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________________ जैन-मुनिचर्या श्री बाबूलाल जैन, कलकत्ता वाले सिंह सा पराक्रमी:-अगर पराक्रम सीखना हो तो जिसने अपने भीतर की कील को, केन्द्र को पहचान लिया सिंह से सीखना होगा। सिंह कैसा है ? जिसे किसी सहारे है इसलिए बाहर में, भीतर मे परिवर्तन आता है परन्तु की दरकार नही-जिसने सब सहारे छोड़ दिये हैं- वह कील हमेशा मेरु की तरह निश्चल है। साधु भोजन बेसहारा, वनों और पहाडों में विरना। करता है, बोलता है, जन्म लेता है, मरता है, परन्तु वह हाथी-सा स्वाभिमानी:--हाथी मे एक स्वाभि- कील हमेशा निश्चल है, बोलते हुए भी नही बोलता । मान है, अहंकार नही। अपने बन पर भरोसा है परन्तु चलते हुए भी नहीं चलता। सभी दुःख-सुख, प्रोति-अप्रीति बल का दिखावा नही। सभी चक्के पर है, कील सबसे बाहर है। साधु की मारी बषभ-सा भद्र :-बैल जैसा भद्र परिणामी-कभी चेष्टा यही है कि अपनी कोल को, ज्ञायक भाव को पकडे झगड़ा नहीं करता, उसका व्यवहार सज्जनोचित है। रहे । ध्यान में, समाधि में यही एक है । जिसने कील का मग-सा सरल :-मग को आँखो मे झांक कर देखो, सहारा लिया वह जन्म-मरण, दुःख-सुख सबसे अछूता सरलता-भरोसा दिखता है, जिसने कभी पाप नही जाना। रह जाता है। जिसकी आंखो मे पाप की रेखा ही नहीं है । क्वारी कन्या चन्द्रमा-सा शीतल : - चन्द्रमा में ताप नही है मात्र जैसा निष्पाप । मग स्वभाव से ही सरल होता है। उसकी प्रकाश है। साधु का सानिध्य जलाता नही है शीतल करता है । जहाँ जाकर आश्वासन मिले, बल मिले, सरलता साधी हुई नही है स्वाभाविक है। सीधा छोटे हिम्मत मिले, आशा बंधे कि मुझे भी मिल सकता है। दिखावा-मात्र सहज । मणि-सा कांतिमान :-जैसे किसी मणि को देखपश-सा निरोह:-असहाय अवस्था, समस्त उप कर सम्मोहित हो जाते है-उसी की तरफ देखते रह द्रवों से परे। जाते हैं, नजर वहाँ से हटती ही नही, वैमा । वाय-सा निःसंग:-हवा बहती रहती है परन्तु पृथ्वी-सा सहिष्णु :-कुछ भी हो जाए साधु नही नि:संग - नदियो से गुजरती है, फलो के ऊपर से गुजरती डगमगाता । रोग में, निरोग अवस्था मे, सम्मान मे, अपहै परन्तु रुक नही जाती, नि.सग भाव। मान में, जीवन में, मरण मे, हर हालत मे एक समान । सर्य-सा तेजस्वी:-कपट में, पाखंड में ज्योति बुझ सर्प-सा अनियत-आश्रमो:-सर्प अपना पर नही जाती है। जैसे ही व्यकिा सरल होता है, नि:संग होता बनाता । जहाँ जगह मिल गयी वही विश्राम कर लेता है। है, भद्र होता है, निरीह होता है, अकेला होता है, वैसे हो इसका अर्थ है कि कोई सुरक्षा का उपाय नही करता। उमके भीतर एक अगाध ज्योति जलने लगती है। भोजन के लिए चौके चलाना, बसें साथ रखना, रुपियासागर-सा गंभीर:-गहरा गम्भीर जिसकी थाह । पैसा रखना, किसी अन्य के पास रखना, यह सब सुरक्षा नहीं। के साधन नही करता। मेह-सा निश्चल:-गाड़ी का चाक घूमता है परन्तु आकाश-सा निरावलंब:--कोई सहारा नही, कील थिर रहती है, चाक घूमता है परन्तु कोल थिर है। आकाश जैसा बिना आधार, बिना खभे । दिगम्बर का अगर कील भी घूमने लगे तो गाड़ी गिर जायेगी। ऐसे ही (शेष पृ० ३२ पर)
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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