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________________ भट्टारकहर्षकीति के पद' कोहि अठारा तुरंगम राज, कौड़ि चौरासी पागी। मोह नगर को राजा खायो, पीछ पैस्या गामा । लख चौरामी गज रथ सोहै, सुरति धर्म सों लागी। दुरमति दादी दोहि बडो दादी, मुख देखत ही मुवा। नौ निधि रतन चौदा घरि राज, मन चिता सब भागी।। मगल रूप बटी बधाई, तब याचिमण हवा । अत मुहूरत एक ही माही, लोल्या मुक्ति सौं लागी। 'भाउँ' नाम धरायो बेटा को, बरणी जोसिन जाई । ज्यों जल मांडी कंवल निति ही रहै, नहीं भयो रस भागी। कहत 'हर्षकीति' सुणो माधो, सब घट मांहि समाही। 'हरकोति' सेवग की लजां, दीजे मुक्ति मोहि मागी। पूर्ववर्ती पद रचयिता रत्नकीति और कुमुदचन्द्र द्वारा समकालीन कवि बनारसीदास ने अपने सरस और अपने पदों में हर्षकीति ने भी इन प्रसंग में दो भावपूर्ण पद लिखे हैं। बिना किमी अवगुग के परित्यक्ता राजुल पद श्रेष्ठ रहस्यवादी काव्य 'समयसार नाटक भाषा' म 'चेतन तत्त्व की पर परिणति और स्वरूप-स्थिति को अनेक ___का 'परेखा' किस कठोर हृदय को द्रवित नही कर देतादृष्टान्तो के माध्यम से माधुर्यपूर्ण शैली मे गमझाया है। हम बोल बोले की परतीति। इसके विपरीत कविवर हर्ष कीर्ति ने सर्वमान्य लोक शैली समुदविज सुत कोन संभारो, आठ भवन की रीति । में 'चेतन' तत्त्व को रूपायित कर साधारण जनता में नारायण उपदेस कराये, पसु सब आणि जमीति । अपना स्थान बनाया है। किसी भी कृत्रिम शब्दावली हमागे दोम नहिं जगजीवन, डारत हो यह रीति । दष्टान्त ओर रूपक अलंकार के मोह मे न पड़कर सर्वबोध औगण बिन हमको तजि चाल, देखो क्यों न अनीति । भाषा में 'चेतन' का उद्बोन हर्षकीति की व्यापक जन- हरषकीरति' प्रभु प्रीति निबाहो, हारह सारी मजीति। प्रियता का सकेत है : प्राकृतिक उपादानों में पावसकालोन मेष पपीहा द्वारा अविनासी जीवड़ा चेतनी हो। प्रियतम की टेर ने राजुल की विरह-वेदना और अकुलाहट तुम चेतन माया बाधो फिरो बादि टेक।। को बढ़ाया है। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश के अरिरिक्त हो माया तुम्हारी जाति न पांति न, नाल की वरनारी। पूर्ववर्ती हिन्दी काव्य परम्परा के अनुकूल हर्षकीति का इन तो तुम से मोहा ठिगे है, काहे को बढ़ाबत रारी। एक भावपरक पद है :हा जिह कुल जाय जाय उपजी तिहा ही रह्यो ललचाई। गरजन लागे री धन बादर । ते दुख नरक निमोदि सहे है, ते उ डागे बिसराई। नेमि बिना कही कैम रही री आलि, क्यो उतर दुख सागर। मान पि । सुत यध सहोदर, सजन भिन्न अब लोय । पपीहड़ा पीव पीव रटत है आली, मा मन को धरत न धागर इनके मोह जाल विचि, वेबा चेतन पद सोय । सोचत मोचत रयण दिनारी आलि, पसुवन के भये आगर। हृदय चेत मूढ मति ग्यांनी, चेनन पद तुब मांहि । हरषकीति प्रभु आइ मिलो अब, राजमती करि आदर । 'हरकिरति' जिनवर पद गाव, रहे चरण चित लाइ। गुरु कृपा और सत्संग के बर पर ममता, काम-क्रोध, उत्तर "ध्य युग में प्राप्त हिन्दी के विशाल जैन पद तृष्णा, मान, अभिमान, दुर्मति, द्रोह आदि-आदि कुभावो साहित्य की विशेषताओं के परिप्रेक्ष्य में उक्त विवेचन को से मुक्त चेतन का अनुपम मित्र भीर्षकीति ने लोक- परखने ५र यह स्पष्ट हो जाता है कि हर्षकीति किसी जीवन से उतारा है . बंधी बधाई लीक पर चलने के हिमायती नहीं है। अपने साधो मूला बेटो जायो। भक्तिभाव को उन्मुक्त होकर सरल और प्रभावोत्पादक गुरु परताप साध की संगति, षोदि कुटुंब सब पायो। काम्यशैली में प्रकट करना ही उनका लक्ष्य है। कविवर ममता माई जनमत पाई, खाया सुख दुख भाई। हर्षकीति के अद्यतन अाँचत कतिपय पद दिगम्बर जैन काम क्रोध काका दोय खाया, खाई त्रिसना बाई। मन्दिर कुम्हेर जिला भरतपुर में प्राप्त एक गुटके 'स्तुति पाप पुन्य पड़ोसी खाया, मान अभिमान दोय खाया। सत्रह' में संग्रहीत हैं। 00
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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