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________________ विचारणार्य: दिल की बात दिल से कही और रो लिए! पचन्द्र शास्त्री सं० अनेकान्त १. हम कोरो चर्चा नहीं, चिन्तन चाहते हैं : उपयोगों में से केवलदर्शनोपयोग और केवलज्ञानोपयोग ये दो ही ऐसे हैं जिनकी प्रदेशो मे गति है-छमस्थ के शेष सम्यग्दर्शन, आत्मदर्शन और आत्मानुभव की चर्चा सभी उपयोग प्रदेश ग्राहक नही। एतावता प्रसग में 'पदेस' मात्र मे जैसा सुख है वैसा सुख और कहाँ ? इस चर्चा मे शब्द की सार्थकता समझ-पर मे उपयोग लगाने वाला बोलने या सुनने के सिवाय अन्य कुछ करना-धरना नही मात्र, पर-समय है ऐसा अर्थ न लेकर 'कमंप्रदेशो मे बधे होता । बोलने वाला बोलता है और सुनने वाला सुनना आत्मा को पर-समय कहा है, ऐसा अर्थ लेना चाहिए। है-लेना देना कुछ नही। भला, भव्य होने का इससे यह बात दूसरी है कि पर से उपयोग हटाना क्रमश: मोक्षसरल और सबल प्रमाण अन्य क्या हो सकता है जहां आत्मा दिख जाय और जिसमे परिग्रह-संचय तो हो और मार्ग है। तप-स्याग और चारित्र-धारण करने जैसा अन्य कोई व्या- रयणसार गाथा १४० मे स्पष्ट कहा है कि बहिगयाम न करना पडे और स्व-समय में आने के लिए कुन्द- त्मा और अन्तरात्मा दोनों पर-समय हैं और परम-आत्मा कुन्द के बताए मार्ग-चरित्तदसणणाणउि तं हि स- स्व-समय है-'बहिरंतरप्पभेयं पर समयं भण्णए जिणिसमयं जाण'-से भी छुटकारा मिला रहे-यानी मात्र देहि । परमप्पो सगसमय तम्भेयं जाण गुणठाणे ॥'इसी को सम्यग्दर्शन मे ही स्व-समय सिमिट बैठे। ठीक ही है- पंचास्तिकाय मे ऐसे कहा है-'जीवो सहावणियदो अणि'तत्प्रति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता। निश्चितं स यदगुण पज्जओध पर-पमओ ॥१५५।। उक्त दोनो उद्धरण भवेद्भव्य: भाविनिवणि भाजनम् ।'-. का इससे सरल मान्य आचार्य के है। यदि जीव गुण और पर्याय दोनों में और सीधा क्या उपयोग होगा? नियत नही-अनियत है तब भी वह पर-समय ही है। आज ____ गत अंक में हमने स्व-समय और पर-समय के अन्तर्गत जो लोग मात्र गुणों की बात कर पर्याय को स्वभाव न आचार्य कुन्दकुन्द के 'पुग्गल कम्मपदेसट्ठिय च जाण पर मान उस का तिरस्कार करने का उपदेश दे रहे है क्या वे समय' इस मूल को उद्धृत करते हुए लिखा था कि 'जब 'गुणपर्ययवद्रव्यं' को झुठला नही रहे ? क्या, यह सम्भव तक यह जीव आत्मगुणघातक (धानिया) पोद्गलिक द्रव्य और जैन को मान्य है कि केवल गुण ही द्रव्य हो और कर्मप्रदेशो में स्थित है-- उनसे बंधा है, तब तक यह जीव पर्याय का लोप हो जाय ? यदि उनकी मान्यता इकतर्फी पूर्णकाल पर-समयरूप है। मोह-क्षय के बाद केवलज्ञानी है तो हमें 'पज्जयमढो हि पर-समओं' का अर्थ भी यही मे ही स्व-समय जैसा व्यपदेश किया जा सकता है और इ. इष्ट होगा कि जो पर्याय के विषय में मूढ़ है--उसको वह अवस्था चारित्र के धारण किये बिना नही होती।' नहीं जानता-सही नहीं मानता, वह पर-समय है। यदि पर्याय सर्वथा विनाशीक है तो "सिद्ध' भी तो एक पर्याय उक्त गाथा के 'कम्पपदेसट्ठिय' शब्द से घातिया कर्म है। क्या, किसी जैन को यह मान्य होगा कि वह पर्याय प्रदेशों से बध को प्रप्त-उनमें स्थित ऐसा अर्थ लेना भी नाश हो जाती है? फिर कोरा निश्चय चाहिए मात्र उपयोग के लगाने जैसा अर्थ ही नहीं लेना तो यह भी सोचना होगा कि निश्चय से शुद्ध में (सर्वथा चाहिए। क्योंकि स्थूल रीति से उपयोग के बारह भेद असम्भव) अशुद्ध पर्याय कैसे सम्भव हुई जो उससे मुक्ति है-चार दर्शनोपयोग और आठ ज्ञानोपयोग । इन बारह का मार्ग बताने का मिथ्या चलन चल पड़ा? क्या, यह
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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