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संस्कृत जैन चम्पू और चम्पूकार
महत्वपूर्ण चम्पू रचना है। यह कृति भी महावीर जी से प्रकाशित है। इसके रचपिता स्व० श्री मूलचन्द्र शास्त्री का जन्म मालयोन (सागर म० प्र०) लगभग १६०५ ई० में हुआ था। पिता का नाम सटोले और माता का नाम सल्लो था । ऐसी उनकी दूसरी कृति 'वचनदूतम' से पता चलता है" । आपने 'न्यायरत्न' नामक सूत्र ग्रन्थ 'लोकाशाह' महाकाव्य 'वचनदूतम' दूतकाव्य की रचना की है, कस्तोगी की समस्या पूर्ति और तीन ग्रन्थो का हिन्दी अनुवाद किया है।
वर्धमान चम्पू में महावीर के पांचों कल्याणकों का चित्रण किया है। रचना सरल और सरस है ।
भारत चम्पू :
भारत चम्पू का उल्लेख श्री मुख्तार ने किया है। उन्होंने लिखा है 'जयनन्दी नाम के यों तो अनेक मुनि हो गये हैं, परन्तु आशाधर जी से जो पहले हुए हैं, ऐसे एक ही जयनन्द मुनि का पता मुझे अभी तक चला है। जो कि कन्नडी भाषा के प्रधान कवि आदिपम्प से भी पहले हो गये है। क्योंकि आदि पम्प ने अपने 'आदिपुराण' और 'भारत चम्पू' में, जिसका रचनाकाल शक स० ८६३ (वि०स०] ११८) है, उनका स्मरण किया है"। स्पष्ट है कि इसके लेखक आदिपम्प हैं, इसकी भाषा कन्नड़ है । पुण्याश्रव चम्पू :
इसके रचयिता श्री नागराज हैं, जिन्होंने शक स० १२५३ में वक्त चम्पू रचा। श्री जुगलकिशोर मुख्तार को समन्तभद्र भारती का एक स्तोत्र दक्षिण भारत में प्राप्त हुआ है जो श्री नागराज की रचना है। इस सन्दर्भ मे पादटिप्पण मे श्री मुख्तार ने लिखा है- 'नागराज नाम के एक कवि एक स० १२५३ मे हो गये है, ऐसा 'कर्णाटक कवि चरित्र' से मालूम होता है। बहुत सम्भव है कि यह स्तोत्र उन्ही का बनाया हुआ हो वे 'उभयकविता विलास' उपाधि से भी युक्त थे। उन्होने उक्त संवत् मे अपना पुण्याश्रव चम्पू बनाकर समाप्त किया था"। इसकी प्रति क्या है ? और वयं विषय क्या है, इसका उल्लेख श्री मुख्तार ने नहीं किया है। सम्भव है, इसमें किसी पुष्प के महत्व वाली कथा वर्णित हो
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भरतेश्वराभ्युदय चम्पू :
इसके रचयिता पं० आशाधर जी हैं जिनके सम्बन्ध मे हम पीछे लिख आये है इसे अनेक विद्वान महाकाव्य मानते हैं, पर डा० राजवंश सहाय हीरा" और डा० छविनाथ त्रिपाठी ने इसे चम्पू माना है। प्रेमी जी ने सोनागिर में इसकी प्रति होने का उल्लेख किया है" । प्रयत्न करने पर भी यह वहां नहीं मिली। इसका विवरण महास कंटलाग संख्या १२४४४ मे है। नामरूप इसमें भरत के अभ्युदय का वर्णन है । जंनाचार्यविजय चम्पू
इसका लेखक अज्ञात है। डा० त्रिपाठी ने गवर्नमेन्ट ओरियन्टल सारी मद्रास में इसकी प्रति होने का उल्लेख किया है, इसमे ऋषभदेव से लेकर मल्लिषेण तक अनेक जंनाचार्यों की विद्वत्ता एवं उनको वादप्रियता के साथ उनकी अन्य सम्प्रदायों पर प्राप्त विजयो का वर्णन है" ।
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इस प्रकार जैन चम्पू काव्यों की परम्परा अविछिन्न रूप से चलो। यद्यपि सख्या की दृष्टि से अत्यल्प ही जैन चम्पू काव्यों का सृजन हुआ, पर गुणवत्ता और महत्व की दृष्टि से जैन चम्पूकाव्य पीछे नहीं है 'यशस्तिलक' संस्कृत चम्पू काव्यों का मेरु है। 'जीवन्धर चम्पू' जहां कथा तत्व की दृष्टि से अपनी मानी नहीं रखता, वही 'पुरुदेव चम्पू' काव्य कला, विशेषता श्लेष प्रधान चम्पुत्रों मे अग्रगण्य है। 'दयोदय' आधुनिक शैली पर लिखे जाने से स्वतः ही हृदयग्राही बन गया है, फिर इसका कथानक इतना सुन्दर है कि, पाठक एक बार पढ़ना श्राम्भ कर उसे सहज ही बीच मे नहीं छोड़ पाता 'महावीर ही च०' अन्य तीर्थंकरों का भी वर्णन करने से निश्चय ही उपादेय है । वर्धमान चम्पू का भी विद्वत्समाज मे समुचित आदर होगा, ऐसी आशा है ।
उपर्युक्त चम्पूओं की महता, वर्णन विशालता गुणवत्ता, सहृदयहारिता, काव्यात्मकता आदि के आधार पर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अप्रकाशित 'पुण्याश्रव', 'भारत', 'भरतेश्वराभ्युदय' और 'जैनाचार्यविजय भी निश्चय ही महत्वपूर्ण जैन चम्पू होगे । - निदेशक, प्राकृत एवं जंन विद्या शोधप्रबन्ध संग्रहालय, खतौली ( उ० प्र० )