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२४, वर्ष ४५, कि. १
अनेकान्त
कवि ने निम्न प्रकार वर्णन किया
प्राप्त किया। कवि को अपनी मां का आशीर्वाद प्राप्त सत्रहसे सैताल में दूज सुदो बैशाख ।
करना कितना महत्वपूर्ण और प्रिय होता है। इसका बुधवार मेरोहिनी भयो, समापन भाष ॥१०४|| प्रत्यक्ष प्रमाण कवि द्वारा निबद्ध पुराण में अपनी माता के तीनि हिसे या ग्रन्थ के, भये जहानाबाद ।
नामोल्लेख को पढ़ करके जाना जा सकता है। चौधाई जल पय विष, वीतराग परमाद ॥१०५॥ पाण्डवपुराण का हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण उल्लेख
कवि की इस प्रथम रचना का सर्वत्र स्वागत हुआ है। जैन समाज मे इन काव्यो का विगत ३०० वर्षों से पठनऔर मन्दिरों में उसका स्वाध्याय होने लगा।
पाठन हो रहा है। राजस्थान के जैन ग्रन्थ भंडारों में पानीपत में कुछ समय रहने के पश्चात् बुलाकीदास पाण्डवपुराण की पचासों गण्डुलिपियां संग्रहीत हैं । जिनका अपनी माता के साथ वापस देहली लौट आये लेकिन माता उल्लेख डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर ने राजस्थान और पुत्र दोनो ही स्वाध्याय प्रेमी थे । बुलाकीदास स्वय के जैन ग्रन्थ सूवी के पाचो भागों में किया है। यहीं नहीं भी प्रवचन करते और अपने ज्ञान से सबको लाभान्वित कवि बुलाकीदास एव उनकी रचनाओ का विस्तृत अध्ययन करते। कुछ समय पश्चात् माता ने अपने पुत्र के समक्ष श्री महाबीर ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकागित कवि बुलाखी पाण्डवपुराण को दिन्दी मे निबद्ध करने का आग्रह किया चन्द बुलाकीदास एव हेमराज नामक भाग-६ मे किया है। क्योकि संस्कृत व अपभ्रंश दोनो ही उसके लिए सहज जिसमे शोधाथियों को कवि के जीवन एव उनकी कृतियों समान मे नही आती थी। माता ने कहा यद्यपि शुभचन्द्र के अध्ययन में पूरी-पूरी सुविधा मिली है। का पाण्डवपुराण संस्कृत मे उपलब्ध है लेकिन उसको अन्त मे मैं यही कहना चाहूंगी कि बुलाकीदास का कठिन है। वुलाकीदास को माता की बात अच्छी लगी पाण्डवपुराण हिन्दी की महत्वपूर्ण कृति है जो वस्तु वर्णन, और उन्होंने पाण्डवपुराण को हिन्दी मे निबद्ध करने का भाषागत, विशेषताओं, छन्द, अलकार एवं रस की दृष्टि कार्य अपने हाथ में ले लिया। वे प्रतिदिन जितने छन्द से १७०० शताब्दी की एक महत्वपूर्ण काव्यकृति है । कथा निबद्ध करते अपनी माता को समझाते थे। काव्य निबद्ध प्रधान होने पर भी जिसमें काव्य कला के स्थान-स्थान करने का और माता को उसे सुनाने का कार्य कितन ही पर दर्शन होते हैं । इमलिए ऐसी हिन्दी की बेजोड़ कृति का महीनों अथवा वर्षों तक चलता रहा लेकिन स. १७५४ जितना अधिक समीक्षात्मक अध्ययन होगा उतना ही असाइ सुदी द्वितीया का वह पुण्य दिन था जब कवि ने काव्य का गौरव बढ़ेगा। --कसरावद पूरे पाण्डवपुराण को हिन्दी मे निबद्ध करने का मौभाग्य
प. निमाड़-म. प्र. पृ० २२ का शेषाश) इस अक्षय तृतीया ५ मई १९६२ को श्री पापडीबाल जिन चन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित लादो मूर्तियां प्राप्त हो सकेगी। के इस शुभ प्रतिष्ठित कार्य को ५०० वर्ष हो जावेगे जैन आज से ५०० वर्ष पूर्व इतिहास को यह एक ऐसी अनठी समाज को उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन हेतु विभिन्न स्थानो घटना है जिसमे इतने अधिक जिनविम्बों का निर्माण और पर उच्च स्तरीय समारोह एवं कार्यक्रम आयोजित किये प्रतिष्ठा किसी और ने कई थी और भविष्य में भी जावें और उस महान् धर्मप्रभावक का पुण्य स्मरण किया कोई आशा नही कि इतने विशाल स्तर पर जिनविम्बों भाबे तथा जैन संस्कृति के इस मक सेवक के प्रति विन- का निर्माण हो सके। ऐसे स्वनामधन्य श्री जीवराज यांजलि एवं श्रद्धांजलि प्रस्तुत की जावे।।
पापड़ीवाल को हम शतशः विनम्र विनयांजनि प्रस्तुत यहां हमने केवल छतरपुर के ही मूर्ति लेख प्रस्तुत करते हैं और आशा करते हैं कि जैन समाज भी सामहिक किए हैं यदि खोज की जावे तो उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरिः स्तर पर उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करे। याणा. बंगाल, बिहार, बुन्देलखण्ड, महपप्रदेश, राजस्थान,
श्रुति कुटीर गुजरात, महाराष्ट्र, एवं कर्नाटक आदि प्रदेशों के छोटे-छोटे
६८ विश्वास मार्ग, विश्वास नगर, गांवों और नगरों में पापडीवाल द्वारा निर्मित तथा भ.
शाहदरा दिल्ली-११००३२