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१८, वर्ष ४५ कि. ४
जैनधर्म की प्रभावना करने का अभिप्राय हेय उपादेय सम्यक्त्व का मलीन होना बताया है। अजनगिरि के संग का विवेक धीरज, सम्यक्त्व की प्राप्ति का हर्ष और तत्व से चन्द्र की धवल किरणे भी काली हो जाती है। आगे विचार में चतुराई; ये ५ सम्यक्त्व के भूणण हैं । कहा हैग्पान गरब मति-मन्दता, निठुर वचन उद्ग र ।
वेदलमीसिउ दहि महिउ जुत्त ण सावय होइ । रुद्र भाव आलस दशा, नास पंच परकार ॥३७॥ च्वइ दसण भगु, पर सम्मत्त वि गइलेइ ॥३६॥ ज्ञान का अभिमान, बुद्धि की हीनता, निर्दय वचनों
[श्रा० स. १/४८६] का भाषण, क्रोधी परिणाम और प्रमाद; ये ५ सम्यक्त्व अर्थ-द्विदलमिश्रित दही और मही भी श्रावक के के नाशक भाव हैं। दौलतराम ने अपने क्रियाकोण में खारे योग्य नहीं है । इनके खाने से दर्शन [दर्शन प्रतिमा] अष्टमूलगुण, मात डासन त्याग आदि सब आवश्य बताये का मंग तो होता (ही) है, परन्तु सम्यग्दर्शन भी मलिन और कुल ६३ गणों वाले को समकिती कहा । यथा- हो जाता है। [श्रा० सं० ५/३७०-७१] गाथा १८१३ से १६ :- अव्रती सम्यक्त्वी सर्वथा अव्रती नही होना [जै० सि.
अग निशंकित आदि बहु अठ गण सवेगादि। को० ४/३७९] सम्यक्त्वी स्वय का बुग करने वाले के अष्ट मदनिको त्याग पुनि अर वसु मूल गुणादि ॥१३॥ प्रति भी प्रतिशोध का भाव नहीं रखता। [पं० ध०२/ सात व्यसन को त्यागिनी अर तजिवो भय सात। ४२७/३८६] जिसके भोगाभिलाषा भाव है, वह निश्चय तीन मूढ़ता त्यागिवो तीन शल्य पुनि भ्रात ॥१४॥ हो मिथ्यादृष्टि है। [पं० ० २/५५१ पूर्वाधं अर्थकारषट् अनायतन त्यागिवी अर पाचों अतिचार । पं० मक्खनलाल जी गा०] । शुदात्मा भावना से उत्पन्न ए वेसठ त्यागे जु कोऊ सो समवृष्टि सार ॥१५॥ निविकार यथार्थ सुखरूपी अमृन को उपादेय करके संसार, चौथे गुणथाने तनी कही बात ए प्रात ।
शरीर पोर भोगों में जो हेय-बुद्धि वाला है वह सम्यग्है अव्रत परि जगत मे, बिरकित रूप रहात ॥१६॥ दर्शन से शुद्ध चतुर्थगुणस्थान वाला व्रतरहित दार्शनिक
पुरुषार्थ सिदयुपाय टी० पृ० ११७ (कुचामन सिटो) है। [१० द्र० सं० ४५] सम्यग्दृष्टि को सर्व प्रकार के में लिखा है कि ८ मूलगुण पालन व सात व्यसन त्याग भोगो मे प्रत्यक्ष रोग की तरह अरुचि होती है। [पंचा० आदि ६३ गुण सम्यक्त्वी के अनिवार्य हैं।
उ० २६/२७१]। यदि यह कहा जाय कि नही, हम तो नहीं मानते, इस प्रकार ऐसे-ऐसे महागुणों से सम्पन्न सम्यक्त्वी मम्यक्त्वी मांस भक्षण प्रत्यक्षतः करता है तो उनका प्रत्यक्ष दश्यमान ऐसे अभक्ष्य पदार्थों को कैसे खा सकता उत्तर उपामकाध्ययन में II आश्वास में कहा है कि है? नहीं खा सकता है। कहा भी है-वह मिथ्यात्व, मांम भक्षियों को दया नहीं होती। तथा मधु व उदुम्बर अन्याय व अभक्ष्य का त्यागी हो जाता है। [पृ० ३८, फल सेवियों मे नृशंसता का अभाव नहीं होता। जब कि (मम्यक्त्व प्रकरण) “सम्यक्त्व चिन्तामणि", प. पन्नासम्यक्त्वी में अनुकम्पा गुण आवश्यक होता है "और मास ल न जी साहि० तथा चारित्र निर्माण पृ०५ विदुषी आ. भक्षण में तीव्र निर्दयपना है।" [रश्नकरण्ड श्रा० पृ. ६६ जिनमति जी
६८ सस्ती ग्रन्थमाला] पावयधम्कदोहा [आ० देवसेन] इस प्रकार एक देश जिन स्वरूप निर्मल असयत में भी कहा है--सगे मज्जामिम रयहं महलिज्जइ मम्मतु। मम्यक्त्वी वि. द्र० सं०; प० का० आदि] के यद्यपि मजणगिरिसगे ससिहि किरणह काला इंति ।।२६ अभक्ष्य भक्षण नहीं करता। पर अभक्ष्य भक्षण का त्याग अर्थ-मद्य और मां के सेवन में निरत पुरुषों के संग से यहां सदोष, सातिमार हो पालता है। अभक्ष्य भक्षण सम्यक्त्व मलिन हो जाता है। स्वयं खाने की बात तो त्याग का निर्दोष व निरतिचार पालन दर्शन आदि प्रतिदूर रही, मात्र मांस भक्षी व मद्यपायी के सग-मात्र से माओं में ही समय है। भक्ष्यस्वरूप भी अन्न पान खाद्य