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जैन एवं बौद्ध साहित्य में श्रमण परम्परा
बौद्ध साहित्य में श्रमण परम्परा मैंने एक घर से भोजन किया, सो भी एक ग्रास लिया या
श्रमण संस्कृति की निगण्ठ (जैन). सबक (शाक्य-बोद) मने दो घरों से लिया सो दो ग्रास लिया। इस तरह मैंने तावस (तापस). गेस्य (गेरुक) और आजीव (आजीवक) सात घरों से लिया, मो भी सात प्रास, एक घर से एक ये पांच प्रधान शाखायें मानी जाती हैं। इनमे से प्रथम ग्रास लिया। मैंने कभी एक दिन में एक बार, कभी दो दो शाखायें आज जीवित हैं। अन्य शाखाओं का अन्तर्भाव दिन में एक बार, कभी सात दिन में एक बार लिया, कमी इन्ही में हो गया। पालि साहित्य मे श्रमणों के चार प्रकार पन्द्रह दिन भोजन नही किया । मैंने मस्तक, दाढी व मछों बतलाए गए हैं -मग्गजिन, मग्गजीविन, मग्गदेशिन, और
के केशों का लोंच किया। इस केशलोंच की क्रिया को मगदूसिन"। इनमे पारस्परिक मतभेद के कारण अनेक जारी रखा। मैं एक बूंद पानी पर भी दयावान था। दार्शनिक सम्प्रदायों ने जन्म लिया। बुद्ध इन्हें "दिटिठ" भुद प्राणी की भी हिंसा मुझ से न हो, इतना सावधान शब्द से अभिहित करते है"। जैन साहित्य मे इन मतों था। इस तरह कभी तप्तायमान कभी शीत को सहता की संख्या ३६३ बतलाई गई है। श्रमण परम्परा की बौद हुआ भयानक वन मे नग्न रहता था। आग नही तपता शाखा की अपेक्षा जैन शाखा निश्चित रूप से बहत प्राचीन था। मुनि अवस्था में ध्यान लीन रहता था। है, विद्वानो ने इसे प्रागैतिहासिक माना है। भगवान ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी ने उपयुक्त क्रियाओं की महावीर के समय से लेकर जैन और बौद्ध धमों का गहरा तुलना मूलाचार मे प्रतिपादित साधु के आचार से की सम्बन्ध रहा। श्रमण परम्परा के प्रतिनिधि धर्म होने के है"। इससे स्पष्ट है कि बुद्ध ने जैन आचार का भी कारण वैदिक धर्म से शास्त्रार्थ के समय दोनों के मन्तव्य अभ्यास किया था। बाद में इस कठोर चर्या को उन्होंने एक रहते थे, कोकि हिंसामय पज्ञों में विश्वास, सृष्टिकर्ता अनार्य और अनों की जड़ मानकर छोड़ दिया और ईश्वर की मान्यता आदि अनेक वैदिक बातों के विरुद्ध मध्यम मार्ग ग्रहण किया जो उनी दृष्टि में कामसुखों में दोनो धमों को लोहा लेना पड़ा। ऐसा होने पर भी दोनों आसक्ति और आत्मक्लेशों मे आसक्ति के बीच का था। धर्मों को दार्शनिक मान्यतायें भिन्न भी थी।
नौमी शताब्दी के 'जैनाचार्य देवसेन' ने दर्शनसार में गौतमबुद्ध के घर से निकलने के बाद ६ वर्ष तक लिखा है कि गौतमबुद्ध जैनो के २३वे तीर्थंकर श्री पार्वविभिन्न प्रकार साधनामार्ग अगीकार किए, जिनमें से एक नाय के सम्प्रदाय मे आए हुए श्री पिहिताश्रव मुनि के अचेलक मार्ग भी था और यह जैन मुनि की चर्या का अग शिष्य हए थे। पिहिताश्रव ने सरयू नदी पर स्थित परलाश था । 'मज्झिमनिकाय' के महासोहनादसुत्त मे सारिपुत्त से नामक ग्राम में उन्हें पार्श्व के सघ में दीक्षा दी थी। अपने पुराने जीवन के विषय में बुद्ध स्वयं कहते हैं-मैं 'श्रीमती राइस डेविड्स' का मत है कि बुद्ध अपने गुरू की वस्त्ररहित रहा, मैंने आहार अपने हाथ से किया। न खोज मे वैशाली पहुंचे । वहा आलार और उद्रक से उनकी लाया हुआ भोजन किया, ने अपने उद्देश्य से बना हुआ भेट हई, फिर बाद में उन्होंने जैन धर्म की तप-विधि का किया, न निमत्रण से भोजन किया, न बर्तन में खाया, अभ्यास किया" 'हा. राधाकुमुद मुकुर्जी' के अभिमत मे न थाली में खाया, न घर की ड्योढ़ी मे खाया, न खिड़की बुद्ध ने पहले आत्मानुभव के लिए उस काल मे प्रचलित से लिया, न मूसल से कूटने के स्थान पर लिया, न दो दोनों साधनाओं का अभ्यास किया । 'आलार और उद्रक' आदमियो के एक साथ खा रहे स्थान से लिया, न गभिणी के निर्देशानुसार ब्राह्मण मार्ग का, तब जैन मार्ग का और स्त्री से लिया, न बच्चे को दूध पिलाने वाली से लिया, बाद में अपने स्वतन्त्र साधना मार्ग का विकास किया । न भोग करने वाली से लिया, न मलिन स्थान से लिया, 'श्री धर्मानन्द कोशाम्बी' ने लिखा है कि निर्ग्रन्थों के न वहाँ से लिया जहाँ कुत्ता पास बड़ा था, न वहाँ से, 'श्रावक वप्प शाक्य' के उल्लेख से प्रकट है कि निर्ग्रन्थों जहाँ मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। न मछली, न मांस, न का चातुर्मास धर्म शाक्य देश में प्रचलित था। बुद्ध के मदिरा, न सड़ा मांस खाया, न तुष का मैला पानी पिया। द्वारा बोजे गए आष्टांगिक मार्ग का समावेश चातुर्याम में