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________________ आचार्य श्री विद्यासागर का रस विषयक मन्तव्य 0 डॉ. रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर काव्यशास्त्रियो ने नव रस कहे हैं-शृगार, हास्य, है। यह बात दूसरी है जाते समय अपर सुलाकर भले करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त। हो छिटकाया जाता हो। उनके इतिहास पर न रोना सहृदयों को रस की अनुभूति कराना ही काव्य का मुख्य बनता है न हमना। (पृ० १३२.१३३) प्रयोजन है । यह आनन्द की अनुभूति सभी रसों मे समान हास्य रस के विषय में कहा है कि हमनशील प्रायः रूप से हुआ करती है। फिर भी भावक सामग्री के भंद उतावला रहता है। कार्याकार्य का विवेक, गम्भीरता और से इसमें चित्त की चार अवस्थाएं हो जाती है--विकास, धीरता उममे नही होती। वह बलक सम बावला होता विस्तार, क्षोभ और विक्षेप । शृगार में चित्त का विकास है। तभी स्थितप्रज्ञ हंसते नही है। आत्मविज्ञ मोह-माया होता है, वीर में विस्तार, वीभत्स मे क्षोम और रोद्र मे के जाल में नहीं फंसते हैं । खेद भाव के विनाण हेतु हास्य विक्षेप, हास्य, अद्भुत भयानक और करुम मे भी क्रमशः हास्य का राग जावण्यक भने ही हो, किन्तु वैरभाव के विकास आदि चारों हुआ करते है। शान्त रस मे मुदिता, विकास हेतु हास्य का त्याग अनिवार्य है। क्योकि हास्य मंत्री. करुण और उपेक्षा ये चार चित्त की अवस्थाये हुआ भी कषाय है। (पृ० १३३) करती हैं। रौद्र रस के विषय में आचार्य ने कहा है कि रुद्रना __ आचार्य विद्यासागर ने प्रसङ्गानुकूल रमो का विवे- विकृति है, विकार है। भद्रता प्रकृति वा प्रकार है, उसकी चन किया है। वीर रस के विषय म शिल्पी के मुख से अमिट लीला है। (पृ० १३५) कहलाया गया है कि वीर रम में तीर का मिलना कभी कवि को शृगार नटी रुवता। वह कहता है शृगार मत दी है और पीर का मिटमा त्रिकाल असम्भव। के ये अग- खग उतारशीन हैं । यग जलना जा रहा है। आग का योग पाकर धोता जल चाहे भले ही उनका श्रृंगार के रग-रंग अगार शीन है, युग जलता जा रहा है हो. किन्तु धधकती अग्नि को भी नियन्त्रित कर उसे बुझा (४० ४५ रवि के इस कथन मे वियोगी-कामी की सकता है । परन्तु वीर रस के सदन से तुरन्त मानव खून वह स्थिति द्यतित होती है, जब कामदव कामी को दिनउबलने जगता है, वह काबू मे नही आता। दूसरो को रान जलाना ही रहता है। उसे कपूर, हार, कमल, शान्त करना तो दूर, शान्त माहौल भी ज्वालामुखी के चन्द्रमा आदि विपरीत परिणत हुए दिखाई देने लगते हैं। समान खोलने लगता है, इसके सेवन से जीवन मे उद्दण्ड ।। ये वस्तुएँ उसे कुछ भी सुख नहीं पहुचाती। का अतिरेक उदित होता हे पर, पर अधिकार चलाने की बीभत्स रस शृगार को नकारता है, उसे चुनता नही भूख इसी का परिणाम है। मान का मूल बबूल के ठूठ है। श्रृंगार के बहाव में प्रकृति की नासा बहने लगती है। की भांति कड़ा होता है। मान को धक्का लगते ही वीर कुछ गाढ़ा, कुछ पतला, कुछ हरा, पीला मल निकलता रस चिल्लाता है। वह आप भूल कर आगबबूला हो पुराण है, जिसे देखते ही घणा होता है। पुरुष की परम्परा को ठकराता है। (पृ० १३१-१३२) करुण रस को भवभूति ने प्रधान रा माना है । भव वीर रस के पक्ष में हास्य रस कहता है वीर रस का भति के कारुण्योत्पादक काव्य को सुनकरअपना इतिहास है। जो वीर नहीं हैं, अवीर हैं, उन पर "अपि ग्रावा दोदित्यपि दलति वचस्थ हृदयम् ।" क्या उनकी तस्वीर पर भी अवीर नहीं छिटकाया जाता भवभूति के अनुसार करुण रस ही एकमात्र मुख्य रस
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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