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________________ वर्ष ४५, कि. ३ अनेकास है। इसी प्रकार करणाधिकरण और कर्मादि में युट् प्रत्यय आठवें सूत्र की व्याख्या में मन्तर शब्द के अनेक अर्थ दिये देखा जाता है। जैसे-खाता है, वह निरदन, प्रस्कन्दन गये हैं । अन्तर शब्द छेद, मध्य, विरह आदि अनेक अर्थों जिससे होता है वह प्रस्कन्दन इसी प्रकार सातों ही विभक्ति में हैं। उनमे से अन्यतम ग्रहण करना चाहिए। अन्तर से होने वाले शब्दों में युट प्रत्यय होता है"। शब्द के अनेक अर्थ हैं। यथा-सान्तरं, काष्ठं में अन्तर एक ही अर्थ मे शब्दभेद होने से व्यक्तितभेद देखा छिद्र अर्थ में है अर्थात् छिद्र सहित काष्ठ है। 'द्रव्याणि जाता है। जैसे कि 'गेहं कुटी मठः' यहाँ एक ही घर रूप धान्त रमारभते' यहाँ अन्तर शब्द अभ्य अर्थ में है अर्थात् अर्थ में विभिन्न लिंग वाले शब्दों का प्रयोग है। पुष्यः, द्रव्यान्तर का का अर्थ अन्य द्रव्य है । 'हिमवत्सागरान्तरे' तारका, नक्षत्रम्', यहाँ एक ही तारा रूप अर्थ मे विभिन्न इसमे अन्तर शब्द का अर्थ मध्य है अर्थात् हिमवान पर्वत लिगक और विभिन्न वचन वाले शब्दों का प्रयोग है। और सागर के मध्य में भरत क्षेत्र है। क्वचित समीप अर्थ इसी प्रकार ज्ञान शब्द विभिन्न लिंग वाला होते हुए भी मे अन्तर शन्द आता है। जैसे-स्फटिक शुक्लरक्ताद्यन्तरआत्मा का वाचक है। स्थस्य तद्वर्णता, श्वेत और लाल रंग के समीप रखा हुआ 'दर्शन ज्ञान चारित्राणि' में तीनो को प्रधानता होने स्फटिक । यहाँ अन्तर का अर्थ समीप है। कही पर से बहुवचन का प्रयोग किया गया है। जैसे-'प्ल क्षन्न- विशेषता भर्थ मे भी अन्तर शब्द का प्रयोग आता है। प्रोधपलाशाः' इसमे अस्ति आदि समान काल क्रिया वाले जैसे--'घोड़ा, हाथी और लोहे में , 'लकड़ी, पत्थर और प्लक्षादि के परस्पर अपेक्षा होने से और सर्व पदार्थ प्रधान कपड़े में', स्त्री-पुरुष और जल में अन्तर ही नही महान् होने से इतरेतर योग मे द्वन्द्व समास और बहुवचन का अन्तर है। यहा अन्तर शब्द वैशिष्ट्यवाचक है। कही पर प्रयोग है। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में बहियोग में अन्तर शब्द प्रयुक्त होता है। जैसे-'ग्रामअस्ति आदि समान क्रिया, काल और परस्पर सापेक्ष होने स्यान्तरे कूपाः' मे बाह्यार्थक अन्तर शब्द है अर्थात् गांव से इतरेतर द्वन्द्व और सर्वपदार्थ प्रधान होने से बहुवचनान्त के बाहर कुयें हैं। कही उपसंख्यान अर्थात् अन्तर्वस्त्र के का प्रयोग किया गया है। अर्थ में अन्तर शब्द का प्रयोग होता है, यथा 'अन्तरे ____ जि' के समान सम्यक् विशेषण की परिसमाप्ति शारकाः'। कही विरह अर्थ मे अन्तर शब्द का प्रयोग प्रत्येक के साथ लगाना चाहिए अर्थात् द्वन्द समास के होता है। जैसे-'अनभिप्रेत श्रोतृ जनान्तरे मन्त्रयते' साथ कोई भी विशेषण चाहे वह आदि में प्रयुक्त हो या अर्थात् अनिष्ट व्यक्तियों के विरह में मन्त्रणा करता है। अन्त मे, सबके साथ जुड़ जाता है। जैसे-गुरुदत्त, देव इस प्रकरण मे छिद्र, मध्य और विरह में से कोई एक दत्त, जिनदत्त को भोजन कराओ, इसमे भोजन क्रिया का अर्थ लेता तीनों मे अन्वय हो जाता है। वैसे ही प्रशसावचन सम्यक अनुपहत वीर्य का अभाव होने पर पुनः उसकी उद्शब्द का अन्वय दर्शनादि तीनो के साथ होता है-सम्यग- मसि होना अनर है। किसी समर्थ द्रव्य की किसी निमित्त दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र"। से अमुक पर्याय का अभाव होने पर निमित्तान्तर से जब उपर्यक्त उदाहरण प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र के हैं। तक वह पर्याय पुनः प्रकट नही होती, तब तक के काल परे तत्त्वार्थवातिक में इस प्रकार की सैकड़ो चर्चायें हैं। को प्रातर करते र विशेष अध्ययन करने वालों को इन्हें ग्रन्थ से दखना अन्त शब्द के मनेक अर्थ होने पर भी 'वनस्पत्यन्ताचाहिए । इससे अकलदेव का व्याकरण के सभी अङ्गों नामेकम्' में विवक्षा वश समाप्ति अर्थ ग्रहण करना का तलस्पर्शी ज्ञान सूचित होता है। चाहिए। यह अन्त शब्द अनेकार्थवाची है। कहीं अन्त शब्दों के अनेक अर्थ शब्द अवयव अर्थ में आता है। जैसे-वस्त्र का अन्त शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं, इसके उदाहरण तत्त्वार्थ- अर्थात् वस्त्र का एक अंश । कही सामीप्य अर्थ मे आता वातिक में अनेक मिल जायगे। जैसे-प्रथम अध्याय के है। 'उदकान्तं गतः' पानी के समीप गया। कही अवसान
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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