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सांख्य और न दर्शन में श्विर
वस्तुतः जैसा कि पहले कहा जा चुका है-सांख्यदर्शन सार ही मानी जाती है। जैनदर्शन का कम-सिद्धान्त मूलतः जैनदर्शन की तरह अनीश्वरवादी है । डा० उमिला इतना व्यवस्थित है कि उसके रहते सृष्टिकर्ता ईश्वर की चतुर्वेदी ने सांख्यदर्शन और विसानभिक्षु नामक शोधप्रबंध आवश्यकता नहीं अनुभव मे आती। इसके अतिरिक्त में विज्ञानभिक्ष का पक्ष लेते हुए मांखण को ईश्वरवादी धर्मद्रव्य, अधमंद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य के रहते सिद्ध किया है। वस्तुतः सांख्यदर्शन के विकासक्रम को ईश्वर को कोई कार्य नही बचता जिसके लिए सृष्टिकर्ता देखने से उनके तीन रूप दृष्टिगोचर होते हैं।
ईश्वर माना जाए। द्रव्य का स्वरूप उत्पाद, व्यय और (१) उपनिषदों", महाभारत", गीता" और पुराणों
nanीता और पराणों ध्रौव्यात्मक होने से भी किसी प्रेरक ईश्वर की आवश्यकता में प्रतिपादित सांख्य दर्शन ।
नहीं है। इसी प्रकार सांख्यदर्शन में भी प्रकृति को स्व
रूपतः सत्व, रजस् और तमस् (आवरक) रूप" मानने से (२) कपिलमुनि, वार्षगण्य, अनिरुद्ध, ईश्वरकृष्ण
ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं है। सत्व, रजस् और की सांख्यकारिका और उसके टीकाकारों का सांख्यदर्शन।
तमस् ये तीन गुण प्रकृतिरूप है, भिन्न नहीं। कर्मों से
सर्वथा अस्पृष्ट सर्वदृष्टा ईश्वर कथमपि सम्भव नहीं है (३) परवर्ती सांख्यदर्शन जिसका प्रतिनिधित्व विज्ञान
जैसा कि आप्तपरीक्षा मे कहा हैभिक्षु कहते हैं। जब हम कपिल के सांख्यदर्शन से जैनदर्शन की तुलना
नास्पृष्टः कर्मभिः शश्वद् विश्वदश्वास्ति कश्चन । करते हैं तो देखते हैं कि दोनों में बहत साम्य है। दोनो में तस्यानुपायसिद्धस्य सर्वथाऽनुपपत्तितः ॥८॥ कहीं भी सर्वशक्तिमम्पन्न अनादि ईश्वर की आवश्यकता इस तरह हम देखते हैं कि अर्हत् पद अथवा सिद्धपद नहीं अनुभव की गई है परवर्ती काल मे जिस प्रकार (जीवन्मुक्त या विदेहमुक्त) को प्राप्त जीव ही जैनदर्शन सांख्यदर्शन में ईश्वरकतत्व का समावेश हुग्रा है उस में ईश्वर है। यद्यपि प्रत्येक जीव मे यह ईश्वरत्व शक्ति प्रकार जैनदर्शन में नहीं हुआ है। यद्यपि जैनदर्शन में है परन्तु अनादिकाल से कर्मबन्ध के कारण वह शक्ति ढकी ईश्वरोपासना मिलती है परन्तु जैनदर्शन का ईश्वर कोई हुई है। इस तरह पुरुषविशेष ईश्वर तो है परन्तु वह कभी अनादिमुक्त पुरुष विशेष नही है अपितु सभी पुरुष (आत्मा) बन्धन मे नही था ऐसा जैनदर्शन को स्वीकार्य नहीं है। परमात्मा रूप हैं, उनमें से जो जीवन्मुक्त" (अर्हत् या किञ्च, वह पुरुषविशेष जिसने कर्मबन्धनों को नष्ट करके तीर्थकर) और विदेहमुक्त (सिद्ध) है उन्ही को ईश्वर- अनन्तचतुष्टय (अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्त आनन्द रूप से उपासना की जाती है। जैनों के ये मुक्तपुरुष या ओर अनन्त शक्ति) को प्राप्त किया है, ईश्वर तो है, ईश्वर उपासक पर न कृपा करते हैं और न निन्दक पर परन्तु आप्तकाम और वीतरागी होन से सृष्टि के किसी क्रोध । उपासना के द्वारा भक्त अपने आत्म परिणामों की भी कार्य में रुचि नही लेता है । इस दृष्टि से वह कथचित निर्मलता से यज्ञ आदि को प्राप्त करता है । वस्तुत: जैनो साँच्यों के मुक्तो की तरह साक्षी दृष्टा मात्र है। अनन्तके मुक्त तो सांख्यदर्शन की तरह साक्षी एवं तटस्थ हैं। ज्ञान, अनन्त आनन्द आदि मानने से कथंचित् वेदान्त के वह शद्ध चैतन्यरूप और साक्षी होने के साथ-साथ सर्वज, ईश्वर तुल्य है। जैन ग्रन्थों में सांख्यदर्शन के ईश्वर का अनन्तशक्ति तथा अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द से भी सहित है जो खण्डन मिलता है वह योगवशंन की दृष्टि से है क्योकि जो सांख्यदर्शन के मुक्तपुरुष में नहीं है । ऐसे मुक्तात्माओं साख्यदर्शन मूलत: अनीश्वरवादी है । जनदर्शन में ईश्वरत्व में ईश्वरत्व का आरोप निराधार नहीं है । यद्यपि निश्चय अथवा महानता का द्योतन भोतिको
अथवा महानता का द्योतन भौतिक ऐश्वयों से नहीं किया नय से ईश्वरकृपा नहीं है फिर भी व्यवहार से उसकी गया है क्योंकि वह ऐश्वर्य अन्यो के भी सम्भव है। उनकी कपा का उल्लेख मिलता है। वस्तुत: फल-प्राप्ति कानु- ईश्वरता का मापदण्ड कर्ममल से रहित आस्मा की शुद्ध