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२२,
४५, कि.४
अनेकान्त
पृष्ठ
पक्ति
८९
१०२
२८
१०७
२५
१११ ११४ ११४ ११४ ११७ ११६ ११६
.
२०
१८ १८-१९
शुद्ध
अशुद्ध पश्चिम आवली को
पश्चिम आवली के, विषय के
स्थान के कधं ? एश्य
कधमत्थ क्या उससे उदय का ग्रहण
उससे उदय का ग्रहण कैसे उदयावलि क्षपक
उदय वाले क्षपक पयदणाणत्त विहाणं
पयदणाणत्त विहदावणं इसलिए इस अपेक्षा प्रकृत में भेद का कथन इस बात का सहारा लेकर प्रकृत में भेद
रूप कथन का बहिष्कार कोध संज्वलन और मान
माया संज्वलन और लोभ एक सूत्र मे
इस सूत्र में अश्वकर्णकरण की
अश्वकर्णकरण काल की उद्देश्य
उद्देश (स्थान) क्योंकि यहाँ पर
परन्तु यहाँ पर कारण नही है
कारण यह है। ससय
समय को प्रतिसमय
को जो कि प्रति समय सक्षम साम्परायिक स्वरूप अनुभागा कृष्टियों सूक्ष्म कृष्टिस्वरूप अनुभाग के साथ है के साथ गलाने वाले
उन्हें गलाने वाले कषाये हि
कषायो हि असख्यतवें भाग प्रमाण
असंख्यात बहुभाग प्रमाण कालप्रमाण शेष काल को
काल के शेष भाग को अर्थ के अर्थ का
अर्थ का सम्भव उदय
सम्भव एव उदय चारित्र मोहनीय की पहले
चारित्र मोहनीय को क्षपणा का पहले पज्जतेषु
पज्जतेसु 'कामरण'
संकामण दुपयोगवदुपयोगस्यापि ।
दुपयोगस्यापि भाव मे ग्रहण करने में प्रवृत्त
रूप उपकार में प्रवृत्त पर्याय वृद्धि को प्राप्त हुई है
पर्याय प्रकटित (खिली) हुई है पीर समाप्ति
परिसमाप्ति प्रकृतियो के बाद ही
प्रकृतियो की आठ कषायो की क्षपणा प्रारंभ कर
क्षपणा कर करने के बाद ही आठ
करने के पूर्व ही आठ १ (६०) १४३ भाग १५
१ (६०) १४३ भाग १४ पृ. २६१ २ (६१) १४४ भाग ०१५
२ (६१) १४४ भाग १४ पृ. २६३
२
FG
१२२ १२७ १२८
२७-२८
२४
२०
१२८ १२९
१२६ १३२
१३२ १३४
२७-२८ २४-२५
१३६ १४०
१६
१४०
२० २१
१४२ १४२
२७ २७