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"बिना सुगंधि फूल का मूल्य नहीं"
"श्री प्रेमचन्द जैन
सुन्दर से सुन्दर पुष्प को मनुष्य देखता है, तोडता है, जरा हम भी सोचें कि हम किस श्रेणी में आते हैं, फेंक देता हैं। अगर उसमे सुगन्धि हो तो जितनी अधिक हममें भी ये विकार छुपे तो नहीं हैं। क्या हम निष्कपट खुशबू होगी उतना अधिक प्यार पुष्प को मिलता है. उसी भाव से भगवान के दर्शन करके अपने में उन गुणों की प्रकार हमारे जीवन में चातुर्य, रूप, धन, ऐश्वर्य मब होने झलक देखते हैं या देखने का प्रयास करते हैं, और वीतपर भी आन्तरिक प्यार नहीं मिलता, अगर स्वयं में चरित्र रागी बनकर आत्मकल्याण करते हैं। की सुगन्धि न हो। आज भी महाव्रती साधु को संसार "तुम निरखत-२ मुझको मिलीं, मेरी सम्पति आज मस्तक झुकाकर नमन करता है, चरित्रहीन दोषी मनुष्य कहाँ चक्री की सम्पदा कहाँ स्वर्ग साम्राज्य।" घणा का पात्र बनता है चाहे वह राजा भी क्यों न हो। सोचें! क्या हमने अपनी नाशवान सम्पत्ति का दूसरे
"राजा पुजे राज्य मे, पण्डित पुजे जहान ।" के कल्याण में व्यय करके अपने को परिग्रह के पाप से मुक्त धन, बल, वैभव के मद में चर मदोन्मत्त मनुष्य को
किया? या अहंकार के वशीभूत होकर मानकषाय के
किया? या अहकार क वशाभूत हाकर भय व लाभ के कारण, उसमे आश्रय प्राप्त जन ऊपरी पहाड़ पर चढ़कर, तापग्रसित होते रहे। सम्मान भले ही प्रदर्शित करते हों मगर अन्दर से उसके "होत तीन गति द्रव्य की दान, भोग पोर नाश, प्रति घृणा का भाव ही रहता है। स्वार्थवश उसका गुण
दान भोग जो न करें, तो निश्चय होय विनाश ।" गान भले ही करे मगर फिर भी अन्तरग में उसकी निन्दा क्या हम शुद्ध प्रासुक, स्वास्थ्यवर्धक आहार ग्रहण ही करते हैं। उसे यहाँ भी आत्मीय सम्मान प्राप्त नहीं करते हैं या मांसाहारी, शराबी, होन चारित्र, दोषी व्यक्ति होता, मरकर भी सुगति प्राप्त न कर पाप की भट्री में के सम्पर्क में आया भोजन खाते हैं या स्वयं इस दोषी ही जलता है । नरक की यातना भोगनी पड़ती है। क्रोध, प्रवृति में लिप्त है।
"जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन । मान, माया, लोभ से रहित विवेकवान श्रावक का छोटे
जैसा पोये पानी, वैसी बोले वाणी ॥" बड़े सभी जनमानस आदर व प्रशंसा करते हैं और उसके
झठे दिखावे में, विवाह आदि के अवसर पर, धर्म सद्गुणों से शिक्षा लेकर उसी मार्ग पर अग्रसर होते हैं।
का दिखावा करके दान के नाम पर अपार धन व्यय "ज्ञानी मगन विषय सुखमाहीं, ये विपरीत सम्भवे नाहीं।"
करके अपना बड़प्पन प्रदशित करते हैं या कभी दीन-दुखी फिर भी न जाने क्यो मोह के वशीभूत ये प्राणी मदांध पिटा जनाओं पर अता होकर उन्मत्त को भांति क्रियाएँ करता है, भोगो में लिप्त
करके उनका कष्ट निवारण कर अन्तरंग शान्ति प्राप्त होकर अपने को महान प्रदर्शित करने का छल करता है,
कर, मनुष्य जन्म सार्थक करते है। दानवीर का मुखौटा लगाकर, लोभ कषाय से न बचकर
क्या हमने किसी जीणं मन्दिर का जीर्णोद्धार, या उल्टा मानकषाय से ग्रसित होकर पथभ्रष्ट होता है । अपने
दुःखी बेटी का विवाह संस्कार या साधनविहीन अभावरूप, फन, विद्या, कुल, सम्पदा के मुठे भ्रम में अपनी
ग्रस्त भाई को प्यार से उसके कष्ट निवारण हेतु भी कुछ नेतागीरी, अपना प्रताप सिद्ध करने की वथा चेष्टा करता है. जिसके परिणामस्वरूप सबके द्वारा घृणा का पात्र क्या हमने अपने नेतागीरी प्रदर्शित करने को, किसी बनता है। ऊपर से उसकी प्रशंसा करने वाले भी उससे पद की प्राप्ति के लिए, पाप के साधन अपना कर, प्राणी नफरत करते हैं, और उसके व्यवहार से अपने को साव. हिंसा, समाज का विघटन, राष्ट्र की हानि, विश्व का धान रखते हैं।
(शेष पृ० २६ पर)