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प्राकृत प्रौर मलयालम भाषा
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नौवीं शताब्दी के आते-आते केरल में ब्राह्मणो का यालम भाषा मे प्राकृत शब्दो की खोज की है। वह सूची प्रभाव वृद्धि की ओर अग्रसर था। वे सस्कत के पक्षधर भी विस्तृत है। दक्षिण को चारो भाषाओ में प्राकत के थे। किन्तु प्राकत का अध्ययन-अध्यापन और प्रयोग जारी शब्दों का भी उन्होने अध्ययन किया है। यह तथ्य इस रहा, ऐसा लगता है।
बात की पुष्टि करता है कि प्राकृत ने भी दक्षिण भारतीय ___ नौवी से पन्द्रहवी सदी तक के शिलालेखो और भाषाओ को प्रभावित किया है। वह पभाव पूर्णतः मिट साहित्य का विशेष अध्ययन प्राकृत के मन्दर्भ में डा. नही सका यद्यपि उगे सरकत के पाबल्य का भी सामना जोसफ ने किया है। उन्होने सदियो के अनुसार (जैसे नौवी-दसवी) मलयालम शब्दो की सूची देकर प्राकृत शब्दो
अब एक सक्षिप्त मर्वेक्षण कुछ गलगलम रचनाओं की सूची देकर प्राकृत शब्दों से उनकी व्युत नि बताई है। का जिनमें प्राकृत का प्रयोग हुआ है। इसकी अधिकांश इस कालावधि मे उन्होने ४.१ मलयालम शब्द प्राकत से सामग्री भी डा० जोसफ के अनुसार है। व्युत्पन्न है यह सिद्ध किया है। यह भी जान देने योग्य प्राकृत काव्य - श्रीविध काव्य नामक एक कृति केरल है कि इस अवधि में तमिलनाडु के माथ केरल में भी के श्रीकृष्णलीला- शुक नामक लेख की मिलनी है । इसका जैन ग्रन्थो, स्मारको आदि को क्षति पहुची। इस कारण काल तेरहवी सदी बताया गया है। इसमे कुल बारह यह सामग्री बती नाव मे से बचा ली गई या बच गई सर्ग है जिनमे आठ स्वयं कानीलाशुक ने लिया है। समझना चाहिए। अनेक मन्दिरो के शिलालेख क्षतिग्रस्त इन सगर्गों में वररुचि के अनुसार प्राकन व्याकरण के हुए है किन्तु किस कारण से यह निश्चयपूर्वक नही कहा। नियम समझाए गए है। शेष नार सर्ग लेखक के शिष्य जा सकता। कुछ शब्दो के उदाहरण यहां प्राकृन से दुर्गाप्रसाद यति ने लिखे है। इन्होंने इस ग्रन्थ की भक्तिव्युत्पत्ति बताने के लिए दिये जाते हैं :
विलास नामक सस्कृत टीका भी लिखी है। कथावस्तु का अच्चन-एक सम्माननीय व्यक्ति, पिता, प्राकृत रूप सम्बन्ध कृष्ण ने है। उसके छन्दो मे "महाराष्ट्री (प्राक्त), अज्ज सम्माननीय व्यक्ति, पितामह या मातामह । शौरसेनी, मागधी और पैशाची" का प्रयोग हुआ है । इसमें
ओच्चयार-माननीया महिला, दे, दासो, प्राकृत कृष्ण द्वारा गाये चुरा लिए जाने जैसे प्रसंगो द्वारा प्राकन रूप अजिजअ (महाराष्ट्रीय प्राकृत मे) एक पतिव्रता स्त्री, ब्णकरण के नियम समझाए गए है। आर्या सस्कृत । इस शब्द पर डा० जोसेफ ने एक महत्व- सम्भवतः पन्द्रहवी सदी को एक रचना कण्णस्स पूर्ण टिप्पणी में लिखा है कि अच्चन का अर्थ पिता है किंतु पणिककर नामक कवि की है। जिसका नाम है-'कण्णस्सअच्चि शब्द का अर्थ बदल दिया गया। केरल के ब्राह्मण रामायणम्' । कवि सवणं नही था, इसलिए ब्राह्मणो को जिन स्त्रियो से विवाह करते थे उन्हे तो प्राकृत शब्द से अपना देवता बताते हुए इस रचना के लिए क्षमा-याचना सम्बोधित किया जाता था किन्तु केवल मलयालम जानने की है और भाषा की शुद्धता बनाए रखी है किन्तु उसमे वाली उनकी माताओं को 'अच्चि' नही कहा जाता था। भी कुछ प्राकृत शब्द आ गए है। किन्तु यह शब्द देवदासी का बोधक हो गया क्योकि वे
अज्ञात नतिरि ब्राह्मण ने 'कष्णगाथा' की रचना की देवदासियाँ ब्राह्मणों की रखैल आगे चलकर हो गई।
है। इसमे केरल की तत्कालीन बोल-चाल की भाषा का इयक्कि-यक्षी, प्राकृत रूप अविखणी।
प्रयोग अधिक किया है किन्तु इस कृति में भी प्राकृत शब्द कुट्टम् - कोह, प्राकृत रूप कुछ ।
आए हैं। कोवम् - क्रोध, प्राकृत रूप कोव ।
नीलकठ द्वारा रचित एक काव्य सत्रहवी सदी मे काबु-कावड़, प्राकृत रूप काव, कावड़ी। प्राकत मे 'सोरिचरित" नाम से उपलब्ध है। यह गाथाओ चोकि -योगी, प्राकृत रूप (जैन प्राकन मे) जोगि। के रूप मे है और अनुप्रास के कारण कुछ कठिन है । उपर्युक्त अध्ययन के अतिरिक्त डा. जोसेफ ने मल- इसलिए कवि के शिष्य कद्रदास ने इसकी संस्कृत टीका