेशिन, और के केशों का लोंच किया। इस केशलोंच की क्रिया को मगदूसिन"। इनमे पारस्परिक मतभेद के कारण अनेक जारी रखा। मैं एक बूंद पानी पर भी दयावान था। दार्शनिक सम्प्रदायों ने जन्म लिया। बुद्ध इन्हें "दिटिठ" भुद प्राणी की भी हिंसा मुझ से न हो, इतना सावधान शब्द से अभिहित करते है"। जैन साहित्य मे इन मतों था। इस तरह कभी तप्तायमान कभी शीत को सहता की संख्या ३६३ बतलाई गई है। श्रमण परम्परा की बौद हुआ भयानक वन मे नग्न रहता था। आग नही तपता शाखा की अपेक्षा जैन शाखा निश्चित रूप से बहत प्राचीन था। मुनि अवस्था में ध्यान लीन रहता था। है, विद्वानो ने इसे प्रागैतिहासिक माना है। भगवान ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी ने उपयुक्त क्रियाओं की महावीर के समय से लेकर जैन और बौद्ध धमों का गहरा तुलना मूलाचार मे प्रतिपादित साधु के आचार से की सम्बन्ध रहा। श्रमण परम्परा के प्रतिनिधि धर्म होने के है"। इससे स्पष्ट है कि बुद्ध ने जैन आचार का भी कारण वैदिक धर्म से शास्त्रार्थ के समय दोनों के मन्तव्य अभ्यास किया था। बाद में इस कठोर चर्या को उन्होंने एक रहते थे, कोकि हिंसामय पज्ञों में विश्वास, सृष्टिकर्ता अनार्य और अनों की जड़ मानकर छोड़ दिया और ईश्वर की मान्यता आदि अनेक वैदिक बातों के विरुद्ध मध्यम मार्ग ग्रहण किया जो उनी दृष्टि में कामसुखों में दोनो धमों को लोहा लेना पड़ा। ऐसा होने पर भी दोनों आसक्ति और आत्मक्लेशों मे आसक्ति के बीच का था। धर्मों को दार्शनिक मान्यतायें भिन्न भी थी। नौमी शताब्दी के 'जैनाचार्य देवसेन' ने दर्शनसार में गौतमबुद्ध के घर से निकलने के बाद ६ वर्ष तक लिखा है कि गौतमबुद्ध जैनो के २३वे तीर्थंकर श्री पार्वविभिन्न प्रकार साधनामार्ग अगीकार किए, जिनमें से एक नाय के सम्प्रदाय मे आए हुए श्री पिहिताश्रव मुनि के अचेलक मार्ग भी था और यह जैन मुनि की चर्या का अग शिष्य हए थे। पिहिताश्रव ने सरयू नदी पर स्थित परलाश था । 'मज्झिमनिकाय' के महासोहनादसुत्त मे सारिपुत्त से नामक ग्राम में उन्हें पार्श्व के सघ में दीक्षा दी थी। अपने पुराने जीवन के विषय में बुद्ध स्वयं कहते हैं-मैं 'श्रीमती राइस डेविड्स' का मत है कि बुद्ध अपने गुरू की वस्त्ररहित रहा, मैंने आहार अपने हाथ से किया। न खोज मे वैशाली पहुंचे । वहा आलार और उद्रक से उनकी लाया हुआ भोजन किया, ने अपने उद्देश्य से बना हुआ भेट हई, फिर बाद में उन्होंने जैन धर्म की तप-विधि का किया, न निमत्रण से भोजन किया, न बर्तन में खाया, अभ्यास किया" 'हा. राधाकुमुद मुकुर्जी' के अभिमत मे न थाली में खाया, न घर की ड्योढ़ी मे खाया, न खिड़की बुद्ध ने पहले आत्मानुभव के लिए उस काल मे प्रचलित से लिया, न मूसल से कूटने के स्थान पर लिया, न दो दोनों साधनाओं का अभ्यास किया । 'आलार और उद्रक' आदमियो के एक साथ खा रहे स्थान से लिया, न गभिणी के निर्देशानुसार ब्राह्मण मार्ग का, तब जैन मार्ग का और स्त्री से लिया, न बच्चे को दूध पिलाने वाली से लिया, बाद में अपने स्वतन्त्र साधना मार्ग का विकास किया । न भोग करने वाली से लिया, न मलिन स्थान से लिया, 'श्री धर्मानन्द कोशाम्बी' ने लिखा है कि निर्ग्रन्थों के न वहाँ से लिया जहाँ कुत्ता पास बड़ा था, न वहाँ से, 'श्रावक वप्प शाक्य' के उल्लेख से प्रकट है कि निर्ग्रन्थों जहाँ मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। न मछली, न मांस, न का चातुर्मास धर्म शाक्य देश में प्रचलित था। बुद्ध के मदिरा, न सड़ा मांस खाया, न तुष का मैला पानी पिया। द्वारा बोजे गए आष्टांगिक मार्ग का समावेश चातुर्याम में Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६, वर्ष ४५, कि०४ अनेकान्त हो जाता है"। दीघनिकाय के पासदिक सुत्त में बुद्ध चन्द समण का सम्बन्ध शम उपशम से भी है। जो छोटे से कहते हैं-चुन्द ! ऐसा हो सकता है कि दूसरे मत वाले बड़े पापों का सर्वथा शमन करने वाला है, वह पाप के परिव्राजक ऐसा कहें-शाक्यपुत्रीय श्रमण आराम पसन्द शमित होने के कारण श्रमण कहा जाता है। हो विहार करते हैं "चनद, ये चार प्रकार की आराम श्रमण के दूसरे पर्यायवाची मुण्ड मुनि और भिक्ष भी पसन्दगी अनर्थयुक्त हैं-कोई मुर्ख जीवो का वध करके हैं । धम्मपद मे कहा हैआनन्दित होता है, प्रसन्न होता है। यह पहली आराम न मुण्डकेन समणो अब्बतो अलिक मणं । पसन्दगी है। कोई चोरी करके आनन्दित होता है, यह इच्छालोम समापन्नो समणो कि भविस्सति ॥धम्मपददूसरी आराम पसन्दगी है, कोई झूठ बोलकर प्रसन्न होता (धम्मटण्ठवग्गो) है, यह तीसरी आराम पसन्दगी है, कोई पांचों भोगों का अर्थात् व्रतरहित, झूठ बोलने वाला व्यक्ति मुण्डन सेवन करके आनन्दित होता है, ये चौथी पाराम पसन्दगी करा लेने से श्रमण नहीं होना । इच्छा और लोम से भरा है । ये चारों सुखोपभोग निकृष्ट हैं। हो सकता है चुन्द, मनुष्य क्या श्रमण होता है ? दूसरे मत वाले साधु ऐसा कहें-इन चार सुखोपभोग न तेन भिक्षु सो होति यावता भिक्खते परे। आराम पसन्दगी से युक्त हो शाक्यपुत्रीय श्रमण विहार विस्सं धर्म समादाय भिक्ख होति न तावता ।। करते हैं। उन्हें कहना चाहिए-ऐसी बात नही है। धम्मपद-१२ धम्मट्ठवग्गो उनके विषय में ऐसा मत कहो, उन पर झूठा दोषारोपण यह मनुष्य केवल इतने मात्र से भिक्षु नही हो जाड न करो। इससे स्पष्ट है कि बुद्ध के मत में चार यामों का है कि वह दूसरों से भिक्षा मांगता है। समस्त धर्मों को पालन करना हो तपश्चर्या मानी जाती थी। अत: बुद्ध ने ग्रहण करके मनुष्य भिक्षु नहीं हो जाता। पाश्र्वनाथ के चातर्याम धर्म को स्वीकार किया था। योघ पुन्नं च पाप च बाहेत्वा ब्रह्मपरिवा। पार्श्वनाथ श्रमण परम्परा के थे। अत: उनकी रम्परा संखाय लोके चरतिस वे भिक्खति बुञ्चति ।। को अपनाने वाले बुद्ध भी श्रमण अथवा महाश्रमण कह धम्मपद-१२ धम्मट्ठवग्गो लाए । दशवकालिक नियुक्ति में कहा है जो यहां पुण्य और पाप को छोडकर ब्रह्मचर्यवान है जह मम न पियं दुक्ख जाणिय एमेव सव्व जीवाणं । तथा लोक मे ज्ञानपूर्वक विचरण करता है। वही भिक्ष न हणइ न हणावेइ य सममणई तेण सो समणों"। कहा जाता है। अर्थात् जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, इसी प्रकार सभी न मोनेन मुनी होति मूलहरूपो अविद्दसु । जीवों को नही है। अत: जो जीवो को न तो स्वय मारता यो च तुलं व पगठह वरमादाय पण्डिता ।। है, न दूसरे से मरवाता है, सममन वाला वह श्रमण होता पापानि परिवज्जति, स मुनितैन सो मुनी । है। सुत्तनिपात मे गौतम बुद्ध ने कहा है यो मुनाति उभे लोके मुनी तन पवुच्चति ।। समितावि पहाय पुन्नपाप विरजोन्त्वा इम पर च लोक । धम्मपद-धम्मबग्गो १३-१४ जातिमरणं उपातिवत्ते, समणोतादि पवुच्यते तथत्ते ॥ मौन धारण करने से साक्षात् मर्ख और अविद्वान सुत्त निपात ३२/११ व्यक्ति मनि नहीं हो जाता किन्तु जो तुला के समान ग्रहण जो पुण्य और पाप को दूर कर शान्त हो गया है, करके भले-बुरे को तोता है और अच्छे को ग्रहण करता इस लोक और परलोक को जानकर रंजरहित हो गया है, है, वह पण्डित है। जो पापों का परित्याग करता है, वह जो जन्म के परे हो गया है, स्थिर, स्थितात्मा वह श्रमण मनि है और इसीलिए वह मनि है। जो इस संसार मे कहलाता है। परमपद मे समता का आचरण करने वाले (पाप और पुण्य) दोनों का मान करता है वह इसीलिए को श्रमण कहा गया है-समचरिया समणाति वुच्चति, मुनि कहा जाता है। धम्मपद-ब्राह्मणवग्गो । मुण्ड शब्द का अनेक स्थानों पर बौद्ध श्रमण के रूप Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन एवं बौद्ध साहिाय में श्रमण परम्परा में भी अनेक बार प्रयोग हुआ है। इसके अनेक प्रकरण खण्डाखण्डी करके चलते हैं, सुनते हैं श्रमण गौतम अमुक बौद्ध साहित्य में विद्यमान हैं ग्राम या निगम मे आवेगा। वे प्रश्न तैयार करते हैं, इन जब सावत्थी में अग्गिक भारद्वाज यज्ञाग्नि को प्रज्व- प्रश्नों को हम श्रमण गोतम के पास जाकर पूछेगे, यदि लित कर उसमे आहुतिया दे रहे थे, उसी समय बुद्ध वह ऐसा उत्तर देगा तो हम इस प्रकार वाद रोपेंगे"। भिक्षाटन करते हुए उसके यज्ञस्थल के निकट पहुंचे। उलि गृहपति ने कहा था-जैसे बलवान पुरुष लम्बे अग्गिक भारद्वाज उन्हें दूर से ही देकर चिल्लाया--अरे बाल वाली भेड को बालों से पकड कर निकाले डुलावे, मडिए ! भिक्ष, वृषल, वही खडा रह (तत्र एव मुण्डक, उसी प्रकार में श्रमण गौतम के वाद को निकालूंगा, घुमातत्र एव समणक, तत्र एव वमलक तहीति), बुद्ध ने ऊगा, इलाऊंगा। शान्त भाव मे उसे समझाया कि बसलक वह दुष्ट मनुष्य गतम बुद्ध के समय वौद्ध भिक्षु अपना परिचय पूछा है जो धर्म और सदाचार के नियमो का पालन नहीं करता, जाने 7 अपने को श्रमण" करते थे अथवा अधिक स्पष्टता मेरे जैसा साधु बसलक नहीं होता। भारद्वाज ब्राह्मण के लिा "शावक्पपूत्रीय" शब्द उसके पहले और जोड देते यज्ञ में आहुतियां देने के बाद आइति का अवशिष्टघृन देने थे। जिससे अन्य सम्प्रदायो में भेद हो सके। बुद्ध को के लिए कि पी व्यक्ति को ढूंढ रहा था, उम समय बुद्ध अनेक बार महाश्रमण कहा गया है। अपने सिर को ढके हए एक वक्ष के नीचे बैठे थे। पैरों जिन और वीर शब्द भी जो मौलिक रूप में भगवान को आहट सुनकर उन्होंने सिर पर से वस्त्र हटा लिया महावीर या पूर्वकालीन जैन महात्माओ के लिए प्रयोग और ब्राह्मण को जाते देखा । ब्राह्मण उसका मुण्डित सिर किए जाते थे, पालि साहित्य मे बुद्ध के विशेषण बन गए। देखते ही अति ऋद्ध हुगा और चिल्ला पड़ा-अरे तू मुंडिया गौतमबद्ध के समकालीन श्रमण-बुद्ध के समहै। वह लौटने ही वाला था, पर फिर वह सोचकर कि कालीन छ: प्रमुख सम्प्रदाय थे"-पूरण कस्सप, मक्खलि कभी-कभी ब्राह्मण भी सिर मुड़ा लेते हैं, बुद्ध की ओर गोसाल, पकूध कच्चायन, अजितकेश कम्बल, निगण्ठनातमडा और उनकी जाति पूछी। बुद्ध ने उत्तर दिया-मेंन पत और संजयवेलटिठपत। इनकी मान्यताओं का विवरण ब्राह्मण हूं न क्षत्रिय हूं, न वैश्य हूं, मैं एक संन्यासी हू, बोद्ध साहित्य में अनेक प्रसगो मे हआ है। दीघनिकाय के जो कुछ नहीं चाहता। मुझ दान देने का महान् फल मामन्नफलसुत्त मे बामण्य के फल का निरूपण है। वहां होगा। इन छ श्रमणों से परिचय प्राप्त होता है, जो इस प्रकार एक बार शाक्यों के देश मे ब्राह्मणो की एक सभा हो हैरही थी, उस समय बुद्ध सभागृह की ओर जाने लगे। १. पूरण कस्सप-पूरणकस्सप के द्वारा पुण्य-पाप ब्राह्मणों ने कहा- कौन है ये मुडिय श्रमण ? ये क्या का खंडन किया गया है। किसी अच्छे कार्य को करने से जाने सभा के नियम (के च मुण्डका समणका के घे सभा पुण्य होता है और बुरे कार्य से पाप होता है, वे ऐसा नही धम्म जानिस्सन्ति") परन्तु बुद्ध चुपचाप सभा भवन में मानते हैं। दान, दम, सयम, तप, परोपकार आदि कार्यों चले गए। में कोई पुण्य नही है, हिमा, अठ, चोरी, परस्त्रीगमन में बुद्ध के साथ प्रायः श्रमणविशेषण लगता था। उनके कोई पाप नहीं है। कोई व्यक्ति अपने आप कोई क्रिया समय श्रमण और ब्राह्मणों मे अनेक सम्प्रदाय थे, जो आपस नहीं करता, अतः अक्रिय होने से उसे पाप-पुण्य भी नहीं मे वाद किया करते थे। बुद्ध के समकालिक वातस्यायन होता । यह पूरणकस्स का मत अक्रियावाद है। नामक परिवाजक ने अपने समय के त.किकों को सम्बन्ध २. मक्खलि गोसाल-मक्खलि गोसाल देववादी से कहा था-मैं देखता हं, बाल की खाल निकालने वाले थे। कर्म करने में उनका विश्वास नहीं था। वे अकर्मण्यदूसरों से वाद-विवाद करने मे सफल, निपुण कोई कोई तावादी थे, उसकी शुद्धि का कोई कारण नही है। प्राणी क्षत्रिय पंडित मानों प्रजा में स्थित तत्व से दृष्टिगत को स्वयं या दूसरे की शक्ति से कुछ नही कर सकता, उसमें Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८, ४५, कि०४ बल नहीं है, वीर्य और पराक्रम नहीं है। सभी प्राणी थे-१. जल के व्यवहार का वारण करना। २ सभी निबंल और असहाय हैं। भाग्य और संयोग के फेर में पापों का वारण करना, ३. सभ पापों का वारण करने से पड़कर सख या दुख का अनुभव करते हैं। यही मक्ख लि- पाप रहित होना। ४. सभी पापो के वारण करने मे लगा गोसाल का नियतिवाद है । रहना। ३. प्रकुध कच्चायन-ये घोर अकृतवादी थे। भगवान पार्श्वनाथ के चातुर्याम का यह प्रारूप है, इनके अनुसार पृथवी, जल, तेज, वायु, सुख, दुख और जो निग्रन्थ नातपुत्त की मान्यता से जोडा गया है। इसका जीवन ये मब अकृत, अनिर्मित और अल है । ये कभी न तात्पर्य यह है कि बुद्ध के समय भगवान पार्श्वनाथ क विकार को प्राप्त होते है और न परस्पर हानि पहुचाते अनुयायी थे। हैं। यहां न कोई मारने वाला है, न कोई मरने वाला, न ६. संजयवेलट्टिपुत्त-सजय का मत सन्देह बाद का कोई सुनने वाला है, न कोई सुनाने वाला। यही इनका प्रतिपादन करता है ये किसी भी तत्व जैसे -परलाक, अकृतवाद है। देवता, पुण्यापुण्य के विषय में कोई निधिवत मत का प्रति४. अजित केश कम्बल-ये भौतिकवादी थे। पादन नहीं करते। उनका कहना है कि मैंने न परलोक इनके मतानुसार इम ससार मे किसी वस्तु का अस्तित्व देखा है, न देवता आदि को, तब कैसे कह दूं कि उनका नहीं है। पाप-पुन्य का न कोई फल है, न स्वर्गाद की अस्तित्व है? हो सकता है, उनका अस्तित्व हो भी। इसके कोई रचना है। मरने के बाद जिन चार महाभूतो से बार महाभूता स विषय में मैं कुछ नहीं कह सकता । तथागत मरने के बाद व्यक्ति निर्मित हुआ है, उन्ही में विलीन हो जाता है। 