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________________ ३२, बर्ष ४५, कि०४ अनेकान्त मे तोले तब इसका उद्धार सम्भव हो-कोरे एक नय को और जब बाह्य से मोह छूटेगा तब अन्दर सहज में आता सम्यक् और दूसरे को असम्यक मानना भ्रान्ति है। नय जाएगा । और इस अन्दर आने को पहिचान का पैमाना दोनों ही अपनी-अपनी अपेक्षा लिए सम्यक हैं यदि सम्यक होगा बाहर का छूट जाना। ऐसा होना सम्भव नहीं कि नहीं तो नय ही नहीं-कुनय है। अन्तर्मुख और बहिर्मुख कोई अन्दर होकर भी बाहर का जोडता रहे। जिसकी की पुष्टि को लोग कछुए के दृष्टान्त से करते हैं। अर्थात् बाहर की जोडने की तमन्ना प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो और जब तक कछुआ अपना मुख बाहर निकाले रहता है तब वह कहे कि मैं भीतर झांक रहा हूं-पर्वथा धोका है । तक उसे कौवों की चोचों के प्रहार का भय रहता है और हाँ, यह भी ठीक है कि बाहर की क्रिया होने पर भी जब अपने को खोल में समेट लेता है तब उसे कोओ का यदा-कदा अंतरंग भाव निर्मल न भी हो। इमीलिए तो भय नही रहता। ठीक ऐसे ही जब यह जीव अपनी प्रवृत्ति कहा है-'बाहर-भीतर एक।' बाह्य (जो अपने नहीं हैं, उन) में करता है तब उन परिग्रह के बाह्य और अंतरंग भेद ही इसीलिए किये पदार्थों के संयोग-वियोग मे सुखी-दुखी जैसी दोनों अवस्थाओं में झूलता है और जब बाह्य को छोड अपने में आ हैं कि दोनों का त्याग किया जाय । यादे अन्तरंग भाव मात्र ही परिग्रह होता तो वे बाह्म को परिग्रह न कहते जाता है तब स्वभाव में होने से इसको झरन मिट जाती और न बाह्य दिगम्ब रत्व का निर्देश देते । फलत:है-सुखी हो जाता है। अत: बहिर्मुखपन को छोड़ फलित है कि मोह का अभाव करना चाहिए पर, यह भी अन्तर्मुख होने का प्रयत्न करना चाहिए। सम्भव नही कि बाह्य दिगम्बरत्व के बिना मुक्ति हो । हमने देखा है, सुना है कि कई लोग अन्तर्मुख होने की आप यह तो कहते हैं—'भरत जी घर ही मे वैरागी' पर, प्रेरणा देते हैं, पर बहिर्मुखता से मुड़ने को मुख्यता नही आप यह नहीं कहते कि भरत महाराज छह खण्डों के देते। उनका ऐसा करना गलत है। मानो, जैसे आप भोग भोगते वैरागी भाव मात्र से--बिना दिगम्बर वेष कमरे के बाहर खड़े है और आपको भीतर आना है तो धारण के ही मुक्ति पा गए। कहते यही है कि-उभय क्या, आप बाहर को बिना छोड़े भीतर प्रवेश पा सकेगे? परिग्रह त्याग से ही मुक्ति होती है । बहिर्मुख से मुह मोड़े कदापि नहीं। प्रवेश तभी सम्भव है जब बाहर का छूटना बिना अन्तर्मुख होने जैसी बात कोरा स्वप्न है। अत: और अन्दर का आना दोनो साथ साथ चलें। जितना दोनो की साथ-साथ संभाल करनी चाहिए। खेद है कि बाहर छुटता जायगा उतना अन्दर नजदीक आता जाएगा। लोग बाह्य को छोड़े बिना अन्तर्मुल के स्वप्न देखने में प्रसंग मे बाहर छोड़ने का अर्थ भी मोह को छोड़ना है। लगे हैं। XXXXX*XXXXxxxxxxxxxxxxxxxx जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिउ तं हि ससमयं जाण । पुग्गलकम्मपदेसट्ठियं दुजाण पर-समयं ॥स० सार २॥ बहिरंतरप्पभेयं पर-समयं मण्णए जिणिदेहि। परमप्पो सग-समयं तम्भेयं जाण गणठाणे ॥रयण० १४०॥ ************************** **********
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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