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________________ प्रकलदेव की मौलिक कृति तस्वार्थवातिक है कि बौद्ध लोकधातुओं को अनन्त मानते हैं। अतः किया गया है कि विज्ञान मे सामर्थ्य का अभाव होने से आकाश के प्रदेशों को जैनों द्वारा पनन्त माने जाने मे मन विज्ञान नहीं है। क्षणिक वर्तमान विज्ञान पूर्व और कोई विरोध नहीं है। उत्तर विज्ञानों से जब कोई सम्बन्ध नही रखता, तब गुणपांचवें अध्याय के सत्रहवें सूत्र की व्याख्या मे कहा दोष विचार और स्मरणादि व्यापार में कैसे सहायक बन गया है कि कोई बौद्ध मानते है कि रूपण, अनुभवनिमित्त सकता है। ग्रहण, संस्कृताभिसंस्करण, आलम्बन और प्रज्ञप्तिस्वभाव पांचवें अध्याय के २२वें सूत्र की व्याख्या में कहा गया लक्षण रूप-वेदना, संज्ञा, सस्कार और विज्ञान ये पांच है कि क्षणिक एकान्तवाद में प्रतीत्यवाद को स्वीकार स्कन्ध हैं। उन भिन्न लक्षण वाले स्कन्धों में यदि एक करने से उसकी प्रक्रिया में जितना कारण होगा, उतना स्कन्ध के ही सर्व धर्मों की कल्पना करते है । यदि विज्ञान कार्य होगा, अत: उनके भी वृद्धि नही होगी। कि च सर्व के नही होने पर भी अनुभव आदि नहीं होते है, विज्ञान के क्षणिक होने से अकुर का और उसके अभिमत कारण के ही अनुभव आदि होते हैं। अत: एक विज्ञान को ही भौमरस, उदकरम आदि का विनाश होगा या पौर्वापर्य मानना चाहिए। उसी से ही रूपादि स्कन्धों का रूपण, (क्रम) से । यदि कार्य और कारणों का युगपत् नाश होता अनुभवन, शब्द प्रयोग और सस्कारादि कार्य हो जायेंगे है तो उनके द्वारा वृद्धि क्या होगी? क्योंकि वृद्धि के तो शेष स्कन्धों की निव'त्ति हो जाने पर निरालम्बन कारण जब स्वयं नष्ट हो रहे है, तब वे अन्य विनश्यमान विज्ञान की भी स्थिति नहीं रह सकती अर्थात् विज्ञान की पदार्थ की क्या वृद्धि करेंगे? अर्थात् विनश्यमान पदार्थ भी निवृत्ति हो जाने से सर्वशून्यता ही हाथ रह जायगी, अन्य विनश्यमान पदार्थ की वृद्धि करते हुए लोक मे नही परन्तु बौद्धों को पांच स्कन्धों का अभाव इष्ट नहीं है। देखे जाते । यदि कार्य-कारण क्रमशः नष्ट होते है, तब भी सभी वादी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष पदार्थ को स्वीकार नष्ट अकुर का भौमरस, उदकरस आदि म कर सकते करते हैं। इसके समर्थन में कहा गया है कि कोई (बौद्ध) है ? अथवा विनष्ट रसादि. अकुर का क्या कर सकेंगे ? कहते हैं कि प्रत्येक रूप परमाणु अतीन्द्रिय है। उनका अनेकान्तवाद में तो अकुर या भोमरसादि सभी पदार्थ समुदाय, जो कि अनेक परमाणु वाला है, वह इन्द्रियग्राह्य द्रव्यदष्टि से नित्य है और पर्यायष्टि से क्षणिक है । अतः है। चित्त और चैतसिक विकल्प अतीन्द्रिय" है। वृद्धि हो सकती है। अमूर्त धर्म, अधर्म भी उपकारक होते हैं। इसके कारणतुल्य होने से कार्यतुल्य होना चाहिए, ऐसा उदाहरण मे बौद्धों का यह सिद्धान्त उपस्थित किया गया करने में आगम विरोध आता कहने मे आगम विरोध आता है। क्योंकि बोट विद्यारूप है कि अमतं भी विज्ञान रूप की उत्पत्ति का कारण होता तुल्य कारणों से पुण्य-अपुण्य और अनुभय संस्कारो को है। नाम रूप विज्ञान निमित्तक है। उत्पत्ति मानते है । पांचवें अध्याय के अठारहवें सूत्र की व्याख्या मे कहा सल्लेखना पर बौद्धो द्वारा आपत्ति किये जाने पर गया है कि यदि कोई (बौद्ध) ऐसा कहे कि आकाश नाम कहा है कि सभी पदार्थ क्षणिक हैं, इस प्रकार कहने वाले की कोई वस्तु नही है, केवल आवरण का अभावमात्र है क्षणिकवादो के स्वसमय विरोध है, उसी प्रकार जब सत्त्व तो ऐसा कहना ठीक नहीं है। आकाश आवरण का अभाव (जीव) सत्त्व सज्ञा (जीव का ज्ञान), वधक (हिसक) और मात्र नहीं है, अपितु वस्तुभूत है; क्योंकि नाम के समान वधचित्त (हिंसा) इन चार चेतनाओ के रहने पर हिंसा उसकी सिद्धि है । जैसे नाम और वेदना आदि अमूर्त होने होती है, ऐसा कहने वाले (इस मतवादी) के जब आत्मसे अनावरण रूप होकर भी सत् हैं, ऐसा जाना जाता है, वधक चित्त ही नहीं है, तब सल्लेखना करने वाले के उसी प्रकार अमूर्त होने से अनावरण रूप होकर भी आत्मघात होता है। ऐसा कहने वाले के असचेतित कर्मआकाश वस्तुभूत है, ऐसा जाना जाता है। बन्ध का अभाव है और उसमे भी आत्मगत काप्दोष मेर ५वे अध्याय के १९वें सूत्र की व्याख्या में यह सिद्ध पर स्वसमय (स्ववचन) विरोध आता है।
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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