1 हो जाता है। होते हैं, यह भी मैं नहीं जानता । आत्मा की सत्ता मानना व्यर्थ है। उपर्युक्त श्रमणो मे आज निगंठनातपुत्त का ही मत ५. निगण्ठनातपुत्त-वे विचारक जैन धर्म के । बच पाया है। अन्तिम तीर्थकर थे। वे चार प्रकार के संवर को मानते __ सन्दर्भ-सूची १. पद्मचरित ४/९१-१.२. २. वही, ११/१६६-२०१ १५. भगवती आराधना-विजयोदया टीका-३४१. ३. वही, १०६/८०-८३. ४. वही, १.६/८४. १६. मूलाचार १००३. १७. वहो १००३ तात्पर्यवत्ति । ५. ब्राह्मणे ब्रह्मचर्यतः । वही ६/०६. १८. भगवती आराधना-विजयादया-१५४. ६. येषां च विरोध: शाश्वतिः (अष्टाध्यायी २/४/६) पर १६. मूलाचार-आचारवृत्ति-५६७. २०. वही ८८८. महाभाष्य-येषां च इत्यस्यावकाश: मार्जारमूषणं श्रमण २१. वही, २२. नियमसार-तात्पर्यवत्ति-६. श्रमणमाह्मण मित्यादौ, ज्ञेयः । २३. मूलाचार ८८८ (आचारवृत्ति)। ७. रागकोपानुपत्लु चित्त: समण इत्युच्यते-- भगवती २४ धर्मामृत (अनगार)-५० कैलाशचन्द्र शास्त्री एव ___ आराधना (विजयोदया टीका १३४)। ___डा, ज्योतिप्रसाद जैन द्वारा लिखित प्रधान सम्पा० । ८. नेरूक्तकावदन्ति सममणो समणो इति । समणस्सभावो २५. मन्दताः सर्व कल्याण प्राप्तवन्तः । मलाचार ८८८ सामण्णं तच्च कि? समानता चारित्रं । (आचारवृत्ति)। ९. प्रवचनसार-९२. २६. दान्ता:पचेन्द्रियाणां निग्रहपरा.-वही ८८८ (आचा०) १०. वही, तत्वदीपिका टीका। ११. मुलाचार, १.०२. २७. यतय उपशमक क्षपक श्रण्यारूढ़ा: ।। प्रवचनसार१२. सहमनसाशोभनेन निदान परिणाम-पापरहितेन च ५० (तात्पर्यवृत्ति)। चैतसा वर्चत इति समनसः । स्थानांग टीका प्र. २६८. २८. मूलाचार-पाचारवृत्ति-३०. १३. सूत्र कांग १/१६/२. २६. वस्त्रादिपूरिग्रहरहितत्वेन निर्ग्रन्थः । प्रवचनसार-- १४. दशवैकलिक (जिनदासचूणि)पृ. १५१, उत्त.१६/१. तात्पर्यत्ति-२६६. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन एवं बौर साहित्य में श्रमण परम्परा ३०. मुंडे इंदिय केसावणायणेस मुंगे-दशवकालिक- मिक्खका संड संह चारिनी, न मच्छ, म मांसं न सुरं, ___ अगस्त्यसिंह-चूणि-पृ. ६५. न मेरय, थुसोदक पिवामि सो एकागारिको वा होमि, ३१. बहुश्रुत सर्वरमन्द्र पारंग-मूलाचार प्राचारवृत्ति-१८१ एकालोपिका, वागारिको होमि द्वालोपिको सत्ता३२. पंचास्तिकाय-२/१/१५. ३३. सूत्रकृतांग-२/१/१५ गारिको वा होमि सत्तालोपिका, एकाहं व आहारं३४. मूलाचार-५६७ (आवारवृत्ति)। आहारेमि द्वीहिक व अहार आहारेमि सत्ताहिकम्मि ३५. व्यवहारेण नग्नत्व यथाजातरूपं निश्चयेन त स्वात्म- आहारं पाहारेमि । इति एयरूपं अद्धमासिक पि रूप तदित्यभतं ययाजातरूप धरतीति यथा अति परियाम मत्तमोजनानुयोगं अनुयुतो विहरामि ... स्फुधरः निर्ग्रन्योजान इति । प्रवचनचार-२०४ तात्पर्य, केस्स मस्सुलोचको वि होमि कसमस्सु लोचनानुयोगं ३६. मूलाचार ८८६. ३७. प्रवचनसार-तात्पर्यवृत्ति-३०३. अनुयुयो-यावउदविन्दुम्हि पि मे दया वच्च पटिठ३८. वही, २०३ (तात्प्रदीपिका)। ताहोति । महा खुदद के पाणे विसमगते सघातं आया३६. वही, तात्पर्यवृत्ति (२६८)। देस्संति । सो तत्तो सो सीनो एको मिसनके वने । ४०. वही, तस्वप्रदीपिका-२०६. ४१. वही, तात्पर्यवृत्ति नग्गोन च अग्गि आसीनो एसनापसुतोमुनीति ॥ ४२. वही-२०६. ४३. प्रवचनसार-तात्पर्यवृति। ६६. ब० शीतलप्रसाद : जैन बौद्ध तत्त्वज्ञान, पृ. २०२४४. भगवती आराधना-२३६. ४५. वही-२६६. २०४। ६७. महावग्ग -1//७।। ४६ वही ४६३ (विजयोदया)। ६८. सिरिपासणाहतित्थे सरयूतीरे पलासरणयरत्थो। ४७. नग्नो विवाससि मागधे च क्षपणके । पिहितासवस्य सिस्सो, महासुदो बुड्ढर्ककत्ति मुणी ॥ ४८. भगवती आराधना-२१०० । ६६. गौतम, दी मैन, २२/५। ४६. प्रवचनसार-तात्पर्यवृत्ति-२१० । ७०. हिन्दू सभ्यता पृ० २३९ । ५०. प्रवचनमार-२१०. ५१. मूलाचार-१८१. ७१. पाश्र्वनाथ का चातुर्याम धर्म, पृ० २४ । १२. वही-आचारवृत्ति (७८३) ५३. वही-७८६ ७२. या च समेति पापनि अणु धूलानि सम्बसो। ५४. वही-आचारवृत्ति। ५५. पद्मचरित १०६/८०. समितत्ता हि पापानं समणाति पवुच्चति ।। ५६. वही- १०६/८१. __ धम्मपद-१० (धम्मट्ठवग्गो) ५७. दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि, पृ. ७० । ५८. बोधपाहुक-७. ५६. वही-८. ७३. सुत्तनिपात-पृ० २१ । ६०. वही-१८. ६१. वही-१६.. ७४. वही, पृ० ७६, संयुत्तनिकाय १, पृ० १६७ । ६२. ठाणांग-पृ. ६४६। ६३. सुत्तनिपात १/५/२. ७५. संयुत्तनिकाय १, पृ० १८४ । ६४. वही-४/१२। ७६. चूलहस्थिपदीपम सुत्त (मज्झिमनिकाय १/३/७)। ६५. अचेलको होमि" हत्थापलेखनो नाभिहत न उहि ७७. उपालिसुत्त (मज्झिमनिकाय २/१/६)। स्सकत न निमंतण सादियागी, सो न कुभीमुखा पटि. ७८. महा अस्सपुर सुत्तन्त (मज्झिमनिकाय १/४/९) गण्हामि न कलोपि मुखा पटि गण्हामि, न एलक मतरं ७६. विनयपिटक चुत्तवग्भ । न दंडमंतरं न मुसलमतर, न दिन्न भुजमानान न न दिन्न भजमानान न ८०.विनयपिटक-महावग्ग । गबमनिया, न पायमानया, न पुरिसतरगताम्, न ८१. भरतसिंह उपाध्याय : बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारसंकितिसु, न यथ सा उपट्टितो होति, न यथा तीय दर्शन पृ० ८३४ । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चितन के लिए: ८. पाश्र्वनाथ और पद्मावती 7 श्री राजमल जैन केरल के जैन मन्दिरों में पाश्वनाथ की प्रतिमाएं हर पाश्वं का जन्म वाराणसी में हुआ था। उनका जन्मस्थान पर पाई जाती हैं। जहां प्रतिमा उकेरी गई हैं वहां स्थान आजकल की वाराणसी के भेलपुर नामक मुहल्ले में भी पार्श्वनाथ की प्रतिमा अवश्य अकित पाई जाएगी। विद्यमान है। जैन यानी आज भी उस स्थान की वंदना इसी प्रकार खुदाई मे प्राप्त मूर्तियों में पार्श्वनाथ की प्रति- करते हैं। उनके पिता वाराणसी के राजा अश्वसेन थे। मायें ही अधिक प्राप्त हुई हैं। पद्मावती देवी पार्श्वनाथ उनकी कांता का नाम वामादेवी था। कुछ लेखक या की यमी या शासनदेवी हैं। पार्श्वनाथ की मूर्ति के साथ आख्यान उनके पिता का नाम विश्वसेन और माता का या अलग प्रतिमा के रूप में पद्मावती का अंकन भी नाम ब्राह्मीदेवी भी बताते हैं किन्तु सबसे अधिक ज्ञात सामान्यतया पाया जाता है। केरल मे वे अब भगवती के और प्रचलित नाम अश्वसेन और दामादेवी ही है। बौद्ध रूप में पूजी जाती हैं। उनके मन्दिर भगवती के मन्दिरों साहित्य मे भी राजा अश्वसेन का उल्लेख मिलता है । के रूप में परिवर्तित कर दिए गए हैं ऐसा कुछ विद्वानों उनका गोत्र काश्यप और वश उरग था। उरग का अर्थ का मत है । जैसे कल्लिल और तिरुच्चारणट्टमल के भग- है-उर अर्थात् पेट के बल पर गमन करने वाला यानी वती मन्दिर । नाग । इसका अर्थ यह है कि वे नागवंशी थे या नाग जाति पार्श्वनाथ जैनों के तेईसवें तीर्थंकर हैं। वे केवल में उत्पन्न हुए थे। उनके पैर मे सर्प का चिह्न भी जैन पौराणिक देवता नही हैं। वे इस भूतल पर सचमुच जन्मे कथाओ मे वणित है। उनके वश की राजकीय ध्वजा पर थे। उन्होंने सत्य, अहिंसा प्रादि का उपदेश दिया था। भी नाग का अंकन था। पावं का शरीर नौ हाथ ऊंचा उनकी स्मृति में आज भी बिहार का एक पर्वत 'पारसनाथ था। उनके जीवन की एक निम्नलिखित घटना की स्मृति हिल' कहलाता है। इसी नाम का एक रेलवे स्टेशन भी मे सर्प फणावलो उनकी प्रतिमाओ के साथ जुड गई। है। उनकी वास्तविकता का इससे बड़ा और क्या प्रमाण तीर्थकर पार्श्वनाथ का जीवन अनेक काव्यो, पुराणों हो सकता है। इसके अतिरिक्त, बौद्ध साहित्य में उनसे आदि का विषय है। दिगम्बर ग्राम्नाय के ग्रन्थो में संबंधित उल्लेखों आदि के आधार पर हरमन याकोबी ने तिलोयपण्णत्ति और आचार्य गुणभद्र का उत्तरपुराण इनमे उनकी ऐतिहासिकता सिद्ध की है। रा. राधाकृष्णन ने प्रमुख हैं। यह पुराण कर्नाटक के बकापुर नामक स्थान मे भी उन्हें ऐतिहासिक व्यक्तित्व माना है। ईस्वी सन् ८६८ मे पूर्ण हुप्रा था जब कि राष्ट्रकूट राजा तीर्थकर पार्श्व का जन्म आज १९६१ से २८६८ वर्ष अकालवर्ष राज्य कर रहा था। श्वेताम्बर ग्रन्थों मे कल्पपूर्व हुआ था। इस गणना का आधार इस प्रकार है- सूत्र और आचार्य हेमचन्द्र का त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र अन्तिम और चौबीसवें तीर्थंकर महावीर का निर्वाण ईसा प्रमुख है जिसमे कि सठ श्रेष्ठ पुरुषो का चरित्र वणित से ५२७ वर्ष पूर्व हुआ। उनसे २५० वर्ष पूर्व पारसनाथ है। दोनो सप्रदायों में मुख्य अतर पावं के विवाह का हिल पर पार्श्वनाथ का निर्वाण जैन परम्परा मे मान्य है। लेकर है। दिगम्बरों के अनुसार पावं के विवाह का उनकी आयु १०० वर्ष थी। इस प्रकार--.६६ +५२७+ प्रस्ताव तो आया था किन्तु उन्होने उसे अस्वीकार कर २५०+१००२८६८ वर्ष का योग आता है। दिया था। श्वेतांबर मान्यता इसके विपरीत है। उसके x लेखक की अप्रकाशित पुस्तक 'केरल में जैन मम्' का एक अध्याय । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्वनाथ और पद्मावती अनुसार उनका विवाह राजा प्रसेनजित की पुत्री प्रभावती पाकर ध्यानस्थ हुए। हाथी मद में था और वह उन्हें से हुआ था। किंतु प्राचीन श्वेतांबर ग्रंथ कल्पसूत्र से मारने के लिए लपका किंतु जैसे ही उसने उनके वक्षस्थल इसका समर्थन नहीं होता है। केरल में भी इसी प्रकार की पर श्रीवत्स चिह्न देखा, उसे मुनि से अपने पूर्व जन्म के एक भ्रांति है। वहां नागरकोविल नामक एक स्थान पर संबंध का स्मरण हो आया। मुनि से उसने धर्म श्रवण नागराज मन्दिर या कोविल है। उसमें पार्श्वनाथ को किया और लौट गया। अब वह दूसरों के द्वारा तोड़ी गई पीतल की मति शेषशायी विष्ण के रूप मे पूजित है (फणा- पत्तियों और शाखामों को खाकर ही अपना जीवन-निर्वाह वली के कारण यह मम्भव हुआ होगा) यह मन्दिर १६वीं करने लगा। वह कमजोर हो गया। एक दिन वह पानी शताब्दी तक जैन मन्दिर था वहां यह बताया जाता है पीने के लिए वेगवती नदी के किनारे गया वहाँ वह दलदल कि पार्श्वनाय का विवाह हुआ था और और उनकी तीन में फंस गया। कमठ उसी वन में मरकर कुक्कुट सर्प के फणों का छत्र धारण करने वाली दो पत्नी है। यह गलत रूप में जन्मा था। उसने हाथी को इस लिया। हाथी पर धारणा इसलिए बनी जान पड़ती है कि इस मंदिर के कर सहसार नामक स्वर्ग में देव के रूप मे उत्पन्न हुआ। प्रवेश द्वार पर तीन-चार फुट ऊंची धरणेन्द्र और पद्मावती स्वर्ग में अपनी आयु पूर्ण करने के बाद मरुभूति का की प्रतिमाएं बनी हुई है जिनकी आकृति ऊपर की ओर जन्म पुष्कलावती देश में राजा विद्युन्मति के यहाँ रण मेमानवीय है और नीचे का भाग सकार है। दोनों के वेग नामक पुत्र हआ। नाज-सुख भोगने के बाद जब उसे ऊपर तीन फणों की छाया है। जैन आख्यान की जानकारी अपनी आयू अल्प जान पड़ी, तो उसने मुनि-दीक्षा ले ली। के अभाव मे यह धारणा बन गई ऐसा जान पड़ता है। वह हिमगिरि की एक गुफा में ध्यान मे लीन हुआ । उधर ये पार्श्व के यक्ष-यक्षी हैं। कमठ का जीव धूमप्रभा नामक नरक की भयंकर यातपापर्व को जीवन गाथा अनेक पिछले जन्मों से चली नाएं भोगने के बाद उसी स्थान पर अजगर के रूप में आ रही शत्रुता और अमाधारण क्षमा को अनोखी कहानी जन्मा था। उसने मुनि को निगल लिया । वे अच्युत स्वर्ग है जो आज भी इतनी ही रोचक बनी हुई है। इसके मे देव हुए। अतिरिक्त, अपने उपकारी पार्श्वनाथ के प्रति धरणेंद्र और स्वर्ग के सुखी जीवन के बाद मुनि के जीव ने पप पद्मावती ने कृतज्ञता का जो उदाहरण पाव के ही जीवन- देश के अश्वपर नगर के राजा वचवीर्य के घर वजनाभि काल में प्रस्तुत किया और जिस प्रकार पार्ट्स के अनु- नामक पूत्र के रूप में जन्म लिया। उसने चक्रवर्ती के सुख यायियों का आज भी उपकार करते चले आ रहे हैं, वह भोगे और अंत मे मनि जीवन अपना लिया। अजगर छठे भी एक अनूठा सत्य है । यह कहानी उत्तरपुराण के आधार भयंकर नरक में गया था। वहाँ असह्य