________________
१६
असंपत-समकित सत्-पाचरण रहित नहीं होता स्वाद्य का मर्यादा के [काल मर्यादा के ] बाहर अभक्ष्यपना दी। धन्य हो, ऐसे होते हैं सद्दष्टि पुरुष । यही सब देख हो जाता है। ऐसे अभक्ष्यों का त्याग उस असयत के नही कर श्रीमद् राजचन्द्र ने बनारसीदास को सम्यक्त्वी कहा होता। अत: कथंचित् इस अव्रती के इन अभक्ष्यों का [श्रीमद् पृ० ४८०] दौलतराम जी ने ठीक ही कहा है भक्षण बन जाता है-इनका तो इसके त्याग नहीं होता। कि गेही 4 ग्रह में न रचे, ज्यों जल ते भिन्न कमल है। इस प्रकार स्थूलत: इस चतुर्थ गुणस्थानी के अभक्ष्य भक्षण यदि यहां यह प्रश्न किया जाए कि अष्ट मूलगुण का नही होता, तथापि सूक्ष्मत: देखा जाय तो यह अवती पालन तथा सप्त-व्यसन-त्याग देवों के कहा होता है, जब कथंचित अभक्ष्य भक्षण से युक्त हो जाता है। (इसके लिए कि उनमें भी सम्यक् बी तो होते हैं ? इसका उत्तर यह है द्रष्टव्य है लाटीसहिता १) मैं मन्दबुद्धि हूं उक्त निर्णय में कि देवो के मास आदि का आहार ही जब नही है [देवों कही दोष हो तो विद्वान् सूचित करें।
मांस-आहार तथा मद्य पान मानना देवो का अवणंवाद है इस प्रकार इन उदाहरणो/प्रकथनो से यह स्पष्ट [स० सि०६/१३] तब फिर मास आदि के त्यागरूप किया गया है कि अविरत सम्यग्दृष्टि यद्यपि एकदेश सयम मूलगुण धारण करने की उन्हें जरूरत ही कहा पड़ती है ? (आशिक) चारित्र से भी युक्त नही होता [चारित्त त्यि इसी तरह देवो मे शिकार करना, वेश्या सेवन आदि की जदो अविरद-अतेसु ठाणेसु गो० जी०] तथापि वह मिथ्या- भी बात नही है। उनका शरीर भी कालाहार-रहित दृष्टि की कषायो से अनन्तगुणो हीन कषायो से युक्त होता तथा सप्तधातु से रहित पवित्र होता है, वह वैकियिक है [धवला पु. ११वेदनाक्षेत्र विधान अनुयोग द्वार] तथा शरीर होता है जबकि हमारा शरीर अपवित्र तथा कवला. समस्त कुल क्रियाओं का पालन करता है। वह निशा- हारी ऐसा औदारिक शरीर है। फिर देवो के तो वैसे भी भक्षी नही होता, प्रतिदिन जिनबिम्ब दर्शन करता है। हजारों वर्षों तक भूख भी नही [र०व० श्रा० गा० १२८ जल अनछना वह नही पोता। व्यसन सप्त सेवन नहीं की टीका सदासुख जी कृत] जब हजारों वषो बाद भूख करता । क्वचित् कदाचित् परिस्थिति (विवशता) वश लगती है तथा खाने का भाव आता है तो गले से ही अमत एकाध बार का जुआ व्यमनरूप नही कहलाता [प. रतन० भर जाता है; जिह्वा झूठी तक नहीं हो पाती। अत: मु० व्य० कृति [ चरणानु.] तथा अष्टमूल पालन करता उनकी व्यवस्था में हमारी व्यवस्था मिलाना ठीक नही। है। प्रतिशोध भाव नहीं रखता। यथा-रावण के द्वारा उनके (देवों के) मधु, मांस, मद्य के आहार या सेवन का सीता हरण किए जाने के पश्चात् भी, अनेक बाधाओं का प्रश्न ही नही उठता, चाहे वे विध्यात्वा हो या सम्यक्त्वी। सामना करते हुए राम लंका पहुंच कर भी अपने गुनाह- यथायोग्य नारकी के भी यही बात है । अत: वहाँ अष्टमूल गार ऐसे रावण के प्रति युद्ध या विद्रोह के लिए नही पालन तथा सप्त व्य मन त्याग के विकल्प नहीं है। तियंचों ललकारते, अपितु ऐसा कहते हैं कि "हे दशानन ! मेरी के भी हमारे से तुलना करना उचित नही। क्योकि पचम जानकी मुझे दे दो, यह राम स्वयं मांगता है।" [देहि गुणस्थानवर्ती तिथंच भी छन्ने से जल छान कर पीने से दशानन ! जनकात्मजां रामो याचते स्वयम्] धन्य है तो रहा (हाथिगन डोयो पानी, सो पीवे गजाति ज्ञानी। सम्यक्त्व सत्पुरुष राम को क्षमा को। वह तो उत्तर में "पार्श्वपुराण" भूधरदास) तथापि सम्यक्त्वी तिथंच भी रावण नही माना तब युद्ध की विवशता-वश अनिवार्यता अन्य जीवो की शिकार कर मार कर नही खाता। वह बनी। इस प्रकार असंयत सम्यक्त्वी अतिमन्दकषायी होता दया भाव रखता है, जिनेन्द्र-वचनो पर श्रद्धान करता है। है। उसकी क्रियाएँ दूसरों के लिए प्राय: आदर्श-सी होती प्रतिशोध भाव नहीं रखता, अन्याय नही करता; इत्यादि हैं । अविरत सम्यक्त्वी बनारसीदास के घर चोर पहुचे तो स्वपर्याय-सम्भव पालनाएं करता है। इस प्रकार मनुष्यों चोरी का माल गठरी मे भर कर जब चोर ले जाने लगा मे असंयत सम्पदवी सर्वया आचार (आचरण) रहित नहीं तो उससे गठरी उठी नहीं तो स्वयं बनारसीदास (जिसके होता। वह आचारवान होता है। घर में चोरी हो रही है) ने उठकर स्वय गठरी उठवा