________________
पाश्र्वनाथ और पद्मावती
"
ज्यों ही पापर्व को नीचे देखा, त्योंही पूर्व जन्म का वर पार्श्वनाथ को अडिग देख कमठ ने भी उनसे क्षमा मांगी। उसके मन मे उमड आया। उसने बादलों की घोर गर्जना जिस समय यह घटित हो रहा था, उसी समय पार्श्वनाथ की, बिजली की भयकर कड़कडाहट के माथ गनधोर वर्षा को केवलज्ञान हो गया। अब वे इतने ऊँचे स्तर पर थे की, पत्थर फेंके तथा अन्य प्रकार से पार्श्वनाथ को कष्ट कि उन्हें न तो कमठ से कोई द्वेष था और न ही धरणेंद्र पहंचाता रहा किंतु पावं अपने ध्यान से नहीं डिगे। से कोई राग। उस समय वे उत्तम क्षमा के सर्वोत्तम शम्बर के ये उपद्रव "कमठ के उपमर्ग" के नाम से जैन साक्षात उदाहरण थे। परम्परा मे जाने जाते हैं और बहुसंख्य जैन मन्दिरों में जिस स्थान पर यह घटना घटी, वह स्थान उन दिनों इनके चित्र या उत्कीर्णन पाए जाते हैं। कलाकारो ने इनका संख्यावती के नाम से जाना जाता था किंतु इस अभूतपूर्व चित्रण भी अनेक प्रकार में किया है। कर्नाटक के शिमोगा घटना की याद मे उसका नाम बदल कर अहिच्छत्र अर्थात् जिले के होम्बजा नामक एक स्थान में पार्श्वनाथ की ७वी वह स्थान जहाँ अहि (सर्प) ने छत्र ताना था, कर दिया शताब्दी को एक सान फुट ऊंची सुन्दर पाषाण प्रतिमा है। गया। आज भी वह इमी नाम से जाना जाता है। वह उसके दोनो ओर कमठ और उसकी पत्नी को पाश्र्व पर उत्तरप्रदेश के बरेली जिले के आंवला तहसील के रामउपसर्ग करते दिखाया गया है। पहले दृश्य में कमठ पत्थर नगर गांव का एक भाग है । यह कैसा संयोग है कि केरल फेक रहा है, तो उसकी पत्नी के हाथ मे छुरिका है । दूसरे नपूनिरि ब्राह्मण अहिच्छत्र से केरल मे आ बसे । क्या मे कमठ धनुष बाण ताने हुए है, तो उसकी पत्नी हाथ मे पार्श्वनाथ के धर्म के अत्यधिक प्रभाव के कारण उन्हे ऐमा तलवार लिए हुए है। तीसरे मे दोनो ने सिंह का रूप करना पड़ा ? केरल मे भी उन्हे नाग जाति के लोगो धारण किया है। चौथे मे वे दोनो मदमत्त हाथी के रूप (नायर जाति) से मेलजोल बढ़ाना आवश्यक हुआ। यह मे प्रदशित है। सबसे नीचे उन्हे हाथ जोड़कर पार्श्वनाथ बात दूसरी है कि आगे चलकर वे उन पर हावी हो गए। से क्षमा मागते हुए दिखाया गया है । सम्भव है कि सातवी तीर्थकर पार्श्वनाथ ने ६६ वर्ष और ८ मास तक पैदल सदी में उपलब्ध किंतु उत्तरपुराण (नोवी शताब्दी) को धूम-घम कर अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह अर्थात् आवश्यकता अनुपलब्ध किसी पुगण मे यह दृश्यावली वणित हो। से अधिक संग्रह आदि नही करना आदि सिद्धांतों और
घनघोर वर्षा, ओलों की बरसात का परिणाम यह आचार-विचार का उपदेश भारत और देशो में दिया था हुआ कि पानी पार्श्वनाथ को नासिका से ऊपर उठने को यह बात अनेक कथाओ से प्रमाणित होती है। उनका हआ । ठीक उसी समय अधोलोक में नागकुमार जाति के विहार, तिब्बत, नेपाल से लेकर कोकण, कर्नाटक, पल्लव देवो के इन्द्र घरणेन्द्र का आसन कंपित हो उठा । धरणेद्र आदि द्रविड़ देशो में भी हुआ था। आज उनके उपदेश ने अवधिज्ञान से यह जाना कि उनके उपकारी पार्श्वनाथ लिखित रूप में उपलब्ध नही है। वे महावीर से पहले पर साट आया है। वह अपनी इन्द्राणी पावती सहित हुए थे और उनके उपदेश महावीर के प्रमुख शिष्य गौतम सर्प का रूप धारण कर वहाँ आग और पाश्वनाथ पर गणधर ने चौदह ग्रंथो के रूप मे सकलित किए थे जिन्हें फणो का मण्डप तान दिया। इन्द्राणी पावती ने उसके भी "पूर्व" कहा जाता था। इनके सम्पूर्ण ज्ञाता आचार्य भद्रऊपर एक वज्रमयी छत्र लगा दिया। कुछ के मतानुसार बाहु थे। इस प्रकार महावीर स्वामी के निर्वाण के १६२ पद्यावती ने पार्श्व को कमल के आसन पर विराजमान वर्ष बाद ये स्मृति से लुप्त हो गए। यह स्मरणीय है कि कर दिया। ये इन्द्र-इन्द्राणी पौर कोई नहीं अपितु पूर्व पहले समस्त ज्ञान मौखिक था। वेद भी तो १४वी सदी जन्म के वे ही सर्प-सपिणी थे जिनकी सद्गति के लिए में जाकर लिपिबद्ध किए गए । लुप्त हो जाने पर भी पूर्व पार्श्वनाथ ने उनके अंत समय मे णमोकार मंत्र सुनाया था। प्रथों का पता कुछ प्रथो मे उनके उल्लेख से चलता है। आचार्य गुणभद्र कहते है कि देखो सर्प स्वभाव से क्रूर होते इसी प्रकार का एक उल्लेख केशो-गौतम संवाद है जो कि है किंतु उन्होने भी अपने उपकारी को नहीं भुलाया। पार्श्वनाथ और महावीर के शिष्यों के बीच हुआ माना