यातनायें भोगने पर यहाँ दी जा रही है। के बाद वह कुरंग नामक भील हुआ । संयोग से वजनाभि सुरम्य देश में पोदनपुर नाम के एक मगर में परविंद मनि भी उसके स्थान के समीप योग मुद्रा में लीन हुए। नाम का एक राजा राज्य करता था। उसकी नगरी में मोल ने वैरवश उनको अनेक प्रकार के कष्ट दिए जिनके विश्दभूति नामक एक श्रुतिज्ञ ब्राह्मण भी निवास करता कारण उनका प्राणांत हो गया। वे ग्रेवेयक नामक स्वर्ग था । उसके दो पुत्र थे । एक का नाम कमठ था और दूसरे विमान में श्रेष्ठ अहमिंद्र देव हुए। का नाम मरुभूति था। मरुभूति की स्त्री वसुंधरी अत्यन्त अहमिद पद का अतिशय सुखमय दीर्घ जीवन जीने के सुन्दर थी। उसको पाने के लिए कमठ ने मरुभूति को बाद मरुभूति का जीव कोशल देश की अयोध्या नवरी में मार डाला। राजा बज्वबाहु के यहाँ आनन्द नामक पुत्र के रूप में मरुभति मर कर मलय देश के एक वन में वज्रघोष उत्पन्न हुआ । बडा होने पर उसने अष्टाह्निका पूजा कर. नामक हाथी हुआ । इसी बीच राजा अरविंद राज्य त्याग वाउ जिसमें विपुलमति नामक मुनि शामिल हुए। राजा कर मुनि हो गए थे और वे भ्रमण करते हुए उसी वन मे आनन्द ने मुनि से प्रश्न किया-"जितेन्द्र प्रतिमा तो Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२, वर्ष ४५, कि०४ अनेकान्त अचेतन है, उसमें भला-बुरा करने की क्षमता नहीं है, वह उन्होने देखा कि उनकी माता का पिता (नाना) अपनी पत्नी पुण्य फल कैसे प्रदान कर सकती है ?" मुनि ने उत्तर के वियोग मे दुखी होकर पचाग्नि तप कर रहा है। उसके दिया-"प्रतिमा अचेतन अवश्य है किंतु राग-द्वेष से रहित चारो ओर आग जल रही थी और ऊपर से तेज सूरज को है, शस्त्र-अलंकार आदि से भी रहित है और शुभ भावो धूप चमक रही थी। पार्श्व ने उसे नमस्कार नहीं किया। को दर्शाती है । उसका दर्शन करने वाले के भाव शुद्ध होते इससे वह कुढ़ गया। बग्मती आग मे लकड़ी डालने के हैं तथा शुभ भावों के कारण पुण्य होता ही है।" राजा लिए जैसे ही उसने फरसा उठाया कि पार्श्व बोल उठेको इस उत्तर से बड़ा संतोष हुआ। उसने अनेक जिन- "इसे मत काटो, इसमें जीव है। आग तपने से पुण्य नही मन्दिरों और मूर्तियों का निर्माण कराया। एक दिन उसने होता है । उससे जीव हिंसा होती है।" तापस नही माना। अपने मस्तक पर एक सफेद बाल देखा, उसे देख उसे उसने लकड़ी काट डाली और उसमे प्रविष्ट नाग-नागिन वैराग्य हो गया। पुत्र को राज्य देकर उसने तप की राह के दो टुकड़े हो गए। पार्श्वनाथ ने उस जोड़े को धर्म का अपनाई । तीर्थंकर कर्मबंध में सहायक सोलहकारण भाव- उपदेश दिया (णमोकार मत्र सुनाया) ताकि उनको आत्मा नाओं का चिंतन करते हुए उसने घोर तप किया। अन्त को शांति मिले । इस दृष्य के कारण कमठ के जीव तापस में, आनन्द मुनि एक वन मे ध्यानस्थ हुए। उसी वन में महीपाल को वहाँ एकत्र जन-समुदाय के सामने बहुत नीचा कमठ का जीव सिंह के रूप मे जम्मा था। वह प्रकट हुग्रा देखना पड़ा। उसने मन ही मन पाश्वं से बदला लेने की और उसने मुनि का कंठ पकड़ कर उसका प्राणांत कर ठान ली। आचार्य गुणभद्र ने पार्वनाथ का एक और नाम दिया। आनंद मुनि अच्यूत स्वर्ग के प्राणत नाम मे विमान सुभोमकूमार भी दिया है। में अहमिंद्र देव हुए। पार्श्वनाथ जब तीस वर्ष के हुए, तब अयोध्या के राजा स्वर्ग की अतिशय सुखपूर्ण दीर्घ आयु पूर्ण करने के जयसेन ने एक दूत को भेंट आदि के माप अश्नसेन और बाद प्राणत विमान के इन्द्र वाराणसी के काश्यपगोत्री पार्श्वनाथ के पास यह सदेश देकर भेजा कि कुमार का राजा विश्वसेन की रानी ब्राह्मीदेवी के गर्भ में आए। विवाह उसकी पुत्री के साथ कर देने का उसका प्रस्ताव रानी ने उस समय सोलह स्वप्न देखे जिन का फल राजा स्वीकार कर लिया जाए। दूत ने प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने यह बताया कि वे पूजनीय पुत्र को जन्म देगी। समय की जन्मभूमि अयोध्या की महिमा का वर्णन किया । पर रानी ने पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम पाश्वनाथ आदिनाथ का नाम सुनकर पार्वनाथ के सामने प्रथम रखा गया। वे उग्रवंश में जन्मे थे। प्रसिद्ध इतिहासकार तीर्थकर की महान तपस्या, अद्भुत त्याग और यशस्वी डा. ज्योतिप्रसाद जैन ने विभिन्न स्रोतों के आधार पर जीवन का चित्र सामने आ गया। उन्होंने अवधिज्ञान से यह मत व्यक्त किया है कि पार्श्वनाथ उरगवशी थे। उन्होंने यह जाना कि वे तो तीर्थकर होने की क्षमता प्राप्त कर लिखा है कि महाभारत युद्ध के बाद कोरवो और पांडवों चुके हैं। इसलिए उन्होंने विवाह का प्रस्ताव अस्वीकार के राज्य नष्ट हो गए और उनके स्थान पर नाग जाति के कर दिया। वैराग्य हो जाने के कारण वे मुनि बन गये । राजाओं के राज्य उदित हुए। वाराणसी का उरगवशी एक दम नग्न, हाथ मे लकड़ी का कमडलु और मोर के राज्य भी इसी प्रकार के शक्तिशाली राज्यों में से एक था। सुकोमल पंखों को एक पिच्छी। उन्होंने उपदेश देने से वैदिक धारा के ग्रंथों मे इन सत्ताओं का उल्लेख शायद पहले चार मास तक कठोर तपस्या की। इसलिए नहीं मिलता कि वे इस धारा की अनुयायी नहीं एक दिन पार्श्वनाथ देवदारु के एक वृक्ष के नीचे ध्यानथीं। केरल मे भी उस समय नाग जाति प्रबल थी। उसको मग्न थे कि उस समय तापस महीपाल, जो मरकर अब अपनी शासन व्यवस्था थी। शम्बर देव के रूप में उत्पन्न हुआ था, उधर से अपने पार्श्वनाथ जब सोलह बर्ष के हुए तब एक दिन वे विमान से कही जा रहा था। जैसे ही उसका विमान क्रीड़ा के लिए अपनी सेना के साथ नगर के बाहर निकले। पार्श्वनाथ के ऊपर आया कि वह रुक गया। शम्बर ने Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्र्वनाथ और पद्मावती " ज्यों ही पापर्व को नीचे देखा, त्योंही पूर्व जन्म का वर पार्श्वनाथ को अडिग देख कमठ ने भी उनसे क्षमा मांगी। उसके मन मे उमड आया। उसने बादलों की घोर गर्जना जिस समय यह घटित हो रहा था, उसी समय पार्श्वनाथ की, बिजली की भयकर कड़कडाहट के माथ गनधोर वर्षा को केवलज्ञान हो गया। अब वे इतने ऊँचे स्तर पर थे की, पत्थर फेंके तथा अन्य प्रकार से पार्श्वनाथ को कष्ट कि उन्हें न तो कमठ से कोई द्वेष था और न ही धरणेंद्र पहंचाता रहा किंतु पावं अपने ध्यान से नहीं डिगे। से कोई राग। उस समय वे उत्तम क्षमा के सर्वोत्तम शम्बर के ये उपद्रव "कमठ के उपमर्ग" के नाम से जैन साक्षात उदाहरण थे। परम्परा मे जाने जाते हैं और बहुसंख्य जैन मन्दिरों में जिस स्थान पर यह घटना घटी, वह स्थान उन दिनों इनके चित्र या उत्कीर्णन पाए जाते हैं। कलाकारो ने इनका संख्यावती के नाम से जाना जाता था किंतु इस अभूतपूर्व चित्रण भी अनेक प्रकार में किया है। कर्नाटक के शिमोगा घटना की याद मे उसका नाम बदल कर अहिच्छत्र अर्थात् जिले के होम्बजा नामक एक स्थान में पार्श्वनाथ की ७वी वह स्थान जहाँ अहि (सर्प) ने छत्र ताना था, कर दिया शताब्दी को एक सान फुट ऊंची सुन्दर पाषाण प्रतिमा है। गया। आज भी वह इमी नाम से जाना जाता है। वह उसके दोनो ओर कमठ और उसकी पत्नी को पाश्र्व पर उत्तरप्रदेश के बरेली जिले के आंवला तहसील के रामउपसर्ग करते दिखाया गया है। पहले दृश्य में कमठ पत्थर नगर गांव का एक भाग है । यह कैसा संयोग है कि केरल फेक रहा है, तो उसकी पत्नी के हाथ मे छुरिका है । दूसरे नपूनिरि ब्राह्मण अहिच्छत्र से केरल मे आ बसे । क्या मे कमठ धनुष बाण ताने हुए है, तो उसकी पत्नी हाथ मे पार्श्वनाथ के धर्म के अत्यधिक प्रभाव के कारण उन्हे ऐमा तलवार लिए हुए है। तीसरे मे दोनो ने सिंह का रूप करना पड़ा ? केरल मे भी उन्हे नाग जाति के लोगो धारण किया है। चौथे मे वे दोनो मदमत्त हाथी के रूप (नायर जाति) से मेलजोल बढ़ाना आवश्यक हुआ। यह मे प्रदशित है। सबसे नीचे उन्हे हाथ जोड़कर पार्श्वनाथ बात दूसरी है कि आगे चलकर वे उन पर हावी हो गए। से क्षमा मागते हुए दिखाया गया है । सम्भव है कि सातवी तीर्थकर पार्श्वनाथ ने ६६ वर्ष और ८ मास तक पैदल सदी में उपलब्ध किंतु उत्तरपुराण (नोवी शताब्दी) को धूम-घम कर अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह अर्थात् आवश्यकता अनुपलब्ध किसी पुगण मे यह दृश्यावली वणित हो। से अधिक संग्रह आदि नही करना आदि सिद्धांतों और घनघोर वर्षा, ओलों की बरसात का परिणाम यह आचार-विचार का उपदेश भारत और देशो में दिया था हुआ कि पानी पार्श्वनाथ को नासिका से ऊपर उठने को यह बात अनेक कथाओ से प्रमाणित होती है। उनका हआ । ठीक उसी समय अधोलोक में नागकुमार जाति के विहार, तिब्बत, नेपाल से लेकर कोकण, कर्नाटक, पल्लव देवो के इन्द्र घरणेन्द्र का आसन कंपित हो उठा । धरणेद्र आदि द्रविड़ देशो में भी हुआ था। आज उनके उपदेश ने अवधिज्ञान से यह जाना कि उनके उपकारी पार्श्वनाथ लिखित रूप में उपलब्ध नही है। वे महावीर से पहले पर साट आया है। वह अपनी इन्द्राणी पावती सहित हुए थे और उनके उपदेश महावीर के प्रमुख शिष्य गौतम सर्प का रूप धारण कर वहाँ आग और पाश्वनाथ पर गणधर ने चौदह ग्रंथो के रूप मे सकलित किए थे जिन्हें फणो का मण्डप तान दिया। इन्द्राणी पावती ने उसके भी "पूर्व" कहा जाता था। इनके सम्पूर्ण ज्ञाता आचार्य भद्रऊपर एक वज्रमयी छत्र लगा दिया। कुछ के मतानुसार बाहु थे। इस प्रकार महावीर स्वामी के निर्वाण के १६२ पद्यावती ने पार्श्व को कमल के आसन पर विराजमान वर्ष बाद ये स्मृति से लुप्त हो गए। यह स्मरणीय है कि कर दिया। ये इन्द्र-इन्द्राणी पौर कोई नहीं अपितु पूर्व पहले समस्त ज्ञान मौखिक था। वेद भी तो १४वी सदी जन्म के वे ही सर्प-सपिणी थे जिनकी सद्गति के लिए में जाकर लिपिबद्ध किए गए । लुप्त हो जाने पर भी पूर्व पार्श्वनाथ ने उनके अंत समय मे णमोकार मंत्र सुनाया था। प्रथों का पता कुछ प्रथो मे उनके उल्लेख से चलता है। आचार्य गुणभद्र कहते है कि देखो सर्प स्वभाव से क्रूर होते इसी प्रकार का एक उल्लेख केशो-गौतम संवाद है जो कि है किंतु उन्होने भी अपने उपकारी को नहीं भुलाया। पार्श्वनाथ और महावीर के शिष्यों के बीच हुआ माना Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४, वर्ष ४५, कि० ४ अनेकान्त जाता है। केवल इस संवाद के आधार पर कुछ विद्वान दर्शन तो केवल उन्हीं जैसे शुद्ध आचार एवं विचार को यह मत व्यक्त करते है कि पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म का साधना और उमके परिणामस्वरूप मोक्ष-लाभ के लिए अर्थात् अहिंसा, सत्य, अचौर्य तथा अपरिग्रह का ही उपदेश किया जाता है। तो फिर इतनी चमत्कारिता पार्श्वनाथ में दिया था। किंतु यह मत एकांगी माना जा सकता है कैसे आ गई? इसका सम धान यह है कि धरणेन्द्र और क्योकि इसका दूसरा प्रमाण उपलब्ध नहीं है । ऐसे विद्वान पद्मावती ने अपने उपकारी पार्श्वनाथ का उपमर्ग तो दूर यह कथन करते हैं कि महावीर ने ब्रह्मचर्य नामक पांचवा किया ही, वे पार्श्व के भक्तो के कष्टों का भी निवारण व्रत और जोड़ दिया। जैन परम्परा यह मानती है कि करते हैं। ऐसा वे धर्मवत्सलता के कारण करते है । आचार्य सभी तीर्थरो का उपदेश पांचों व्रतों का ही रहा यद्यपि गुणभद्र कहते है कि-"देखो, ये धरणेन्द्र और पद्मावती कुछ समय धर्म का उच्छेद हुआ था। लिखित माहित्य के बड़े कृतज्ञ और बड़े धमात्मा है इस प्रकार की स्तुति को अभाव के संबंध मे यह भी स्मरणीय है कि पूर्वो के जान- वे संसार में प्राप्त हह है परन्तु तीनों लोको के कल्याण कार आचार्यों को "श्रुतघराचार्य" कहा जाता था और को भूमिस्वरूह अापका ही यह उपकार है ऐसा समझना पार्श्व एवं महावीर के अनुयायियों को आज भी श्रावक चाहिए । निष्कर्ष यह है कि पार्श्वनाथ की मूर्तियो अथवा (सुनने वाला) कहा जाता है। पाश्वं को अपना इष्ट देव भक्ति के जो चमत्कार देखे जाते हैं, उनके कर्ता ये दोनों ही मानने वाली विहार-बंगाल की "सराक" जाति श्रावक ही होते है। ये पार्श्व के यक्ष-यक्षी अथवा शासनदेवता कहहै । अब यह जाति अजैन है। लाते है । चमत्कारों के क्षेत्र में महादेवी पत्रावती ने असाअपनी आयु निकट जानकर पार्श्वनाथ विहार की वर्त- धारण ख्याति प्राप्त की है। आचार्य मल्लिषेण ने अपनी मान पारसनाथ हिल, जिसे जैन लोग सम्मेदशिखर कहते रचना "भैरव पद्मावतीकल्प" मे उन्हें 'श्रीमत्पावजिनेशहै, जिसकी सबसे ऊँची चोटी "सुवर्णभद्र कूट" पर ध्यानस्थ शामनसरी पावती देवता" कहा है । पद्मावती के स्वतत्र हुए। वही पर श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन उनका मन्दिर भी होम्बुजा, नागदा, बघेरा आदि स्थानो पर निर्वाण हुआ। निमित हुए हैं। केरल में