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________________ दिल की गात दिल बेकही-और रो लिए! जब इस काल मे यहाँ से मोक्ष नही, तब केवलज्ञान की मात्र किसी एक पक्ष को लेकर ही न चला करें-आचार्यों सम्भावना कैसे ? और केवलज्ञान के दश-अतिशय उनमें के मूल शब्दार्थ पर चिन्तन कर ही बोला करे। किसने कब और कहाँ देखे ? आदि । इन विडम्बनाओं को वे बोले-हम तो कोई अपना पक्ष नही लेते, हम तो देखने से ऐसा भी सन्देह होने लगा है कि भविष्य में कहीं जिनवाणी के अनुसार ही व्याख्यान करते हैं। मुनियों की चार या पाँच जयन्तियां तक मनाना भी चालू हमने कहा-यदि ऐसा है तो आप कुन्दकुन्द स्वामी न हो जायं? लोगो का तो कहना है---इन जयन्तियों मे के समयसार की उस दूसरे नम्बर की गाथा को द्वितीय प्रभूत-द्रव्य का अपव्यय होता है। पर हम इससे उल्टा पक्ति की व्याख्या कीजिए, जो उन्होने 'पर-समय' की विचार कर चलते हैं-हमें द्रव्य के आय-व्यय की चिन्ता व्याख्या मे कही है-'पुगलकम्मपदेसटिठय च जाण परनहीं होती। द्रव्य तो पानी जानी चीज है, वह तो जैसे समयं ।' आया है वैसे ही जायगा, उसका क्या गम ? हमे तो दुःख उन्होने कहा-जो जीव (व्यक्ति) पुदगल कर्म प्रदेशों तब होता है जब हम आगम-रक्षा का लोप और श्रावक व मे-उनके फलों में, आपरा मानना है वह पर-समय (परमनियो द्वारा आगम-अ.ज्ञा का उलघन देखते-सुनते है। समयी) है। सम्भव है कि परिग्रह-संग्रही को आत्म-दर्शन कराने की हमने कहा-'जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी भाति यह भी कोई धर्म-मार्ग के धान का विडम्बना हा। पैठ'-कुछ पाने के लिए, गहरे पानी में गोता लगाना वैसे भी आज तो अनेक शोधक कुन्दकुन्दाद्याचार्यों की पड़ता पडता है-उसमे घुसना पडता है। समुद्र से मोतो निकलता कथनी के शुद्ध रूपो की खोज तक में लगे हैं। इसलिए है, गहरे पानी मे पैठने से---केवल पानी के ऊपर तैरने कई लोगो को तो आगम-रूपो पर सन्देह तक होने लगा से मोती नही निकलता। हमे आचार्यों के मल-शब्दार्थ के के कि आज जो आगम-रूप माना जाता है, कही वह पनसार वर्तत at विकत रूप तो नही है? वे इसी प्रतीक्षा में है कि जब ऊपर की गाथा की शब्दावली से तो कर्म या कर्मशुद्ध-रूप समक्ष आए, तब उस पर चलने का विचार किया फलो मे आपा मानने या आपा जानने जैसा भावात्मक जाय । सर्वज्ञ जाने, ये शोधक है या और कुछ क्रियारूप अर्थ प्रकट नही होता। वहाँ तो स्पष्ट रूप मे स्व-समय और पर-समय ? द्रव्यरूप-पुदगलकर्म प्रदेशो मे स्थितिमात्र की ही बात प्रकट ___ हम और आप दोनो ही इस मायने मे सदा भाग्य- होती है। वहाँ 'पुग्गलकम्मपदेसट्टिय' शब्द पुदगलरूप शाली रहे कि हमे और आपको कभी कोई अज्ञानी नही द्रव्य कमो को लक्ष्य कर रहा है और जहद्रव्य कर्मों मे टकराया--जो भी मिला वह बुद्धिमान ही मिला। कभी स्थित मात्र होना, आपा-पर मानने जैसे विकल्पो से सर्वथा किसी ने अपने को नासमझ रही समझा। चाहे लोग उसे विपरीत है। आपा-पर मानने जैसी क्रिया हो तो स्थिति रकमसले कहाँ ? स्थित होना और क्रिया होना दोनो परस्पर अज्ञानी भले ही समझते रहे हो। पर, किसी के समझने से तो कोई मूर्ख नही हो जाता; जब तक कि उसे अपनी विरोधी हैं। अत: वहाँ तो जीव यावत्काल पर द्रव्य को से बँधा है तावत्काल जीव पर-समय है। जब अज्ञानता का अनुभव स्वयं न हो। हमारी सतहत्तर वर्ष की उम्र में हमे बहु। से जान- यह रोधक-द्रव्य कमी से छुटकारा पाए सब स्व-समय होवे। कार मिले। उनमें कई ऐसे मिले जिन्होने अपने को गाथा का भाव स्पष्ट ऐमा जान पड़ता है कि जब विविध ग्रन्थों का गहन स्वाध्यायो होने का दावा तक तक यह जीव आत्मगुण घातक (घातिया) पोद्गलिक किया। हालांकि ऐसे विभिन्न विद्वानो मे भी आगमों के द्रव्यकर्म प्रदेशों में स्थित है-उनसे बधा है, तब तक यह मूलार्थ करने के विषय में भारी मत-भेद रहे। जीव पूर्णकाल पर-समयरूप है। मोह क्षय के बादहमने एक स्वाध्यायी और वाचक से कहा-कि हम केवलज्ञानी में ही स्व-समय जैसा व्यपदेश किया जा
SR No.538045
Book TitleAnekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1992
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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