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३२, वर्ष ४५, कि०२
अनेकान्त
सापेक्ष हैं, इस भांति आत्मा का स्वरूप है । जब कि आज सुधार हेतु भी नैतिक-शिक्षा समितियां स्थापित करने की कुछ आत्म-वादियो ने प्रायः गाथा की प्रथम पक्ति मात्र चिन्ता तक भी की जाने लगी है, यानी कीचड़ में पैर को ग्राह्य मान दूसरी पक्ति को उसमे घटित करने की सानो और फिर धोओ। खेद ! आज जो लोग त्याग किए सर्वथा ही उपेक्षा कर दी है। इसका परिणाम यह होता बिना जो सम्यग्दर्शन प्राप्ति और आत्म-दर्शन कराने की जा रहा है कि आत्मवादी भी मिथ्यारूप एकागी मार्ग पर धुन मे लगे हैं, उन्हें सोचना चाहिए कि उन्हें कितना बढ़ते जा रहे है और साधारण व्यवहार आचरण में भी आत्म-दर्शना हुआ और कितना सम्यग्दर्शन ? या उनके मुंह मोड़ने लगे हैं।
उपदेशों से कितनो ने आत्मदर्शन या सम्यग्दर्शन प्राप्त आत्मा के अरूपी होने का तात्पर्य हे उसमें पुद्गल
किया? यदि दो-चार हो तो नाम सोचे। आगमानुसार सम्बन्धी उन गुणो का अभाव, जो इन्द्रियो व मन को
तो ये विषय केवलीगम्य है और आत्मदर्शन की अग्राह्य और रागी छपस्थ की पहं के बाहर है, ऐसे में
प्राप्ति विराग-क्षण के आधीन है। अन्यथा, आचार्यों ने इन्द्रियाधीन गगी छमस्थों द्वारा अरूपी आत्मा का ।
राग-भाव के त्याग पर बल न देकर, इस धर्म को वीतसाक्षात्कार सर्वथा असम्भव है। फलत: छद्मस्थो का कर्तव्य
गग का धर्म न कहकर, सरागियो का धर्म कह दिया
होता और हमारे देव भी वीतरागी देव न होकर रागीहै कि जो आँख, कान, न क मन आदि ज्ञानन्द्रियाँ उन्हे
देव होते। मिली हैं उनका उपयोग बाह्य-पदार्थों की सही जानकारी मे करें---बारह भावनाओं के द्वारा उनी असारता का एक ने कहा- सम्यग्दर्शन-आत्मदर्शन तो चौथे गुणचिन्तन करे और उसे विरक्त होवें। पर से अलग होकर स्थान में हो जाता है। तब हमने पूछा--- ये तो बताओ आत्मा म्वय ही स्त्रभव !: स्वय नेह जापगा। स्वभान कि आपको चौथ गुण स्थान है या पहिला? और आपको में आने का प्रयत्न नहीं होता। जैन के नूसार तो पर उस ज्ञान के मे हुआ? क्या, अगम मे कही छमस्थ को से विरक्त होना ही वीतरागता है--स्व मे आने का प्रयता ।
इसके ज्ञान हो जाने की बात कही है? क्या केवलो के भी तो स्व के प्रति राग-भाव है और राग-भाव जैन मे सिवाय अन्य कोई इस बात को जान सकता है? आदि। सर्वथा वजित है। जैन के अनुसार तो जितनी-जितनी सो लोगो ने विरक्तता और त्याग के बिना, अपने विरागता है उतनी-उतनी जैनत्व के प्रति निकटता और परिग्रह-पाषण के पाप को छुपाने के लिए त्याग-रूप जितना-जितना राग उतनी-उतनी संसार परिपाटी को चारित्र के कठिन श्रम से बचते हए मनगढन्त बातें गढ नटिके। क्यो कि जन-मत मे विरक्तता मात्र ही आत्म- ली है और उल्टे मार्ग पर चल ।
ली है और उल्टे मार्ग पर चल पड़े हैं-ससार के पदार्थों ज्ञान और मुक्ति का द्वार है।
की असारता जैसी असलियत को जान कर उनमे विरक्ति हमारे पूर्व महापुरुषों ने वैराग्य भाव से आत्म-दर्शन
लेने की बजाय परिग्रह समेटे हुए, अदृश्य-अरूपी आत्मा
देखने दिखाने, पहिचानने-पहिचनवाने के व्यर्थ प्रयत्न मे पाया और मुक्ति मार्ग खोजा है । और आज वैराग्य-नाव
लग पड़े है -जैसे वे परिग्रह की बढवारी करते ही अदृश्य को तिलांजलि दे... परिग्रह में लिपटे-लिपटे, परिग्रह बढ़ाते,
आत्मा को पा लेगे और बिना चारित्र पालन किएइन्द्रिय विषयों में रत रहते --उनमे रस लेते हए, आत्म
राग-भाव मे आत्मा को पा लेंगे? या इस भांति वे करो चर्चा करते सुनते-सुनाते आत्मा के साक्षात्कार कर लेने की
के मार्ग, वीतरागत्व को मात दे देगे ? जो परिपाटी चल पड़ी है वह संसार पार कराने वाली नही-- वह तो लोगों को भुलावे में डालने का फरेब है। क्या करें? कोई सुनता नही और जैन की ऐसी दशा ऐसी मिथ्या परिपाटी ने तो जैनों की स्थूल व्यवहारी पहि- पर गेना आता है। सोचते है-एकांगो आत्म-चर्चा न चान कोही तिरोहित कर दिया है और बालको के नैतिक होती नो नैतिक स्तर-पवहार चारित्र तो बना सुधार के प्रयत्न के साथ अब युवा और वृद्धो के चारित्र- रहता।