SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जो हमें पसन्द न आया - पप्रचन्द्र शास्त्रो सं० 'अनेकान्त' मासिक पत्रिका 'तीर्थकर' अगस्त ६२ के अंक को बागमिक-प्रसंग से भाषा की कामोत्तेजक अश्लीलता हमने बड़े कराह मे पढा और कई पाठकों ने भी हमारा भी विचारणीय बन रही है। भले ही कामी लोगों का ध्यान इसमें छपी 'अनुत्तर योगी तीर्थंकर महावीर' मानना हो सकता है कि- "जब सिनेमा दूरदर्शन और (उपन्यास) के खण्ड ५ के लिए लिखित सामग्री की ओर बीडियो आदि अनेक तंत्र खुले रूप में व्यभिचार को सभ्याखींचा । उन्होने कहा-इसकी अश्लीलता-पोषक भाषा चार सिद्ध करने में लगे है, सरकार भी ब्रह्मचर्य का प्रचार का 'तीर्थकर' जैसी पत्रिका में प्रकाशन सर्वथा अयोग्य है। न करके कामासक्ति-पूरक निरोध, माला और आप्रेशन कइयो ने तो पत्रिका के अश्लील पेजों को ही फाड़ फेंका। आदि सेवन पर जोर दे व्यभिचार को सभ्याचार बनाने का नारी जाति के प्रति तो उनकी स्वाभाविक लज्जा को मार्ग खोल रही है, तब यदि कोई उपन्यास लेखक अपने बेनकाब करना नारी-जाति के प्रति नारी जाति का घोर उपन्यास में किसी तथ्य के तल तक पहुचने का प्रयत्न अपमान है। नारियो को इस प्रसंग से पीडा और घणा करता है तो वह क्या बुरा करता है। विभिन्न स्रोतो से हुई है। 'तीर्थकर' के अगस्त ६२ के अंकमे छपी उक्त सामग्री स्व-अनुभूत और अननुभूत को साक्षात् मे उपस्थित करना श्वेताम्बर सम्प्रदाय से सबंधित है। तो लेखक की सिद्ध-लेखन कला है। उसे सन्मान ही । उक्त विषय को श्वेताम्बर सम्प्रदाय देखे कि मिलना चाहिए।" पर हम किसी उपन्यास आदि को तीर्थकर में पृष्ठ ३० पर छपे भगवन् के कथनानु- केन्द्र मानकर उस पर विचार करने मे अभ्यस्त नही। सार-क्या, महाशतक श्रमणोपासक रेवती का प्यार, हम तो आगम-प्रसंग को आगमरूप में उपस्थित करने और आलिंगन और चम्बन पाने के लिए रत्नप्रभा पृथ्वी धार्मिकता, नैतिकता-पोषक तंत्रो को श्लाघनीय स्थिति मे के लोलुच्चय नरक मे ८४,००० वर्ष तक रेवतो की नार- रखने के पक्षपाती हैं। हमें अश्लील-माहित्य से अरुचि है। कीय यातना का सहभागी बना और रेवती ने वैतरणी के यदि उक्त उपन्यास मे रेवती द्वारा प्रकट की गई, वात्तट पर मिलकर उसे अपने चुम्बन और आलिंगन से तार स्यायन-कामसूत्र वणित जैसी घृणित कामचेष्टाएँ आगमदिया या भगवान के वचन झूठे हुए ? जब कि गणधर श्री बरिणत हों तो उन्हें सन्मान देने, न देने पर विचार हो सुधर्मा जी ने 'उवासगदसामओ' सूत्र (आगम) में महाशतक सकता हो। पर, हमने आगम मे ऐसा पढ़ा नही। वहीं के सौधर्म कल्प के अरुणावतसक विमान मे देव होने की तो साधारण तौर पर अंकित है किबात कही है-नरक में जाने या चुम्बन आदि की बात नही कही । क्या स्वर्ग नरक मे कोई भेद नही ? "काम के वश हुई वह रेवती गृहपत्नी अपने केशों "तएणं से महासयए समणोवासए वहहिं सील जाव को वखेर कर उत्तरीय (दुपट्टा) को उतार कर जहाँ भावेत्ता बीसं बासाइ समणोवासग परियाय पाउणित्ता पोषधशाला थी वहाँ महाशतक श्रमणोपासक के पास गई एक्कारस उवासग पडिमाओ सम्म कारण फासित्ता मासि- और मोह तथा उन्मादवर्धक स्त्री भावों को दिखाती हई याए सलेहणाए अप्पाणं झुसित्ता सद्धि भत्ताई अणसणाए बोली-हे महाशतक श्रमणोपासक धर्म, पुण्य स्वर्ग, मोक्ष छेदेता आलोइय पडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे काल इच्छुक, धर्मकांक्षक, धर्मपिपासु, यदि तू मेरे साथ उदार किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणव डिसए विमाणे देवत्ताए विषयरूपी सुख नही भोगता है तो तुझे धर्म पुण्य, स्वर्ग उववन्ने ।"-७/८/२६६ मोक्ष से क्या लाभ होगा।"
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy