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________________ पकलदेव की मौलिक कृति तस्वार्थवातिक परोपदेश से होने वाला मिध्यादर्शन क्रियावादी, हैं। जैसेअक्रियावादी, अज्ञानी और वैनयिक मत के भेद से चार ज्ञानवान में मतुप् प्रत्यय प्रशंसा अर्थ में है। क्योंकि प्रकार का है। कौक्कल, काण्डविद्धि, कोशिक, हरि, ज्ञानरहित कोई आत्मा नही है। जैसे कहा जाता है कि श्मश्रवान्, कपिल, रमेश, हारित, अश्वमुण्ड, आश्वलायन यह रूपवान् है। रूप में मनप् प्रत्यय प्रशंसा अर्थ में है। आदि के विकल्प से क्रियावादी मिथ्यादृष्टियों के चौरासी क्योंकि रूपरहित कोई पुद्गल नहीं है। भेद हैं। मरीचि, कुमार, उलूक, कपिल, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, विभक्त कर्ता और अविभक्त कर्ता के भेद से करण वाटलि, माडर, मौद्गल्यायन आदि दर्शनों के भेद से दो प्रकार के हैं। जिसमे करण और कर्ता पृथक-पृथक अक्रियावादियों के १८. भेद हैं। साकल्य, वाकल, कुथुमि, होते हैं, उसे विभक्त कर्तृक (करण) कहते है । जैसेसात्यमुग्नि, चारायण, काठ, माध्यन्दिनी, मौद, पप्पलाद, "देवदत परशु से वृक्ष को काटता है", इसमे परशु बादरायण, स्विष्टिकृत, ऐतिकायन, वसु, जैमिनि आदि (कुल्हाडी) रूप करण देवदत्त रूप कर्ता से भिन्न है। मतों के भेद से अज्ञानवाद मिथ्यात्व के सडसठ भेद हैं। जिसमें कर्ता से अभिन्न करण होता है, उसको अविभक्त वशिष्ठ, जतु कर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षिण, सत्यदत्त, व्यास, कर्तृक (करण) कहते हैं । जैसे उष्णता से अग्नि इंधन को ऐलपुत्र, उपमन्यव, इन्द्रदत्त, अपस्थलादि मार्ग के भेद से जलाती है इममे उष्णता रूप करण अग्नि रूप कर्ता से वैनयिक मिथ्यात्व के बत्तीस भेद हैं। इस प्रकार ३६३ अभिन्न है। इसी प्रकार आत्मा ज्ञान के द्वारा पदार्थों को मिथ्या मतवाद है। जानता है-यह अविभक्तकर्तृक करण है; क्योकि उष्णता यही कहा गया है कि आगम प्रमाण से प्रारिणवध को की अग्नि से और ज्ञान की आत्मा से पृथक् सत्ता ही नहीं धर्म का हेतु सिद्ध करना उचित नही है। क्योंकि प्राणिवध अथवा कशल के स्वातन्य के समान FREE मे जाना का कथन करने वाले ग्रन्थ के आगमत्व की असिद्धि है". जाता है। जैसे देवदत्त कूशन को तोड़ रहा है-इसमे १-२१-२२ की व्याख्या मे अवधिज्ञान का विषय, २-७ की कुशल की भेदन किया मे जब स्वतन्त्रता की विवक्षा की व्याख्या मे सन्निपातिक भावो की चर्चा, २-४६ की जाती है, तब कुशल म्वय ही नष्ट हो रहा है। क्योंकि व्याख्या में शरीरों का तुलनात्मक विवेचन, तीसरे अध्याय भेदन क्रिया तो कुशूल मे हो रही है, तब कुशल स्वयं ही की व्याख्या मे अधोलोक और मध्यलोक का विस्तृत वर्णन, कर्ता और स्वयं ही करण बन जाता है। उसी प्रकार ४-१६ की व्याख्या में स्वर्गलोक का विवेचन, पांचवें आत्मा ही ज्ञाता और ज्ञान होकर कर्ता एव करण रूप अध्याय की व्याख्या में जैनो के षद्रव्यवाद का निरूपण, बन जाता है। अर्थात् आत्मा ज्ञान के द्वारा जानता है, छठे अध्याय में आस्रव, सातवे में जैनाचार, आठवें मे इसमे अभिन्न कर्ता-करण है कर्मसिद्धान्त, नवे मे मुनि आचार तथा ध्यान तथा दसव प्रात्मा और ज्ञान में कर्त्तापना मान लेने पर लक्षण मे मोक्ष का विवेचन अवलोकनीय है। का अभाव होगा-ऐसा कहना उचित नहीं है-बाहव्याकरणिक वैशिष्टय लकता होने से। अकलङ्कदेव व्याकरण शास्त्र के महान विद्वान थे। प्रश्न-कर्ता और कर्म मे एकता मानने पर लक्षण पाणिनीय व्याकरण तथा जैनेन्द्र व्याकरण का उन्होंने का अभाव होगा; क्योकि 'युट्' प्रत्यय होता है। भली भांति पारायण किया था। व्युत्पत्ति और कोश उत्तर-ऐसा कहना योग्य नही है क्योंकि व्याकरण ग्रन्थों का उनका अच्छा अध्ययन था। तत्त्वार्थवातिक में शास्त्र में कहे गये 'युट' और 'णिच्' प्रत्यय कर्ता आदि स्थान-स्थान पर सूत्रो एवं उसमे आगत शब्दो का जब वे सभी साधनो से पाये जाते हैं। भाव कम में कहे गये 'त्य' व्याकरण की दृष्टि से औचित्य सिद्ध करते है, तब ऐसा प्रत्यय करणादि में देखे जाते हैं। जिससे स्नान करता हैलगता है, जैसे वे शब्दशास्त्र लिख रहे हो। इस प्रकार स्नानीय चूर्ण, जिसके लिए देता है-वह दानीय अतिथि, के सैकड़ों स्थल प्रमाण रूप मे उद्धृत किए जा सकते समावर्तन किया जाता है, वह समावर्तनीय गुरु कहलाता
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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