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असंयत-समकित सत्-पाचरण रहित नहीं होता
कोई भी जैनी मद्य, मांस, शहद का साक्षात् भक्षण नहीं कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका मे टीकाकार ने असयत सम्यकरता इसलिए क्या जैनी मात्र के उस का त्याग नहीं हुआ? क्त्वो के कुल ६३ गुण बनाये हैं। जिनमें ४८ को मूलगुण अवश्य हुवा। इसलिए सिद्ध साधन होने से आपके त्याग कहा तथा १५ को उत्तर गुण कहा । यथा ३ मूढ़ता, आठ कराने का उपदेश निरर्थक है?
मद, ६ अनायतन, ८ शमा आदि; इनके त्याग रूप २५ उत्तर-यह बात नहीं है, क्योंकि यद्यपि जैन गुण ।
संवेग, निर्वेद, निन्दा, गहो, उपशम, भक्ति, अनुकम्पा इनका साक्षात् भक्षण नहीं करते है तथापि उनके
तथा वात्सल्य ये ८ तथा ५ अतिचार त्याग, शका आवि, कितने ही अतिचार हैं और वे अनिचार अनाचारों के
सात भय त्याग, ३ शल्य त्याग इस तरह कुल ८ हुए। समान हैं। इसलिए धर्मात्मा जीवों को (यानी प्रथम
तथा उत्तर गुणो मे ८ मूलगुण व सात व्यसन लि! । यथाप्रतिमा वालों को) उन अतिचारों का भी त्याग अवश्य
अष्टौ मूलगुणा सप्त व्य मनानि व इति पचदशसंख्योपेता: कर देना चाहिए। उस अतिचारो के बहुत से भेद तो
जघन्यपात्रस्य सम्पग्दष्टेरुत रगणा: भवन्ति । मुझ जैसे पुरुष से कहे भो नहीं जा सकते।"
[३२६ की टीका] मागे कहा है-- निसर्गाद्वा कुनाम्नायादाय'तास्ते गुणा: स्फुटम् ।
गुणभूषण श्रावकाचार १/४६ [श्रा० सं० २/४४.] तद्विनापि व्रत यावत्सम्यक्त्वं च गुणोऽङ्गिनाम् ।।
में प्रशम, सवेग, निर्वेग, निन्दा, गहीं, भक्ति, आस्तिक्य
और अनुकम्पा; इन आठ को सम्यक्त्व के अनुमापक गुण -ला० स. १/१५५
बताया है । यानी इन ८ द्वारा जीव मे सम्यक्त्व को पहिअर्थ-इस जीव के जब तक सम्यग्दर्शन गुण रहता
चान होती है। [See Also वसुनन्दि थावकाचार] तथा है तब तक मद्य, मांस मधु का त्याग तथा ५ उदुम्बरों का
पचाध्यायी उनरार्ध० ४६७] उक्त ८ सहित सम्यक्त्व के त्याग रूप गुण, चाहे तो स्वभाव से हो या चाहे कुल
२५ गण मिलाने से कुल ३३ गुण सम्यक्त्वी के हो जाते परम्परा की परिपाटी से चले आ रहे हों, नियम रूप से ,
म से हैं। [गुणभुषण• १/६८ या व्रत रूप से धारण न किये हों, तो भी वे गुण ही कह
महान कविवर बनारसी ने अपने नाटक समयसार लाते है ॥१५॥ अर्थात् सम्यक्त्वी के ये होते ही हैं।
१४ गुणस्थान अधिकार में लिखा है - तथापि प्रथम प्रतिमा रूप त्याग के परिणाम बिना सदोष
सत्य प्रतीति अवस्था जाकी । सातिचार ही पलते हैं। इसका अत्यन्न स्पष्ट खुलासा
दिन दिन रीति गहे ममता की। लाटी संहिता प्रथम सर्ग से जानना चाहिए। शिवकाटी विर
छिन.: करै सत्य को साको। चित रत्नमाला १९ मे कहा है - [श्रावका० सं०/४११]
___ सर्माकत नाम कहावै ताकौ ॥२७॥ मद्यमांसमधुत्यागसयुक्ताणुव्रतानि नुः ।
आत्म स्वरूप की सत्य प्रतीत होना, दिन प्रतिदिन अण्टो मलगुणाः पंचोदम्बरैरचार्भवपि ॥१६॥
समता भाव में उन्नति होना और क्षण-२ मत्य का साख(?) अर्थ-मद्य, मांस, मधु के त्याग से सयुक्त अणुवत
करता है उसका नाम समकिती है। मनुष्यो के ८ मूलगुण कहे गए है। ५ उदुम्बर फलों के
करुणा वच्छल सुजनता, आनम निन्दा पाठ । साथ मद्य, मांस, मधु के त्यागरूप ८ मूलगुण तो बालको
समता भगति विरागला, घरमराग गुन आठ ॥३०॥ और मखों मे भी होते है। [तो फिर सम्वत्वी जैसे एक देश जिन (बद्र०स) के मांस नादि अभक्ष्य पदार्थ त्याग- करुणा, वात्सल्य, सज्जनता, आत्मनिन्दा, समता, रूप कैसे नहीं होगे ?]
घद्धा, उदासीनता और धर्मानुराग; ये सम्यक्त्व के ८ गुण है। [कुन्दकुन्द त रयणसार गा० ५ व १ मे सम्यग्दृष्टि चित्त प्रभावना भाव जुत, हैय उपाद वानि । के सप्त व्यसन तथा सात भयो का अभाव बताया है।] धीरज हरख प्रवीनता, भूषण पच बख नि । ११॥