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________________ संचयित-ज्ञानकण -पर-पदार्थ के साथ यावत् संबंध है तावत् ही संसार है। अपनी भूल ही से तो यह जगत् है। भूल मिटाना धर्म है। -हमारी तो सम्मति यह है जो ऐसा अभ्यास करो जो यह बाह्य पदार्थ ज्ञेयरूप हो प्रतिभासे । अन्य की कथा तो छोड़ो, जिसने मोक्ष मार्ग दिखाया है वह भी ज्ञेय रूप से ज्ञान में आवे । -परिग्रह लेने में दुःख, देने में दुःख, भोगने में दुःख, रक्षा में दुःख, धरने में दुःख, रुलने में दुःख । धिक इस दुःखमय परिग्रह को। -कर्म की गति विचित्र है यह मानना ठीक नहीं। यह सब विकारी आत्मद्रव्य का ही विकार है । स्व-परिणामों द्वारा अजित संसार को पर का बताना महान अन्याय है। -संसार का अन्त करने के लिए आत्मद्रव्य को पृथक करने की चेष्टा करनी ही उचित है। - संकल्प विकल्प को परम्परा ही तो हमें जगत् में भ्रमण करा रही है। जब तक इसका प्रभुत्व रहेगा, हमें इनकी प्रजा होकर ही निर्वाह करना होगा। -विश्व की अशान्ति देख अशान्त न होना । यहाँ यही होता है । लवण सर्वाङ्ग क्षारमय होता है। -जहाँ राग है वहीं रोग है । उन महापुरुषों का समागम करो जिनका राग-द्वेष कम हो गया है। -निरन्तर राग-द्वेष की परिणति दूर करने में प्रयत्नशील रहो। लोभी-त्यागी से निर्लोभग्रहस्थ अच्छा है। -- उदय काल में अज्ञानी के राग-बुद्धि होतो है और जानो के विराग-बुद्धि होती है। -- ज्ञानी के इच्छा नहीं है. सोई निष्परिग्रही है-उदय आए कू अनासक्त भया भोगे हैं । -ज्ञानियों के वचन (सौजन्य : श्री शान्तोलाल जैन कागजी) आजीवन सदस्यता शुल्क । १.१..... वाषिक मूल्य : १).०, इस अंक का मल्य : १ रुपया ५० पसे विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं । यह मावश्यक नहीं कि सम्पादक-मण्डल लखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते। कागज प्राप्ति:-श्रीमती अंगरी देवो जैन, धर्मपत्नी श्री शान्तिलाल जैन कागजी, नई दिल्ला-२ के सौजन्य से
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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