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________________ दिल की बात दिल से कही-और रो लिए! जन लोगों को कोरी चर्चाओं में फंसा कर, खाओ- दर असल बात ऐसी होनी चाहिए कि सम्यग्दष्टीको पिओ और मौज करो जैसा नही? जो अनुभव होता हैं वह आत्मानुभव नहीं, अपितु वह सेही जब हम आत्मानुभव पर विचार करते हैं तब अनुभव, मात्र तत्त्वार्थ श्रद्धान से उत्पन्न स्व-पर भेद विज्ञान सारे चितन मे सम्यग्दर्शन के दो भेद आते है--सराग- (होने) रूप होता है---सम्यग्दष्टि भिन्न-भिन्न तरवों में Meन और बीराग सम्यग्दर्शन । विचार आता है पापा या एकत्वरूप श्रद्धान नहीं करता यही उसका तत्वाकि जिन सम्यग्दष्टी जीवों को आत्मानुभव होता है उनके नुभवरूप श्रद्धान सम्यग्दर्शन है और इसी के सहारे वह नों में कौन-सा सम्यग्दर्शन हता है? रागी में आगे बढ़ता है। इसे आत्मानुभव के नाम से प्रचारित प नि हो इसमे तो बाधा नही पर,रागी के आत्मानु- करने से तो मोक्षमार्ग और चारित्र धारण का सफाया ही भव हो यह नही जंचता । (आज तो सो भो आत्मानुभव होता जा रहा है-घर मे ही आत्मा दिख जाय तो चारित्र प्रशन नना है कि यदि गिी को आत्मानु- की अवश्यकता ही कहाँ ? जैसा कि अब हो रहा है। भव होता है तो वह अखण्ड आत्मा के सी खण्ड का या अखण्ड आत्मा का? अखण्ड का खण्ट हो नहीं सकता। एक बात और ! स्मरण रहे कि जनेतर अन्य आत्मा के टकड़े मानना पडे गे, जो को इष्ट नही। मनुस्मृति' के छठवें अध्याय में य ह हाँ, अखण्ड आत्मा का जनुभव होता हाब बात दूसरी। एक श्लोक आया है- 'म्यग्दर्शन सम्पनः का मला, जब ससारी गग अवस्था में होम्पूर्ण आत्मा का बध्यते । दर्शनेनविहीनस्तु ससार प्रतिपद्यते ।।७४॥' इसमें अनुभव होने लगे तब कौन मूढ़ होगाो मोक्ष के लिए सम्यग्दर्शन का अर्थ 'ब्रह्ममाक्षात्कारवाना। चारित्र धारण का कष्ट उठायेगा। में रहो. परिग्रह हिन्दु को श्रुति भी -क्षीयते चार इकट्ठा करो, मजा-मौज करो और आनुभव का आनद दृष्ट परावरे'-फलतः ब्रह्म-साक्षाकार लो। शायद आज मात्र सम्यग्दर्शन मात्मानुभव हो ठोक रो सकता है। क्योकि वहां ब्रह्म को सर्वव्यापार जाना से प्रचार का लक्ष्य भी यही है कुन्दाकुम्पचार्य प्राणी को ब्रह्म का अंश स्वीकार किया गया है-वही रित्तदसणणाण टिठउ' मे चारित्र आतीनो म स्थिति ब्रह्म जखण्ड होते हुए भी खण्डो में बँटा है और ब्रह्म का को स्व-समय कह रहे हैं और लोग अन्सम्यग्दर्शन मात्र अंश हाने व ब्रह्म क खण्डों में बंटा होने से जीव कोबरा मे आत्मानुभव हो जाने का उपदेश दे है। का साक्षात्कार हो सकना सम्भव है पर, जैनियो में तो जो लोग ध्यान से आत्मानुभव बतलाते है वे अरूपा ओर अखण्ड आत्मा का साक्षात्कार या अनभव चारो ध्यानो मे से किस से आत्मानुभव केवल ज्ञान गम्य ही है। इसे विचार, हमे कोई आग्रह साधर्म ध्यान के तो सभी भेदकल्पात्मक हैं सो नही । हम तो जैनियो में प्रचारित की जाने वाली विकलात्मक से निर्विकल्प नआत्म-प का अनुभव छद्मस्थ में आत्मानुभव होने की बात को अजैनो की देन मानव है। शक्ल ध्यानो मे आदि के पान श्रुतकेवली होने पर विचार कर रहे है। के होते है। क्या छद्मस्थ मे अन्त ने शुक्ल ध्यान सम्भव है जो अरूपी आत्मा का अनुभरा सकें। फिर २. उभय-परिग्रह का त्याग प्रावश्यक: ये भी सोचें कि आत्मानुभव प्रत्यक्ष हो या परोक्ष ? संमारी जीव की अनादि कालीन प्रवृत्ति बहिर्मुखी होने से परोक्ष ज्ञान की तो वहां होना है-यह बाह्य पदार्थों की ओर दौड़ रहा है उनमे । आत्म-प्रत्यक्ष तो जान मात्र का मोहित हो रहा है। फलत:- उसका संसार (भ्रमण) सामानभव होना छवं मे कैसे माना बढ़ता जा रहा है। जब यह अपने स्वरूप को पहिचानेजाने लगा? फिर आत्मानुभव ता-चारित्र का बाहमुखपने को त्याग कर अन्तर्मख हो-अपने में प्रक विषय है। और शुद्ध-अशुद्ध पर्यायो को निश्चय-व्यवहार दोनों नयों
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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