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जयधवला पु० १६ का शुद्धिपत्र
-जवाहरलाल जन/मोतीलाल जैन, भीण्डर
पंक्ति २३
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पुणो वि
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अशुद्ध संख्गातवें
संख्यातवें ण्विामोह
णिवामोहविशेसाहियं
विसेसाहिय अतः यहाँ
क्योंकि यहाँ इससे प्रायः
यहां से लेकर पुणे वि होकर सूक्ष्मसाम्पगथिक
होकर सीधा सूक्ष्मसाम्परायिक समयाहिय मेत्तपढमट्टिदीए
समपाहिय आलियमेत्तपढमट्ठिदीए अधिक प्रथम
अधिक आवली प्रमाण प्रथम संषहि
संपहि प्रदेशविन्यासवश
प्रदेशविन्यासविशेष से गुणओ
गुरगाओ ठिदिखडय
ठिदिखंडय उत्कीण
उत्कीर्ण असंख्यातगुणे
असंख्यातगुणे हीन प्रदेशपुंज पल्योपम
प्रदेशज के पल्योपम जो दा मून आकृष्टिस्वरुप
अकृष्टिस्वरूप प्रत्यविहासण
प्रत्यविहासणं गवेसणट्ठ
गवेसट्ठ अणु, भागोदयो
अणुभागोदयो सरु, वणेदस्स
सरुवेणेदस्स अवस्सं, भावि
अवस्स-भावि क्योंकि 'अलद्दी य' ये कर्म क्षयोपशम सन्धि क्षयोपशम लन्धि का विरह (अभाव) से रहित हैं । अलब्धि का अर्थ है कि यतः अलब्धि कहलाता है। यतः इन कर्मों इन को लद्धिसामाण
लद्धिसामण्णं देसाभासय भूदेण
देसामासय भूदेण के वीचारो
के वीचारा के वीवारो
के वीचारा हुआ। इसमे
हुआ, अत: इसमें क्योंकि बादर
क्योकि चरम बादर
जो दो मूल
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Uoor.१ .
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