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________________ "पुष्पदन्तकृत-जसहरचरिउ में दार्शनिक समीक्षा" 0 श्री जिनेन्द्र जैन साहित्य-निर्माण की दृष्टि मे मध्ययुग (लगभग ६०० है साथ ही अन्य भारतीय दर्शनों पर भी अपनी लेखनी ई. से १७०० ई. तक) जैन साहित्य का स्वर्ण-युग माना चलाई है। भारतीय दर्शनों के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने जैन जाता है। क्योंकि इस अवधि मे जैन कवियो ने सस्कृत, धर्म व दर्शन से साम्य न रखने वाले सिद्धान्तों की समीक्षा प्राकृत एवं अपभ्रंश इन तीनों ही भाषाओं में काव्य-ग्रन्थों प्रस्तुत की है। यहां उन्हीं सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला की रचनाएं की हैं, जिनमे जीवन के विभिन्न पक्षो को गया है। प्रतिपादित करते हुए तत्कालीन धर्म एव दर्शन पर विशेष पशु हिंसा सम्बन्धी समीक्षा:प्रकाश डाला गया है । १०वी शताब्दी मे अपभ्रण भाषा यज्ञ में पशु-बलि सम्बन्धी वेद सम्मत मान्यता तथा के महाकवि पूष्पदन्त एक उदमट व समर्थ कहिए है. उनकी (वेदा) अपौरुषेयता पर कवि ने प्रश्नचिन लगाया है । ग्रन्थ मे नरिणत पशु-बलि हिमा के सन्दर्भ में यशोधर नामक ग्रन्थो की रचना करके अपभ्रश साहित्य में विशेष को माता के मुख से यह कहना कवि को उचित प्रतीत स्थान प्राप्त किया है । 'महापुराण' मे तीर्थंकरो एव महा- नहा हाता कि-"जगत में धर्म का मूल वेद-मार्ग है। पुरुषों के जीवन-चरित्र का विवेचन है। श्रतपञ्चमी के राजा को वेदों का ही अनुशरण करना चाहिए। वेदों में माहात्म्य को स्पष्ट करने के लिए कवि ने वैराग्य एव पशु-बलि को धर्म कहा गया है। क्योंकि पशु को मारने व पुरुषार्थ प्रधान “णायकुमारचरिउ" नामक चरित ग्रन्थ का खाने वाले स्वर्ग एवं मोक्ष के अधिकारी होते है। पशुसुजन किया एव "ज सहरचरिउ" मे अहिंसा प्रधान सिद्धांत बलि को उचित नही ठहराते हुए कवि ने उसके खण्डन मे की पुष्टि की है। पशु-हिंसा करने वालों को महापापी व मायाचारी बताया है। तथा वेद सम्मत उक्त पशु-बलि के सिद्धान्त का अनुतत्कालीन समाज में व्याप्त नैतिक, धार्मिक व दार्श शरण करने वाले को नरकगामी भी कहा है। निक बुराइयो पर उन्होने अपनी लेखनी चलायी और एक यह सर्वसाधारण मान्यता है कि वेद अपौरुषेय हैं। शाश्वत तथा वास्तविक मानव-धर्म का प्रतिपादन किया उन्हें किसी ने भी नहीं बनाया, किन्तु कवि इस पर अपना है। उनके द्वारा इस प्रन्थ में बताया गया यह मानव-धर्म आक्षेप लगाये हुए कहता है कि विचार करने से प्रतीत (सच्चा धर्म) समस्त गृहस्थ ग्राह्य होने के कारण उन्हे एक होता है कि शब्दों की पक्तियां आने आप ही आकाश सच्चा समाज-सुधारक भी कहा जा सकता है। यहां उनके में स्थित नहीं रह सकती, वायु से संघर्ष होने पर ही शब्द द्वारा रचित जसहरचार उ मे प्रतिपादित दार्शनिक मतों उत्पन्न होता है और आकाश में फैल जाता है। तथा की समीक्षा प्रस्तुत की गई है। मनुष्य के मुख से वह वर्ण और स्थान एव सकेतमय (अर्थजसहरचरिउ एक अहिंसा प्रधान काव्य-ग्रन्थ है, जिसमे मय) बुद्धि द्वारा भाषाओं के भेदानुसार निकलता है। ऐसी कवि ने यशोधर के पूर्व भवो का वृत्तान्त प्रस्तुत किया है। अवस्था मे यह कहना कि वेद अपौरुषेय (स्वयम्भ) है, और यह बताया है कि जीव-हिंसा करने से व्यक्ति अनेक उचित प्रतीत नहीं होता। याज्ञिकी हिंसा, मांस-भक्षण भवों तक अलग-अलग योनियो में जन्म लेता रहता है। और रात्रभोजन को धर्म का प्रतीक मानने वाले पौराणिक महाकवि पुष्पदन्त यद्यपि जन थे, इसलिए उन्होने जैन धर्म मतों की आलोचना/समीक्षा कवि ने अपने अन्य प्रन्यो मे बदर्शन के सिद्धान्तो की विशद् व्याख्या तो प्रस्तुत की ही भी की है। णायकुमारचरिउ नामक उन की एक अन्य
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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