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जैनधर्म एवं संस्कृति के संरक्षण तथा विकास में तकालीन राजघरानों का योगदान
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मांसाहार का निषेध करने के लिए कड़े नियम बनाये थे। समय में जैन प्रचारक भेजे गये और वहां जैन साधुओं के वर्ष के ५६ दिनों में उसने सभी स्थानो पर सब प्रकार की लिए अनेक विहार स्थापित किये गये । इस प्रकार अशोक जीवहिंसा बन्द रखने के लिए राजाज्ञा जारी की थी। ये और सम्प्रति दोनों के कार्यों से प्रार्यसंस्कृति एक विश्वदिन कौटिल्य के अर्थशास्त्र मे वणित पवित्र दिनों एवं जैन संस्कृति बन गयी और आर्यावर्त का प्रभाव भारत की परम्पराओं में मान्य पर्न-दिनो से प्रायः पूरी तरह मेल खाते सीमानों के बाहर तक पहुंच गया। अशोक की तरह
शिलालेखों में अशोक के द्वारा निर्ग्रन्थों (नग्नमुनियों)का उसके इस पोते ने भी अनेक इमारते बनवाई । राजपूताने विशेष प्रादर करने के उल्लेख है। राजतरगिणी एवं आइने- की जैनकला कृतिया उसके समय की मानी जाती जैन अकबरी के अनमार अशोक ने कश्मीर मे जैनधर्म का प्रवेश लेखकों के अनुसार सम्प्रति समचे भारत का स्वामी था।" कराया था और इस कार्य मे उसने अपने पिता बिन्दुसार 'विपण्ट स्मिथ के अनुसार" मम्प्रति प्राचीन भारत तथा पितामह चन्द्रगुप्त का अनुकरण किया था।
में बड़ा प्रभावक शासक हुआ है। उसने, अशोक ने जिस सम्राट अशोक के बाद उसका पुत्र कुणाल, जिसका प्रकार बौद्धधर्म का प्रचार किया था उमी प्रकार जैनधर्म दूसरा नाम सुयश भी है, मौर्य साम्राज्य का उत्तराधिकारी
का प्रचार किया। धर्म प्रचार के कार्यों की दृष्टि से चन्द्रबना । किन्तु वह अपनी विमाता के छल से अन्धा हो गया।
गुप्त से भी बढ़कर इसका स्थान है।" कुछ विद्वानो का था। प्रारम्भ मे उसके पुत्र सम्प्रति ने पिता के नाम से यह भी मत है कि अशोक के नाम से प्रचलित शिलालेखों राज्य किया। कालान्तर मे सम्प्रति स्वतंत्र राज्य करन में से कई शिलालेख सम्प्रति द्वारा खदाये गये हो सकते लगा। सम्प्रति ने उज्जैनी को अपनी प्रधान राजधानी जनका कथन है कि समाज की माता बनाया। अपने पितामह अशोक की तरह वह भी एक प्रिय" थी और सम्प्रति को वह "प्रियदशिन" कहता था। महान, शान्तिप्रिय एवं प्रतापी सम्राट था। जैनाचार्य अतः जिन लेखों मे "देवाना प्रियस्य प्रियदशिन राजा" सहस्ति उसके धर्मगुरु थे। उनके उपदेश से सम्प्रति ने एक द्वारा उनके लिखाये जाने का उल्लेख है। वे अभिलेख आदर्श राजा की तरह जीवन बिताया। उसने जैनधर्म की जिनमें जीवहिंसा निषेध एव धर्मोत्सवों प्रादि का वर्णन है। प्रभावना एवं प्रचार-प्रमार के लिए अथक प्रयत्न किये। सम्प्रति के पश्चात उसके अनेक उत्तराधिकारी भी बौदधर्म के प्रचार-प्रसार मे जो स्थान सम्राट अशोक अपने पूर्वजों की भाति जैनधर्म के भक्त रहे। उन सबके को दिया जाता है, जैनधर्म प्रचार-प्रसार मे उससे कही द्वारा भी दूर-दूर तक जैनधर्म का प्रचार होना बताया अधिक महत्त्व सम्राट सम्प्रति को दिया जा सना है। जाता है। कालान्तर मे मौर्यवंश के साथ-साथ मगध जैनसाहित्य विशेषतया, श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों मे साम्राज्य का भी अन्त हो गया। इसके बाद ई.पू. २-१ सम्प्रति के जीवन परिचय आदि के सम्बन्ध विषद वर्णन शती में शंगबंश की शासन स्थापना होने पर मगध एवं प्राप्त होते हैं । सम्प्रति ने जैन तीर्थों की वन्दना की ओर मध्यप्रदेश से जैनधर्म का राज्याश्रय समाप्त हो गया। इस जीर्णोद्धार कराये । अनगिनत जिनालयो एन मूर्तियो को प्रकार अपने मूल केन्द्र मे ही जैनधर्म शक्तिहीन, प्रभावहीन विभिन्न स्थानों में निर्माण तथा प्रतिष्ठापित कराया। एव अवनत सा हो गया। और जिस अहिंसामयी जैनधर्म ने विदेशों मे जैनधर्म के प्रचार हेतु प्रचारक भिजवाये। अनेक शताब्दियों तक न केवल भारतवर्ष की विचारधारा मामाज्य भर मे अहिंसा प्रधान जैन आचार का प्रसार को प्रभावित किया, वरन् विदेशी चिन्तन को भी प्रभावित करवाया। कर्णाटक के श्रवणबेलगोल मे भी उसके द्वारा किया, वही जैनधर्म अशक्त मा हो गया। जैन मन्दिरों का निर्माण कराया बताया जाता है।
उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन से स्पष्ट है कि आधुनिक प्रो. जयचन्द्र विद्यालकार के अनुसार "चाहे चन्द्र- बिहार प्रान्त प्रायोतिरामिक काल मे: गत के च.हे सम्प्रति के समय मे जैनधर्म को बुनियाद का प्रधान केन्द्र रहा है और इस धर्म एवं सस्कृतिके संरक्षण, जाति के नये राज्यों में भी जा जमी, इसमे सन्दह पोषण एव विकास में तत्कालीन राजाओं-राजघरानों का नहीं। उत्तर पश्चिम के अनार्य देशों में भी सम्प्रति के अप्रतिम योगदान है।