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अनेकान्त
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उद तब होय, राज रिधि पल मैं आये । पुन्य पुग्ध उदे तब होय सत्रु मित्र म हो हो। पुन्य उदे सब होय, मिले फुनि पाएँ सोही एह रोला जांनि पुन्य प्रभाव तैं, इन्द्रादिक सुष भूलते। फिर वहैं मुकति सुजान, 'लक्ष्मी' निर्बं पुन्य ते । निषेधात्मक नीति तत्वों में कवि ने सामन्ती संस्कारों और दरबारी कवियों की वाणी मे 'काम वासना' का प्रसार देखकर उसको निंदा की है। श्रृंगारी कवियों ने परकीया प्रेम को शास्त्रीय जामा पहनाकर उसके मनभावने चित्र खीचे, जिसके विरोध में लक्ष्मीचन्द के तीचे तेवर तिमिला देने को वाध्य करते हैपरनारी परत वानि अति विष को झापा । परनारी परतषि, जांनि तू अर्गानि विसाला । परनारी पतषि, मी गुन भानं दिन में परनारी परतषि, जांनि अति षोटी मन में ।
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एह जांनि भवि परनारि को, तज शील गुन धारिकं । 'लक्ष्मी' कहत रावन गये, नरक भूमि निहारि के । कबि ने नरक श्रोर ससार भ्रमण का भय दिखला कर भी परकीया-रवि का परिणाम व्यक्त किया है परनारी रति होप, जलति संसार धर्मे पर नारी रति होय, नीच गति मांहि परं । पर नारी रति होय, नियां में दुख पावे। पर नारी रति होय, भली गति कबहू न जावे । पर नारी रति ते भया, तिनको हिरदो मलीन गन । पर वनिता तें तजत हैं, 'लक्ष्मी वं नर बुद्धजन । पारोन्मुख नीति मनुष्य को राग, दुर्बुद्धि तथा अधर्म आदि दोषों में फंसाती है। अतः लक्ष्मीचन्द पाप से वचने को प्रेरणा देते हैं-
पाप उदे तबै होय, राग बहु व्यापै तन में। - पाप उदं तर्द होय, कुमति धारत प्रति मन में पाप उदै सबै होय, धरम नह ने सुहावे। पाप उर्द होय, संसार भ्रमावै । एह जांनि उदो अति पाप को, नरक निगोद्यां में फिरत । एह जांनि पाप मनि छांडिके, लक्ष्मी भवसागर तिरत ।
वैष्णव भक्त कवियों में नवधा भक्ति के सभी अंगो का विवेचन पर्याप्त मात्रा में हुआ है। जैन भक्ति काव्य
में इन अंगों में 'प्रतिमा दर्शन को अधिक महत्वपूर्ण माना गया है । लक्ष्मीचन्द का कथन हैजिन मुख
देव आजि, आजि मो भयो जुन
जिन
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मुख देष आजि, आज सुख भाषे बैनां ।
जिन मुख दे मज
जिन मुख देष आजि,
आज उर हर नैना आजि मेटो भव फैनां । श्री जिन मूरति निरखि के, मोहि रहै आनंद । (अपूर्ण)
तीर्थंकरों के अतिरिक्त शील-व्रत धारण करने वाले
तथा भक्तों को कुमतिको निवारने वाले मोक्षत्रिय सामो
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की बदना भी लक्ष्मीचंद ने की है
धनिसा संसार काम सौ रहे अनूठे
धनि साध संसार, भ्रम्य ते भव छूटै । घनि साध संसार, कुगति को निवारी | धनि साध ससार, मुकति कांमनि अति प्यारी । धनि साध ससार मे, सील रतन करि हार । 'लक्ष्मी' [गुरु] सही तिन पग धोक हमार
मन, वचन और काया से जैन शास्त्रो मे श्रद्धान रखने की अपेक्षा बतलाते हुए नीतिकार लक्ष्मीचन्द ने उनके श्रवण मात्र को आनन्ददायी तथा पुण्यप्रद बतलाया हैजैन प्रथ तब सुने जाने पाप से स्था
जैन ग्रंथ तत्र सुन, पाप मति रहे न लगारी । जैन ग्रंथ तब सुन, पुन्य को होइ बढारो । जैन ग्रंथ तब सुन, श्रवन मे लागे प्यारी । जैन ग्रंथ सरधान करि, निर्च मन वच काय । भवि पावै परम गति, लिषमी कहत सुभाय । अलंकार-बधन और शब्द-शृगार के आडम्बर से कतई
दूर व्यावहारिक भाषा में कतिपय नीत्युक्तियां कहकर लक्ष्मीचंद को कविता ने एक शिक्षिका के समान सर्वसाधारण को दिशा निर्देश दिया है। जैन नीतिकारी ने कवि और सर्वयों में तो दृष्टान्त और उदाहरण अलंकारों का पर्याप्त प्रयोग किया किन्तु छप्पय मे अनुभूति मात्र ही प्रखरता के कारण अधिक प्रभावकारी हुई है। रीतिकालीन परिवेश मे आविर्भूत वृन्द और दीनदयाल गिरि की परंपरा के विनोदीलाल, मनोहरदास, लक्ष्मीचंद आदि कई जैन कवियों का सामयिक महत्व भी अधिक है । OL