वायनाड जिले के चुडेल नामक पार्श्वनाथ की ख्याति एक चमत्कारिक तीर्थङ्कर के स्थान के पास करमण्डा ग्राम की पद्माम्बा इस्टेट मे एक रूप में सर्वाधिक है। नोवी शताब्दी में उत्तरपुरा की दर्पण मन्दिर (Mirror Temple) है जिसमें पाश्र्वनाथ रचना करने वाले आचार्य गुणभद्र ने पावं का स्तुति मे और पद्मावती देवी को विविध छबियाँ दर्पण और बिजली कहा है कि हे भगवान, गुणों आदि के विचार से सभी की सहायता से दिखाई जाती है (इसे पिछले चालीस वर्षों तीर्थहर समान है किंतु आपका माहात्म्य अधिक ही प्रकट मे हजारो जैन-अजैन लोगों ने देखा है। केरल सरकार ने हुआ है। इसका कारण उन्होंने कमठ द्वारा किए गए उप- इसे कालीकट-वायनाड़ के पर्यटक देन्द्रों मे गिनाया है) सर्ग को बताते हए यह मत प्रकट किया है कि उससे भग- केरल के जैनों को बड़ी श्रद्धापूर्वक पद्मावती की आरती वान की असाधारण सहनशीलता और माहात्म्य प्रकट आदि करते देखा जा सकता है। दिल्ली के दिगम्बर जैन आज बीसवी सदी मे तो पार्श्वनाथ की महिमा कई गुना लाल मन्दिर में पद्मावती की आरती आदि करती भीड़ अधिक बढ़ गई है। अनेक पुराण-प्रसग और हजारो भक्त देखी जा सकती है। दिल्ली में ही श्वेतांबर समाज द्वारा यह कहते मिल जायेंगे कि पावं की कृपा से यह फल कछ करोड की लागत से वल्लभ स्मारक का निर्माण मिला। जैन मान्यता के अनुसार तो निर्वाण के बाद कराया जा : कराया जा रहा है। उसमे मूर्ति के लिए स्थान नहीं है तीर्थकर ऊर्वलोक में सिशिला पर निराकार विराजते कितु उसके निर्माण से पहले पद्मावती का एक स्वतत्र मंदिर है। वे सभी प्रकार के सांसारिक का-बंधनों से मुक्त हो बनवाया गया । पालीताना में भी इसी समाज का एक वीतराग हो जाते है। वे न तो किसी का हित करते हैं भव्य समवसरण मन्दिर बना है जिसमें पार्श्वनाथ की और नही किसी का अहित । उनका गुणगान स्मरण या १०८ प्रतिमाएं है और धरणेन्द्र तथा पपावती की भी Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्वनाथ और पपावती इस प्रकार ये दोनों ही समाजों मे मान्य हैं। खेल में किसी के अभिषेक का मनोहारी दृश्य मन को मानंद देता है। भीमति या मन्दिर की प्रतिष्ठा या पंचकल्याणक महोत्सव कलाकारो पर कौन रोक लगा सकता है? के समय इनका आह्वान अवश्य किया जाता है। तीनों लोक संबंधी जैन विवरण में नागकुमार देवों पद्मावतो जैनों में ही लोकप्रिय नहीं है, अपितु अन्य का विवरण उपलब्ध है। जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं, मतों में भी वे मान्य है। वे निरुपति के बालाजी को प्रिया उसके नीचे सात भूमियाँ और हैं। इनमे से पहली पृथ्वी हैं। कश्मीरी कोल संप्रदाय के ग्रन्थ शारदातिलक मे उनकी के रतनप्रभा नामक भाग मे इन देवों का निवास है। उपासना विधि दी गई है। यह उल्लेखनीय है कि कश्मीर घरणेन्द्र और पद्मावती इनके स्वामी या इन्द्र और इंद्राणी में अशोक ने जैनधर्म का प्रचार किया था ऐसा कथन है। पद्मावती धरणेन्द्र की अग्रमहिषी है। ये एक ही समय कश्मीर के इतिहास से सबधित रचना राजतरगिणी में है। में अनक स्थानों पर अनेक रूप धारण कर सकते हैं । इस जैन मान्यता के अनुसार धरणेन्द्र और पपावती नाग क्षमता को विक्रियाऋद्धि कहा गया है। यही कारण है कि कुमार जाति के देवो के इन्द्र और इन्द्राणी है। इसको वे अनेक भक्तो का कष्ट निवारण कर सकते हैं। सोचते सुचित करने के लिए उने की मूर्ति आधी मानव शरीर के ही ये कहीं भी प्रकट या अदृश्य रूप में आ सकते हैं। ये रूप में तो थाधी सर्प को देह के आकार की बनाई जाती एक साथ सो लोगो का पोषण या मरण कर सकते हैं। है। इस प्रकार का अंकन नागरकोविल के नागराज मदिर धणेन्द्र तो एक सेना को मार गगाने में समर्थ है। दक्षिण के प्रवेश द्वार पर है। यह मदिर किसी समय जैन था। भारत की एक रानी द्वारा आह्वान किए जाने पर उसके पार्श्वनाथ की धातु मूनि आज भी विष्णु के रूप में पूजी पति की रक्षा के लिए उन्होंने एक मायामयी सेना ही खडी जाती है। जैन मन्दिरों में इन शासन देवो को पार्श्व के कर दो थो ऐसा एक प्रसंग मिलता है। इनको आयु दस आसन के नीचे या अलग किमी स्थान पर अथवा मन्दिर हजार वर्ष बताई गई है। अमी गे और सात हजार वर्षों के बाहर स्थापित किया जाता है। इनके ऊचे मु.ट में तक जग कल्याण करते रहेंगे। इनके भवन मदा सगंधित ifra की जाती है। प्रतिमा मकट रहते है । शायद यही कारण है कि इनका आह्वान गुलाब, के ऊर भी हो सकती है। इन पर तीन फणो की छाया चदन आदि सुगधित पदार्थों द्वारा किया जाता है। मत्रभी प्रदर्शित प्रायः होती है। धरणेन्द्र और पद्मावती से शास्त्र के ज्ञाता इस बात को भलीभाति जानते हैं कि बिना श्रद्धा के इन्हें प्रसन्न कर पाना कठिन है। इनसे भिन्न फ्णावली पार्श्वनाथ की मति पर अकित की जाती सबधिन अनेक स्तोत्र, स्तु तया या भवन सस्कृत, हिन्दी, है। सामान्य नियम यह है कि पार्श्व की मूर्ति पर सात कन्नर आदि भाषाओं में विशेष रूप स पद्मावती के सबध फण होने चाहिए। किंतु कहीं-कही पांच फण भी देखे में पाए जाते हैं। देवी पद्मावती को "त्रिफणा" और जाते है जो कि वास व मे सातवे तीर्थदूर सुपार्श्वनाथ की "त्रिनेत्रा" कहा गया है । वे तीसरे नेत्र से यह जान लेती प्रतिमा पर प्रदशित किए जाते है। दोनो तीर्थदूरो की है कि कहां क्या हो रहा है। इस क्षमता को जनधर्म म प्रतिमाओ को पहिनान उनके पादासन पर बने चिह्नो से अवधिज्ञान की सज्ञा दी गई है। अधिकाशतः वे स्वप्न होती है। पार्श वा लांछन सपं है बhि सुपाचं का देकर मार्गदर्शन करती हैं ऐसा मत्रविदो का अनुभव है। नद्यावर्त । पुराण मे तो इतना ही मंकेत है कि धरणेन्द्र ने उनसे जुड़े मत्रो की सख्या भी यहत अधिक। वे रक्तवर्ण फणामंडप तान दिया था किंतु कवियो, कलाकारों, भक्तो हैं जब कि धरणेन्द्र श्यामवणं है। भवनवामी देवी पद्मावती आदि ने अपने-अ.ने रंग भर दिये । कही-कही नो, यारह और पानाथ का सबध प्राचीनकाल से है । इसे हिदू या या हजार फण) की योजना भी पाई जाता है। कनाटक बैड तांत्रिक प्रभाव बताना अनुचित है। उसकी प्रबलता केबीजापर नगर के पास दरगान नाम के एक स्थान के तो ईसा के लगभग एक हजार वर्ष बाद हुई थी। जैन के पार्श्वनाथ मन्दिर मे सहसफणो सुन्दर पार्श प्रतिमा है। ये रागी है और जैन में वीतराग की पूजा का विधान है। उनके फणों से दूध इस तरह निकलता है कि पार्श्वनाथ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंयत-समकित सत्-आचरण रहित नहीं होता D श्री जवाहरलाल मोतोलाल जैन, भोण्डर प्रश्न-अभक्ष्य भोक्ता के सम्यक्त्व हो सकता है या व्यसन त्याग अनियमत: (नियम लिए बिना ही) तथा नहीं ? इसी तरह असयत समकिती के कुछ आचरण होते सातिचार (सदोष) पलते हैं । मातिचार व अनियमत: भी हैं या नहीं? पालता इसलिए है कि सम्यक्त्वी तो सदा आगे बढ़ने की उत्तर-यद्यपि प्रायः सभी गृहस्थाचार प्रतिपादक चटापटी से युक्त रहता है। अतः सदा वह आगे के अभ्यास शास्त्रों में अभक्ष्य का त्याग पचम गुणस्थान में ही बताया में प्रवृत्ति की बुद्धि रखता है कहा भी है-- है। इतना तक भी देखिए --प्रायः सभी शास्त्रो मे अष्ट- हे अव्रत परि जगत तें, विरकित रूप रहात ॥१८१६ मलगुण का पालन तथा सप्तव्य न का त्याग करने के दोहा-नहिं चाहैं अव्रत दशा, चाहे वन-विधान । लिए भो प्रथम प्रतिमाधारी को ही (यानी पंचम गुणस्था- मन में मुनिवर की लगन, सो नर सम्यकवान ॥१८१७ दो. वर्ती को ही) कहा है। [दौलतरामकृत क्रियाकोश] यहां इतना विशेष है कि जैसे रात्रि भोजन त्याग अव्रती तो है, पर जगत से विरक्त रहता है। वह छठी प्रतिमा में विहित है, यहा तक कि छठी प्रतिमा का अवत होता हुआ भी अव्रत दशा नहीं चाहता, वह व्रतनाम भी रात्रि मुक्ति त्याग है। तथापि इससे पूर्व भी विधान चाहता है। उसमें मुनिव्रत पाने की लगन बनी प्रथम प्रतिमा वाला भी रात्रिभोजन का त्यागी होता है। रहती है। ऐसा जीव सम्यग्दृष्टि होता है । उसके मलगुणो [कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा० ३२८ टीका तथा व० श्रा० ३१४ व व्यसन त्याग का पालन सातिचार-सदोष होने से ही वह तथा सावयधम्मदोहा गा० ३७ तबोलोसहि जलु ... ... प्रथम प्रतिमा का धारी नहीं कहला सकता। जैसे कि इत्यादि शब्द वाली गाथा] वमेव सामायिक प्रतिमा में पहली प्रतिमा में पांच अणुव्रतों की प्रवृत्ति तो सम्भवती सामायिक को बात है, पर द्वितीय प्रतिमाधारी भी सामा- है, पर इनके अतिचार दूर करता नहीं, इसलिए व्रत यिक करता है। प्रोषधोपवास चौथी प्रतिमा का नाम तथा प्रतिमा नाम नही पाता। [रा० वा० ७/२०/५५८ तथा काम कहा, परन्तु व्रत प्रतिमा वाला भी "पर्ण चतुष्टय चारित्र हाहुड़ (जयचन्द जी २३१] । माहि पाप तजि प्रोषध धरिये" (छह ढाला) इस कथन अब असंयत समकिती के सातिचार अष्टमूल पालन के अनुसार प्रोषध यथा-शक्ति करता ही है। इसी प्रकार व सप्तब्यसन त्याग को क्या दशा क्वचित् कदाचित हो यद्यपि प्रायः प्रथम प्रतिमा मे ही अष्टमूल पालन व सप्त सकती है ? उसके लिए निम्न प्रकरण द्रष्टव्य हैं.-प्रथम व्यसन त्याग तथा एवमेव अभक्ष्य-भक्षण-त्याग शास्त्रो में प्रतिमा के प्रकरण में कहा है किलिखा है तथापि सातिचार व अनियमत: ये सब सम्यक्त्वी ननु साक्षान्मकारादित्रयं जैनों न भक्षयेत् । भी पालता है। प्रथम प्रतिमा मे सप्तव्यमन त्याग निरति- तस्य किं वर्जनं न स्यादसिद्ध सिडसाधनात् ॥ पार व अष्टमूलगुण पालन निरतिचार आवश्यक है मैवं यस्मादतिचाराः सन्ति तत्रापि केचन । [सा० ध० ३/७-८] व नियमतः पालन आवश्यक है। अनाचारसमाः नूनं त्याज्याः धर्माथिभिः स्फुटम् ।। इतना ही नहीं प्रथम प्रतिमा वाला इन दोनों का मन तभेवा: सन्ति बहवः मादृशां वागगोचराः ।....... वचन काय से पालन करता है। [क्रियाकोष १८३२] लाटी संहिता १/परन्तु असंयत सम्यक्त्वो के अष्टमूलगुण पालन व सप्त अर्थ-"कदाचित् यहां पर कोई यह शंका करे कि Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंयत-समकित सत्-पाचरण रहित नहीं होता कोई भी जैनी मद्य, मांस, शहद का साक्षात् भक्षण नहीं कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका मे टीकाकार ने असयत सम्यकरता इसलिए क्या जैनी मात्र के उस का त्याग नहीं हुआ? क्त्वो के कुल ६३ गुण बनाये हैं। जिनमें ४८ को मूलगुण अवश्य हुवा। इसलिए सिद्ध साधन होने से आपके त्याग कहा तथा १५ को उत्तर गुण कहा । यथा ३ मूढ़ता, आठ कराने का उपदेश निरर्थक है? मद, ६ अनायतन, ८ शमा आदि; इनके त्याग रूप २५ उत्तर-यह बात नहीं है, क्योंकि यद्यपि जैन गुण । संवेग, निर्वेद, निन्दा, गहो, उपशम, भक्ति, अनुकम्पा इनका साक्षात् भक्षण नहीं करते है तथापि उनके तथा वात्सल्य ये ८ तथा ५ अतिचार त्याग, शका आवि, कितने ही अतिचार हैं और वे अनिचार अनाचारों के सात भय त्याग, ३ शल्य त्याग इस तरह कुल ८ हुए। समान हैं। इसलिए धर्मात्मा जीवों को (यानी प्रथम तथा उत्तर गुणो मे ८ मूलगुण व सात व्यसन लि! । यथाप्रतिमा वालों को) उन अतिचारों का भी त्याग अवश्य अष्टौ मूलगुणा सप्त व्य मनानि व इति पचदशसंख्योपेता: कर देना चाहिए। उस अतिचारो के बहुत से भेद तो जघन्यपात्रस्य सम्पग्दष्टेरुत रगणा: भवन्ति । मुझ जैसे पुरुष से कहे भो नहीं जा सकते।" [३२६ की टीका] मागे कहा है-- निसर्गाद्वा कुनाम्नायादाय'तास्ते गुणा: स्फुटम् । गुणभूषण श्रावकाचार १/४६ [श्रा० सं० २/४४.] तद्विनापि व्रत यावत्सम्यक्त्वं च गुणोऽङ्गिनाम् ।। में प्रशम, सवेग, निर्वेग, निन्दा, गहीं, भक्ति, आस्तिक्य और अनुकम्पा; इन आठ को सम्यक्त्व के अनुमापक गुण -ला० स. १/१५५ बताया है । यानी इन ८ द्वारा जीव मे सम्यक्त्व को पहिअर्थ-इस जीव के जब तक सम्यग्दर्शन गुण रहता चान होती है। [See Also वसुनन्दि थावकाचार] तथा है तब तक मद्य, मांस मधु का त्याग तथा ५ उदुम्बरों का पचाध्यायी उनरार्ध० ४६७] उक्त ८ सहित सम्यक्त्व के त्याग रूप गुण, चाहे तो स्वभाव से हो या चाहे कुल २५ गण मिलाने से कुल ३३ गुण सम्यक्त्वी के हो जाते परम्परा की परिपाटी से चले आ रहे हों, नियम रूप से , म से हैं। [गुणभुषण• १/६८ या व्रत रूप से धारण न किये हों, तो भी वे गुण ही कह महान कविवर बनारसी ने अपने नाटक समयसार लाते है ॥१५॥ अर्थात् सम्यक्त्वी के ये होते ही हैं। १४ गुणस्थान अधिकार में लिखा है - तथापि प्रथम प्रतिमा रूप त्याग के परिणाम बिना सदोष सत्य प्रतीति अवस्था जाकी । सातिचार ही पलते हैं। इसका अत्यन्न स्पष्ट खुलासा दिन दिन रीति गहे ममता की। लाटी संहिता प्रथम सर्ग से जानना चाहिए। शिवकाटी विर छिन.: करै सत्य को साको। चित रत्नमाला १९ मे कहा है - [श्रावका० सं०/४११] ___ सर्माकत नाम कहावै ताकौ ॥