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________________ III, KAR S U DHIARRHTINAR . : 4 . .. - TIMIR परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ स वर्ष ४५ किरण २ वोर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ वीर-निर्वाण सवत् २५१८, वि० स० २०४६ । अप्रैल-जन १९६२ पंच परमेष्ठियों का स्वरूप घण-घाइकम्म-रहिया केवलणाणाइ-परमगुण-सहिया। चोत्तिस-अदिसअ-जुत्ता अरिहंता एरिसा होति ॥ णट्रद्र-कम्मबंधा अट्र-महागण-समणिया परमा। लोयग्ग-ठिवा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होति ।। पंचाचार-समग्गा पंचिदिय-दंति-वप्प-णिहलणा। धोरा गुण-गंभोरा आयरिया एरिसा होति ॥ रयणत्तय-संजुत्ता जिण-कहिय-पयत्थ-देसया सूरा। णिक्कंखभाव-सहिया उवज्झाया एरिसा होति ।। वावार-विप्पमुक्का चउम्विहाराहणासयारत्ता। णिग्गंथा णिम्मोहा साहू एदेरिसा होति । अर्थ--घन-घातिकर्म से रहित, केवलज्ञानादि परम गुणो से सहित और चौंतीस अतिशयों से यक्त अर्हन्त होते हैं ॥७१।। जिन्होंने आठ कर्मों के बन्ध को नष्ट कर दिया है, जो आठ गुणों से संयुक्त, परम, लोक के अग्रभाग में स्थित और नित्य हैं, वे सिद्ध हैं।।७२।। जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य इन पांच आचारों से परिपूर्ण, पाँच इन्द्रियरूपी हाथी के मद को दलने वाले, धीर और गुण-गम्भीर हैं, वे आचार्य हैं ॥७३॥ जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीन रत्नों से युक्त, जिनेन्द्र के द्वारा कहे गये पदार्थों का उपदेश करने में कुशल और आकांक्षा रहित हैं, वे उपाध्याय है ।।७४॥ जो सभी प्रकार के व्यापार से रहित हैं, सम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और तपरूप चार प्रकार की आराधना में लोन रहते है, बाहरो-भीतरी परिग्रह से रहित तथा निर्मोह हैं, वे ही साध हैं ॥७॥
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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