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संचयित-ज्ञानकण
-मैं स्वभावत: एक हूं, चैतन्य हूं, रागादिक शून्य हूं, यह जो सामग्री देख रहा हूं पर-जन्य है, हेय है, उपादेय तो निज ही है।
-रागादिक गए बिना शान्ति की उद्भति नहीं। प्रतः सर्व व्यापार उसी के निवारण में लगा देना ही शान्ति का उपाय है।
-मैं उसी को सम्यग्ज्ञानी मानता हूं जिसकी श्रद्धा में मान-अपमान से कोई हर्ष-विषाद नहीं होता।
-गृहस्थ अवस्था में नाना प्रकार के उपद्रवों का सद्भाव होने पर भी निर्मल अवस्था का लाभ अशक्य या असम्भव नहीं।
-इस ससार-वन में हमने अनन्त दुःख पाए। दुख का मूल कारण हमारा ही दोष है। हम 'पर' को अपराधी मानते हैं, इसी से दुःखी होते हैं।
-अन्तरग की शान्ति पुरुषार्थ अधीन है, जब शुभ अवसर आवेगा, स्वयमेव कार्य बन जावेगा।
-हमने केवल 'पर' को ही उपकार का क्षेत्र बना रखा है। मैं तो उसे मनुष्य ही नहीं मानता जो स्वोपकार से वंचित है।
-केवल बाह्य पदार्थों के त्याग से ही शान्ति का लाभ नही, जब तक मूर्छा की सत्ता न हटेगी। बतः मूर्छा घटाना ही पुरुषार्थ है ।
--अभिलाषा अनात्मीय वस्तु है। इसका त्याग ही आत्म-स्वरूप का शोधक है। -मोह को दुर्बलता भोजन की न्यूनता से नहीं होगी, किन्तु रागादिक के त्यागने से होगी। -ऊपरी लिवास से अन्तरग की चमक नही आती।
-कर्मोदय की प्रबलता देखकर अशात न होना। अजित कम का भोगना और समता-भाव से भोगना यही प्रशस्त है।
-औदयिक भाव ही कर्मबन्ध के जनक हैं और वे भाव ही जो केवल मोहनीय के उदय में होते हैं, शेष कुछ नही कर सकते।
-पर-पदार्थ के साथ यावत् सबंध है, तावत् ही संसार है । -जितनी शान्ति त्याग करते समय रहेगी, उतनी ही जल्दी संसार से छुटकारा होगा।
-वर्णी जी सौजन्य : श्री शान्तोलाल जैन कागजी
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