२७॥ मद्यमांसमधुत्यागसयुक्ताणुव्रतानि नुः । आत्म स्वरूप की सत्य प्रतीत होना, दिन प्रतिदिन अण्टो मलगुणाः पंचोदम्बरैरचार्भवपि ॥१६॥ समता भाव में उन्नति होना और क्षण-२ मत्य का साख(?) अर्थ-मद्य, मांस, मधु के त्याग से सयुक्त अणुवत करता है उसका नाम समकिती है। मनुष्यो के ८ मूलगुण कहे गए है। ५ उदुम्बर फलों के करुणा वच्छल सुजनता, आनम निन्दा पाठ । साथ मद्य, मांस, मधु के त्यागरूप ८ मूलगुण तो बालको समता भगति विरागला, घरमराग गुन आठ ॥३०॥ और मखों मे भी होते है। [तो फिर सम्वत्वी जैसे एक देश जिन (बद्र०स) के मांस नादि अभक्ष्य पदार्थ त्याग- करुणा, वात्सल्य, सज्जनता, आत्मनिन्दा, समता, रूप कैसे नहीं होगे ?] घद्धा, उदासीनता और धर्मानुराग; ये सम्यक्त्व के ८ गुण है। [कुन्दकुन्द त रयणसार गा० ५ व १ मे सम्यग्दृष्टि चित्त प्रभावना भाव जुत, हैय उपाद वानि । के सप्त व्यसन तथा सात भयो का अभाव बताया है।] धीरज हरख प्रवीनता, भूषण पच बख नि । ११॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८, वर्ष ४५ कि. ४ जैनधर्म की प्रभावना करने का अभिप्राय हेय उपादेय सम्यक्त्व का मलीन होना बताया है। अजनगिरि के संग का विवेक धीरज, सम्यक्त्व की प्राप्ति का हर्ष और तत्व से चन्द्र की धवल किरणे भी काली हो जाती है। आगे विचार में चतुराई; ये ५ सम्यक्त्व के भूणण हैं । कहा हैग्पान गरब मति-मन्दता, निठुर वचन उद्ग र । वेदलमीसिउ दहि महिउ जुत्त ण सावय होइ । रुद्र भाव आलस दशा, नास पंच परकार ॥३७॥ च्वइ दसण भगु, पर सम्मत्त वि गइलेइ ॥३६॥ ज्ञान का अभिमान, बुद्धि की हीनता, निर्दय वचनों [श्रा० स. १/४८६] का भाषण, क्रोधी परिणाम और प्रमाद; ये ५ सम्यक्त्व अर्थ-द्विदलमिश्रित दही और मही भी श्रावक के के नाशक भाव हैं। दौलतराम ने अपने क्रियाकोण में खारे योग्य नहीं है । इनके खाने से दर्शन [दर्शन प्रतिमा] अष्टमूलगुण, मात डासन त्याग आदि सब आवश्य बताये का मंग तो होता (ही) है, परन्तु सम्यग्दर्शन भी मलिन और कुल ६३ गणों वाले को समकिती कहा । यथा- हो जाता है। [श्रा० सं० ५/३७०-७१] गाथा १८१३ से १६ :- अव्रती सम्यक्त्वी सर्वथा अव्रती नही होना [जै० सि. अग निशंकित आदि बहु अठ गण सवेगादि। को० ४/३७९] सम्यक्त्वी स्वय का बुग करने वाले के अष्ट मदनिको त्याग पुनि अर वसु मूल गुणादि ॥१३॥ प्रति भी प्रतिशोध का भाव नहीं रखता। [पं० ध०२/ सात व्यसन को त्यागिनी अर तजिवो भय सात। ४२७/३८६] जिसके भोगाभिलाषा भाव है, वह निश्चय तीन मूढ़ता त्यागिवो तीन शल्य पुनि भ्रात ॥१४॥ हो मिथ्यादृष्टि है। [पं० ० २/५५१ पूर्वाधं अर्थकारषट् अनायतन त्यागिवी अर पाचों अतिचार । पं० मक्खनलाल जी गा०] । शुदात्मा भावना से उत्पन्न ए वेसठ त्यागे जु कोऊ सो समवृष्टि सार ॥१५॥ निविकार यथार्थ सुखरूपी अमृन को उपादेय करके संसार, चौथे गुणथाने तनी कही बात ए प्रात । शरीर पोर भोगों में जो हेय-बुद्धि वाला है वह सम्यग्है अव्रत परि जगत मे, बिरकित रूप रहात ॥१६॥ दर्शन से शुद्ध चतुर्थगुणस्थान वाला व्रतरहित दार्शनिक पुरुषार्थ सिदयुपाय टी० पृ० ११७ (कुचामन सिटो) है। [१० द्र० सं० ४५] सम्यग्दृष्टि को सर्व प्रकार के में लिखा है कि ८ मूलगुण पालन व सात व्यसन त्याग भोगो मे प्रत्यक्ष रोग की तरह अरुचि होती है। [पंचा० आदि ६३ गुण सम्यक्त्वी के अनिवार्य हैं। उ० २६/२७१]। यदि यह कहा जाय कि नही, हम तो नहीं मानते, इस प्रकार ऐसे-ऐसे महागुणों से सम्पन्न सम्यक्त्वी मम्यक्त्वी मांस भक्षण प्रत्यक्षतः करता है तो उनका प्रत्यक्ष दश्यमान ऐसे अभक्ष्य पदार्थों को कैसे खा सकता उत्तर उपामकाध्ययन में II आश्वास में कहा है कि है? नहीं खा सकता है। कहा भी है-वह मिथ्यात्व, मांम भक्षियों को दया नहीं होती। तथा मधु व उदुम्बर अन्याय व अभक्ष्य का त्यागी हो जाता है। [पृ० ३८, फल सेवियों मे नृशंसता का अभाव नहीं होता। जब कि (मम्यक्त्व प्रकरण) “सम्यक्त्व चिन्तामणि", प. पन्नासम्यक्त्वी में अनुकम्पा गुण आवश्यक होता है "और मास ल न जी साहि० तथा चारित्र निर्माण पृ०५ विदुषी आ. भक्षण में तीव्र निर्दयपना है।" [रश्नकरण्ड श्रा० पृ. ६६ जिनमति जी ६८ सस्ती ग्रन्थमाला] पावयधम्कदोहा [आ० देवसेन] इस प्रकार एक देश जिन स्वरूप निर्मल असयत में भी कहा है--सगे मज्जामिम रयहं महलिज्जइ मम्मतु। मम्यक्त्वी वि. द्र० सं०; प० का० आदि] के यद्यपि मजणगिरिसगे ससिहि किरणह काला इंति ।।२६ अभक्ष्य भक्षण नहीं करता। पर अभक्ष्य भक्षण का त्याग अर्थ-मद्य और मां के सेवन में निरत पुरुषों के संग से यहां सदोष, सातिमार हो पालता है। अभक्ष्य भक्षण सम्यक्त्व मलिन हो जाता है। स्वयं खाने की बात तो त्याग का निर्दोष व निरतिचार पालन दर्शन आदि प्रतिदूर रही, मात्र मांस भक्षी व मद्यपायी के सग-मात्र से माओं में ही समय है। भक्ष्यस्वरूप भी अन्न पान खाद्य Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ असंपत-समकित सत्-पाचरण रहित नहीं होता स्वाद्य का मर्यादा के [काल मर्यादा के ] बाहर अभक्ष्यपना दी। धन्य हो, ऐसे होते हैं सद्दष्टि पुरुष । यही सब देख हो जाता है। ऐसे अभक्ष्यों का त्याग उस असयत के नही कर श्रीमद् राजचन्द्र ने बनारसीदास को सम्यक्त्वी कहा होता। अत: कथंचित् इस अव्रती के इन अभक्ष्यों का [श्रीमद् पृ० ४८०] दौलतराम जी ने ठीक ही कहा है भक्षण बन जाता है-इनका तो इसके त्याग नहीं होता। कि गेही 4 ग्रह में न रचे, ज्यों जल ते भिन्न कमल है। इस प्रकार स्थूलत: इस चतुर्थ गुणस्थानी के अभक्ष्य भक्षण यदि यहां यह प्रश्न किया जाए कि अष्ट मूलगुण का नही होता, तथापि सूक्ष्मत: देखा जाय तो यह अवती पालन तथा सप्त-व्यसन-त्याग देवों के कहा होता है, जब कथंचित अभक्ष्य भक्षण से युक्त हो जाता है। (इसके लिए कि उनमें भी सम्यक् बी तो होते हैं ? इसका उत्तर यह है द्रष्टव्य है लाटीसहिता १) मैं मन्दबुद्धि हूं उक्त निर्णय में कि देवो के मास आदि का आहार ही जब नही है [देवों कही दोष हो तो विद्वान् सूचित करें। मांस-आहार तथा मद्य पान मानना देवो का अवणंवाद है इस प्रकार इन उदाहरणो/प्रकथनो से यह स्पष्ट [स० सि०६/१३] तब फिर मास आदि के त्यागरूप किया गया है कि अविरत सम्यग्दृष्टि यद्यपि एकदेश सयम मूलगुण धारण करने की उन्हें जरूरत ही कहा पड़ती है ? (आशिक) चारित्र से भी युक्त नही होता [चारित्त त्यि इसी तरह देवो मे शिकार करना, वेश्या सेवन आदि की जदो अविरद-अतेसु ठाणेसु गो० जी०] तथापि वह मिथ्या- भी बात नही है। उनका शरीर भी कालाहार-रहित दृष्टि की कषायो से अनन्तगुणो हीन कषायो से युक्त होता तथा सप्तधातु से रहित पवित्र होता है, वह वैकियिक है [धवला पु. ११वेदनाक्षेत्र विधान अनुयोग द्वार] तथा शरीर होता है जबकि हमारा शरीर अपवित्र तथा कवला. समस्त कुल क्रियाओं का पालन करता है। वह निशा- हारी ऐसा औदारिक शरीर है। फिर देवो के तो वैसे भी भक्षी नही होता, प्रतिदिन जिनबिम्ब दर्शन करता है। हजारों वर्षों तक भूख भी नही [र०व० श्रा० गा० १२८ जल अनछना वह नही पोता। व्यसन सप्त सेवन नहीं की टीका सदासुख जी कृत] जब हजारों वषो बाद भूख करता । क्वचित् कदाचित् परिस्थिति (विवशता) वश लगती है तथा खाने का भाव आता है तो गले से ही अमत एकाध बार का जुआ व्यमनरूप नही कहलाता [प. रतन० भर जाता है; जिह्वा झूठी तक नहीं हो पाती। अत: मु० व्य० कृति [ चरणानु.] तथा अष्टमूल पालन करता उनकी व्यवस्था में हमारी व्यवस्था मिलाना ठीक नही। है। प्रतिशोध भाव नहीं रखता। यथा-रावण के द्वारा उनके (देवों के) मधु, मांस, मद्य के आहार या सेवन का सीता हरण किए जाने के पश्चात् भी, अनेक बाधाओं का प्रश्न ही नही उठता, चाहे वे विध्यात्वा हो या सम्यक्त्वी। सामना करते हुए राम लंका पहुंच कर भी अपने गुनाह- यथायोग्य नारकी के भी यही बात है । अत: वहाँ अष्टमूल गार ऐसे रावण के प्रति युद्ध या विद्रोह के लिए नही पालन तथा सप्त व्य मन त्याग के विकल्प नहीं है। तियंचों ललकारते, अपितु ऐसा कहते हैं कि "हे दशानन ! मेरी के भी हमारे से तुलना करना उचित नही। क्योकि पचम जानकी मुझे दे दो, यह राम स्वयं मांगता है।" [देहि गुणस्थानवर्ती तिथंच भी छन्ने से जल छान कर पीने से दशानन ! जनकात्मजां रामो याचते स्वयम्] धन्य है तो रहा (हाथिगन डोयो पानी, सो पीवे गजाति ज्ञानी। सम्यक्त्व सत्पुरुष राम को क्षमा को। वह तो उत्तर में "पार्श्वपुराण" भूधरदास) तथापि सम्यक्त्वी तिथंच भी रावण नही माना तब युद्ध की विवशता-वश अनिवार्यता अन्य जीवो की शिकार कर मार कर नही खाता। वह बनी। इस प्रकार असंयत सम्यक्त्वी अतिमन्दकषायी होता दया भाव रखता है, जिनेन्द्र-वचनो पर श्रद्धान करता है। है। उसकी क्रियाएँ दूसरों के लिए प्राय: आदर्श-सी होती प्रतिशोध भाव नहीं रखता, अन्याय नही करता; इत्यादि हैं । अविरत सम्यक्त्वी बनारसीदास के घर चोर पहुचे तो स्वपर्याय-सम्भव पालनाएं करता है। इस प्रकार मनुष्यों चोरी का माल गठरी मे भर कर जब चोर ले जाने लगा मे असंयत सम्पदवी सर्वया आचार (आचरण) रहित नहीं तो उससे गठरी उठी नहीं तो स्वयं बनारसीदास (जिसके होता। वह आचारवान होता है। घर में चोरी हो रही है) ने उठकर स्वय गठरी उठवा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला पु० १६ का शुद्धिपत्र -जवाहरलाल जन/मोतीलाल जैन, भीण्डर पंक्ति २३ २८ पुणो वि ० " . , M अशुद्ध संख्गातवें संख्यातवें ण्विामोह णिवामोहविशेसाहियं विसेसाहिय अतः यहाँ क्योंकि यहाँ इससे प्रायः यहां से लेकर पुणे वि होकर सूक्ष्मसाम्पगथिक होकर सीधा सूक्ष्मसाम्परायिक समयाहिय मेत्तपढमट्टिदीए समपाहिय आलियमेत्तपढमट्ठिदीए अधिक प्रथम अधिक आवली प्रमाण प्रथम संषहि संपहि प्रदेशविन्यासवश प्रदेशविन्यासविशेष से गुणओ गुरगाओ ठिदिखडय ठिदिखंडय उत्कीण उत्कीर्ण असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे हीन प्रदेशपुंज पल्योपम प्रदेशज के पल्योपम जो दा मून आकृष्टिस्वरुप अकृष्टिस्वरूप प्रत्यविहासण प्रत्यविहासणं गवेसणट्ठ गवेसट्ठ अणु, भागोदयो अणुभागोदयो सरु, वणेदस्स सरुवेणेदस्स अवस्सं, भावि अवस्स-भावि क्योंकि 'अलद्दी य' ये कर्म क्षयोपशम सन्धि क्षयोपशम लन्धि का विरह (अभाव) से रहित हैं । अलब्धि का अर्थ है कि यतः अलब्धि कहलाता है। यतः इन कर्मों इन को लद्धिसामाण लद्धिसामण्णं देसाभासय भूदेण देसामासय भूदेण के वीचारो के वीचारा के वीवारो के वीचारा हुआ। इसमे हुआ, अत: इसमें क्योंकि बादर क्योकि चरम बादर जो दो मूल २६ Uoor.१ . १७-१८ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ४५ ४६ ४६ ૪૨ ५२ ५२ ५२ ५२ ५७ ५८ ६० ६७ ६६ ६६ ७१ ७२ ७४ ७७ ७८ ७६ ८० ८० ८४ ८६ ८६ ८६ ८६ ८६ पंक्ति xx u mm x १६ १४ २३ २५ १०.१५ १२ १६ २५ १३ ३० २६ २३-२४ २२ x १५ ( चरम ) १६-१८ ५ १६ २० २१ २१ अशुद्ध दोहि मि सपहि अन्तिम समय से जपला १६ का शुद्धिपत्र अन्त में जो दो हादि होता है क्योंकि वहाँ इसका विभाषा ग्रन्थ इसकी गाथा २०६ त्ति एदं पुण पुच्छासुत । नियम से स्थिति वीरसेन अनन्तर कृष्टि तविरुद्ध अत्यन्त विरुद्ध आगे इसका लिये विभाषा ग्रन्थ असंजगुणत नियम उदय मे प्राप्त हुए माणासवेण आविलय सविस् चाहिगे । जो नियम से उदयावलि मे ... रूप से परिणमती है पविमाणातविट्टीग एक कृष्टि सदृश धनरुप होकर परिणमती है । तरह से करने के लिए उदय सम्पत्ति शुद्ध दोहिहि पहि प्रथम समय से बाद मे जो दो होदि, होता है, और सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों का अबन्धक होता है, क्योंकि वहाँ यह विभाषा ग्रन्थ इसके पूर्व गाथा २०६ सि एद पद वापरणमुक्त ति एदं पुण पुच्छामृत नियम से सर्वस्थिति जिनसेन अनन्त कृष्टि तबिरुद्ध विरुद्ध आगे इसी का लिए आगे के विभाषा ग्रन्थ असखेज्जगुणत्तनियम उदय में पति २१ मागास से बावलिय सव्विस्से चाहिए । जो पूर्व प्रविष्ट अर्थात् उदयावली को प्रविष्ट अनन्त अवेद्य मानकृष्टिये हैं; जो कि विवक्षित समष्टि के अधस्तन व उरिम असंख्यात भाग प्रमाण है ऐसी जो है, उनमें से प्रत्येक करके सबकी सब एएक बंदमान मध्यमकृष्टि रूप से परिणमती है। पविसमाषाणकिट्टीम एक कृष्टि के सदृश धन परिणमते हैं । तरह से स्पष्ट करने के लिए उदय सम्प्राप्ति Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२, ४५, कि.४ अनेकान्त पृष्ठ पक्ति ८९ १०२ २८ १०७ २५ १११ ११४ ११४ ११४ ११७ ११६ ११६ . २० १८ १८-१९ शुद्ध अशुद्ध पश्चिम आवली को पश्चिम आवली के, विषय के स्थान के कधं ? एश्य कधमत्थ क्या उससे उदय का ग्रहण उससे उदय का ग्रहण कैसे उदयावलि क्षपक उदय वाले क्षपक पयदणाणत्त विहाणं पयदणाणत्त विहदावणं इसलिए इस अपेक्षा प्रकृत में भेद का कथन इस बात का सहारा लेकर प्रकृत में भेद रूप कथन का बहिष्कार कोध संज्वलन और मान माया संज्वलन और लोभ एक सूत्र मे इस सूत्र में अश्वकर्णकरण की अश्वकर्णकरण काल की उद्देश्य उद्देश (स्थान) क्योंकि यहाँ पर परन्तु यहाँ पर कारण नही है कारण यह है। ससय समय को प्रतिसमय को जो कि प्रति समय सक्षम साम्परायिक स्वरूप अनुभागा कृष्टियों सूक्ष्म कृष्टिस्वरूप अनुभाग के साथ है के साथ गलाने वाले उन्हें गलाने वाले कषाये हि कषायो हि असख्यतवें भाग प्रमाण असंख्यात बहुभाग प्रमाण कालप्रमाण शेष काल को काल के शेष भाग को अर्थ के अर्थ का अर्थ का सम्भव उदय सम्भव एव उदय चारित्र मोहनीय की पहले चारित्र मोहनीय को क्षपणा का पहले पज्जतेषु पज्जतेसु 'कामरण' संकामण दुपयोगवदुपयोगस्यापि । दुपयोगस्यापि भाव मे ग्रहण करने में प्रवृत्त रूप उपकार में प्रवृत्त पर्याय वृद्धि को प्राप्त हुई है पर्याय प्रकटित (खिली) हुई है पीर समाप्ति परिसमाप्ति प्रकृतियो के बाद ही प्रकृतियो की आठ कषायो की क्षपणा प्रारंभ कर क्षपणा कर करने के बाद ही आठ करने के पूर्व ही आठ १ (६०) १४३ भाग १५ १ (६०) १४३ भाग १४ पृ. २६१ २ (६१) १४४ भाग ०१५ २ (६१) १४४ भाग १४ पृ. २६३ २ FG १२२ १२७ १२८ २७-२८ २४ २० १२८ १२९ १२६ १३२ १३२ १३४ २७-२८ २४-२५ १३६ १४० १६ १४० २० २१ १४२ १४२ २७ २७ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयषवला पु० १६ का शुद्धिपत्र पंक्ति प्रशुद्ध पृष्ठ १४२ १४३ १४५ १४७ १४६ १४६ ३ (६२) १४५ भाग १५ लिए सयोगी के वली लोहार्या तथा अयोगी केवली स्वस्थान सयोगी केवली द्वारा रहते हुए निक्षिप्त प्रकृति क्रिया के भेदरूप साधन स्थिति सत्कर्म की तत्काल उपलभ्यभान स्थिति के अपेक्षा वृद्धि जाते हैं। कितने ही आचार्य कहते हैं:अनुभाग के वश से कपाट समुद्घात में ठहर कर ३ (६२) १४५ भाग १४ पृ. २६५ लिए तथा सयोगकेवली लोहार्य तथा सयोग केवली xxx रहते हुए स्वस्थासयोग केवली द्वारा निक्षिप्त प्रवृत्ति रूप भिन्न क्रिया के साधन तत्काल उपलभ्यमान स्थिति सत्कर्म के १५० १५१ १५३ १५४ १५८ १५६ १६० २०.२१ अपेक्षा अथवा वृद्धि जाते हैं ऐमा कितने ही आचार्य कहते है। अनुभागघात के वश से स्वस्थान केवलिपने में (यानि मूल शरीर मे) ठहर कर समुद्घात में ग्रहणकर अनुभाग घात जोगणिरोह सुहमणिगोद २२ २२-२३ १६० १६१ १६२ १६४ १६५ १६७ इसलिए समुद्घात में एकसमय द्वारा अनुभाग घात जीगणिरोह सुहमणिगाद हाइव्यपूर्व स्पर्धकों का) असंख्यातगुणहीन ३७० क्यो क १७० १७३ १७४ समयपुर असंखेज्जगुणाए सेढीए। पूर्वस्पर्धकों का) असंख्यातगुणे ३७० शंका-इसका क्या कारण है? समाधान-क्योंकि समयापुत्व असखेज्जगणहीणाए सेढीए । कारण देखो--धवल १३/८५, क. पा. सु. पृ. ९०५ तथा ज. घ. १६/१७४ का यहीं पर प्रथम पेरा] समय की अन्तिम अपूर्व कृष्टि से विशेष मात्र हीन है। असंख्यातगणी हीन श्रेणी रूप से असंख्यातगुणी हीन-श्रेणी पल्योपम १५ १७४ १६-२० १७४ १७४ समय मे पहले की अतिम कृष्टि से विशेष मात्र निक्षिप्त करता है । असख्यातगुणी श्रेणिरूप से असंख्यातगणी श्रेणि पाल्योपम Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ वर्ष ४५, कि०४ प्रनेकान्त पृष्ठ पक्ति १७५ १७७ १८२ १८६ १८७ १८६ १८६ १९० १९१ १६१ अशुद्ध २८ चाहिए, उपरिम चाहिए, क्योंकि उपरिम होदि । गयत्थमेदं सुत्तं । होदि । ३८३ संपहि $ ३८३ गयत्थमेदं सुत्तं । संपहि इसलिए इष्ट होने से ध्यान की उत्पत्ति नहीं अत. ध्यान की उत्पत्ति नहीं हो सकती, हो सकती। ऐसा अभीष्ट है। द्वारा योग निरोध रूप द्वारा तया योगनिरोधरूप मोक्ष का अभाव मानने पर मोक्षप्रक्रिया का पह मोक्ष प्रक्रिया का अवतार असमंजस अवतार करना असमंजस नहीं ठहरेगा। (असगत या अनुचित) नही है। भी भ्रष्ट पुरुषार्थ को भी पुरुषार्थ से भ्रष्ट होने यानी पुरुषार्थ से भटकने को नाना रूप स्थिति नाना रूप प्रकृति, स्थिति चरिमोत्तम चरमोत्तमउत्तम चरित्र और उत्तम तथा चरम उत्तम नितीति निर्वातीति मोहनीय-क्षयं मोहनीये क्षयं तथा यथोक्त कर्मों के क्षय में हेतुभूत कारणों __तथा कर्मों के क्षय मे हेतु रूप यथोक्त के द्वारा संसार कारणों द्वारा पूर्वोपाजित कर्मों का क्षपण करने वाले के संसार २४ पुग्दलों पुद्गलों कही जाती है। मानी जाती है। २२-२४ क्योकि सांसारिक सुख की प्राप्ति में ....." क्योंकि मुक्त जीव क्रियावान् है जबकि आकुलता से रहित है ॥३२॥ सुसुप्तावस्था में कोई क्रिया नहीं होती। तथैव मुक्त जीव के सुख का अतिशय (अधिकता) है। जबकि सुषुप्तावस्था में सुख का अतिशय नही है सुषुप्तावस्था मे तो लेपामात्र भी सुख का अनुभव नही होता। [यहाँ संसार सुख तथा मोक्षसुख की तुलना न होकर निद्रावस्था व मोक्षा वस्था को तुलना है। उक्त संशोधनो मे से विज्ञ सुधीजन जो उचित लगे उसे ग्रहण कर लें। -जवाहरलाल जैन १६२ १६२ १२४ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतांक से आगे: श्री शांतिनाथ चरित सम्बन्धी साहित्य कु० मृदुल कुमारी, बिजनौर १०. शान्तिनाथ चरित : भाव चन्द्र सूरि- नाओं का उल्लेख अंकित है और उसके प्रत्येक पद्य के श्री भावचन्द्र सूरि ने इस शान्तिनाथ चरित की रचना अन्तिम चरण में 'दिग्बाससां शासनम्' वाक्य द्वारा दिगंबर संवत् १५३५ मे सरल सस्कृत गद्य में की थी। शासन का जयघोष किया है। भावचन्द्र सूरि पूर्णिमा गच्छ के पावं चन्द्र के प्रशिष्य १२. शान्तिनाथ स्तोत्र : भट्टारक पचनन्दिएवम जयचन्द में शिष्य थे। ग्रन्थ का प्रमाण ६५०० १५वी शताब्दी के मु िपपनन्दी भट्टारक प्रभाचन्द्र के प्रलोक। हम ग्रन्थ को ग्रन्पकार द्वारा लिखी गई सवत् पट्टधर विद्वान थे । इनकी जाति ब्राह्मण थी। इनके पद .५३५ की एक प्रति लाल बाग बम्बई मे एक भडार से पर प्रतिष्ठिा होने का समय पट्टावली में संवत् १३८५ मिली है। पौष शुक्ला बतलाया गया है। वे उस पट्ट पर सवत् १४७३ इसके छह प्रस्तावों में भगवान् शांतिनाथ तीर्थंकर के तक आसीन रहे। भट्टारक शुभचन्द इनके शिष्य थे। १२ भवो को वर्णन है। वर्णन क्रम में अनेक उपदेशात्मक पप्रनन्दी की अनेक रचनायें हैं। जिनमे शान्तिनाथ स्तोत्र कहानियाँ भी आ गई है जिससे ग्रन्थ का आकार बहुत प्रमुख है। इस स्तोत्र मे देवपूजा, गुरु तथा सिद्धपूजा का बढ़ गया है। बीच-बीच में प्रसंगवश ग्रन्थान्तरों से लेकर उल्लेख है। प्राकृत और सस्कृत पद्यो का उपयोग किया गया है। प्रथ १३. शान्तिनाथ स्तुति : ब्रह्म श्रुतसागर-ब्रह्म के समान होते-होते रत्तचूड़ की सक्षिप्त कथा दी श्रुत सागर मूलसघ सरस्वती गच्छ और बलात्कारगण के विद्वान थे। इनके गुरु का नाम विद्यानन्दी था जो भट्टारक ११. शासनचस्त्रिशतिका : मदनकोति अर्ह- पद्मनन्दी के प्रशिष्य और देवेन्द्र कीति के बाद ये सरत के दास-मदनको त वादीन्द्र विशालकीति के शिष्य थे और पट्ट पर आसीन हुए थे। बहुत विद्वान थे । इनकी 'शासन चतुस्त्रिशतिका' नाम की ब्रह्म श्रुत सागर ने अपनी रचनाओं मे उनका रचनाछोटी-सी रचना है जिसकी पर सख्या ३५ है। जो एक काल नहीं दिया, जिससे यह निश्चित नहीं कि उन्होंने प्रकार से तीर्थ क्षेत्रों का स्तवन है, उनमे पोदनपुर के ग्रन्थों की रचना किस क्रम से की है। परन्तु यह निश्चित बाहबली, श्रीपुर के पार्श्वनाथ शख जिनेश्वर, धारा के कहा जा सकता है कि वे विक्रम की १६वी शती के पार्श्व जिन, दक्षिण के गोम्मट जिन, नागद्रह जिन विद्वान है। इनके गुरु भट्टारक विद्यानन्दी के वि० सं० मेदपार (मेवाड़) के, नागफणि ग्राम के मल्लिजिनेश्वर, मालवा के मगलपुर के अभिनन्दन जिन, पुष्पपुर (पटना) १४६६ से १५२३ तक ऐसे मूर्तिलेख पाये जाते हैं जिनको के पूष्पदन्त, पश्चिम समुद्र के चन्द्रप्रभ जिन, नर्मदा नदी प्रतिष्ठा भट्टारक विद्यानन्दी ने स्वय की है। इससे FIES के जल से अभिषिक्त शान्तिजिन, पावापुर के वीर जिन, है कि विद्यानन्दी के प्रिय शिष्य ब्रहश्रतसागर काही गिरनार के नेमिनाथ, चम्पा के वासुपूज्य, आदि तीर्थों का यहा समय है । स्तवन किया गया है। स्तवनों में अनेक ऐतिहासिक घट- ब्रह्मश्रत सागर द्वारा रचित 'शान्तिनाथ स्तुति' में Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६, वर्ष ४५, कि०४ अनेका नौ पद्य हैं यह स्तवन 'अनेकान्त' वर्ष १२ किरण : पृष्ठ भट्टारक श्री भूषण ने 'शान्तिनाथ पुराण' में भगवान २५१ में मुद्रित हुआ है। शान्तिनाथ का जीवन अकित किया है जिसकी पद्य संख्या ४०२५ बतलाई गई है। प्रशस्ति में कवि ने अपनी पद्र १४. शान्तिनाथ पुराण : कवि शाह ठाकुर परम्परा के भट्टारकों का उल्लेख किया है। कवि श्री खंडेलवाल जाति और लुहाढिया गोत्र के देव शास्त्र, गुरु भषण ने इस ग्रन्थ को संवत् १६५६ में मृगशिरा के महीने भक्त, विद्या विनोदी विद्वान थे। मल संघ सरस्वती गच्छ की त्रयोदशी को सौजित्र में नेमिनाथ के समीप पूरा किया के भट्टारक प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, ". प्रभाचन्द्र चन्द्रकीति और विशालकीति के शिष्य थे। इसके अतिरिक्त शान्तिनाथ विषयक अन्य रचनाएँ, कवि ने 'शान्तिनाथ पुराण' ग्रन्थ की रचना की, जो ज्ञानसागर (संवत् ६५१७) अचेल गच्छ के उदय सागर (ग्रंथान ७२००) वत्सराज (हीरा० हस० जामनगर १६१४ कवि ने उनमें शान्तिनाथ का जीवन परिचय अकित किया प्रकाशित) हर्ष भषण गणि, कनकप्रभ ग्रन्थान ४०५) है। जो चक्रवर्ती कामदेव और तीर्थङ्कर थे। कवि ने यह रत्नशेखर सूरि (ग्रन्थान ७०००) भट्टारक शान्तिकीर्ति, विक्रम संवत् १६५२ भाद्र शुक्ला पंचमी के दिन चकत्ता गुणसेन, ब्रह्मदेव, ब्रह्म जयसागर और अजितप्रभ सूरि की बंश जलालुद्दीन अकबर बादशाह के शासनकाल में, दूढा मिलती है। हर देश के कच्छप वंशी राजा मानसिंह के राज्य में धर्मचन्द्र गणि ने 'शान्तिनाथ राज्याभिषेक' और लुवाइणपुर में समाप्त किया। उस समय मानसिंह की हर्षप्रमोद के शिष्य आनन्दप्रमोद ने 'शान्तिनाथ विवाह' राजधानी प्रामेर थी। नामक रचनाएँ भी लिखी हैं। मेघविजय गणि (१८वीं १५. शान्तिनाथ पुराण : भट्टारक श्री भूषण- शती) का शांतिनाथ चरित काव्य उपलब्ध है जो नैषधीय यह काष्ठा संघ नन्दि, तटगच्छ और विद्यागण में प्रसिद्ध चरित के पादों के आधार पर शान्तिनाथ का जीवन होने वाले रामसेन, नेमिसेन, लक्ष्मीसेन, धर्ममेन, विमल- चरित प्रस्तुत करना है"। सेन, विशालकीति और विश्वसेन आदि भट्टारकों की महाकवि असग की अन्य कृति 'लघु शान्तिनाथ पुराण' परम्परा में होने वाले भट्टारक विद्याभूषण के पट्टधर भी मिलती है जिसमें १२ सर्ग है। यह लगता है कि कवि थे । के १६ सत्मिक शान्तिपुराण का लघुरूप है"। सन्दर्भ १. निज रत्न कोश-पृष्ठ ३१६ । १५४४ की एक मूर्ति जो सूरत के बड़े मन्दिर मे विराजमान है। २.जैन साहित्य का वृहत् इतिहास भाग ६, पृ. ११०। ७. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग 2, पृ. ५३७ । ३. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २, पृ. ४०४ । ८. वही-पृ० ५३९ । ४. श्री मत्प्रभाचन्द मुनीन्द्र पट्टे, ६. वही-पृ० ५३६ । शश्वत प्रतिष्ठा प्रतिभागरिष्ठः। १०. शान्तिनाथ पुगण : श्री भूषण (कवि प्रशस्ति पद्य विशुद्ध सिद्धांत रहस्य रत्नरत्नाकरानन्दतु पद्मनदी।। ४६२-४६३)। -शुभचन्द पट्टावली ११. जिन रत्नकोश पृ० ३८०.३८१ । ५. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग २, पृ. ५०८-५०६ १२. जैन साहित्य का वृहद् इतिहाल पृ. ११० भाग ६ । ६. मल्लिभूषण के द्वारा प्रतिष्ठित पद्मावती की सवत् १३. जिन रत्नकोश पृ० ३३६ । