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________________ प्रकलदेव की मौलिक कृति तत्त्वार्थवातिक से (अर्थान्तरभूत होने से) आत्मा अज्ञ है और सर्वगत होने से अभिव्यक्त होने वाला, अर्थ के प्रतिपादन में समर्थ, से निष्क्रिय है, उनके भी विधिविशेष आदि से फलविशेष अमूर्त, नित्य, अतीन्द्रिय,निरवयव और निष्क्रिय शब्दस्फोट की प्राप्ति नहीं हो सकती; क्योंकि ऐसी आत्मा में कोई स्वीकार करना चाहिए। उनका यह मत ठीक है अर्थात् विकार-परिवर्तन की सम्भावना नही है"। शब्द को क्षणिक, अमर्त, निरवयव और निष्क्रिय शब्दपांचवें अध्याय के दूसरे सूत्र की व्याख्या में नैयायिको स्फोट मानना उचित नहीं; क्योकि ध्वनि और स्फोट में के 'द्रव्यत्व योगात् द्रश्य' की विस्तृत समीक्षा की गई है। व्यंग्य-व्यंजक भाव नहीं है। चार्वाक दर्शन समीक्षा-पांचवें अध्याय के २२वें सांख्य दर्शन समीक्षा-प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र में शरीरादि को पुद्गल का उपकार कहा है। उक्त सूत्र की व्याख्या में विनिम्न वादियो की मोक्ष की परिप्रसंग में कहा गया है-तन्त्रान्तरीया जीवं परिभाषन्ते, भाषा के साथ सांख्यदर्शन की मान्यता की ओर भी निर्देश तत्कथं इति । अर्थात् अन्य वादी (चार्वाकादि) जीव को किया गया है। सांख्य यद्यपि प्रकृति और पुरुष का भेद. पुद्गल कहते हैं, वह कैसे ? इस प्रश्न के उत्तर मे सूत्र विज्ञान होने पर स्वप्न में लुप्त हुए विज्ञान के समान कहा गया है कि स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण वाले पुद्गल अनभिव्यक्त चैतन्यस्वरूप अवस्था को मोक्ष मानता है। तथापि कर्मबन्धन के विनाशरूप मोक्ष के सामान्य लक्षण मोमांसा दर्शन समीक्षा-सम्यग्दर्शन, सभ्य ज्ञान में किसी को विवाद नहीं है। और सम्यक्चारित्र तीनों को एकता से मोक्ष होता है, इस पंचम अध्याय में आकाश के प्रदेशों की अनन्तता के सिद्धान्त के प्रतिपादन के प्रसग मे अन्य मतों की समीक्षा विषय में आपत्ति होने पर बौद्ध और वैशेषिक द्वारा के साथ मीमांसा के इस सिद्धान्त की भी समीक्षा की गई अनन्त को मान्यता दिए जाने का उल्लेख करते हुए सांख्य है कि क्रिया से ही मोक्ष होता है। सिद्धान्त के विषय में कहा गया है कि सांख्य सिद्धान्त में प्रथम अध्याय के बारहवें सूत्र की व्याख्या में प्रत्यक्ष सर्वगत होने से प्रकृति और पुरुष के अनन्तता कही गई के लक्षण के प्रसंग में बौद्ध, वैशेषिक और सांख्य की है। समीक्षा के साथ मीमांसकों के इस मत की समीक्षा की जैनधर्म में धर्म और अधर्म द्रव्य को गति और गई है कि "इन्द्रियों का सम्प्रयोग होने पर पुरुष के उत्पन्न स्थिति मे साधारण कारण माना है। यदि ऐसा न मानहोने वाली बद्धि प्रत्यक्ष है। मोमासको क इस मत को कर आकाश को सर्वकार्य करने में समर्थ माना जायगा तो स्वीकार किया जायगा अर्थात् इन्द्रियनिमित्त से होने वाले वैशेषिक, बौद्ध और सांख्य सिद्धान्त से विरोध बाएगा। ज्ञान को प्रत्यक्ष माना जाएगा तो आप्त के प्रत्यक्ष ज्ञान उदाहरणार्थ सांख्य सत्व, रज और तम ये तीन गुण मानते नही हो सकता"। हैं । सत्त्व गुण का प्रसाद और लाधव, रजोगुण का शोष पांचवें अध्याय के सत्रहवें सूत्र में कहा गया है कि और ताप तथा तमोगुण का आवरण और सादनरूप भिन्न अपूर्व नामक धर्म (पुण्य-पाप) क्रिया से अभिव्यक्त होकर भिन्न स्वभाव है। यदि व्यापित्व होने से प्राकाश को ही अमूर्त होते हुए भी पुरुष का उपकारी है अर्थात् पुरुष के गति एव स्थिति में उपग्रह (निमित्त) मानते है तो व्याउपभोग साधनों मे निमित्त होता ही है, उसी प्रकार अमूर्त पित्व होने से सत्त्व को ही शोष तापादि रजोगुणधर्म और धर्म और अधर्म द्रव्य को भी जीव और पुद्गलो की गति सादन प्रावरण बादि तपोधर्म मान लेना चाहिए; रज, और स्थिति में उपकारक समझना चाहिए"। तम गुण मानना निरर्थक है तथा और भी प्रतिपक्षी धर्म पाँचवें अध्याय के २४वें सूत्र की व्याख्या मे स्फोट- हैं। उनको एक मानने से सङ्कर दोष आएगा । उसी प्रकार वादी मीमांसकों के विषय में कहा गया है कि वे मानते सभी आत्माओं मे एक चैतन्य रूपता और आदान-अभोगता हैं कि ध्वनियाँ क्षणिक हैं । वे क्रम से उत्पन्न होती हैं और समान है, अतः एक ही आत्मा मानना चाहिए, अनन्त अनन्तर क्षण में विनष्ट हो जाती हैं। अतः उन ध्वनियों नहीं अर्थात् आत्मा भी चैतन्य भोक्त बादि समान होने से
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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