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________________ अनेकान्त बल से चेम्पु या चम्पु के नाम से प्रसिद्ध हुआ होगा'। वर्णित राजवर्मा ही काञ्ची के अधिपति पल्लव नपनि डा. हीरालाल जैन और डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये है। पल्लव नृपति शैव मतावलम्बी थे और उसके प्रचाका भी यही मत है कि सम्भव है यह आर्यभाषा का शब्द रक भी, इनका राज्यकाल ई. ६६० से ७२५ तक माना न होकर द्राविड़ भाषा का शब्द हो । गया है। डा० छविनाथ त्रिपाठी ने "चम्पूकाव्य का आलोच- उक्त विवेचन से इतना तो स्पष्ट है कि चम्पू काव्य नात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन" ग्रन्थ मे चम्पूका न्य की का उद्भव दक्षिण भारत में हा। दण्डी चम्पूकाव्यों से निम्न विशेषताएं बताई है--यह गद्यपद्यमय होता है, परिचित थे, किन्तु वे चम्पूकाव्य कौन-कौन थे, यह अब अंकों से युक्त तथा उच्छवासो मे विभक्त होता है, उक्ति भी रहस्य बना हुआ है। इस गुत्थि को सुलझाने के लिए प्रत्युति एव विष्कम्भक नही होते आदि। किन्तु ये विशेष- हमे कन्नड के चम्पूकाव्यों की ओर जाना होगा। उपलब्ध ताएं सभी चम्पू काव्यो में प्राप्त नही होती अतएव चम्पू कन्नड़ साहित्य मे भी दसवी शताब्दी के ही चम्पू काव्य काव्य की कोई निष्पक्ष और पूर्ण परिभाषा नहीं दी जा प्राप्त होते हैं, जो सुप्रसिद्ध जैन कवि पम्प, पोन्न और सकती तथापि डा. छविनाथ त्रिपाठी को निम्न परिभाषा रन्न के हैं। किन्तु इससे पूर्व भी चम्पू शैली के काव्यों उचित जान पड़ती है। और चमुओं के नाम उपलब्ध होते हैं। नृपतग (८१४गद्यपद्यमयं श्रव्य 'सम्बन्ध' वहुवणितम् । ८७७ ई०) द्वारा लिखित "कविराजमार्ग" नामक लक्षण साल कृतं रस मिक्तं चम्पुकाव्य मुदाहृतम् ॥ ग्रन्थ में विमलोदय, नागार्जुन, जयबन्धु, दुविनीत श्रीविजय, चम्प काव्यों ने सर्वप्रथम किस भाषा मे जन्म लिया कवीश्वर आदि अनेक कन्नड़ कवियों का नामोल्लेख हुआ यह प्रश्न भी कम विचारणीय नहीं है, सस्कृत के उपलब्ध है। इनमें श्रीविजय का उल्लेख दुर्गसिंह (११४५ ई.) ने चम्पू काव्यों में त्रिविक्रम भट्ट का 'नलचम्पू' प्रथम है किया है और उनकी कविता को कवियों के लिए दर्पण इसका समय ६१५ ई० स्वीकार किया जाता है, यतः एवं दीपक बताया है। भंगरम (१५०८ ई०) और उन्होंने राष्ट्रकूट नायक तृतीय इन्द्र (ई० सन् ११४-१५) दोड्डय्य (१५५० ई.) ने कहा है कि श्री विजय ने "चन्द्रके आश्रय मे उक्त चम्पू रचा था। इस राजा के नौसारी प्रभपुराण" चम्पू शैली में लिखा है"। श्री विजय का वाले दानपत्र के लेखक यही त्रिविक्रम भट्ट थे। इनका एक समय ८वीं शती स्वीकार किया जाना चाहिए यत: नपतुंग अन्य चम्पू "मदालसा चम्पू" भी प्राप्त है। (८१४-८७०) ने इनका उल्लेख किया है। दूसरा महत्वपूर्ण चम्पू आचार्य सोमदेव का 'यशस्ति- इसी प्रकार गुणवर्म (प्रथम) का समय ९०० ई० लक चम्पू" है। उन्होंने भी राष्ट्रकूट राजा कृष्णराजदेव माना गया है। केशिराज ने गुणवर्म के "हरिवश" का (तृतीय कृष्ण) समय ९४५-९७२ ई० के समय मे उक्त उल्लेख किया है, जिसका अपरनाम "नेमिनाथपुराण" भी चम्पू समाप्त किया था। अत: यशस्तिलक का काल १०वी है। विद्यानन्द '(१५५० ई.) ने अपने "काव्यसार' शती का उत्तरार्ध सिद्ध है। नामक संकलन ग्रन्थ में गुणवर्म के 'शुद्रक' ग्रन्थ का उल्लेख चम्पू काव्यों की उपलब्ध परिभाषाओ मे दण्डी की किया है तथा उसके गद्य-पद्य को उद्धृत किया है। परिभाषा सबसे पहली है । दण्डी का समय सप्तम शताब्दी "काव्यसार" में सभी उदाहरण चम्पू काव्यो के हैं । अतः या अष्टम शताब्दी का पूर्वाधं स्वीकार किया जाता है वे इस अनुमान को पर्याप्त आकार मिल जाता है कि 'शद्रक' बरार (विदर्भ) निवासी थे और बाद में काञ्ची के पल्लव चम्पू ग्रन्थ रहा होगा इस ग्रन्थ मे गगराज एरेपथ्य (८८६. राजाओं के आश्रय मे रहे थे। यह जनश्रुति मुविख्यात है ६१३ ई०) की तुलना शूद्रक से की गई है तथा कन्नड़ कि पल्लव नपति के राजकुमार को शिक्षित बनाने के जैन कवियों की यह विशेषता रही है कि वे एक लौकिक लिए उन्होने अपने प्रख्यात ग्रन्थ काव्यादर्श की रचना की काव्य अपने माश्रयदाता के गुणगान में और एक धार्मिक थी। कई लेखको का यह भी मत है कि काव्यादर्श मे काव्य तीर्थंकरों को जीवनी से सम्बद्ध लिखते रहे है, इसी
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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