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१६, वर्ष ४',कि.१
अनेकान्त
भति आदि ग्यारह प्रधान शिष्य थे। महावीर का अनेक तीर्थकर पाप नाय का जन्म हुआ था। अतः मगध के इस स्थानो पर हार हुआ, इममह वा पविक ही था कि व्रात्य क्षत्रिय नागश का कुलधर्म प्रारम्भ से ही जैनधर्म यह क्षेत्र उनके उपदशा से प्रभावन ।। अतएव तत्का- रहा प्रतीत होता है। श्रेणिक के कुमार काल मे ही उसके लीन प्रसिद्ध राजा-महाराजा म से अधिकत उनके पिता ने किसी कारण कुपित होकर उसे राज्य से निर्वाउपदेश से प्रभावित हुए। उनके उपदेश का सार गोतम सित कर दिया था। और अपने दूसरे पुत्र चिलातिपुत्र को मादि गणघरो (शिष्यो) द्वादशाग श्रुत के रू। म गूया। अपने राज्य का उत्तराधिकार सौप दिया था। अपने और वही द्वादशांगश्रुत विपुल जैन माहित्य का मूल आधार निर्वासन काल मे श्रेणिक ने देश-देशान्तरों का भ्रमण बना । अन्त मे इसी क्षेत्र के एक वि। शष्ट स्था पावा में किया और अनेक अनुभव प्राप्त किये । इमी निर्वासन महावीर ने निर्वाण लाभ किया। महावीर के जीवन काल काल मे वह कुछ जैनतर श्रमण साधुओं के सम्पर्क मे आया मे ही उनके भक्त अनुयायो की मख्या ल खों मे पहुच और उनसे प्रभावित होकर उनका भक्त हो गया। साथ गयी थी, जिसका निरन्तर विकार होता रहा ओ. धीरे- ही जैनधर्म से विद्वेष भी करने लगा। कुछ अन्य अनुधीरे समस्त भारत तथा विदेश में भी उनके अनुयायो भक्त श्रुतियों के अनुसार वह बौद्ध हो गया था। परन्तु जैन बने। इनके अतिरिक्त अनेक व्यक्ति पार्व आदि पूर्व साहित्य के परिप्रेक्ष्य मे यह निश्चय किया जा सकता है तीर्थकरो के ही उपासक बने रहे।
कि वर्तमान महावीर को देवल जान प्राप्त होने से पहले यद्यपि भगवान महावीर को आई श्रमण या जिनधर्म वह जनधर्म का अनुय भी हो गया था। साथ ही प्राचीन की ऋषभादि पार्श्वनाथ पर्यम्त एक लम्बी परम्प ना वि. जैन साहित्य के आलोक में यह अवश्य प्रतीत होता है कि सत मे मिली थी। उनके माता-पिता आदि भी पार्श्व के अंणिक अपने पूर्वाद्ध जीवन काल में किसी जैनेतर परंपरा अनयायी बताए गये है। महावीर परम्परा से प्राप्त उस (महावीर की मान्यताओ से पृथक विचार वाले अन्य धर्म को युगानुरूपता प्रदान की उगका पुनः उद्वार किया, श्रमण) का भक्त हुआ होगा। संभवत: इसी लिए जैन और उसमे यथोचिन परिवर्तन-परिवर्द्धन कर लोककल्याण परम्परा मे उसकी अवनति नरकाहि ra: के लिए उनका उपदेश किया। म विीर के उदेशों से कही गयी है। और चूकि वह महावीर की प्रथम ग्रामप्रभावित होकर राजा लोग उनके भक्त हुए । अनेक विशिष्ट सभा (समवशरण) होने तक पुन: जैनधर्म का पक्का व्यक्ति उनके सम्पर्क में आए और उनके अनुयायी होते श्रद्ध लु (अनुयायी) हो चुका था। पश्चात् उसने जैनधर्म गये। इस प्रकार तद्-तद् राजा का श्रद्धास्पद धर्भ हो का प्रचार-प्रसार एवं उसकी प्रभावना भी की, सभवत: प्रायः राष्ट्रधर्म या राज्य धर्म के रूप में प्रतिष्ठित होता इसीलिए उमके जन्मान्तर मे उत्कर्ष (भावी तीर्थकमे होने) गया और जैनधर्भ राजकुल का धर्म बना रहा । इस तरह की बात कही गयी है। ई.प.की अनेक शताब्दियों में जैनधर्म को राष्ट्रधर्म-राज्य श्रेणिक के भाई के राज्य कार्य से विरक्त होने के धर्म जैसा स्थान प्राप्त रहा, अर्थात् राज्याश्रय प्राप्त रहा। फलस्वरूप लगभग ई. पू. छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध मे
ई. पू. सातवीं शती को मगध राज्यक्रान्ति के पश्चात् श्रेणिक मगध को राज्य गद्दी पर बैठा। उसने राजधानी शिशुनागवशीय प्रारम्भिक राजाओ में सर्वप्रसिद्ध राजा राजगृह का पुननिर्माण किया। राज्य के सगठन एवं विम्बिसार श्रेणिक था। इसके पूर्वजो ने काशी से आकर शासन को सुव्यवस्थित किया। एक कुशल एवं योग्य राजमगध की गद्दी पर अधिकार किया था। डा. काशीप्रसाद नीतिश के समान उसने पड़ोसी राजापों से यथोचित जायसवाल के अनुसार "काशी से आने वाला मगध का सन्धियो की। अपने से शक्तिशाली राजाओं को अपना प्रथम'नरेश शिशुनाग था और इसी कारण मगध का यह मित्र तथा सम्बन्धी बनाया। इस प्रकार श्रेणिक ने अत्यंत ऐतिहासिक राजवश शिशुनागवंश कहलाता है। यह राजा सूझ-बूम एवं राजनीतिक निपूणता से ५२ वर्षों तक मगध उसी वंश में पैदा हुआ था, जिसमे ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती एग पर शासन किया। ई.पू. ५३३ में उसकी मृत्यु हुई । जन