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संस्कृत बन चम्मू और चम्पूकार
लिए पं० के० भुजबली शास्त्री ने लिखा है-इस (उक्त) चिन्तामणि, यशोधर महाराजचरित (यशस्ति लक) और परम्परा के प्रवर्तक गुणवर्म हैं, परवर्ती कवि पम्प, पोन्न नीतिवाक्यामृत नामक ग्रन्थों की रचना की थी", और रन्न ने यही पद्धति अपनाई है। पम्प से पहले ही पं० कैलाश चन्द्र शास्त्री ने "अध्यात्मतरङ्गिणी" की कन्नड़ में चम्पू शैली मे सम्पन्न ग्रन्थ रचने का श्रेय गुण- भी सोमदेव की रचना बताई है। श्री नाथराम प्रेमी के वर्म को प्राप्त है।
अनुसार चालुक्यवंशीय अरिकेसिन् तृतीय के दानपत्र में इस प्रकार यह कहना असमीचीन जान नही पड़ता सोमदेव को "स्याद्वादोपनिषत्" का कर्ता कहा गया है" कि दण्डी जिन चम्पूकाव्यो से परिचित रहे होगे वे श्री डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने अध्यात्मतरंगिणी का दूसरा नाम विजय आदि के चम्पू ही रहे होगे । “कविराजमार्ग" भी योगमार्ग बताया है। इनमें से केवल "यशस्तिलक", मौलिक ग्रन्थ नही है। दण्डी के "काव्यादर्श' का ही "अध्यात्मतरगिणो" तथा "नीतिवाक्यामृत' ही प्राप्त कन्नड़ रूपान्तर है। इससे यह सिद्ध है कि दण्डी दक्षिण तथा प्रकाशित हैं। मे रहे और कन्नड काव्य शास्त्रियों से उनकी घनिष्टता
अपने रचनाकाल के विषय मे स्वयं सोमदेव ने लिखा रही। “गद्य-पद्यमयी काचित चम्पूरित्यभिधीयते" में हाक-शक संवत् ८८१ (६५६ ई.) में सिद्धाथ काचित् पद के द्वारा उन्होने चम्पकाव्यों की अल्पता और के अन्त
के अन्तरगत चैत्र मास की मदनत्रयोदशी (शुक्लपक्ष की उनके प्रति उपेक्षा ही सुचित की है। ऐसी उपेक्षा अन्य त्रयोदशी) मे जब श्री कृष्णराज देव पांड्य, सिंहल, चोल भाषा के काव्यों के प्रति ही होती है। अतः लगता यही है व चेलम प्रादि राजाओ पर विजयश्री प्राप्त करके अपना कि दण्डी कन्नड़ के चम्पुओ से ही परिचित थे।
राज्य माल्याटी (मेलपाटी) मे वृद्धिंगत कर रहे थे तब ___ अपने उद्भव के साथ ही चम्पूशैली अत्यधिक लोक- यशस्तिलक समाप्त हुआ" । दक्षिण के इतिहास से विदित प्रिय हुई और विपूल मात्रा मे चम्पूकाव्यों का सृजन होता है कि उक्त कृष्णराजदेव (तृतीय) कृष्ण राष्ट्रकट हआ। डा० छविनाथ त्रिपाठी ने 'चम्पूकाव्यो' का आलो. या राठौर वश के महाराजा थे और इनका दूसरा नाम चनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन" अन्य में प्रकाशित- अकाल वर्ष था। इनका राज्यकाल कम से कम शकसंवत् अप्रकाशित लगभग २५० चम्पकाव्यो की सूची दी है। ८६७.८६४ (९४५-६७२ ई०) तक प्रायः निश्थित है। जैन चम्पकाव्यो की परम्परा का परिचय यहां हम प्रस्तुत अतः सोमदेव का समय ई० को १०वी शताब्दी प्राय: कर रहे है।
निश्चित मानना चाहिए। यशस्तिलक चम्पू:
सोगदेव महान् तार्किक और अक्खड़ किस्म के विद्वान् न केवल जैन चम्पूकाव्यों अपितु समग्र संस्कृत चम्पू. थे। उन्होने स्वयं कहा है कि 'मैं छोटों के साथ अनुग्रह, काव्यों मे यशस्तिलक का स्थान अप्रतिम है। इसके बराबरी वालो के साथ सुजनता और बड़ो के साथ महान रचयिता आचार्य सोमदेव का जीवन चरित संस्कृत के आदरभाव का बर्ताव करता हूं। किन्तु जो ऐंठ दिखाए है, अन्य कवियों की भांति अन्धकाराछन्न नहीं है। यतः उसके लिए गर्वरूपी पर्वत को विध्वंस करने वाले मेरे उन्होंने यशस्तिलक तथा नीति वाक्यामत मे अपने सम्बन्ध वववचन कालस्वरूप हो जाते हैं। वाद के समय वृहस्पति मे पर्याप्त सूचनाएं दी हैं। तदनुसार वे देवसंघ के तिलक भी मेरे सामने नही ठहर सकते'। काव्यकला के विलास आचार्य यशोदेव के प्रशिष्य और सकलनार्तिक-घडामणि, में उनका कौशल कम नहीं है, उनकी बुद्धिरूपी गो ने चम्बितचरण श्रीमान् नेमिदेव के शिष्य थे। उनके बड़े जीवन भर तर्करूपी घास खाया पर उसी से काव्यरूपी भाई का नाम भट्टारक महेन्द्रदेव था तथा स्याद्वादाचलसिंह, दूध उत्पन्न हुआ है। उनके राजनैतिक शान के सन्दर्भ ताकिकचक्रवर्ती, वादीभपचानन, वाक कल्लोलपयोनिधि, में "नीतिवाक्यामत" ही निवर्शन है । एक जगह तो उन्होविकलराज उनकी उपाधियाँ थी। उन्होंने षण्णवति ने शब्दार्थ रस मे समग्र लोक को अपना उच्छिष्ट कह प्रकरण, युक्तिचिन्तामणि सूत्र, महेन्द्र मातलिसंजल्प, युक्ति- डाला है"।