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________________ २६, वर्ष ४५, कि.१ अनेकान्त अवध दिन पूरे होत बजाइ । पुदगल को परिवर्तनशीलता मे निर ताता मानते मिर f. करन करत कंप को, छट 1 नाहि गई हए की जैन दार्शनिको ने उसके अस्तित्व को अस्वीकार करि कछ मोनि ममनि घट भीनरि, फल : मुकृ . कमाइ। नहीं किया और न शकराचार्य की तरह उसे 'भाया कह खोटो विण न रहैत नहि पदयरदा, मुहइ दीये परा। कर मात्र 'म्रम' प्रतिपादित किया। शकर का दार्शनिक दूरि विदेम विषम अनि माग, संगी न कोइ निसाइ। शब्द 'माया' सन्त और भक्त कवियो मे पर्याप्त मात्रा में 'हषकीरति' तुम साव छनो, अब भलो न फैट गहाइ। व्यवहन हुआ। धन-दौलत और वैभव का प्रतीक मानकर इसके त्याग की भी सीख दी गई।,जैन भक्तिकाव्य परमरा संत और क्त कवियो के अनुकरण पर जैन कवियों से हटकर केवल हर्षकीति ने 'उत्ख' अलकार के रूप में ने प्रबोधन के बहाने 'दुष्ट' 'ठ' आदि हीन विशेषणो के माया का तथ्यात्मक स्वरूप प्रस्तुत किया है :--- प्रयोग के साथ मन को फटकारने की प्रवनि नदी अपनाई माया मार रे प्यारे नान, सुन नर माला मारै रे। है निन्तु 'चेतन' को विषयामक्ति से विरक्त होकर अपना माया कारणि करू पाड, भारथ करि भरि बूथा। 'दर्शन' एव ज्ञान' समन्बित स्वरूप पहचानने की प्रेरणा माया कारिण मजन कटूंबी, कार करि कलह बिगूता । अवश्य दी है । हर्षकोति का कथन है : माया कारण रामदेव जी, करि बनमास बिरच्या। महीजादा कचरा कांदा धो रे माया माता माया माता, माया माई चात्रा। कछु चेतन प्यारे बांज हो रे । माया कारण जहर जराव, सकन माने मीना। धर्म न सकल नर का आणि मिलाया, कुल बल मोबन भाया माया नोगी माया भोगी, माया रण राजा। भोगोपभोग का लेपणा नाही, कार अनन विहाया । 'हाकि रति' ते धनि मुनिवर, छाडि कोया अपकाजा । करमन विह्वल कीया रूप गुमाया, नरक निगोदि घ्रमाया। 'माया' के लोभ मे कष्ट पाने वाले कौरव, पाडव, असुचि विषारी माझि घर राषे, तू त्रिभुवन गया। भरत और राम की चर्चा करके उक्त पद मे माया के षलक में अजहु तेरा भरम करदा, दरसन .ान गुरादा। आकर्षण से दूर रहने की प्रेरणा दी है। ऐसा ही प्रभाव'हरषकीर्ति' प्रभु आयो, दिषालो ज्यों बदली वन चंदा । कारी पद हर्षकीति ने मोह और लोभ के विरोध मे लिखा 'समवशरण' उत्सव के आयोजन और भक्ति मे सभी है :प्रसिद्ध भक्त कवियों ने दो-चार पद अबश्य लिखे ही है। रे काइ मोह नी कुंडी रे। हर्षकीर्ति इस अवसर पर खिरने वाली जिनेन्द्र की बाणी मोह नी कूडी रे कांई, मोह न कूडी है रे । सुनने को आतुर है। यह बाणी सप्त तस्व और षद्रव्य जानतु है निहबल नहिं काई, इहि जुग नाथि जुडी रै। के प्रतिपादन के साथ-साथ आस्थावान् श्रोता को मोक्ष लोभ ही लागि भार अति भरियो, जोबत नाम बूडी रै। भी प्रदान करती हैं : ए विकलप थयो बलदेव भवाणु, राम रुचं शिव रूडी रै। 'हरषको ति' भवनां सुख ही, जिन कचियानी घड़ी रै। पावन धुनि सुनि जिनराज की। अक्षर रूप अनक्षर साषित, भाखित विध शिवकार की। 'सोरठ' राग में लिखित एक कथात्मक गीत में हर्षसप्त तत्व नव भाव द्रव्य छह, नय प्रमाण गुण गाज की। कीति राजा 'भरत' का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए एक जा प्रसंग पाय परमारय, तृबक भये शिव माज की। अनुकरणीय तथ्य प्रतिपादित करते है कि अपार धन और अस्ति कचित नासति बोलतु, चर थीर वस्तु समाज की। वैभव के मध्य रहकर भी मनुष्य अपरिग्रह और विरक्ति बंदतु नद हेत करि चेतन, मुंचति वह अप लाज की। भाव का निर्वाह कर मोक्ष का अधिकारी हो सकता हैफाटत मोह तम सजतु ग्यान मद, स्यादवाद बरसात की। भरथ भूप घर ही मैं वैरागी।। 'हरकीरति' जिन की धुनि सुनियां, सहस बतीस मुकट बध राजा, सेष कर बड़भागी। सफल घड़ी सो आजको । छिनबसहस अतेवर जानौं, नहीं भयो अनुरागी।
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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