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "बिना सुगंधि फूल का मूल्य नहीं" "श्री प्रेमचन्द जैन सुन्दर से सुन्दर पुष्प को मनुष्य देखता है, तोडता है, जरा हम भी सोचें कि हम किस श्रेणी में आते हैं, फेंक देता हैं। अगर उसमे सुगन्धि हो तो जितनी अधिक हममें भी ये विकार छुपे तो नहीं हैं। क्या हम निष्कपट खुशबू होगी उतना अधिक प्यार पुष्प को मिलता है. उसी भाव से भगवान के दर्शन करके अपने में उन गुणों की प्रकार हमारे जीवन में चातुर्य, रूप, धन, ऐश्वर्य मब होने झलक देखते हैं या देखने का प्रयास करते हैं, और वीतपर भी आन्तरिक प्यार नहीं मिलता, अगर स्वयं में चरित्र रागी बनकर आत्मकल्याण करते हैं। की सुगन्धि न हो। आज भी महाव्रती साधु को संसार "तुम निरखत-२ मुझको मिलीं, मेरी सम्पति आज मस्तक झुकाकर नमन करता है, चरित्रहीन दोषी मनुष्य कहाँ चक्री की सम्पदा कहाँ स्वर्ग साम्राज्य।" घणा का पात्र बनता है चाहे वह राजा भी क्यों न हो। सोचें! क्या हमने अपनी नाशवान सम्पत्ति का दूसरे "राजा पुजे राज्य मे, पण्डित पुजे जहान ।" के कल्याण में व्यय करके अपने को परिग्रह के पाप से मुक्त धन, बल, वैभव के मद में चर मदोन्मत्त मनुष्य को किया? या अहंकार के वशीभूत होकर मानकषाय के किया? या अहकार क वशाभूत हाकर भय व लाभ के कारण, उसमे आश्रय प्राप्त जन ऊपरी पहाड़ पर चढ़कर, तापग्रसित होते रहे। सम्मान भले ही प्रदर्शित करते हों मगर अन्दर से उसके "होत तीन गति द्रव्य की दान, भोग पोर नाश, प्रति घृणा का भाव ही रहता है। स्वार्थवश उसका गुण दान भोग जो न करें, तो निश्चय होय विनाश ।" गान भले ही करे मगर फिर भी अन्तरग में उसकी निन्दा क्या हम शुद्ध प्रासुक, स्वास्थ्यवर्धक आहार ग्रहण ही करते हैं। उसे यहाँ भी आत्मीय सम्मान प्राप्त नहीं करते हैं या मांसाहारी, शराबी, होन चारित्र, दोषी व्यक्ति होता, मरकर भी सुगति प्राप्त न कर पाप की भट्री में के सम्पर्क में आया भोजन खाते हैं या स्वयं इस दोषी ही जलता है । नरक की यातना भोगनी पड़ती है। क्रोध, प्रवृति में लिप्त है। "जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन । मान, माया, लोभ से रहित विवेकवान श्रावक का छोटे जैसा पोये पानी, वैसी बोले वाणी ॥" बड़े सभी जनमानस आदर व प्रशंसा करते हैं और उसके झठे दिखावे में, विवाह आदि के अवसर पर, धर्म सद्गुणों से शिक्षा लेकर उसी मार्ग पर अग्रसर होते हैं। का दिखावा करके दान के नाम पर अपार धन व्यय "ज्ञानी मगन विषय सुखमाहीं, ये विपरीत सम्भवे नाहीं।" करके अपना बड़प्पन प्रदशित करते हैं या कभी दीन-दुखी फिर भी न जाने क्यो मोह के वशीभूत ये प्राणी मदांध पिटा जनाओं पर अता होकर उन्मत्त को भांति क्रियाएँ करता है, भोगो में लिप्त करके उनका कष्ट निवारण कर अन्तरंग शान्ति प्राप्त होकर अपने को महान प्रदर्शित करने का छल करता है, कर, मनुष्य जन्म सार्थक करते है। दानवीर का मुखौटा लगाकर, लोभ कषाय से न बचकर क्या हमने किसी जीणं मन्दिर का जीर्णोद्धार, या उल्टा मानकषाय से ग्रसित होकर पथभ्रष्ट होता है । अपने दुःखी बेटी का विवाह संस्कार या साधनविहीन अभावरूप, फन, विद्या, कुल, सम्पदा के मुठे भ्रम में अपनी ग्रस्त भाई को प्यार से उसके कष्ट निवारण हेतु भी कुछ नेतागीरी, अपना प्रताप सिद्ध करने की वथा चेष्टा करता है. जिसके परिणामस्वरूप सबके द्वारा घृणा का पात्र क्या हमने अपने नेतागीरी प्रदर्शित करने को, किसी बनता है। ऊपर से उसकी प्रशंसा करने वाले भी उससे पद की प्राप्ति के लिए, पाप के साधन अपना कर, प्राणी नफरत करते हैं, और उसके व्यवहार से अपने को साव. हिंसा, समाज का विघटन, राष्ट्र की हानि, विश्व का धान रखते हैं। (शेष पृ० २६ पर) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो हमें पसन्द न आया - पप्रचन्द्र शास्त्रो सं० 'अनेकान्त' मासिक पत्रिका 'तीर्थकर' अगस्त ६२ के अंक को बागमिक-प्रसंग से भाषा की कामोत्तेजक अश्लीलता हमने बड़े कराह मे पढा और कई पाठकों ने भी हमारा भी विचारणीय बन रही है। भले ही कामी लोगों का ध्यान इसमें छपी 'अनुत्तर योगी तीर्थंकर महावीर' मानना हो सकता है कि- "जब सिनेमा दूरदर्शन और (उपन्यास) के खण्ड ५ के लिए लिखित सामग्री की ओर बीडियो आदि अनेक तंत्र खुले रूप में व्यभिचार को सभ्याखींचा । उन्होने कहा-इसकी अश्लीलता-पोषक भाषा चार सिद्ध करने में लगे है, सरकार भी ब्रह्मचर्य का प्रचार का 'तीर्थकर' जैसी पत्रिका में प्रकाशन सर्वथा अयोग्य है। न करके कामासक्ति-पूरक निरोध, माला और आप्रेशन कइयो ने तो पत्रिका के अश्लील पेजों को ही फाड़ फेंका। आदि सेवन पर जोर दे व्यभिचार को सभ्याचार बनाने का नारी जाति के प्रति तो उनकी स्वाभाविक लज्जा को मार्ग खोल रही है, तब यदि कोई उपन्यास लेखक अपने बेनकाब करना नारी-जाति के प्रति नारी जाति का घोर उपन्यास में किसी तथ्य के तल तक पहुचने का प्रयत्न अपमान है। नारियो को इस प्रसंग से पीडा और घणा करता है तो वह क्या बुरा करता है। विभिन्न स्रोतो से हुई है। 'तीर्थकर' के अगस्त ६२ के अंकमे छपी उक्त सामग्री स्व-अनुभूत और अननुभूत को साक्षात् मे उपस्थित करना श्वेताम्बर सम्प्रदाय से सबंधित है। तो लेखक की सिद्ध-लेखन कला है। उसे सन्मान ही । उक्त विषय को श्वेताम्बर सम्प्रदाय देखे कि मिलना चाहिए।" पर हम किसी उपन्यास आदि को तीर्थकर में पृष्ठ ३० पर छपे भगवन् के कथनानु- केन्द्र मानकर उस पर विचार करने मे अभ्यस्त नही। सार-क्या, महाशतक श्रमणोपासक रेवती का प्यार, हम तो आगम-प्रसंग को आगमरूप में उपस्थित करने और आलिंगन और चम्बन पाने के लिए रत्नप्रभा पृथ्वी धार्मिकता, नैतिकता-पोषक तंत्रो को श्लाघनीय स्थिति मे के लोलुच्चय नरक मे ८४,००० वर्ष तक रेवतो की नार- रखने के पक्षपाती हैं। हमें अश्लील-माहित्य से अरुचि है। कीय यातना का सहभागी बना और रेवती ने वैतरणी के यदि उक्त उपन्यास मे रेवती द्वारा प्रकट की गई, वात्तट पर मिलकर उसे अपने चुम्बन और आलिंगन से तार स्यायन-कामसूत्र वणित जैसी घृणित कामचेष्टाएँ आगमदिया या भगवान के वचन झूठे हुए ? जब कि गणधर श्री बरिणत हों तो उन्हें सन्मान देने, न देने पर विचार हो सुधर्मा जी ने 'उवासगदसामओ' सूत्र (आगम) में महाशतक सकता हो। पर, हमने आगम मे ऐसा पढ़ा नही। वहीं के सौधर्म कल्प के अरुणावतसक विमान मे देव होने की तो साधारण तौर पर अंकित है किबात कही है-नरक में जाने या चुम्बन आदि की बात नही कही । क्या स्वर्ग नरक मे कोई भेद नही ? "काम के वश हुई वह रेवती गृहपत्नी अपने केशों "तएणं से महासयए समणोवासए वहहिं सील जाव को वखेर कर उत्तरीय (दुपट्टा) को उतार कर जहाँ भावेत्ता बीसं बासाइ समणोवासग परियाय पाउणित्ता पोषधशाला थी वहाँ महाशतक श्रमणोपासक के पास गई एक्कारस उवासग पडिमाओ सम्म कारण फासित्ता मासि- और मोह तथा उन्मादवर्धक स्त्री भावों को दिखाती हई याए सलेहणाए अप्पाणं झुसित्ता सद्धि भत्ताई अणसणाए बोली-हे महाशतक श्रमणोपासक धर्म, पुण्य स्वर्ग, मोक्ष छेदेता आलोइय पडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे काल इच्छुक, धर्मकांक्षक, धर्मपिपासु, यदि तू मेरे साथ उदार किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणव डिसए विमाणे देवत्ताए विषयरूपी सुख नही भोगता है तो तुझे धर्म पुण्य, स्वर्ग उववन्ने ।"-७/८/२६६ मोक्ष से क्या लाभ होगा।" Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो हमें पसम्बन आया २६ "तए णं सा रेवई गाहावइणी मत्ता लुलिया विइण- तरह लोक-प्रिय होगा।' आचार्य श्री तुलसी ने कहा था केसी उत्तरिज्जयं विकड्ढमारणी २ जेणेव पोसहसाला कि 'स्थायीमल्य प्राप्त करेगा....... और पं० जगन्मोहन जेणेव महासवए समणोवासए तेरणेब उवागच्छा, २ ता लाल शास्त्री ने इममे 'जैन-मान्यताओं का पग-पग पर मोहम्माय जणणाई सिगरिहाई इत्थिभावाई उववंसेमारणो दर्शन किया। • महासययं समणोवासयं एवं वयासी। 'हं भो महासयया सो हमें इसमें ऐतराज न होगा। यदि उक्त आचार्यों समणोवासया, धम्मकामया पुण्णकामया सग्गकामया मोक्ख- व मनीषियो को मम्मतियाँ (उक्त तीर्थकर के मात्र पृष्ठ कामया धम्मकंखिया ४, धम्मपिवासिया ४, किणं तमं. २४-२५ की ही) भाषा, भावभगिमा, चेष्टा आदि के देवाणुप्पिया धम्मेण वा पुण्णेग वा सग्गेण वा मोक्खेण वा प्रांजल होने की पुष्टि मे लिवकर मंगा, तोथंङ्कर मे छाप जणं तुम मए सद्धि उरालाइ जाव भुजमारणे नो विहरसि?" दी जाय-हम उन पर भी विचार करेगे । -२/८/२४६ हमारी समझ से तो उक्त महामनीषी हो क्या ? कोई हमारे चार्यों ने नारियों के विषय मे वैराग्य भी दिगम्बर, श्वेताम्बर साधु-साध्वी श्रावक और श्राविका उत्पन्न कराने हे। वस्तुस्थिति दर्शाने निमित्त उनके आगम परिप्रेक्ष्य में ही नहीं, अपितु साधारण रूप में भी निंद्य अंगो का वर्णन मात्र किया है, जिसे परम्परित ऐसो सभोग चेष्टा दर्शक पृणित भाषा को कही, कभी भी जैनाचार्यों द्वारा वैराग्य उत्पादन की दृष्टि से मान्य किया प्रशस्त नही कहेंगे । क्या, उन्हे अपने निर्मल ब्रह्मचर्य में जाता रहा है उनमे कही भी खुले और बीभत्स रूप में दोष लगाना है जो ऐमी महनी भल करे। हाँ, तीर्थङ्कर सभोग-चेष्टा को नहीं दर्शाया गया जमा तीर्थंकर के उक्त नामक जैमी पत्रिका में इसका प्रकाशन लज्जास्पद और अक मे । इसे पढ़कर तो विषयलोलुपयो को वैराग्य और अकीति का सूचक अवश्य है। महाशतक के दृढत्व के पाठ के स्थान पर सभोग के ना. इस उपन्यास के 'रामचरित मानस' सम लोकप्रिय नए आयाम ही मिलेंगे और उनकी कामोत्तेजना बढने की होने की कल्पना 'मानम' का घो' अपमान करना होगा, किसान मानन कहाँ वह धार्मिक अपूर्व ग्रन्थ और कहाँ मिथ्या कल्पनाओं भाषा नही 'लीथंकर' का अपमान है। की अश्लील यह उडान? इसमे जन-मान्यताओं के पगप्रारम्भ मे सपादक तीर्थंकर ने लिखा है-'खल पग दर्शन होने की कल्पना भी भ्रान्त है। हाँ, यह अश्लील रहे : यह वही उपन्यास है, जिसे लेकर आचार्य मुनि श्री जगत मे स्थायी मूल्य प्राप्त करने की क्षमता रखता हो तो विद्यानन्द जी ने कहा था-यह 'रामवरित-मानस' को बात दूसरी है । पाठक उक्त 'तीर्थ दूर पढ़ें और विचारें। पृ० २८ का शेषाश) अकल्याण कर भयकर पाप का सचय तो नहीं कर लिया। निन्दा, स्वयं की प्रशंसा से बचें। देव, शास्त्र, गूरु की जरा सोचे-विचारें, अपने भविष्य की चिंता करें कहीं ऐसा विनय करे, अपनी नाशवान चचला लक्ष्मी को परोपकार न हो "बासी टकडे खाने है, कल उपवास करेंगे” पूर्व विद्या प्रचार, शास्त्री के उद्धार, समाज और राष्ट्र के हित सचित पण्य से प्राप्त सामग्री का उपभोग कर अागामी मे व्यय कर, अपने चरत्र को समानकर वोरोचित, जीवन मे पुण्य विहीन होकर विपदा और दरिद्रता का क्षत्रियोवित, दोषों का निवारण कर, उत्थान का मार्ग भार ढोने की तैयारी में है। "जैसी करनी वैसी भरनी, अपनाएं व अपने को आदर्श बनाकर वीर प्रभु की संतान निश्चय नही तो करकर देख ।" कहलाने का गौरव प्राप्त कर समाज व राष्ट्र का कल्याण हमारा कर्तव्य है कि समय रहते चेन जायें, झूठे करें। हम भी सुगन्धित पुष्प की अपनी सुगान्ध फैलाकर प्रशमा के प्रपच मे अपने ऐश्वर्य, शक्ति को लुटाकर दरिद्री विश्व को सुगन्धित करें, प्रभु हमे सन्मति प्रदान करें। बनने की अपेक्षा, वीतराग जिनेन्द्र भगवान के मार्ग पर - भगवान महावीर अहिंसा केन्द्र चलकर स्व व पर के कल्याण की ओर अग्रसर हो, पर की __ अहिंसा स्थल, महरौली Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारणार्य: दिल की बात दिल से कही और रो लिए! पचन्द्र शास्त्री सं० अनेकान्त १. हम कोरो चर्चा नहीं, चिन्तन चाहते हैं : उपयोगों में से केवलदर्शनोपयोग और केवलज्ञानोपयोग ये दो ही ऐसे हैं जिनकी प्रदेशो मे गति है-छमस्थ के शेष सम्यग्दर्शन, आत्मदर्शन और आत्मानुभव की चर्चा सभी उपयोग प्रदेश ग्राहक नही। एतावता प्रसग में 'पदेस' मात्र मे जैसा सुख है वैसा सुख और कहाँ ? इस चर्चा मे शब्द की सार्थकता समझ-पर मे उपयोग लगाने वाला बोलने या सुनने के सिवाय अन्य कुछ करना-धरना नही मात्र, पर-समय है ऐसा अर्थ न लेकर 'कमंप्रदेशो मे बधे होता । बोलने वाला बोलता है और सुनने वाला सुनना आत्मा को पर-समय कहा है, ऐसा अर्थ लेना चाहिए। है-लेना देना कुछ नही। भला, भव्य होने का इससे यह बात दूसरी है कि पर से उपयोग हटाना क्रमश: मोक्षसरल और सबल प्रमाण अन्य क्या हो सकता है जहां आत्मा दिख जाय और जिसमे परिग्रह-संचय तो हो और मार्ग है। तप-स्याग और चारित्र-धारण करने जैसा अन्य कोई व्या- रयणसार गाथा १४० मे स्पष्ट कहा है कि बहिगयाम न करना पडे और स्व-समय में आने के लिए कुन्द- त्मा और अन्तरात्मा दोनों पर-समय हैं और परम-आत्मा कुन्द के बताए मार्ग-चरित्तदसणणाणउि तं हि स- स्व-समय है-'बहिरंतरप्पभेयं पर समयं भण्णए जिणिसमयं जाण'-से भी छुटकारा मिला रहे-यानी मात्र देहि । परमप्पो सगसमय तम्भेयं जाण गुणठाणे ॥'इसी को सम्यग्दर्शन मे ही स्व-समय सिमिट बैठे। ठीक ही है- पंचास्तिकाय मे ऐसे कहा है-'जीवो सहावणियदो अणि'तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता। निश्चितं स यदगुण पज्जओध पर-पमओ ॥१५५।। उक्त दोनो उद्धरण भवेद्भव्य: भाविनिवणि भाजनम् ।'