________________
६, वर्ष ४५, कि०४
अनेकान्त
हो जाता है"। दीघनिकाय के पासदिक सुत्त में बुद्ध चन्द समण का सम्बन्ध शम उपशम से भी है। जो छोटे से कहते हैं-चुन्द ! ऐसा हो सकता है कि दूसरे मत वाले बड़े पापों का सर्वथा शमन करने वाला है, वह पाप के परिव्राजक ऐसा कहें-शाक्यपुत्रीय श्रमण आराम पसन्द शमित होने के कारण श्रमण कहा जाता है। हो विहार करते हैं "चनद, ये चार प्रकार की आराम श्रमण के दूसरे पर्यायवाची मुण्ड मुनि और भिक्ष भी पसन्दगी अनर्थयुक्त हैं-कोई मुर्ख जीवो का वध करके हैं । धम्मपद मे कहा हैआनन्दित होता है, प्रसन्न होता है। यह पहली आराम न मुण्डकेन समणो अब्बतो अलिक मणं । पसन्दगी है। कोई चोरी करके आनन्दित होता है, यह इच्छालोम समापन्नो समणो कि भविस्सति ॥धम्मपददूसरी आराम पसन्दगी है, कोई झूठ बोलकर प्रसन्न होता
(धम्मटण्ठवग्गो) है, यह तीसरी आराम पसन्दगी है, कोई पांचों भोगों का अर्थात् व्रतरहित, झूठ बोलने वाला व्यक्ति मुण्डन सेवन करके आनन्दित होता है, ये चौथी पाराम पसन्दगी करा लेने से श्रमण नहीं होना । इच्छा और लोम से भरा है । ये चारों सुखोपभोग निकृष्ट हैं। हो सकता है चुन्द, मनुष्य क्या श्रमण होता है ? दूसरे मत वाले साधु ऐसा कहें-इन चार सुखोपभोग न तेन भिक्षु सो होति यावता भिक्खते परे। आराम पसन्दगी से युक्त हो शाक्यपुत्रीय श्रमण विहार
विस्सं धर्म समादाय भिक्ख होति न तावता ।। करते हैं। उन्हें कहना चाहिए-ऐसी बात नही है।
धम्मपद-१२ धम्मट्ठवग्गो उनके विषय में ऐसा मत कहो, उन पर झूठा दोषारोपण
यह मनुष्य केवल इतने मात्र से भिक्षु नही हो जाड न करो। इससे स्पष्ट है कि बुद्ध के मत में चार यामों का है कि वह दूसरों से भिक्षा मांगता है। समस्त धर्मों को पालन करना हो तपश्चर्या मानी जाती थी। अत: बुद्ध ने ग्रहण करके मनुष्य भिक्षु नहीं हो जाता। पाश्र्वनाथ के चातर्याम धर्म को स्वीकार किया था। योघ पुन्नं च पाप च बाहेत्वा ब्रह्मपरिवा। पार्श्वनाथ श्रमण परम्परा के थे। अत: उनकी रम्परा
संखाय लोके चरतिस वे भिक्खति बुञ्चति ।। को अपनाने वाले बुद्ध भी श्रमण अथवा महाश्रमण कह
धम्मपद-१२ धम्मट्ठवग्गो लाए । दशवकालिक नियुक्ति में कहा है
जो यहां पुण्य और पाप को छोडकर ब्रह्मचर्यवान है जह मम न पियं दुक्ख जाणिय एमेव सव्व जीवाणं । तथा लोक मे ज्ञानपूर्वक विचरण करता है। वही भिक्ष न हणइ न हणावेइ य सममणई तेण सो समणों"। कहा जाता है।
अर्थात् जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, इसी प्रकार सभी न मोनेन मुनी होति मूलहरूपो अविद्दसु । जीवों को नही है। अत: जो जीवो को न तो स्वय मारता यो च तुलं व पगठह वरमादाय पण्डिता ।। है, न दूसरे से मरवाता है, सममन वाला वह श्रमण होता पापानि परिवज्जति, स मुनितैन सो मुनी । है। सुत्तनिपात मे गौतम बुद्ध ने कहा है
यो मुनाति उभे लोके मुनी तन पवुच्चति ।। समितावि पहाय पुन्नपाप विरजोन्त्वा इम पर च लोक ।
धम्मपद-धम्मबग्गो १३-१४ जातिमरणं उपातिवत्ते, समणोतादि पवुच्यते तथत्ते ॥ मौन धारण करने से साक्षात् मर्ख और अविद्वान
सुत्त निपात ३२/११ व्यक्ति मनि नहीं हो जाता किन्तु जो तुला के समान ग्रहण जो पुण्य और पाप को दूर कर शान्त हो गया है, करके भले-बुरे को तोता है और अच्छे को ग्रहण करता इस लोक और परलोक को जानकर रंजरहित हो गया है, है, वह पण्डित है। जो पापों का परित्याग करता है, वह जो जन्म के परे हो गया है, स्थिर, स्थितात्मा वह श्रमण मनि है और इसीलिए वह मनि है। जो इस संसार मे कहलाता है। परमपद मे समता का आचरण करने वाले (पाप और पुण्य) दोनों का मान करता है वह इसीलिए को श्रमण कहा गया है-समचरिया समणाति वुच्चति, मुनि कहा जाता है। धम्मपद-ब्राह्मणवग्गो ।
मुण्ड शब्द का अनेक स्थानों पर बौद्ध श्रमण के रूप