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________________ ४ वर्ष ४५ कि० ३ धनेकॉल सातवें अध्याय के ३१वें सूत्र की व्यख्या में दान के प्रसंग में कहा गया है कि प्रतिग्रह आदि क्रियाओं में आदर विशेष विधिविशेष है । सर्व पदार्थों को निरात्मक मानने पर विधि आदि रूप का अभाव हो जाता है । जिस दर्शन में निरात्मक (क्षणिक) है, उस दर्शन में विधि आदि की विशेषता नहीं हो सकती। यदि विधि आदि की विशेषता है तो सर्वभाव निरात्मक है। इस सिद्धान्त के व्याघात का प्रसङ्ग आता है । क्षण मात्र आलम्बन रूप विज्ञान में इस बात की सिद्धि नहीं होती। जब ज्ञान सर्वथा क्षणिक है, तब तप, स्वाध्याय और ध्यान में परायण यह ऋषि मेरा उपकार करेगा। इसके लिए दिया गया दान, व्रत, शील, भावना आदि की वृद्धि करेगा, इसकी यह विधि है। इस प्रकार का अनुसन्धान प्रत्यभि ज्ञान नहीं हो सकता; क्योंकि पूर्वोत्तर क्षण विषयक ज्ञान, संस्कार आदि के ग्राहक एक ज्ञान का अभाव है । अतः इस पक्ष में दानविधि नहीं बन सकती" । प्रथम अध्याय के छठे सूत्र की व्याख्या में अनेकान्तवांद का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि विज्ञानाद्वैतवादियों के सिद्धान्त मे बाह्य परमाणु एक नही है, किन्तु तदाकार परिचत विज्ञान ही परमाणु संज्ञा को प्राप्त होता है। ये ग्राह्याकार, ग्राहकाकार और संवेदनाकार इन तीन शक्तियों का अधिकरण एक विज्ञान को स्वीकार करते हैं। इसलिए अनेक धर्मात्मक एक वस्तु में विरोध नहीं है"। अन्यत्र कहा गया है कि जिसके सिद्धान्त से आत्मा ज्ञानात्मक ही रहता है— उसके सिद्धान्त में आत्मा के ज्ञानरूप परिणमन का अभाव होगा; क्योंकि ज्ञानरूप से वह स्वयं परिणत है ही, परन्तु जैन सिद्धान्त मे किसी पर्याय की अपेक्षा अन्य रूप से ही आत्मा का परिणमन माना जाय वा इतर रूप से ही परिणमन माना जाय तो फिर उस पर्याय का कभी विराम नहीं हो सकेगा। यदि विराम होगा तो आत्मा का भी अभाव हो जायगा " । अतवाद समीक्षाको (अद्वैतवादी इस्य को तो मानते हैं, किन्तु रूपादि को नहीं मानते। उनका यह कहना विपरीत है। यदि द्रव्य ही हो, रूपादि नही हो तो द्रव्य का परिचायक लक्षण न रहने से लक्ष्यभूत द्रश्य का हो अभाव हो जायगा । इन्द्रियों के द्वारा सन्निकृष्यमाण द्रव्य का रूपादि के अभाव में सर्व आत्मा (अखण्ड रूप से ) ग्रहण का प्रसङ्ग आएगा; और पांच इन्द्रियों के अभाव का प्रसङ्ग आएगा; क्योंकि द्रव्य तो किसी एक भी इन्द्रिय से पूर्ण रूप से गृहीत हो ही जायगा । परन्तु ऐसा मानना न तो इष्ट ही है मोर न प्रमाण प्रसिद्ध ही है अथवा जिनका सिद्धान्त है कि रूपादि गुण ही है, द्रम्य नहीं है। उनके मत में निराधार होने से रूपादि गुणों का भी अभाव हो २० आयगा । उपर्युक्त वादों की समीक्षा के साथ जैन दार्शनिक मान्यताओं का समर्थन अकलङ्कदेव ने प्रवल युक्तियों द्वारा किया है। इस दृष्टि से प्रथम अध्याय के छठे सूत्र की व्याख्या में सप्तभङ्गी का निरूपण, हवें से १३वें सूत्र तक ज्ञानविषयक विविध विषयो की आलोचना, अन्तिम सूत्र की व्याख्या में ऋजुसूत्र का विषयनिरूपण, द्वितीय अध्याय के वें सूत्र की व्याख्या में आत्मनिषेधक अनुमानों का निराकरण, चतुर्थ अध्याय के अन्त मे अनेकान्तवाद के स्थापन पूर्वक नवसप्तमी और प्रमाणसप्तभंगी का विवे चन, पाँचवें अध्याय के २४वें सूत्र की व्याख्या मे स्फोटवाद का निराकरण २२ सूत्र की व्याख्या में अपरिणामवादियों द्वारा परिणामित्य पर आए दोषों का निराकरण, व्यासभाष्य के परिणाम के लक्षण की आलोचना तथा क्रिया को ही काल मानने वालों का खण्डन दर्शनशास्त्र के महत्वपूर्ण विषय है" । आगमिक वैशिष्ट्य तत्त्वार्थसूत्र में आगमिक मान्यताओ को निबद्ध किया गया है । टीकाकारो ने इन सूत्रों की व्याख्या युक्ति और शास्त्र के आधार पर की है। अकलङ्कदेव का तत्त्वार्थवार्तिक भी इसका अपवाद नहीं है । प्रथम अध्याय के ७वें सूत्र की व्याख्या में निर्देश, स्वामित्व प्रादि की योजना की गई है। प्रथम अध्याय के २० वें सूत्र की व्याख्या में द्वादशांग के विषयों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है । आगम में ३६३ मिथ्यामत बतलाए गए हैं। तत्त्वार्थवार्तिक मे वें अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या में ३६३ मतों का प्रतिपादन इस प्रकार है
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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