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प्राकृत साहित्य में स्पावाद : चितन
प्रयोग नहीं हुआ है, लेकिन अनेकान्त का कथन करने के नित्य ही है और अनित्य ही है। ही का कथन करने लिए प्रश्नवश व्यवहार चलाने को सप्तभगो कहा गया वाला वाक्य दुर्नय कहलाता है।
'स्यात्' शब्द को निपात कहने का तात्पर्य यह है कि - इस प्रकार सिद्ध है कि आगम कालीन साहित्य मे
स्यात् अव्यय है। अतः इसका अर्थ सशय या शायद नहीं स्याबाद की सत्ता विद्यमान है।
है। स्यात् किचित और कथचित का सूचक है।। ____ अनेकान्त स्थापन काल में स्याद्वाद---आगम
____ स्यात्' वस्तु को सापेक्ष सिद्ध करता है। वस्तु किसी कालोन साहित्य मे स्याद्वाद के अस्तित्व का चिन्तन करने
अपेक्षा से नित्य है और अन्य अपेक्षा से वस्तु अनित्य भी के पश्चात् अनेकान्त स्थापनकालीन प्राकृत साहित्य मे
है। इस तरह स्यात् द्रव्य के गार्थ स्वरूप को बतलाता आचार्य सिद्धसेन के सम्म इसुत्तं के अध्ययन से ज्ञात होता
है। चाहे प्रमाण का विषय हो या नय का वह सापेक्ष हो है कि इसमें अनेकान्त का गम्भीर विवेचन हुआ है।
तो सम्यक और निरपेक्ष हो तो मिथ्या होता है । स्यात् उन्होंने अनेकान्त को व्यवहार का कारण और तीन लोक
जहां वस्तु के एक धर्म को प्रकाशित करता है वही यह का गुरू कहकर नमस्कार किया है। स्यात् शब्द का प्रयोग किये बिना द्रव्य को सामान्य-विशेषात्मक द्रव्याथिक
भी 'सद्ध करता है कि उसके प्रतिद्व-द्वो धर्म को भी सत्ता
है। उस ममय अन्य धर्म गौण हो जाते है। और पर्यायाथिकनय द्रव्य पर्याय, नित्य-अनित्य आदि रूप
'स्यात्' शब्द का प्रयोग प्रत्यक पाक्य के साथ न से सापेक्ष मानकर विवेचन किया है और एकान्त मन म
लगाने वालो के लिए कहा गया है कि वे अमनमय भोजन वन्ध और मोक्ष का अभाव भी दिखलाया है यही नहीं
छोड़कर विषमय भोजन करते है। क्योकि 'स्यात्' के बल्कि स्यात् शब्द का प्रयोग किये बिना अतीत आदि
बिना वस्तु का स्वरूप प्रतिपादित नहीं होता है।'। यही सास भंगो को दिखाया गया है।
कारण है कि वस्तु को स्यात् सापेक्ष पूर्वक नही जानने न्यायसाहित्य में स्याद्वाद--आचार्य देवसेन कृत
वालों को आचार्य ने मिथ्या दष्टि कहा है। नयचक और माइ लघवल नयचक्र (द्रव्यस्वभाव प्रकाशक),
सातभंगी-- माइल्लधवल ने सात भगों के नाम जिमे क्रमश: लघु और वृहद् नय चक्र कहा गया, प्राकृत
बतला कर प्रमाण, नय और दुनय र सात भग बतलाये भाषा: निपख है । इ में भी अनेकान्त और स्याद्वाद का उल्लेख हुआ है।
हैं। स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्ति नास्ति, लघनयचक्र में स्याद्वाद.-देवसेन के नयचक्र मे नय
स्यात् अवक्तव्य, स्यादस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति को अनेकान्त का मूल" और नयो के समूह को अनेकान्त
अवक्तव्य और स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य । यह प्रमाण कहा गया 2,। स्याद्वाद को समझने के लिए आचार्य ने
सप्तभगी है। क्योकि इसमे वाक्य स्यात् पद सहित है।
इसी प्रकार म स्यात् पद के साथ 'एव' पद पूर्व नय नय को समझना आवश्यक माना है।
भगी भी बन मरती है। द्रव्य स्वभाव नयचक्र में स्याद्वाद-माइल्ल धवल
माइल्ल धन ल न स्याद्वाद सिद्धान्त का अनुकरण का ने नयचक्र मे एकान्त वादियों के सिद्धान्तो को मदोष तला
फल बतलाते हुए कहा है कि स्याद्वाद दृष्टि से युक्त कर उनकी उपमा जन्मान्धो मे दी है।
व्यक्ति मभी तरह की क्रिया से कर सकता है। इस समावाद शब्द 'स्यात्'-'वाद'क मिलने से बना है। सिद्धान्त में किसी तरह का विरोध नहीं है। बाद का अर्थ कथन होता है। स्यात् पद । निम्नाकित स्यावाद जैन धर्म का पर्यायवाची है। इस अनुपम विशेषताए बनलाई गई है,
सिद्धान्त की जो उपयोगिता और आवश्यकता भगवान १. स्यात् सर्वथा नियम का निषेध करने वाला है। महावीर के काल मे थी उसमे अधिक आज है। इस २. रयात् निपात् रूप है।
परमाणु युग मे विश्वशान्ति के लिए उत्पन्न खतरा ३. स्यात् वस्तु को सापेक्ष सिद्ध करता है। स्थावाद के सिद्धान्त के आधार पर ही टाला जा सकता स्यात् पद इस नियम का निषेध करता है कि वस्तु है।
(प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली)