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________________ अपभ्रश भाषा के प्रमुख जैन साहित्यकार : एक सर्वेक्षण लेखक -- जिनमती जैन एम. ए., प्राकृत शोध संस्थान वैशाली (बिहार) जनधर्म के मनीषियों ने विभिन्न भाषाओं में अपनी व्याकरणो के नियमों से बांध दिया तो उस समय जनकृतियां लिप्तकर भारतीय वङमय को मम्बधित किया साधारण जो भाषा बोनले हे वही अपभ्रश के नाम से है। मध्यकाल में विभिन्न प्राचार्या ने नमानीन अपभ्रश विख्यात हुई। अपभ्रण का माधारण अर्थ भ्रष्ट च्युत और भाषा को अपनी कृतियों को सपा को अपनाया है। छठी अशद होता है। भर्तहरि ने मतादीन शब्दों को अपशताब्दी से लेकर ई. मन .०वी शताब्दी तक जो जैन भ्रश कहा है। कुछ लोगों ने इसे ग्रामीण य. देशी भाषा साहित्य मृजित हुआ है उसकी भाषा अपभ्र श ही है। भी कहा है। अन कुछ विद्वानो ने हमे आभीरों की बोगी अपभ्रश का स्वरूप अपभ्र श भाषा मध्यकालीन माना है। डॉ. निसन ने स्थानीय प्राकृन को अपभ्र श भारतीय आर्य भापा के तनीय स्तर की प्राकृत भाषा भाषा वहा है। डॉ० हीरालाल जैन का मत है कि इस मानी जाती है। इस भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा भषा का सर्व प्रथम उल्लेख पातजल महाभाप मे जा सकता है कि जन प्रथम और द्वितीय र की प्राकृतो मिलता है । लेकिन यहां पर पातञ्जलि ने सस्कृत से ने साहित्य का रूप ले लिया और वैयाकरणो ने उन्हें अपभ्रष्ट शब्दों को अपभ्र शहा है। दण्डी ने संस्कृत के (पृ० ७ का शेषाश) अतिरिक्त अन्य सभी शब्दों को अपभ्रश माना है। भरत इनसे जैन राजाओं और जैन आचार्यों की परम्परा स्थापित मुनि ने अपभ्रंश भाषा को पार बहुला कहा है। जो करने में वडी सहायता मिली है। हो यह तो निश्चय ही है कि अपभ्र श भाषा जनसाधारण ___ काजू, काफी, नारियल, कालीमिर्च, सुपारी, इलायची का साली की भाषा थी। आज वह प्राकृत और आधुनिक हिन्दी आदि के सुन्दर वक्षो से हरी-भरी मोहः पहाडि और आदि भाषाओ की सेतु मानी जाती है। जोग मरने (९०० फुट ऊँचे से गिरने वाले) पर्यटक को प्रमुख अपभ्रंश भाषा के साहित्यकार-अपभ्रंश सहज ही आकर्षित करते हैं। भाषा मे जिन आचार्यों ने जैनधर्म के सिद्धान्तानुसार रचकर्नाटक में लगभग २०० स्थानों पर जैन तीर्थ मंदिर नाए का ह उनम चउमुख, द्राण, स्वयम्भू, त्रिभुवन, पुष्पया ध्वस्त स्थान है। दन्न, धवल, धनपाल, वीर, मुनि नबनन्दि, कनकामर, यद्यपि इस पुस्तक में प्रचुर मात्रा मे जैन धार्मिक योगेन्दु, रामसिंह, विवुध श्रीधर, रइधु और हरिदेव प्रमुख स्थानों और पुरातात्त्विक स्मारको का परिचय कराया साहित्यकार है। इनका सक्षिप्त परिचय निम्नांकित हैगया है, किन्तु उस । मुख्य उद्देश्य तीर्थयात्रियों चउमुख-च उमुख या चतुर्मुख अपभ्रश भाषा के के लिए एक उपयोगी निर्देशिका प्रस्तुत करना है। प्राचीनतम कवि हैं। इनका उल्लेख धवल, धनपाल बीर कर्नाटक कोपरासंपदा तिहासिक महत्त्व का भी कुछ प्रादि कवियों ने किया है। डा. देवेन्द्र कुमार शास्त्री ने दिग्दर्शन है। "अपभ्र श भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियां" नामक ___ सन्तोष की बात यह है कि कर्नाटक के विश्वविद्या- कृति में लिखा है कि चतुर्मख से पहिले गोविन्द नामक लयो और शोध-संस्थानोम अध्ययन और खोज प्रयत्न जारी कवि हुए थे, जिन्होंने अपभ्र श भाषा में कृष्ण विषयक हैं। बावजूद इसके कोई भी पुस्तक ऐतहासिक साक्ष्य की प्रबन्ध काव्य लिखा था। इस उल्लेख से ऐसा पता चलता की परिपूर्णता का दावा नही कर सकती। है कि चतुर्मुख गोविन्द के उत्तरवर्ती महाकवि हैं। चतुर्मुख
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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