-. का इससे सरल मान्य आचार्य के है। यदि जीव गुण और पर्याय दोनों में और सीधा क्या उपयोग होगा? नियत नही-अनियत है तब भी वह पर-समय ही है। आज ____ गत अंक में हमने स्व-समय और पर-समय के अन्तर्गत जो लोग मात्र गुणों की बात कर पर्याय को स्वभाव न आचार्य कुन्दकुन्द के 'पुग्गल कम्मपदेसट्ठिय च जाण पर मान उस का तिरस्कार करने का उपदेश दे रहे है क्या वे समय' इस मूल को उद्धृत करते हुए लिखा था कि 'जब 'गुणपर्ययवद्रव्यं' को झुठला नही रहे ? क्या, यह सम्भव तक यह जीव आत्मगुणघातक (धानिया) पोद्गलिक द्रव्य और जैन को मान्य है कि केवल गुण ही द्रव्य हो और कर्मप्रदेशो में स्थित है-- उनसे बंधा है, तब तक यह जीव पर्याय का लोप हो जाय ? यदि उनकी मान्यता इकतर्फी पूर्णकाल पर-समयरूप है। मोह-क्षय के बाद केवलज्ञानी है तो हमें 'पज्जयमढो हि पर-समओं' का अर्थ भी यही मे ही स्व-समय जैसा व्यपदेश किया जा सकता है और इ. इष्ट होगा कि जो पर्याय के विषय में मूढ़ है--उसको वह अवस्था चारित्र के धारण किये बिना नही होती।' नहीं जानता-सही नहीं मानता, वह पर-समय है। यदि पर्याय सर्वथा विनाशीक है तो "सिद्ध' भी तो एक पर्याय उक्त गाथा के 'कम्पपदेसट्ठिय' शब्द से घातिया कर्म है। क्या, किसी जैन को यह मान्य होगा कि वह पर्याय प्रदेशों से बध को प्रप्त-उनमें स्थित ऐसा अर्थ लेना भी नाश हो जाती है? फिर कोरा निश्चय चाहिए मात्र उपयोग के लगाने जैसा अर्थ ही नहीं लेना तो यह भी सोचना होगा कि निश्चय से शुद्ध में (सर्वथा चाहिए। क्योंकि स्थूल रीति से उपयोग के बारह भेद असम्भव) अशुद्ध पर्याय कैसे सम्भव हुई जो उससे मुक्ति है-चार दर्शनोपयोग और आठ ज्ञानोपयोग । इन बारह का मार्ग बताने का मिथ्या चलन चल पड़ा? क्या, यह Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल की बात दिल से कही-और रो लिए! जन लोगों को कोरी चर्चाओं में फंसा कर, खाओ- दर असल बात ऐसी होनी चाहिए कि सम्यग्दष्टीको पिओ और मौज करो जैसा नही? जो अनुभव होता हैं वह आत्मानुभव नहीं, अपितु वह सेही जब हम आत्मानुभव पर विचार करते हैं तब अनुभव, मात्र तत्त्वार्थ श्रद्धान से उत्पन्न स्व-पर भेद विज्ञान सारे चितन मे सम्यग्दर्शन के दो भेद आते है--सराग- (होने) रूप होता है---सम्यग्दष्टि भिन्न-भिन्न तरवों में Meन और बीराग सम्यग्दर्शन । विचार आता है पापा या एकत्वरूप श्रद्धान नहीं करता यही उसका तत्वाकि जिन सम्यग्दष्टी जीवों को आत्मानुभव होता है उनके नुभवरूप श्रद्धान सम्यग्दर्शन है और इसी के सहारे वह नों में कौन-सा सम्यग्दर्शन हता है? रागी में आगे बढ़ता है। इसे आत्मानुभव के नाम से प्रचारित प नि हो इसमे तो बाधा नही पर,रागी के आत्मानु- करने से तो मोक्षमार्ग और चारित्र धारण का सफाया ही भव हो यह नही जंचता । (आज तो सो भो आत्मानुभव होता जा रहा है-घर मे ही आत्मा दिख जाय तो चारित्र प्रशन नना है कि यदि गिी को आत्मानु- की अवश्यकता ही कहाँ ? जैसा कि अब हो रहा है। भव होता है तो वह अखण्ड आत्मा के सी खण्ड का या अखण्ड आत्मा का? अखण्ड का खण्ट हो नहीं सकता। एक बात और ! स्मरण रहे कि जनेतर अन्य आत्मा के टकड़े मानना पडे गे, जो को इष्ट नही। मनुस्मृति' के छठवें अध्याय में य ह हाँ, अखण्ड आत्मा का जनुभव होता हाब बात दूसरी। एक श्लोक आया है- 'म्यग्दर्शन सम्पनः का मला, जब ससारी गग अवस्था में होम्पूर्ण आत्मा का बध्यते । दर्शनेनविहीनस्तु ससार प्रतिपद्यते ।।७४॥' इसमें अनुभव होने लगे तब कौन मूढ़ होगाो मोक्ष के लिए सम्यग्दर्शन का अर्थ 'ब्रह्ममाक्षात्कारवाना। चारित्र धारण का कष्ट उठायेगा। में रहो. परिग्रह हिन्दु को श्रुति भी -क्षीयते चार इकट्ठा करो, मजा-मौज करो और आनुभव का आनद दृष्ट परावरे'-फलतः ब्रह्म-साक्षाकार लो। शायद आज मात्र सम्यग्दर्शन मात्मानुभव हो ठोक रो सकता है। क्योकि वहां ब्रह्म को सर्वव्यापार जाना से प्रचार का लक्ष्य भी यही है कुन्दाकुम्पचार्य प्राणी को ब्रह्म का अंश स्वीकार किया गया है-वही रित्तदसणणाण टिठउ' मे चारित्र आतीनो म स्थिति ब्रह्म जखण्ड होते हुए भी खण्डो में बँटा है और ब्रह्म का को स्व-समय कह रहे हैं और लोग अन्सम्यग्दर्शन मात्र अंश हाने व ब्रह्म क खण्डों में बंटा होने से जीव कोबरा मे आत्मानुभव हो जाने का उपदेश दे है। का साक्षात्कार हो सकना सम्भव है पर, जैनियो में तो जो लोग ध्यान से आत्मानुभव बतलाते है वे अरूपा ओर अखण्ड आत्मा का साक्षात्कार या अनभव चारो ध्यानो मे से किस से आत्मानुभव केवल ज्ञान गम्य ही है। इसे विचार, हमे कोई आग्रह साधर्म ध्यान के तो सभी भेदकल्पात्मक हैं सो नही । हम तो जैनियो में प्रचारित की जाने वाली विकलात्मक से निर्विकल्प नआत्म-प का अनुभव छद्मस्थ में आत्मानुभव होने की बात को अजैनो की देन मानव है। शक्ल ध्यानो मे आदि के पान श्रुतकेवली होने पर विचार कर रहे है। के होते है। क्या छद्मस्थ मे अन्त ने शुक्ल ध्यान सम्भव है जो अरूपी आत्मा का अनुभरा सकें। फिर २. उभय-परिग्रह का त्याग प्रावश्यक: ये भी सोचें कि आत्मानुभव प्रत्यक्ष हो या परोक्ष ? संमारी जीव की अनादि कालीन प्रवृत्ति बहिर्मुखी होने से परोक्ष ज्ञान की तो वहां होना है-यह बाह्य पदार्थों की ओर दौड़ रहा है उनमे । आत्म-प्रत्यक्ष तो जान मात्र का मोहित हो रहा है। फलत:- उसका संसार (भ्रमण) सामानभव होना छवं मे कैसे माना बढ़ता जा रहा है। जब यह अपने स्वरूप को पहिचानेजाने लगा? फिर आत्मानुभव ता-चारित्र का बाहमुखपने को त्याग कर अन्तर्मख हो-अपने में प्रक विषय है। और शुद्ध-अशुद्ध पर्यायो को निश्चय-व्यवहार दोनों नयों Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२, बर्ष ४५, कि०४ अनेकान्त मे तोले तब इसका उद्धार सम्भव हो-कोरे एक नय को और जब बाह्य से मोह छूटेगा तब अन्दर सहज में आता सम्यक् और दूसरे को असम्यक मानना भ्रान्ति है। नय जाएगा । और इस अन्दर आने को पहिचान का पैमाना दोनों ही अपनी-अपनी अपेक्षा लिए सम्यक हैं यदि सम्यक होगा बाहर का छूट जाना। ऐसा होना सम्भव नहीं कि नहीं तो नय ही नहीं-कुनय है। अन्तर्मुख और बहिर्मुख कोई अन्दर होकर भी बाहर का जोडता रहे। जिसकी की पुष्टि को लोग कछुए के दृष्टान्त से करते हैं। अर्थात् बाहर की जोडने की तमन्ना प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो और जब तक कछुआ अपना मुख बाहर निकाले रहता है तब वह कहे कि मैं भीतर झांक रहा हूं-पर्वथा धोका है । तक उसे कौवों की चोचों के प्रहार का भय रहता है और हाँ, यह भी ठीक है कि बाहर की क्रिया होने पर भी जब अपने को खोल में समेट लेता है तब उसे कोओ का यदा-कदा अंतरंग भाव निर्मल न भी हो। इमीलिए तो भय नही रहता। ठीक ऐसे ही जब यह जीव अपनी प्रवृत्ति कहा है-'बाहर-भीतर एक।' बाह्य (जो अपने नहीं हैं, उन) में करता है तब उन परिग्रह के बाह्य और अंतरंग भेद ही इसीलिए किये पदार्थों के संयोग-वियोग मे सुखी-दुखी जैसी दोनों अवस्थाओं में झूलता है और जब बाह्य को छोड अपने में आ हैं कि दोनों का त्याग किया जाय । यादे अन्तरंग भाव मात्र ही परिग्रह होता तो वे बाह्म को परिग्रह न कहते जाता है तब स्वभाव में होने से इसको झरन मिट जाती और न बाह्य दिगम्ब रत्व का निर्देश देते । फलत:है-सुखी हो जाता है। अत: बहिर्मुखपन को छोड़ फलित है कि मोह का अभाव करना चाहिए पर, यह भी अन्तर्मुख होने का प्रयत्न करना चाहिए। सम्भव नही कि बाह्य दिगम्बरत्व के बिना मुक्ति हो । हमने देखा है, सुना है कि कई लोग अन्तर्मुख होने की आप यह तो कहते हैं—'भरत जी घर ही मे वैरागी' पर, प्रेरणा देते हैं, पर बहिर्मुखता से मुड़ने को मुख्यता नही आप यह नहीं कहते कि भरत महाराज छह खण्डों के देते। उनका ऐसा करना गलत है। मानो, जैसे आप भोग भोगते वैरागी भाव मात्र से--बिना दिगम्बर वेष कमरे के बाहर खड़े है और आपको भीतर आना है तो धारण के ही मुक्ति पा गए। कहते यही है कि-उभय क्या, आप बाहर को बिना छोड़े भीतर प्रवेश पा सकेगे? परिग्रह त्याग से ही मुक्ति होती है । बहिर्मुख से मुह मोड़े कदापि नहीं। प्रवेश तभी सम्भव है जब बाहर का छूटना बिना अन्तर्मुख होने जैसी बात कोरा स्वप्न है। अत: और अन्दर का आना दोनो साथ साथ चलें। जितना दोनो की साथ-साथ संभाल करनी चाहिए। खेद है कि बाहर छुटता जायगा उतना अन्दर नजदीक आता जाएगा। लोग बाह्य को छोड़े बिना अन्तर्मुल के स्वप्न देखने में प्रसंग मे बाहर छोड़ने का अर्थ भी मोह को छोड़ना है। लगे हैं। XXXXX*XXXXxxxxxxxxxxxxxxxx जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिउ तं हि ससमयं जाण । पुग्गलकम्मपदेसट्ठियं दुजाण पर-समयं ॥स० सार २॥ बहिरंतरप्पभेयं पर-समयं मण्णए जिणिदेहि। परमप्पो सग-समयं तम्भेयं जाण गणठाणे ॥रयण० १४०॥ ************************** ********** Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचयित-ज्ञानकण -पर-पदार्थ के साथ यावत् संबंध है तावत् ही संसार है। अपनी भूल ही से तो यह जगत् है। भूल मिटाना धर्म है। -हमारी तो सम्मति यह है जो ऐसा अभ्यास करो जो यह बाह्य पदार्थ ज्ञेयरूप हो प्रतिभासे । अन्य की कथा तो छोड़ो, जिसने मोक्ष मार्ग दिखाया है वह भी ज्ञेय रूप से ज्ञान में आवे । -परिग्रह लेने में दुःख, देने में दुःख, भोगने में दुःख, रक्षा में दुःख, धरने में दुःख, रुलने में दुःख । धिक इस दुःखमय परिग्रह को। -कर्म की गति विचित्र है यह मानना ठीक नहीं। यह सब विकारी आत्मद्रव्य का ही विकार है । स्व-परिणामों द्वारा अजित संसार को पर का बताना महान अन्याय है। -संसार का अन्त करने के लिए आत्मद्रव्य को पृथक करने की चेष्टा करनी ही उचित है। - संकल्प विकल्प को परम्परा ही तो हमें जगत् में भ्रमण करा रही है। जब तक इसका प्रभुत्व रहेगा, हमें इनकी प्रजा होकर ही निर्वाह करना होगा। -विश्व की अशान्ति देख अशान्त न होना । यहाँ यही होता है । लवण सर्वाङ्ग क्षारमय होता है। -जहाँ राग है वहीं रोग है । उन महापुरुषों का समागम करो जिनका राग-द्वेष कम हो गया है। -निरन्तर राग-द्वेष की परिणति दूर करने में प्रयत्नशील रहो। लोभी-त्यागी से निर्लोभग्रहस्थ अच्छा है। -- उदय काल में अज्ञानी के राग-बुद्धि होतो है और जानो के विराग-बुद्धि होती है। -- ज्ञानी के इच्छा नहीं है. सोई निष्परिग्रही है-उदय आए कू अनासक्त भया भोगे हैं । -ज्ञानियों के वचन (सौजन्य : श्री शान्तोलाल जैन कागजी) आजीवन सदस्यता शुल्क । १.१..... वाषिक मूल्य : १).०, इस अंक का मल्य : १ रुपया ५० पसे विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं । यह मावश्यक नहीं कि सम्पादक-मण्डल लखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते। कागज प्राप्ति:-श्रीमती अंगरी देवो जैन, धर्मपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी, नई दिल्ला-२ के सौजन्य से Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. with the Registrar of Newspaper at R. No. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन are संग्रह, भाग 1: संस्कृत मोर प्राकृत के 171 प्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का मंगलाचरण माहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी 11 परिशिष्टों मोर पं. परमानम्म शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य. परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द / .. चनसम्ब-प्रशस्ति संग्रह, भाग 2 : अपभ्रंश के 122 अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का महत्वपूर्ण सग्रह / पचपन प्रयकारों के ऐतिहासिक पंच-परिचय और परिशिष्टों सहित / सं. पं. परमानन्द शास्त्री / सजिल्द / 15.. पवणबेलगोल और दक्षिण के प्रम्य जन तीर्थ : श्री राजकृष्ण जैन ... ... जैन साहित्य और इतिहास पर विश प्रकाश : पृष्ठ संख्या 74, सजिल्द / न समपावली (तीन भागों में):स.पं.बालपद सिद्धान्त शास्त्री प्रत्येक भाग। Basic Tenents of Jainijm : By Shri Dashrath Jain Advocate. Jaina Bibliography : Shri Chhotelal Jain, (An universal Encyclopaedia of Jain References.) In two Vol. Volume I contains 1 to 1044 pages, volume II contains 1045 to 1918 pages size crown octavo. Huge cost is involved in its publication. But in order to provide it to each library, its library edition is made available only in 600/- for one set of 2 volume. 600-00 सम्पादन परामर्शदाता : श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, सम्पादक : प्रो पाचन्द्र शास्त्रो प्रकाशक-बाबूलाल जैन वक्ता, वीरसेवामन्दिर के लिए मुद्रित, गीता प्रिटिंग एजेन्सी, डी.-१०५, न्यूसोलमपुर, दिल्ली-५३ - प्रिन्टेड पविका क-पैकिट