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जैन एवं बौद्ध साहित्य में श्रमण परम्परा
D डॉ रमेशचन्द जैन, बिजनौर
प्राचीन भारत को दो परम्पराये-भारत वर्ष मे २. जिसका चित्त राग द्वेष से अबाधित होता है। प्राचीन काल से ही दो परम्पराएं चली आ रही हैं- ३. समतायुक्त जिसका मन है, वह श्रमण है। १. श्रमण और २. ब्राह्मण । दोनों परम्परायें अपने आपको ४. श्रमण धर्म रूप हो सकता है। जो आगम में कुशल सबसे प्राचीन सिद्ध करने का प्रयास करती हैं। जैन प्रथों है, जिसकी मोहदृष्टि हत गई है और जो वीतराग के अनुसार भगवान ऋषम के पुत्र भरत ने ब्राह्मण वर्ण चारित्र में आरूढ़ हैं । उस महात्मा श्रमण को धर्म की स्थापना की। पचरित मे ब्राह्मण की उत्पत्ति ब्रह्म (मोह क्षोभ विहीन प्रात्म परिणाम रूप") कहा है। के मुख से होना निर्हेतुक सिद्ध करते हुए कहा गया है कि ५. जो निःसंग, निरारम्भ, भिक्षाचर्या में शुद्धभाव, समस्त गुणों के वृद्धिंगत होने के कारण ऋषभदेव ब्रह्म एकांकी, ध्यानलीन और सवगुणो से युक्त हो, वही कहलाए और जो जन उनके भक्त हैं, वे ब्राह्मण कहे जाते श्रमण होता है"। हैं। इस प्रकार ब्राह्मणों की परम्परा का सम्बन्ध भग- ६. पवित्र मन वाला श्रमण है"। वान ऋषभदेव के पुत्र भरत से है। परवर्ती काल में ७. जो अनिश्रित, अनिदान- फलाशंसा से रहित, ब्राह्मणों का आचार श्रमणों से भिन्न होता गया और इस आदान रहित, प्राणातिपात, मषावाद, अदत्तादान, प्रकार दो धाराओं ने जन्म लिया। यही कारण है कि मैथुन परिग्रह, क्रोध, मान, माया लोभ, प्रेय, द्वेष ब्राह्मणत्व के प्रति आदरभाव होते हुए भी जो कर्म से
और सभी आस्रवों से विरत, दान्त, द्रव्यमुक्त होने ब्राह्मण नहीं हैं, उनकी जैन ग्रन्थकारों ने भर्त्सना की है। के योग्य और व्युत्सृष्ट काय-शरीर के अनासक्त है। आचार्य रविषेण के अनुसार ब्राह्मण वे हैं, जो अहिंसावत वह श्रमण है"। धारण करते है, महाव्रत रूपी चोटी धारण करते हैं, ध्यान
धमण के लिए ब्रह्मचर्य की आवश्यकता-श्रमण रूपी अग्नि मे होम करते हैं; शान्त हैं और मुक्ति को के लिए ब्रह्मचर्य आवश्य है। ब्रह्मचर्य से विचलित होने सिद्ध करने में तत्पर रहते हैं। इसके विपरीत जो सब वाला श्रामण्य को नष्ट कर देता है । प्रकार के आरम्भ में प्रवृत हैं, निरन्तर कुशील में लीन
बन्दनीय श्रमण-जो ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप और रहते हैं तथा क्रियाहीन हैं, वे केवल ब्राह्मण नामधारी हैं,
वीर्य इन पांच आचारो का पालन करता है, वह श्रेष्ठ वास्तविक ब्राह्मणत्व उनमें नही है। ऋषि, संयत, धीर,
श्रमण है, वही वन्दनीय है। (प्रवचनसार-२), (अष्ट पाहुड
पृ०७१)। शान्त, दान्त और जितेन्द्रिय मुनि हो वास्तविक ब्राह्मण
___अन्तरात्मा और बहिरात्मा श्रमण-आवश्यक सहित हैं" । ब्राह्मण का सम्बन्ध ब्रह्मचर्य से है। ब्रह्मचर्य धारण
श्रमण अन्तरात्मा है और आवश्यक रहित श्रमण बहिकरने वाला ब्राह्मण कहलाता है। पतंजलि ने ब्राह्मण
रात्मा है । (नियमसार-१४६)। और श्रमण इन दोनों में शाश्वतिक विरोध बतलाया है।
महाश्रमरण-सर्वज्ञ, वीतराग महाश्रमण है। पचास्तिश्रमण शब्द का अर्थ-श्रमण शब्द को अनेक
काय-समयव्याख्या-२ । व्युत्पत्तियां की गई हैं :
प्रश्नभमरण-वैया वृत्य मे कुशल, विनयी, सर्वसघ का १. जो श्रम-तप करते हैं (सूत्रकृतांग १.१६.१ प्रा० पालक, वैरागी और जितेन्द्रिय श्रमण प्रश्नश्रमण है। शीलककृत टीका पत्र २६३)।
-(अनगार धर्मामृत १६६ शानदीपिका)