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१४, वर्ष ४५, कि० ४
अनेकान्त
जाता है। केवल इस संवाद के आधार पर कुछ विद्वान दर्शन तो केवल उन्हीं जैसे शुद्ध आचार एवं विचार को यह मत व्यक्त करते है कि पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म का साधना और उमके परिणामस्वरूप मोक्ष-लाभ के लिए अर्थात् अहिंसा, सत्य, अचौर्य तथा अपरिग्रह का ही उपदेश किया जाता है। तो फिर इतनी चमत्कारिता पार्श्वनाथ में दिया था। किंतु यह मत एकांगी माना जा सकता है कैसे आ गई? इसका सम धान यह है कि धरणेन्द्र और क्योकि इसका दूसरा प्रमाण उपलब्ध नहीं है । ऐसे विद्वान पद्मावती ने अपने उपकारी पार्श्वनाथ का उपमर्ग तो दूर यह कथन करते हैं कि महावीर ने ब्रह्मचर्य नामक पांचवा किया ही, वे पार्श्व के भक्तो के कष्टों का भी निवारण व्रत और जोड़ दिया। जैन परम्परा यह मानती है कि करते हैं। ऐसा वे धर्मवत्सलता के कारण करते है । आचार्य सभी तीर्थरो का उपदेश पांचों व्रतों का ही रहा यद्यपि गुणभद्र कहते है कि-"देखो, ये धरणेन्द्र और पद्मावती कुछ समय धर्म का उच्छेद हुआ था। लिखित माहित्य के बड़े कृतज्ञ और बड़े धमात्मा है इस प्रकार की स्तुति को अभाव के संबंध मे यह भी स्मरणीय है कि पूर्वो के जान- वे संसार में प्राप्त हह है परन्तु तीनों लोको के कल्याण कार आचार्यों को "श्रुतघराचार्य" कहा जाता था और को भूमिस्वरूह अापका ही यह उपकार है ऐसा समझना पार्श्व एवं महावीर के अनुयायियों को आज भी श्रावक चाहिए । निष्कर्ष यह है कि पार्श्वनाथ की मूर्तियो अथवा (सुनने वाला) कहा जाता है। पाश्वं को अपना इष्ट देव भक्ति के जो चमत्कार देखे जाते हैं, उनके कर्ता ये दोनों ही मानने वाली विहार-बंगाल की "सराक" जाति श्रावक ही होते है। ये पार्श्व के यक्ष-यक्षी अथवा शासनदेवता कहहै । अब यह जाति अजैन है।
लाते है । चमत्कारों के क्षेत्र में महादेवी पत्रावती ने असाअपनी आयु निकट जानकर पार्श्वनाथ विहार की वर्त- धारण ख्याति प्राप्त की है। आचार्य मल्लिषेण ने अपनी मान पारसनाथ हिल, जिसे जैन लोग सम्मेदशिखर कहते रचना "भैरव पद्मावतीकल्प" मे उन्हें 'श्रीमत्पावजिनेशहै, जिसकी सबसे ऊँची चोटी "सुवर्णभद्र कूट" पर ध्यानस्थ शामनसरी पावती देवता" कहा है । पद्मावती के स्वतत्र हुए। वही पर श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन उनका
मन्दिर भी होम्बुजा, नागदा, बघेरा आदि स्थानो पर निर्वाण हुआ।
निमित हुए हैं। केरल में वायनाड जिले के चुडेल नामक पार्श्वनाथ की ख्याति एक चमत्कारिक तीर्थङ्कर के स्थान के पास करमण्डा ग्राम की पद्माम्बा इस्टेट मे एक रूप में सर्वाधिक है। नोवी शताब्दी में उत्तरपुरा की दर्पण मन्दिर (Mirror Temple) है जिसमें पाश्र्वनाथ रचना करने वाले आचार्य गुणभद्र ने पावं का स्तुति मे और पद्मावती देवी को विविध छबियाँ दर्पण और बिजली कहा है कि हे भगवान, गुणों आदि के विचार से सभी की सहायता से दिखाई जाती है (इसे पिछले चालीस वर्षों तीर्थहर समान है किंतु आपका माहात्म्य अधिक ही प्रकट मे हजारो जैन-अजैन लोगों ने देखा है। केरल सरकार ने हुआ है। इसका कारण उन्होंने कमठ द्वारा किए गए उप- इसे कालीकट-वायनाड़ के पर्यटक देन्द्रों मे गिनाया है) सर्ग को बताते हए यह मत प्रकट किया है कि उससे भग- केरल के जैनों को बड़ी श्रद्धापूर्वक पद्मावती की आरती वान की असाधारण सहनशीलता और माहात्म्य प्रकट आदि करते देखा जा सकता है। दिल्ली के दिगम्बर जैन आज बीसवी सदी मे तो पार्श्वनाथ की महिमा कई गुना लाल मन्दिर में पद्मावती की आरती आदि करती भीड़ अधिक बढ़ गई है। अनेक पुराण-प्रसग और हजारो भक्त देखी जा सकती है। दिल्ली में ही श्वेतांबर समाज द्वारा यह कहते मिल जायेंगे कि पावं की कृपा से यह फल कछ करोड की लागत से वल्लभ स्मारक का निर्माण मिला। जैन मान्यता के अनुसार तो निर्वाण के बाद कराया जा :
कराया जा रहा है। उसमे मूर्ति के लिए स्थान नहीं है तीर्थकर ऊर्वलोक में सिशिला पर निराकार विराजते कितु उसके निर्माण से पहले पद्मावती का एक स्वतत्र मंदिर है। वे सभी प्रकार के सांसारिक का-बंधनों से मुक्त हो बनवाया गया । पालीताना में भी इसी समाज का एक वीतराग हो जाते है। वे न तो किसी का हित करते हैं भव्य समवसरण मन्दिर बना है जिसमें पार्श्वनाथ की और नही किसी का अहित । उनका गुणगान स्मरण या १०८ प्रतिमाएं है और धरणेन्द्र तथा पपावती की भी