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________________ गतांक से आगे: कर्नाटक में जैन धर्म 0 श्री राजमल जैन, जनकपुरी, दिल्ली प्राजकल की हम्पा में लगभग २६ कि. मी. के घेरे उपयुक्त वंश का सबसे प्रसिद्ध नरेश कृष्ण देवराय में विखरे पड़े जैन-अजैन स्मारकों, महलों और साथ ही (१५०१-३६ ई. हआ है जो कि रणबीर होने के साथ बहने वाली तुंगभद्रा का परिचय इसी पुस्तक में दिया गया ही साथ धर्मवीर भी था। उसने बल्लारी जिले के एक है । वहीं इस स्थान का रामायण काल से इतिहास प्रारंभ जिनालय को दान दिया था और मूडबिद्री की गुरु बसदि कर विजयनगर साम्राज्य का इतिहास और जैनधर्म के के लिए भी स्थायी वृत्ति भी दी थी। एक शिलालेख में प्रति बिजयनगर शासकों का दृष्टिकोण, उनके सेनापतियो उसने स्याद्वादमत और जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करने आदि द्वारा विजयनगर मे ही कुन्थुनाथ चैत्यालय । . के साथ ही वराह को भी नमस्कार किया है। निक नाम गण गित्ति बसदि) आदि मन्दिरो के निर्माण का कालान्तर मे इस वंश का राज्य भी मुसलमानों के उल्लेख किया गया है। इस वश के द्वितीय नरेश बुक्का- सम्मिलित आक्रमण का शिकार हुआ। राजधानी विजयराय प्रथम (१३६५-७७ ई.) ने जैनों (भब्यों) और वैष्णवो नगर पांच माह तक लूटी और जलाई गई । अनेक मन्दिर (भक्तो) के बीच जिस ढंग से विवाद निपटाया उसका मतियां नष्ट हो गए। विजयनगर के विध्वम के बाद भी सूचक शिलालेख कर्नाटक के धार्मिक एवं राजनीतिक इसके वंशज चन्द्रगिरि से १४६५ ई. से १६८४ ई. तक इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। उसमे श्रवण- राज्य करते रहे। उनके समय में भी हेग्गरे की वसदि, बेलगोल की रक्षा और जीणोंद्वार आदि को भी व्यवस्था मत्तर की अनन्तजिन बसदि और मलेयूर की पार्श्वनाथ की गई थी। आगे चलकर शासक देवराय की पत्नी ने बसदि का निर्माण या जीर्णोद्धार इन राजाओं के उपश्रवणबेल ल मे 'मंगायीवसदि' का निर्माण कराया था। शासको या महालेखाकार आदि ने करवाया था। संगम राजा देवराय द्वितीय (१४१६-४६ ई.) तो कारकल विजयनगर के (हम्पी) के जैन स्मारकों, जैनधर्म के मे गोमटेश्वर की ४१ फुट ५ इच ऊची प्रतिमा के इस क्षेत्र का प्राचीन इतिहास और विजयनगर शासको, प्रतिष्ठा-महोत्सव में सम्मिलित हुमा था। विजयनगर में उनके सेनापतियों आदि का जैनधर्म से सम्बन्ध आदि इस वंश से पहले भी जैन मन्दिर थे, खुदाई मे दो मन्दिर विवरण के लिए इसी पुस्तक मे 'हम्पी' देखिए । और भी निकले बताए जाते हैं। स्वय इस कुल के राम मंसर का ओडेयर राजवंश : मन्दिर मे तीर्थंकर प्रतिमाएं उत्कीणं हैं । यह ठीक है कि कर्नाटक पर शासन करने वाले गजवंशो में अन्तिम यह वंश जैन नहीं था किन्तु इसके परिवार के कुछ सदस्य एवं सुविदित नाम ओडेयर राजवश का है। आधुनिक जिनधर्मावलम्बी, उसके प्रति उदार, सहिष्णु और पोषक मंसूर (प्राचीन महिशूर, मैसूरपट्टन) इस वंश की राजथे इसमे सन्देह नही। मन्त्री, सेनापति मे से कुछ जैन थे धानी रही। इतिहासकारो का मत है कि यह वंश भी उस और उन्होंने जैन मन्दिरों का निर्माण या जीणोद्धार गगवंश की ही एक शाखा है जो जैनधर्म के अनुयायी के कराया था। राजा देवराज द्वितीय (१४१६-४६ ई.) के रूप में कर्नाटक के इतिहास में प्रसिद्ध है। कालान्तर में सम्बन्ध मे यह उल्लेख मिलता है कि उसने विजयनगर के इस वश ने अन्य धर्म स्वीकार कर लिया किन्तु इसके 'पान-सुपारी' बाजार मे एक चैत्यालय बनवाकर उसमे शासको ने श्रवणबेलगोल को हमेशा आदर की दृष्टि से पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान की थी। देखा और उसका सरक्षक बना रहा। स्वतन्त्रता-पूर्व तक
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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