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सांख्य और जैन दर्शन में ईश्वर
डॉ. सुदर्शन लाल जैन 'ईश्वर' शब्द को सुनते ही हमारे मन में यह विचार- वास्तविक है और वेदान्त की दृष्टि से जगत् भ्रमात्मक धारा आती है कि इस जगत् को बनाने वाला, पालन या मायात्मक है । इस तरह वेदान्त की दृष्टि से परमब्रह्म करने वाला हमारे पाप-पुण्यरूप कर्मों का फल देने वाला, हो सत्य है और उम परमब्रह्म का मायारूप ईश्वर है, जो जीवो पर अनुग्रहादि करने वाला, सर्वेश्वर्यशाली, अनादि परमसत्य नहीं है। मुक्त, सर्वशक्तिसम्पन्न, अनन्त अ.नन्द मे लवलीन, व्यापक योगदर्शन-योगदर्शन सांख्यदर्शन का पूरक दर्शन तथा चैतन्य गुणयुक्त एक प्रभु है जिसकी इच्छा के बिना है। इसमें प्रकृति (अचेतन) और पुरुष (चेतन) ये दो मुख्य इस जगत् का पत्ता भी नहीं हिल सकता है। यह आत्मा तत्त्व हैं । पुरुष चेतन आत्मा) संख्या मे अनेक हैं। एक से पृथक तत्त्व है। ऐसा ईश्वर भारतीय दर्शन में केवल पुरुष-विशेष को ईश्वर कहा है जो अनादिमुक्त, क्लेशादि न्याय दर्शन ही स्वीकार करता है। अन्य भारतीय दार्श- (शुभाशुभ कर्मों) से सर्वथा मुक्त, विपाक (कों के फलोपनिक जिन्होने ईश्वर को स्वीकार किया है उनकी मान्यता भोग) तथा (नाना प्रकार के सस्कार) मे मर्वथा अस्पृष्ट कुछ भिन्न है।
है। यह प्राणियो पर अनुग्रहादि करता है। इस तरह ईश्वरवादो और अनीश्वरवादो दर्शन-परम्परायें: इस दर्शन का ईश्वर एक पुरुषविशेष है और वह सत्य
भारतीय दर्शन में चार्वाक, बौद्ध, जैन, साख्य, वैशे- रूप है। षिक और मीमांसा मूलत: अनीश्वरवादी दर्शन माने जाते सांख्यदर्शन--- इस दर्शन में प्रकृति और पुरुष ये दो हैं परन्तु परवर्तीकाल में चार्वाक को छोड़कर ये दर्शन भी ही तत्त्व है। प्रकृति और पुरुष का सयोग होने पर प्रकृति किसी न किसी रूप में ईश्वरवादी बन गए । इनका मे क्षोभ पैदा होता है और महदादिक्रम से प्रकृति से इस ईश्वर वैमा नही है जैसा कि ऊपर ईश्वर का स्वरूप बत- जगत् की सृष्टि होती है। इसम ईश्वर (पुरुषविशेष) को लाया गया है। मूलतः ईश्वरवादी वेदान्त और योगदर्शन कोई आवश्यकता नहीं है। सृष्टि स्वाभाविक प्रक्रिया से का ईश्वर भी वैसा नहीं है जैसा कि न्यायदर्शन का होती है। जैसे वत्सविवृद्धि के लिए दूध की प्रवृत्ति स्वत: ईश्वर है।
होती है। वेदान्त-इस दर्शन मे नित्य, अनादि, अनन्त तथा
जैनदर्शन-जनदर्शन मे छ द्रव्यों की सत्ता मानी गई शुद्ध सच्चिदानन्दस्वरूप एकमात्र निर्गुण ब्रह्मतत्त्व को है-पुद्गल रूपी (अचेतन), जीव (चेतन = आत्मा), धर्म स्वीकार किया गया है। इसके अतिरिक्त समस्त जगत् (गति-हेतु), अधर्म (स्थिति-हेतु), आकाश (अयगाह हेत) इसी का विवर्त (भ्रम) है । अर्थात् समस्त जगत् में एक- और काल (वर्तना या परिवर्तन हेतु) । इनसे ही स्वामात्र ब्रह्म तत्त्व है वह जब मायोपाधि से युक्त होकर भाविक रूप से सृष्टि होती है। इसका संचालक कोई सगुणरूप को धारण करता है तब वह कथचित न्याय. ईश्वर नही है। इतना अवश्य है कि जीव-मुक्तो और दर्शन के ईश्वर के तुल्य हो जाता है। न्यायददर्शन का विदेहमुक्तों को (ईश्वर) परमात्मा शब्द से सम्बोधित ईश्वर तो मात्र जगत् का निमित्त कारण है जबकि किया गया है। परन्तु वे वीतरागी होन से अनुग्रहादि वेदान्त का सगुण ब्रह्मरूप ईश्वर जगत् का निमिन और कुछ भी कार्य नहीं करते। वे केवल आदर्श पुरुष मात्र हैं। उपादान दोनों कारण है। न्याय की दृष्टि से जगत समीक्षा:-साख्यदर्शन और जैनदर्शन दोनों ही